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मैंग्रोव के निर्माण से लाभान्वित हो रहा गुजरात का तटीय समुदाय, आजीविका के साथ पर्यावरण को फायदा

नर्सरी से लाने के बाद पौधों को लगाते लोग। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे ।

नर्सरी से लाने के बाद पौधों को लगाते लोग। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे ।

  • गुजरात के भरूच जिले में कई प्रजातियों के मैंग्रोव को बचाने के लिए अभियान चल रहा है। स्थानीय समुदायों की यह पहल जोर पकड़ रही है।
  • इस पहल की मदद से समुद्र तटों के किनारे बायोशील्ड विकसित किया जा रहा है। इसके तहत मैंग्रोव और गैर-मैंग्रोव प्रजातियों के पौधे लगाए जा रहे हैं। समुद्र के किनारे मैंग्रोव, बीच में नमक प्रतिरोधी पेड़ और गांव के किनारे घास लगाए जा रहे हैं।
  • इस पहल को जलवायु परिवर्तन का कुदरती हल बताया जा रहा है। बायोशील्ड के कई लाभ हैं जिनमें कार्बन को अलग करना, तटीय गांवों में जलीय खेती और कृषि में सुधार के साथ चारे की उपलब्धता बढ़ाना शामिल है।

ऐसा लग रहा था कि यह दलदल कभी ख़त्म नहीं होगा। जब मैं घुटनों तक दलदल में चली गई, तो सिर्फ़ केकड़ ही मेरे साथ थे। मुझसे महज 10 फुट आगे चल रहे मेरे फील्ड गाइड की आवाज़ शोर और हवा के चलते धीमी हो गई थी। मेरे पास उनके साथ तालमेल बिठाने का कोई रास्ता नहीं था। यहां जूते बेकार थे। मैं उनसे बहुत पहले ही जुदा हो गई थी। हर बार जब मैं संतुलन खोती, तो मैंग्रोव के मजबूत तने मेरी मदद करते। मैं यहां मेंग्रोव को फिर से लगाने और संरक्षण के बारे में रिपोर्ट करने गई थी। और उन्होंने मेरे हर कदम पर पारिस्थितिकी तंत्र में अपनी भूमिका के सबूत दिए।

मैंग्रोव को समुद्र तट का रक्षक माना जाता है। उनके कई फ़ायदे हैं – वे कटाव रोकते हैं।  तूफान और चक्रवातों का असर कम करते हैं।  पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल करते हैंकार्बन को अलग करते हैं। इसके अलावा समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पोषण उपलब्ध कराते हैं। लेकिन एक बार खत्म हो जाने पर उन्हें फिर से लगाना टेढ़ा काम है।

इस दलदल में हर कुछ मीटर की दूरी पर पौधों पर कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े बंधे रहते हैं। मेरे मार्गदर्शक रमेश कोटेचिया ने कहा, “ये मैंग्रोव वृक्षारोपण श्रमिकों को पैदल रास्ता दिखाते हैं। दो किलोमीटर लंबे मैंग्रोव के बाद सिर्फ कीचड़ वाले मैदान ही थे। इतनी देर तक इंसानी बस्तियां नहीं थी लेकिन अब चारों तरफ मानवीय गतिविधियां दिख रही थीं।

लगभग 50 लोग, जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं, मिल-जुलकर बैठे  थे। दलदल में दबे पौधों वाले काले थैले खोदकर निकाले जा रहे थे। पौधों को ले जाने के लिए प्लास्टिक के जेरी कैन से बनी स्लेजों को खींचा जा रहा था। लोग पंक्तियों को चिह्नित करने के लिए झंडों के साथ इधर-उधर दौड़ रहे थे। यही नहीं उत्साही महिलाएं मैंग्रोव पौधे लगाने के लिए दलदल में गड्ढ़े कर रही थीं। हम सुबह 11 बजे गुजरात के भरूच जिले के देवजगन नाडा गांव में वृक्षारोपण वाली जगह पर पहुंचे थे। अरब सागर में ज्वार एक घंटे पहले ही उतरा था। ज्वार लौटने से पहले मजदूरों के पास मैंग्रोव लगाने के लिए सिर्फ तीन घंटे थे।

जिले में जंबुसर ब्लॉक के असरसा गांव की रमिला राठौड़ एक साल से इस इलाके में काम कर रही हैं। वह माल ढुलाई वाले वाहन से 12 किलोमीटर की यात्रा करके यहां पहुंचती हैं।  एक ऐसी जगह पर अपनी चप्पलें उतारती है, जहां से आगे कोई वाहन नहीं जा सकता। और हर दिन सात किमी पैदल चलकर वृक्षारोपण वाली जगह तक आती-जाती हैं। रमिला रोपाई के मौसम में हर दिन 250 रुपए कमाती हैं। इस तरह महीने में उनकी कमाई 7,500 रुपए बैठती है। उन्हें साल में छह महीने ये काम मिलता है। उनके सथ 31 लोग किराये वाले वाहन से यहां पहुंचते हैं। उन्हें हर महीने एक हजार रुपए किराया देना पड़ता है। उन्होंने कहा, यह मुश्किल काम है। कीचड़ खारा है।  हमें घंटों पानी में खड़े रहना पड़ता है। इससे त्वचा से जुड़ी समस्याएं भी होती हैं। लेकिन अब हमें इसकी आदत हो गई है।तम्बाकू में लिपटी उनकी मुस्कान के पीछे मुश्किलों का अंबार है। उन्होंने इससे भी बुरे दिन देखे हैं। पूछने पर रमिला ने बताया कि उन्हें घरों के लिए पानी लाने वाली पनिहारिनबनने की तुलना में पौधे लगाने का काम बेहतर लगता है। लगभग 10 साल पहले, वह एक जमींदार के घर पर बंधुआ मजदूर के रूप में काम करती थी। रमिला ने कहा, मुझे दूर-दूर के कुओं से घर तक पानी लाना पड़ता था। मुझे हर घड़े के लिए सिर्फ एक से दो रुपए मिलते थे।” 

ऐसे बनता है बायोशील्ड

साल 2016 से 2019 तक, जंबुसर समुद्र तट का एक किलोमीटर लंबा हिस्सा प्रयोग की एक जगह बन गया। हालांकि यह पूरे भारत में मैंग्रोव को फिर से लगाने से थोड़ा अलग था। विचार यह था कि समुद्र के किनारे मैंग्रोव की 50 मीटर की दीवार बनाई जाए, जिसमें 50 मीटर नमक प्रतिरोधी साल्वाडोरा पौधा (स्थानीय नाम पिलुडी), 50 मीटर चारा फसल (गुजराती में उन्थ मोराद) और फिर सुगंधित जड़ी-बूटियां और फलों के पेड़ हों। गांव की ओर, समुद्र और खेती के लायक जमीन के बीच एक 180 मीटर चौड़ी प्राकृतिक दीवार बनती है। अहमदाबाद स्थित एक गैर सरकारी संगठन विकास सेंटर फॉर डेवलपमेंट ने अपनी तकनीकी शाखा, सैलाइन एरिया वाइटलाइज़ेशन एंटरप्राइज लिमिटेड (सेव/SAVE) के साथ ये परियोजना शुरू की। इसके लिए धन की व्यवस्था अदानी फाउंडेशन से हुई।

सेव के प्रबंध निदेशक  राजेश शाह कहते हैं, इस दीवार को बायोशील्ड  के नाम से जाना जाता है। इससे कटाव को नियंत्रित करने के अलावा मछली पकड़ने और चारे की पैदावार बढ़ाने में मदद मिलती है। यहीं नहीं, यह खारी हवाओं को रोक कर उपज में सुधार करता है। शाह ने कहा,पहले, चक्रवात भारत के पूर्वी तट को ही प्रभावित करते थे। लेकिन हाल के समय में, अरब सागर में चक्रवातों की आवृत्ति बढ़ गई है। तट पर कमजोर समुदायों की आजीविका और पारिस्थितिकी से जुड़े संपत्तियों की सुरक्षा के लिए अनुकूलन परियोजनाओं को लागू करने की जरूरत है। बायोशील्ड्स इस उद्देश्य को पूरा करते हैं।

रोपाई वाली जगह तक पौधों को ले जाते मजदूर। तस्वीर-रवलीन कौर/मोंगाबे।
रोपाई वाली जगह तक पौधों को ले जाते मजदूर। तस्वीर-रवलीन कौर/मोंगाबे।

टांकारी के गणपत मकवाना ने इस साल मार्च में समुद्र से तीन किमी दूर अपने दो एकड़ के खेत से 2,800 किलो गेहूं काटा। मकवाना को गेहूं और चारे की बिक्री से 40,000 रुपये मिले। हालांकि आखिरी बार उन्होंने गेहूं की कटाई 10 साल पहले की गई थी। ऐसा इसलिए क्योंकि खारी हवाएं फसलों को बढ़ने ही नहीं देती थीं। मकवाना ने कहा,अगर समुद्री पानी आता है, तो लंबी अवधि तक कुछ भी नहीं उगता। हमने मानसून के बाद कपास उगाई, लेकिन कम पैदावार हुई क्योंकि नमक वाली हवाओं के कारण पौधे मुरझा गए। वृक्षारोपण के बाद इसमें कमी आई है। इस साल, मैंने खेत में सिर्फ दो बार सिंचाई करके कपास और फिर गेहूं की फसल ली। 

पायलट प्रोजेक्ट से उत्साहित होकर, सेव ने 2018 में जम्बूसर समुद्र तट के 66 किमी में से 18 किमी तक इस पहल का विस्तार किया। टंकरी के अलावा, देवला और नाडा देवजगन में दो वृक्षारोपण स्थलों पर पिलुडी वृक्षारोपण नहीं था, लेकिन 1000 से 2000 मीटर चौड़ी मैंग्रोव बेल्ट था। सेव के टेक्निकल एरिया समन्वयक कांति मकवाना ने कहा, टंकारी परियोजना से एक बात यह पता चली कि सुगंधित और फलों के पेड़ सभी स्थानों पर नहीं उग सकते। यहां तक कि घास वाली मिट्टी में उगने वाला पिलुड़ा भी हर जगह नहीं उग सकता। वृक्षारोपण की योजना बनाने के लिए मिट्टी की गुणवत्ता अहम है। वृक्षारोपण का यह चरण अब पूरा हो गया है और टीम 66 किमी के अन्य क्षेत्रों में रोपण के लिए आगे बढ़ गई है।

वहीं नाडा देवजागन में सीज़न का आखिरी वृक्षारोपण इस साल अप्रैल में हुआ था। इस इलाके में सेव के टेक्निकल एरिया समन्वयक कोटेचिया ने छह फीट ऊंचे मैंग्रोव के बीच में एक खाड़ी की ओर इशारा किया, जिसे हमने पार किया था। यह बागान पांच साल पुराना है। तब समुद्र यहीं तक हुआ करता था।हम अभी भी वर्तमान समुद्र तट से 1.5 किमी दूर थे। पांच सालों में, पौधों मे हुई बढ़ोतरी ने समुद्र को तीन किमी से ज्यादा दूर धकेल दिया। जिससे मिट्टी के नए मैदान बन गए, जिन पर रमिला और दोस्तों ने अब पौधे लगाए हैं।

पिछले साल अक्टूबर में तैयार नर्सरी से पौधे निकालते मजदूर। तस्वीर-रवलीन कौर/मोंगाबे
पिछले साल अक्टूबर में तैयार नर्सरी से पौधे निकालते मजदूर। तस्वीर-रवलीन कौर/मोंगाबे

जैसे ही हम पैदल आगे बढ़े, एक मछुआरा कृष्ण शांत मैंग्रोव से बाहर आया। उसने गर्व से हमें पकड़े गए केकड़े दिखाए। उसने कहा, ये चार किलो हैं। हर किलो के लिए मुझे 140 रुपये मिलते हैं। दोपहर तक, मैं लगभग सात किलो केकड़े पकड़ लूंगा।” 

मडफ्लैट में पाई जाने वाली मछली मडस्किपर एक और स्वादिष्ट व्यंजन है। एक अन्य वृक्षारोपण स्थल देवला के मछुआरे बुद्ध राठौड़ ने कहा, हम इसे 100 रुपये प्रति किलो में बेचते हैं। वे 12 किमी दूर मालपुर गांव से आए थे। उन्होंने कहा,मैंग्रोव आने से पहले इस जगह पर बहुत कम मछलियां थीं। पर्याप्त मछलियां पकड़ने के लिए हम 18 किमी दूर तक जाते थे। लेकिन मैंग्रोव बढ़ने के बाद, हमें यहीं लगभग छह किलो मछली मिल जाती है।” 

हालांकि, मालपुर के उनके साथी मछुआरे रमेश नाना भाई नाराज हैं। उन्होंने कहा, “समुद्र की दूरी बढ़ गई है और मैंग्रोव के बीच चलने में काफी समय लगता है।” जो लोग नाव पर नहीं बल्कि पैदल चलकर मछली पकड़ते हैं, उन्हें गुजरात में पगडिया मछुआरे के रूप में जाना जाता है। जंबूसर में, पगडिया दो प्रकार के होते हैं – वे जो कीचड़ में मछली पकड़ते हैं और वे जो समुद्र में जाते हैं और खंभों पर लंबवत जाल डालते हैं। आने वाला ज्वार मछलियां लाता है जो जाल में फंस जाती हैं।

जम्बूसर में एक अन्य गैर सरकारी संगठन जनविकास के ट्रस्टी जयसिंग ठाकोर ने कहा, “लोग समुद्र तक आसानी से पैदल जा सकें, इसके लिए वृक्षारोपण के बीच खाली जगह छोड़ी जानी चाहिए। इस तरह, मैंग्रोव को मानवीय हस्तक्षेप से भी बचाया जाएगा।उनका संगठन मैंग्रोव को फिर से लगाने के लिए काम करता है।

जंबूसर में बनाई गई नर्सरी में पौधे। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।
जंबूसर में बनाई गई नर्सरी में पौधे। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।

जंबूसर में रमीला और बुद्ध राठौड़ वाले एक अन्य समुदाय राठौड़ में मुख्य रूप से भूमिहीन मजदूर शामिल हैं। उनका मुख्य व्यवसाय नमक पैन का काम, खेतों में मजदूरी और मछली पकड़ना है। शाह ने समझाया, “जंबूसर में बारिश के समय होने वाली खेती में बहुत ज्यादा कटाव और लवणता होती है। पिछले 30 सालों में, यहां 22 बार सूखा पड़ा, जिससे लोगों को खेती पर बहुत कम फायदा हुआ।

राठौड़ को कभी ऐसा काम नहीं मिला, जिसमें नियमित आय हो। इससे उन्हें कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसे वे कभी नहीं चुका पाए। इस तरह, जमींदारों के बंधन में बंध गए। पुरुष कृषि श्रमिक (चाकर) के रूप में और महिलाएं पानी लाने वाली पनिहारिन के रूप में काम करती थीं। 

उन्होंने कहा, “1978 में, जब मैंने यहां काम शुरू किया, तो उन्हें प्रति दिन 1.5 रुपये का भुगतान किया जाता था। 10% ब्याज दर वाला कर्ज उन्हें कभी गरीबी के जाल से बाहर नहीं निकलने देता। तभी मुझे गरीबी और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के बीच संबंध का अहसास हुआ।

जंबुसर में मैंग्रोव को फिर से लगाने वाली परियोजनाओं ने 15 तटीय गांवों में राठौड़ समुदाय के 600 लोगों को रोजगार दिया है। ये लोग 3,000 परिवारों से जुड़े हैं। ठाकोर ने बताया,मैंग्रोव वृक्षारोपण ने उन्हें अल्पकालिक आजीविका के साथ-साथ मछली पकड़ने और चारे की उपलब्धता में बढ़ोतरी जैसे दीर्घकालिक लाभ भी दिए हैं। बहुत से लोग गर्मियों में मैंग्रोव की पत्तियों की कटाई करते हैं। इस मौसम में कोई अन्य चारा उपलब्ध नहीं होता है। पिलुडी एक तिलहन है जिससे औषधीय काम के लिए तेल निकाला जाता है। स्थानीय बाज़ार में ही, इन बीजों की दर 50 रुपये प्रति किलो है।

एक साल पुराने मैंग्रोव के पौधे। फोटो रवलीन कौर/मोंगाबे।
एक साल पुराने मैंग्रोव के पौधे। फोटो रवलीन कौर/मोंगाबे।

इस साल मई में, सेव ने गुजरात तट के साथ सभी संभावित क्षेत्रों में मैंग्रोव लगाने के लिए गांधीनगर स्थित गुजरात पारिस्थितिकी आयोग (जीईसी) और जर्मन कार्बन ट्रेडिंग फंड गुड कार्बन के साथ साझेदारी की। शाह ने बताया,हमने एक व्यवहार्यता अध्ययन किया और 40 संभावित स्थल और 20,000 हेक्टेयर क्षेत्र ऐसा पाया, जहां बायोशील्ड लगाए जा सकते हैं। इस परियोजना को गुजरात की बड़ी हरित दीवार कहा जाता है।

गुड कार्बन, प्रकृति आधारित कार्बन के बेहतर समाधान परियोजनाओं से कार्बन क्रेडिट के लिए डील करती है। गुड कार्बन के क्षेत्रीय निदेशक (एशिया) चिन्मय थोंसे ने मोंगाबे इंडिया को एक ईमेल के जवाब में बताया, “द ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ गुजरात” में भारत से निकलने वाली सबसे बड़ी ब्लू कार्बन परियोजना होने की क्षमता है जो जलवायु परिवर्तन लचीलापन निर्माण में अहम भूमिका निभाएगी। जलवायु और जैव विविधता लाभों के साथ-साथ, इस परियोजना में हाशिए पर रहने वाले तटीय समुदायों की भागीदारी वास्तव में इसका सबसे बड़ा लाभ है। इन समुदायों को भविष्य की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं से लाभ होगा  और कार्बन राजस्व क्षेत्र में आगे सामुदायिक विकास को वित्तपोषित करेगा।

क्या बायोशील्ड प्रभावी हैं?

कोलकाता स्थित जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओशनोग्राफिक स्टडीज के प्रोफेसर सौगत हाजरा कहते हैं, भारत के दक्षिणी तट पर साल 2004 की सुनामी के बाद बायोशील्ड का विचार तेजी से आगे बढ़ा। उन्होंने कहा,अलग-अलग प्रकार की प्रजातियों वाला बायोशील्ड निश्चित रूप से जैव विविधता लाने और तटीय समुदायों के लिए आजीविका के अवसर पैदा करने में मदद करता है। लेकिन चक्रवातों से बचाने के लिए, मैंग्रोव को लंबा और मोटी बेल्ट में होना चाहिए, जो कि गुजरात में नहीं है। एक मोटी बेल्ट तरंग वेग को 40-45% तक कम कर सकती है।

1600 किलोमीटर वाला गुजरात का तट भारतीय राज्यों में सबसे लंबा है। यह पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के बाद दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। हालांकि, गुजरात में मैंग्रोव का मुख्य इलाका यानी अंतर-ज्वारीय क्षेत्र तीन से चार किमी तक चौड़े हैं, जिसका मतलब है कि घने सुंदरबन की तुलना में यहाँ मैंग्रोव एक खुला जंगल है। इसके अलावा, सुंदरबन के डेल्टा वाले मैंग्रोव के विपरीत, गुजरात में वे उतने ऊंचे नहीं हैं। गुजरात इकोलॉजिकल एंड एजुकेशनल रिसर्च (जीईईआर) फाउंडेशन, गांधीनगर के पूर्व निदेशक आरडी कंबोज ने कहा, ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे पास भारत के पूर्वी तट की तरह मीठे पानी का जरिया नहीं है। मैंग्रोव को खारे और मीठे पानी के संतुलन की आवश्यकता है। 


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जीईसी के सदस्य-सचिव महेश सिंह ने कहा कि मैंग्रोव की कम ऊंचाई को ध्यान में रखते हुए, गुजरात के कई हिस्सों में कैसुरीना और साल्वाडोरा जैसे लंबे मैंग्रोव सहयोगी (पेड़ जो खारी मिट्टी में जीवित रह सकते हैं लेकिन मैंग्रोव की तुलना में कम ज्वारीय बाढ़ की ज़रूरत होती है) को दूसरी पंक्ति के रूप में लगाया गया है। सिंह ने कहा,लेकिन ऐसी परतें केवल उन जगहों पर ही संभव हैं जहां मिट्टी के बड़े मैदान हैं। उदाहरण के लिए, कच्छ में यह संभव नहीं है, जहां राज्य का 71% मैंग्रोव क्षेत्र है।

हाजरा ने कहा, बायोशील्ड को उन क्षेत्रों में लागू किया जाना चाहिए जहां बड़े पैमाने पर मैंग्रोव में कमी आई है। जैसे कि सुंदरबन के 5,000 वर्ग किमी क्षेत्र में, जिसे अंग्रेजों ने नष्ट कर दिया था। उन्होंने दावा किया,वहां के मैंग्रोव केवल बाघों की रक्षा कर रहे हैं। सुंदरबन में रहने वाले लोग ख़राब मैंग्रोव वाले क्षेत्र में हैं।

इस साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर, मैंग्रोव इनिशिएटिव फॉर शोरलाइन हैबिटेट्स एंड टैंगिबल इनकम (MISHTI) कार्यक्रम के तहत भारत के नौ राज्यों में मैंग्रोव वाली 75 जगहों पर पौधे लगाने का अभियान आयोजित किया गया था। इस साल के केंद्रीय बजट में मैंग्रोव वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए यह कार्यक्रम घोषित किया गया था। हाजरा का कहना है कि MISHTI का विचार पश्चिम बंगाल में एक महिला स्वयं सहायता समूह से आया था, जिसने मैंग्रोव बहाली के लिए नरेगा फंड का इस्तेमाल किया था। उन्होंने कहा, “वास्तव में, MISHTI को बायोशील्ड्स जैसे कार्यक्रमों का समर्थन करना चाहिए ताकि लोग पारिस्थितिक बहाली से कमाई कर सकें।”

मैंग्रोव को फिर से लगाना वास्तव में कठिन काम है। लेकिन जंबूसर के लोग चुपचाप एक-एक पौधा लगाकर इसे संभव बना रहे हैं।

 

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बैनर तस्वीर: नर्सरी से लाने के बाद पौधों को लगाते लोग। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे ।

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