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[साक्षात्कार] नागालैंड की झूम खेती, रिसर्च में पारंपरिक ज्ञान पर संरक्षण वैज्ञानिक जॉली रूमी बोरा से बातचीत

स्थानीय निवासी अलेम्बा के साथ फाकिम सामुदायिक रिजर्व में फील्डवर्क का आयोजन। तस्वीर - जॉली रूमी बोरा 

स्थानीय निवासी अलेम्बा के साथ फाकिम सामुदायिक रिजर्व में फील्डवर्क का आयोजन। तस्वीर - जॉली रूमी बोरा 

  • संरक्षण से जुड़े उपायों पर काम करने वाली वैज्ञानिक जॉली रूमी बोरा कहती हैं कि नागालैंड में झूम खेती ने कार्बन स्टॉक और पक्षियों में विविधता के ज़रूरी स्तर को बनाए रखा।
  • खेती लायक जमीन की कमी और फसल की घटती पैदावार से निपटने के लिए किसान लगातार नए तरीके अपना रहे हैं और खेती के तरीक़ों में सुधार कर रहे हैं।
  • नागालैंड में खेती के बदलते परिदृश्य में किसी भी संरक्षण उपाय को खेती के इस तरीके की गतिशील प्रकृति और इसके सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य को पहचानने की जरूरत है।
  • मोंगाबे-इंडिया को दिए साक्षात्कार में बोरा ने विज्ञान को अधिक सुलभ और समावेशी बनाने के लिए स्थानीय समुदायों के ज्ञान को अनुसंधान में शामिल करने, जैव-सांस्कृतिक विविधता और स्थानीय भाषा में विज्ञान संचार को अपनाने के महत्व की बात की।

संरक्षण उपायों पर काम करने वाली जॉली रूमी बोरा ने पढ़ाई-लिखाई के दौरान सुना था कि झूम खेती आदिम और अस्थिर है।  असम में जन्मी इस शोधकर्ता ने झूम खेती पर अपना डॉक्टरेट करने के लिए नागालैंड में कदम रखने से पहले अपने तरीकों को अच्छी तरह समझ लिया था। लेकिन उनका अनुभव रियलिटी चेक की तरह था।

स्थानीय समुदायों के साथ हुए अनुभवों से उनकी सामान्य जानकारी को चुनौती मिली कि झूम खेती “ठहराव वाली” या पारंपरिक नहीं थी। इसने पूर्वोत्तर भारत के नागालैंड में पारंपरिक, गैर-गहन झूम खेतों में कार्बन स्टॉक और पक्षियों में विविधता के ज़रूरी स्तर को बनाए रखा।

नागालैंड के फकीम वन्यजीव अभयारण्य में अपना फील्डवर्क करती बोरा। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा की तरफ से 
नागालैंड के फकीम वन्यजीव अभयारण्य में अपना फील्डवर्क करती बोरा। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा की तरफ से

फिलहाल कनाडा में अल्बर्टा की सरकार में वरिष्ठ वन्यजीव विज्ञानी बोरा कहती हैं, “किसान लगातार अपने तरीकों में सुधार कर रहे हैं”, ताकि खेती लायक जमीन में आ रही कमी और फसल की घटती पैदावार की समस्या का हल निकाला जा सके। उदाहरण के लिए, खोनोमा गाँव में अंगामी नागा जनजाति ने एल्डर के पेड़ों को बचाने और उनके नाइट्रोजन स्तर को बनाए रखने में मदद के लिए एल्डर पेड़ों की छंटाई के तरीकों को इनोवेट किया, जो परती जमीन को खेती के लायक बनाता है।

कोहिमा जिले के जुलेके गांव में सीढ़ीदार खेती, परती भूमि और पुराने जंगल। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।
कोहिमा जिले के जुलेके गांव में सीढ़ीदार खेती, परती भूमि और पुराने जंगल। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।

“उस ज्ञान का पता लगाने (किसान जब अपने तरीकों को इनोवेट करते हैं) और उसे बेहतर ढंग से एक साथ काम में लाने की बहुत ज्यादा गुंजाइश है। यह सिर्फ मेरे ज्ञान को बढ़ाने वाला, सीखने लायक और शोधकर्ता के रूप में मेरे विकसित होने की यात्रा थी। स्वदेशी मूल की बोरा कहती हैं, पारंपरिक ज्ञान और पश्चिमी ज्ञानके बीच जुड़ाव नहीं है, जैसा कि हम इसे कहते हैं।

वह कहती हैं, “उपयुक्त जगहों पर क्षेत्र के अन्य झूम किसानों के बीच इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार, ऐसे इनोवेशन को दोहराने में मदद करेगा।” वह पूर्वोत्तर में किसानों द्वारा झूम इनोवेशन पर आने वाली किताब में एक अध्याय के बारे में मोंगाबे-इंडिया के साथ बात करते हुए कहती हैं, जहां नीतियां तेजी से झूम खेती के बदले वाणिज्यिक खेती और वृक्षारोपण को बढ़ावा देती हैं।

नागालैंड के फेक जिले के झूम खेत में पेड़ और जले हुए लट्ठ। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।
नागालैंड के फेक जिले के झूम खेत में पेड़ और जले हुए लट्ठ। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।

इस खास संदर्भ को स्पष्ट करने के लिए हाल में उनका एक पेपर भी प्रकाशित हुआ है। इस पेपर में झूम खेती को शिफ्ट करने की आठ वजहों औऱ इसके नतीजों की समीक्षा की गई है। यह पेपर लोगों और प्रकृति के लिए काम आने वाली भूमि प्रणाली नीतियों को डिजाइन करते समय “निरंतरता के महत्वपूर्ण और प्रासंगिक मूल्यांकन के साथ-साथ झूम खेती को संक्रमण से दूर करने पर जोर देता है।”

वह जोर देकर कहती हैं कि नागालैंड जैसे खेती के बदलते परिदृश्य में किसी भी संरक्षण कार्रवाई को खेती के इस तरीके की गतिशील प्रकृति और इसके सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य को पहचानने की जरूरत है।” खेती के ये तरीके पहाड़ी क्षेत्रों में भारी बारिश और पर्यावरणी की परिस्थितियों के अनुकूल हैं। साथ ही कॉफी या ऑयल पाम जैसे मोनोकल्चर की तुलना में पर्यावरण और जैव विविधता के लिए कम हानिकारक हैं। इसलिए वाणिज्यिक खेती को बढ़ावा देने के बदले वनों और जैव विविधता को बचाने वाली झूम खेती के प्रभावी प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए नीतियों की तुरंत जरूरत है।

बोरा ने शेफ़ील्ड विश्वविद्यालय में अपनी पीएचडी रिसर्च के लिए (2014-2018) नागालैंड में झूम खेती का अध्ययन किया। महीनों तक नागा समुदायों के साथ समय बिताने के दौरान, उन्होंने देखा कि यह एक-दूसरे से सीखने की पारस्परिक प्रक्रिया थी। वह स्वीकार करती हैं, “हम उस खुली मानसिकता के साथ आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करते हैं… न केवल हमारे पास जो ज्ञान है, उसे व्यक्त करने के लिए, बल्कि समुदायों से सीखने के लिए भी।” 

फकीम गांव में झूम खेती पर किसानों से चर्चा करती हुई बोरा। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।
फकीम गांव में झूम खेती पर किसानों से चर्चा करती हुई बोरा। तस्वीर- जॉली रूमी बोरा।

बोरा ने चीजों को किस तरह अलग तरीके से किया होगा? शायद उन्होंने शोध के लिए कॉसेप्ट नोट बनाते समय उनकी राय को इसमें शामिल किया होगा।

“मैंने पूछा आपकी राय (रिसर्च आइडिया पर) क्या है क्योंकि आप ऐसे लोग हैं जो युगों से इन खेतों में काम कर रहे हैं और मैं आपकी प्राथमिकताओं और रिसर्च जरूरतों के बारे में जानना चाहती हूं।”

नागालैंड में खेती की झूम प्रणाली के बारे में बहुत कम जानकारी रखने वाली बोरा कहती हैं, “मैं इसकी बड़ी समर्थक हूं। अगर हम स्थानीय समुदायों के साथ कोई सार्थक सहयोग करना चाहते हैं, तो हमें उस प्रक्रिया को वास्तव में विचार-मंथन के चरण में ही शुरू करने की जरूरत है, न कि तब जब आपके पास पहले से ही पूरे शोध की योजना है।” वह इस शोध के लिए साइट की पहचान करने और डेटा संग्रह में स्थानीय समुदायों के मदद और मार्गदर्शन पर पूरी तरह से निर्भर थी। वह नागालैंड में 11 महीनों के दौरान कम से कम 50 अलग-अलग फील्ड असिस्टेंट के साथ काम करने की बात स्वीकार करती हैं।

उनके पीएचडी शोध पर 2022 में एक पेपर प्रकाशित हुआ। इसमें समावेशी विज्ञान संचार के लिए नागामीज़ भाषा में सार भी दिया गया है।  बोरा ने मौजूदा समय और अलग-अलग सालों में झूम खेती के लिए परती जमीन को तैयार करने के लिए, झूम खेती के चक्र के दौरान पक्षियों की विविधता की तुलना की। इसमें वह जंगल भी शामिल था, जिसे झूम खेती के लिए साफ नहीं किया गया था। 

उन्होंने नागालैंड में कोहिमा, किफिरे और फेक जिलों में झूम खेती की पड़ताल की। यह इसलिए अहम है क्योंकि तीनों जिलों में तीन अलग-अलग जनजातियां- अंगामी, यिमचुंगेर और पोचुरी रहती हैं। झूम खेती करने का इनका तरीका भी अलग-अलग है। 

वह कहती हैं, “फकीम वन्यजीव अभयारण्य और सामुदायिक वन मेरे अध्ययन में नियंत्रण वाली जगहें थी। इसलिए, ये प्राकृतिक वास पक्षी विविधता की तुलना के लिए बहुत प्रासंगिक हैं।वह कहती हैं कि खेत और परती जमीन को खेती लायक बनाना सर्दियों में अलग-अलग तरह की पक्षियों की प्रजातियों को मदद पहुंचाता है। इनमें कई ऐसी प्रजातियां शामिल हैं जो प्रजनन के मौसम (ग्रीष्म) के दौरान पुराने वनों पर निर्भर रहती हैं।

बोरा बताती हैं, “इस अध्ययन के नतीजे संरक्षण हस्तक्षेपों में सभी के लिए काम आने वाले हैं। इनसे यह भी पता चलता है कि आरईडीडी+ (REDD+) या किसी भी संरक्षण हस्तक्षेप के लिए कार्बन और जैव विविधता के लाभों को संतुलित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि कार्बन गतिशीलता के विपरीत, भूमि उपयोग परिवर्तन के लिए जैव विविधता प्रतिक्रियाएं समय और स्थान के हिसाब से अलग-अलग हो सकती हैं।

इसी जानकारी के साथ वह आगाह करती हैं कि अगर आरईडीडी+ तंत्र को सावधानी के साथ डिजाइन नहीं किया गया, तो नकारात्मक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के चलते “संभावित रूप से इन किसानों की मुश्किलें बढ़ा सकता है।”

उदाहरण के लिए, झूम खेती से पूरी तरह से हटना व्यवहार्य नहीं होगा क्योंकि सीमित बाजार पहुंच वाले इन क्षेत्रों में चावल और मक्का जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों का उत्पादन किसानों के लिए जरूरी है। “इसी तरह, खेती के बदलते परिदृश्य में जटिल भू-काश्तकारी प्रणाली वाले समुदायों के बीच समान लाभ साझा करना मुश्किल बना देगा। इसलिए, आरईडीडी+ को लागू करने के लिए नीति निर्माण और निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्वदेशी लोगों को शामिल करना और उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा को पक्का करना अहम है।

मोन जिले के परती जंगलों से जलाने के लिए लकड़ी ले जाते झूम किसान। बोरा का मानना है कि नीति बनाने में स्थानीय लोगों को शामिल करना और उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा पक्का करना आरईडीडी+ को लागू करने के लिए जरूरी हैं। तस्वीर - जॉली रूमी बोरा।
मोन जिले के परती जंगलों से जलाने के लिए लकड़ी ले जाते झूम किसान। बोरा का मानना है कि नीति बनाने में स्थानीय लोगों को शामिल करना और उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा पक्का करना आरईडीडी+ को लागू करने के लिए जरूरी हैं। तस्वीर – जॉली रूमी बोरा।

ब्रह्मपुत्र घाटी में असम के उत्तरी लखीमपुर में बचपन बिताते हुए बोरा का जमीन और प्रकृति से गहरा जुड़ाव हो गया। बाद में यही संबंध भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) में मास्टर कोर्स के लिए आवेदन करते समय विकास के साथ संरक्षण के सामंजस्य पर उनके निबंध में काम आया होगा।

वह उस सोच को साझा करती हैं जिसने उनके निबंध को आकार दिया। “हम प्रकृति को एक अलग इकाई मानकर बात नहीं कर सकते। हम सभी अलग-अलग तरीकों से आपस में जुड़े हुए हैं। तो, यह जंगल के इस हिस्से या जंगल के उस हिस्से और उससे जुड़ी हर चीज की रक्षा करने और उसे अलग रखने के बारे में नहीं है। यह प्रकृति से उस संबंध या सामान्य रूप से भूमि से संबंध को बहाल करने के लिए इसे अपने दैनिक जीवन में शामिल करने के बारे में है। 

देहरादून में भारतीय वन्यजीव संस्थान में अध्ययन के लिए वह पहली बार असम से बाहर गई थीं। इस दौरान उन्होंने मैंग्रोव में निवास करने वाली चार किंगफिशर प्रजातियों के बीच संसाधन को बांटने के लिए ओडिशा में भितरकनिका मैंग्रोव में काम किया। कोर्स पूरा करने के बाद नौकरी की संभावनाएं खुल गईं लेकिन वह जानती थीं कि वह पूर्वोत्तर भारत में काम करना चाहती हैं। उन्होंने कहा, “मैं और अधिक अनुभव प्राप्त करना चाहती थी, ताकि मैं अपने खुद के पीएचडी प्रोजेक्ट के लिए अपने विचारों को विकसित कर सकूं।” 

इसलिए वह पूर्वी हिमालय में पक्षी समुदायों पर काटी गई लकड़ियों के असर को समझने के लिए दो साल के लिए नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज में परियोजना सहायक के रूप में काम करने चली गईं। मिस्ट-नेटिंग और पक्षियों को मापने पर उनका फील्डवर्क ईगलनेस्ट वन्यजीव अभयारण्य जंगल के आसपास रहने वाली स्वदेशी बुगुन और शेरडुकपेन प्रजातियों पर था।

ईगलनेस्ट वन्यजीव अभयारण्य में बैंडिंग पक्षी। तस्वीर - जॉली रूमी बोरा 
ईगलनेस्ट वन्यजीव अभयारण्य में बैंडिंग पक्षी। तस्वीर – जॉली रूमी बोरा

यह ईगलनेस्ट के पास पक्षी की एक नई प्रजाति बुगुन लियोसिचला की खोज के कई साल बाद की बात है। इस खोज ने बुगुन्स के क्षेत्र की छोटी जनजाति को अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया, जिससे सामुदायिक पक्षी इकोटूरिज्म व्यवसाय को बढ़ावा मिला, और दुर्लभ पक्षी को शरण देने वाले जंगल की रक्षा के लिए छोटे संरक्षण कामों की श्रृंखला शुरू हुई। “मुझे यह देखने को मिला कि किस तरह समुदाय सभी तरह के फैसले लेने में इतनी निकटता से शामिल था और किस तरह उन्होंने जैव विविधता हॉटस्पॉट के संरक्षण के लिए सरकार और वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम किया। हमें काम जारी रखने के लिए आपसी विश्वास और आदर के आधार पर स्थानीय समुदाय के साथ अच्छा रिश्ता बनाना था। 

उन्हें स्थानीय समुदायों के साथ दीर्घकालिक संबंध और सहयोग विकसित करने के लिए अनुभव मिला क्योंकि उनके बिना फील्डवर्क संभव नहीं था। पिछले एक दशक में, उन्होंने इसे अपने क्षेत्र-आधारित अनुभवों और शोध पर ब्लॉग (पक्षियों को कैसे देखें; गौरैया के लिए एक दिन) और अपनी असमिया भाषा में विकिपीडिया (प्रकृति से संबंधित विषयों पर 500 से अधिक लेख) के जरिए हाइलाइट किया है। 

फाकिम में समुदाय की बैठक की तस्वीर। तस्वीर - जॉली रूमी बोरा ।
फाकिम में समुदाय की बैठक की तस्वीर। तस्वीर – जॉली रूमी बोरा ।

उन्होंने आउटरीच कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया है (जैसे कि आयरलैंड में वन्यजीव अनुकूल खेती पर किसानों के साथ) और ऐसा करना जारी रखा है। विज्ञान में भाषा के लिए आउटरीच उनके अभियान भारतीय वन्यजीव संस्थान में स्नातकोत्तर अध्ययन के दौरान अंग्रेजी में वैज्ञानिक शब्दावली और अवधारणाओं को फिर से सीखने में उनके व्यक्तिगत संघर्ष से आता है। असमिया भाषा में उनकी स्कूली शिक्षा के बाद हुआ बदलाव जहां उन्होंने अपनी मातृभाषा में इन अवधारणाओं को सीखा था।

और तब से, मैं इस बात से पूरी तरह वाकिफ रही हूं कि कैसे उस विविधता के न होने से यह लोगों के लिए खास हो जाता है। बस भाषा से जुड़ी यही दिक्कत अन्य लोगों के लिए उस जानकारी तक पहुँच को इतना कठिन बना देता है।

कनाडा में, वह जैव-सांस्कृतिक विविधता के सिद्धांत और व्यवहार से अवगत हुई।

आखिर में वह कहती हैं, “यह इस विचार से आता है कि लोग प्रकृति का हिस्सा हैं और जैविक, सांस्कृतिक और भाषाई विविधता गहराई से आपस में जुड़े हुए हैं और पारस्परिक रूप से सहायक हैं। इसलिए, हमें उन्हें समग्र रूप से जैव-सांस्कृतिक विविधता के रूप में देखना होगा, अलग-अलग संस्थाओं के रूप में नहीं। इन जटिल संबंधों को परिभाषित करने वाले संरक्षण में जैव-सांस्कृतिक दृष्टिकोण प्रभावी और न्यायपूर्ण संरक्षण परिणामों के लिए जरूरी हैं। और यह हमें स्थानीय समुदायों में वापस ले जाते हैं जिनके पास वह ज्ञान है और उस काम को आगे बढ़ा रहे हैं।” 

 

इस साक्षात्कार को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: स्थानीय निवासी अलेम्बा के साथ फाकिम सामुदायिक रिजर्व में फील्डवर्क का आयोजन। तस्वीर – जॉली रूमी बोरा 

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