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[वीडियो] नहरों के ऊपर सोलर पैनल: पर्यावरण के लिए अच्छा लेकिन मुनाफे का सौदा नहीं

चूंकि नहरें दूरदराज के इलाकों तक पहुंचती हैं, इसलिए उन इलाकों में किसानों को सिंचाई पंप चलाने के लिए बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।

चूंकि नहरें दूरदराज के इलाकों तक पहुंचती हैं, इसलिए उन इलाकों में किसानों को सिंचाई पंप चलाने के लिए बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।

  • सौर नहरें ऐसी नहरें होती हैं जिनके ऊपर सौर पैनल लगाए जाते हैं। इससे पैनल की क्षमता बढ़ती है और वाष्पीकरण और भूमि के उपयोग में कमी आती है।
  • गुजरात ने लगभग 11 साल पहले नहरों पर सौर पैनल लगाने की अवधारणा को आगे बढ़ाया था। लेकिन इसकी प्रगति बड़े सौर पार्कों की तुलना में धीमी है।
  • इस उद्योग के जानकारों का कहना है कि ढांचा खड़ा करने में आने वाली ज़्यादा लागत इस क्षेत्र के लिए सबसे बड़ी बाधा है।
  • हालांकि, इस व्यवस्था में निवेश का हिसाब लगाते समय इससे पर्यावरण को मिलने वाले फायदों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।

गुजरात के मेहसाणा जिले में यात्रा करते हुए जैसे ही कोई मुड़ता है, पीले लैंडस्केप में नीले रंग की एक लकीर दिखती है। धूल की सूखी गंध व्यक्ति को आगे के शुष्क क्षेत्र के बारे में सचेत करती है। साथ ही, तापमान इस इलाके में आने वाली गर्मियों का संकेत देता है। जल्द ही, नीली लकीर इस्पात की घनी आड़ी-तिरछी रेखाओं के साथ धूसर हो जाती है। यह साणंद शाखा नहर का 750 मीटर का विस्तार है, जो सरदार सरोवर परियोजना का हिस्सा हैनहर के ऊपर सौर पैनल हैं और इनकी क्षमता एक मेगावाट है। पश्चिमी भारत के चंद्रासन गांव में स्थित इस पायलट सेट-अप को दुनिया का पहला कैनाल-टॉप, यानी नहर के ऊपर स्थापित किया गया, सौर इंस्टॉलेशन माना जाता है।

साल 2012 के अप्रैल महीने में गुजरात के तत्कालनी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (अब प्रधानमंत्री) द्वारा लॉन्च की गई कैनाल टॉप फोटोवोल्टिक तकनीक (सीटीपीवी) ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबका ध्यान खींचा था। उन्होंने 24 अप्रैल, 2012 को उद्घाटन के अवसर पर कहा था, सौर ऊर्जा प्लांट के लिए बहुत ज़्यादा जमीन की जरूरत होती है। इस इनोवेशन से हमें जमीन की जरूरत नहीं पड़ेगी। ट्रांसमिशन लागत भी कम हो जाएगी क्योंकि नहरें गांवों के पास हैंइसलिए उपभोक्ता भी वहीं हैं। सीटीपीवी से बिजली उत्पादन बेहतर है क्योंकि पैनल नीचे बह रहे पानी से ठंडे रहते हैं। इन फायदों के साथ, आने वाले समय में सीटीपीवी से बिजली उत्पादन सबसे सस्ता हो जाएगा।”

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पायलट प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने का जिम्मा संभालने वाली राज्य के स्वामित्व वाली कंपनी गुजरात स्टेट इलेक्ट्रिसिटी कॉर्पोरेशन लिमिटेड (जीएसईसीएल) का दावा है, “पायलट प्रोजेक्ट आगे बढ़ाने से शाखा नहरों के सिर्फ 10% इस्तेमाल से 2200 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है।” साणंद शाखा नहर, सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) परियोजना का हिस्सा है, जो 63,546 किलोमीटर के साथ राज्य का सबसे लंबा नहर नेटवर्क है। जानकारों का कहना है कि जमीन पर लगे सौर पैनलों से एक मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए चार से पांच एकड़ जमीन की जरूरत होती है। अगर अनुमानित 2200 मेगावाट क्षमता, नर्मदा नहरों पर पैनलों के साथ स्थापित की जाती, तो इससे 11,000 एकड़ भूमि की बचत होती।

लेकिन धूमधाम से उद्घाटन के 11 साल बाद, सीटीपीवी बहुत कम आगे बढ़ पाया है। साल 2014 और 2017 में, एसएसएनएनएल ने वडोदरा शाखा नहर के दो हिस्सों में 20 मेगावाट के सीटीपीवी लगाए। साल 2019 में, उन्होंने 100 मेगावाट सीटीपीवी की स्थापना की घोषणा की, लेकिन परियोजना कभी धरातल पर उतरी ही नहीं।

कछुआ चाल की मुख्य वजह नहर के ऊपर ढांचा खड़ा करने में आने वाली लागत है। अहमदाबाद में सोलर पीवी परामर्श फर्म ग्रीन ऑप्स प्राइवेट लिमिटेड के सह-संस्थापक गुरप्रीत सिंह वालिया ने कहा,भारत में सौर ऊर्जा का बाजार प्रतिस्पर्धी है। अगर इसमें फायदा नहीं दिखेगा, तो डेवलपर इसे काम में हाथ नहीं डालेंगे।

गांधीनगर स्थित गुजरात ऊर्जा अनुसंधान और प्रबंधन संस्थान (जीईआरएमआई) में परियोजना प्रबंधन और परामर्श समूह के वरिष्ठ परियोजना अधिकारी कौशिक पटेल ने कहा,सीटीपीवी उन जगहों के लिए मुफीद है जहां जमीन महंगी है। जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्र या खेती के लिए समृद्ध क्षेत्र। लेकिन गुजरात में बहुत सारी बंजर भूमि उपलब्ध है, तो कंपनियां इस तरह के ढांचे पर खर्च क्यों करेगी। 

काले हिरणों के लिए प्रसिद्ध गुजरात का वेलावादर राष्ट्रीय उद्यान। भारत में घास के मैदानों और चरागाहों की भूमि को अक्सर 'बंजर भूमि' कहा जाता है। बड़े पैमाने पर नवीन ऊर्जा पार्कों से इन पर खतरा बढ़ रहा है। तस्वीर - उदय दामोदरन/विकिमीडिया कॉमन्स।
काले हिरणों के लिए प्रसिद्ध गुजरात का वेलावादर राष्ट्रीय उद्यान। भारत में घास के मैदानों और चरागाहों की भूमि को अक्सर ‘बंजर भूमि’ कहा जाता है। बड़े पैमाने पर नवीन ऊर्जा पार्कों से इन पर खतरा बढ़ रहा है। तस्वीर – उदय दामोदरन/विकिमीडिया कॉमन्स।

चंद्रासन में नहर पर सौर पायलट परियोजना के उद्घाटन से पांच दिन पहले पाटन जिले में गुजरात सौर पार्क (जिसे चरणका सौर पार्क भी कहा जाता है) का उद्घाटन किया गया था। यह भारत का सबसे बड़ा सौर पार्क है।  अधिकारियों का दावा है कि चरणका गांव में स्थित यह पार्क “बेकार पड़ी भूमि” पर बनाया गया है। तब से, कच्छ में चार बड़े सौर पार्क गुजरात में 77,704 हेक्टेयर बंजर भूमिपर बनाए गए हैं। इनमें 30 गीगावाट हाइब्रिड पार्क भी है जो फिलहाल बन रहा है। यह 15 मेगावाट की सौर क्षमता से अलग है जिसे बाद में चरणका पार्क में जोड़ा गया था। इन पार्कों की संचयी क्षमता 32 गीगावॉट से ज्यादा है।

हालांकि, सरकार के दावे के मुताबिक गुजरात के चरवाहे अपनी आजीविका के लिए इसी बंजर भूमिपर निर्भर हैं। ये अब बड़े पैमाने पर नवीन ऊर्जा पार्कों के चलते खतरे में हैं। एसएसएनएनएल के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मोंगाबे इंडिया को बताया, यह एक समझौता है। सीटीपीवी में ऊपर ढांचा खड़ा करने की लागत बहुत ज्यादा है। जबकि जमीन पर लगने वाले सौर ऊर्जा की लागत जमीन की कीमत के चलते ज्यादा है। जब समझौता लोगों और पर्यावरण के लिए सकारात्मक होता है, तो हम सीटीपीवी चुनते हैं। लेकिन जब कंपनियों को जमीन मुफ्त या रियायती दरों पर मिलती है, तो एक अलग तरह का अर्थशास्त्र काम करता है।

गुजरात में नहर पर लगाई गई सौर परियोजना की 2012 की तस्वीर। तस्वीर- हितेश विप/विकिमीडिया कॉमन्स।
गुजरात में नहर पर लगाई गई सौर परियोजना की 2012 की तस्वीर। तस्वीर- हितेश विप/विकिमीडिया कॉमन्स।

चमकता पक्ष

पानी का ठंडा असर सीटीपीवी में सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाता है। सौर पैनल नीचे के पानी के वाष्पीकरण को रोकने में योगदान करती हैं। जीईआरएमआई के सागरकुमार अग्रावत ने चंद्रासन परियोजना के चालू होने के तीन साल बाद एक अध्ययन किया और पाया कि नहरों पर लगे सौर मॉड्यूल जमीन पर लगे मॉड्यूल की तुलना में 10 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर संचालित होते हैं। इसके चलते  सौर दक्षता 2.5% बेहतर होती है। अध्ययन में पाया गया कि अगर सौर पैनल नहरों को छाया दें तो प्रति मेगावाट हर साल लगभग 90 लाख लीटर पानी को वाष्पीकरण से बचाया जा सकता है।

गुजरात राज्य विद्युत निगम लिमिटेड (जीएसईसीएल) के सेवानिवृत्त अधिकारी बेला जानी ने कहा,ऊर्जा के बाद, पानी मानवता के सामने अगला बड़ा संकट है। नहर का पानी सिंचाई के लिए है और इसे दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचाना महंगा है। हमारे जैसे गर्म देश में, इस बहुमूल्य पानी को बचाने से ही असली जल-ऊर्जा गठजोड़ बनेगा। जानी ने चंद्रासन सीटीपीवी की अवधारणा में बड़ी भूमिका निभाई थी। जानी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “पैनलों की सफाई ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन के लिए अहम है। ये काम सौर नहरों के साथ आसान है। वहीं,  जमीन पर लगे सौर पार्कों में पानी के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ती है।”

नहर के ऊपर फोटोवोल्टिक से बिजली उत्पादन बेहतर होता है क्योंकि पैनल नीचे के पानी से ठंडे होते रहते हैं। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।
नहर के ऊपर फोटोवोल्टिक से बिजली उत्पादन बेहतर होता है क्योंकि पैनल नीचे के पानी से ठंडे होते रहते हैं। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।

एसएसएनएनएल के पास सौराष्ट्र और कच्छ जिलों में आठ नहर लिफ्टिंग स्टेशन हैं। इन्हें चलाने के लिए 165 मेगावाट बिजली क्षमता की जरूरत होती है। इसका अधिकांश हिस्सा इसकी जल विद्युत परियोजनाओं से आता है। वहीं 35 मेगावाट इसके कैप्टिव सीटीपीवी और नहर बैंक सौर प्लांट से आता है। जिसमें नहरों के आसपास की जगह में सौर पैनल लगाए जाते हैं। जुलाई 2022 तक उनके चालू होने के समय से, एसएसएनएनएल की सीटीपीवी और कैनाल बैंक सौर परियोजनाओं ने 294.6 मिलियन यूनिट का उत्पादन किया है। जिससे एसएसएनएनएल को 17,500 लाख रुपए बिजली बिल के रूप में कम देने पड़े है। एसएसएनएनएल के कार्यकारी अभियंता (नर्मदा प्रोजेक्ट हाइड्रोपावर) नीरव त्रिवेदी ने कहा,यहां बनने वाली बिजली को स्थानीय ग्रिड में भेजा जाता है और लिफ्टिंग स्टेशनों पर हमारे उपयोग के लिए इसका विनिमय किया जाता है। अभी बिजली की बाजार दर सात रुपए प्रति यूनिट (किलोवाट घंटा), जिससे बचत हो जाती है।

सीटीपीवी बिजली ट्रांसमिशन और वितरण घाटे को कम कर सकता है क्योंकि उत्पादन, खपत वाली जगह के करीब है, जिससे ग्रिड मजबूत होता है। जानी ने कहा,चूंकि नहरें दूरदराज के इलाकों तक पहुंचती हैं, इसलिए उन क्षेत्रों में किसानों को सिंचाई पंप चलाने के लिए बिजली देने के लिए भी उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, वो भी बड़े पार्कों की तुलना में मामूली लागत पर। एसएसएनएनएल अधिकारी ने कहा, “कच्छ में हाइब्रिड पार्क को बिजली की थोक निकासी के लिए 250 किलोमीटर लंबी ट्रांसमिशन लाइन की जरूरत होगी, तो कोई भी उस लागत की कल्पना कर सकता है।”

पानी में सीधे सूरज के प्रकाश को रोकने से शैवाल की वृद्धि रुक जाती है। इसका मतलब है कि पंपों और सिंचाई उपकरणों में रुकावट कम होती है। ग्रीन ऑप्स  कंपनी के वालिया ने कहा, “अगर नहर पीने के पानी की आपूर्ति करती है तो कम शैवाल विकास से पानी को पीने लायक बनाने पर कम खर्च आएगा।” नहर के रखरखाव के लिए रखे गए कर्मचारियों का कई अन्य कामों में इस्तेमाल हो सकता है। इनमें पैनलों की सफाई, नहर की सुरक्षा और सफाई (वडोदरा सीटीपीवी पूरे 3.6 किलोमीटर की लंबाई में बाड़ लगा दी गई है), पानी की चोरी रोकने और वनस्पतियों और जीवों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं जैसे काम शामिल हैं। सीटीपीवी से ये फायदे भी मिलते हैं।

साणंद शाखा नहर के खुले हिस्से में शैवाल की सफाई। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।
साणंद शाखा नहर के खुले हिस्से में शैवाल की सफाई। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे।

नहर सौर फोटोवोल्टिक के नुकसान

चूंकि नहरों पर लगे सौर पैनल जमीन पर लगे सौर पैनलों से ऊंचे होते हैं। इसलिए सीटीपीवी के लिए एक मजबूत माउंटिंग ढांचे की जरूरत होती है। पटेल ने बताया,ढांचा भारी होना चाहिए; नहीं तो पैनलों के ऊपर और नीचे हवा की गति उन्हें उड़ा सकती है। जंग लगने से बचाने के लिए माइल्ड स्टील फ्रेम पर जिंक की परत भी चढ़ाई जाती है क्योंकि यह हमेशा नमी के संपर्क में रहेगा। पटेल ने कहा, “सीईटीपी की पूरी पूंजीगत लागत में से 40% ऊंचे वाले ढांचे की है, जो पैनल पर आने वाले खर्च से ज्यादा है।”

जमीन पर लगने वाले एक मेगावाट प्लांट की तुलना में सीटीपीवी की लागत डेढ़ से दो करोड़ रुपए ज्यादा है। नाम नहीं बताने की शर्त पर एक पूर्व जीईआरएमआई वैज्ञानिक ने कहा, “यूक्रेन युद्ध के साथ-साथ चीन द्वारा उत्पादन बंद करने के कारण हाल ही में स्टील की कीमतें बढ़ी हैं। इस बीच, फ्लोटिंग सोलर जैसे अन्य सस्ते विकल्प सामने आए हैं, जिसके लिए सिर्फ एचडीपीई और पीवीसी से बने फ्लोटर की जरूरत होती है। यह एक तरह का प्लास्टिक है जो उतना महंगा नहीं है।


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वालिया ने बताया कि फ्लोटिंग सोलर की औसत लागत तीन रुपये प्रति यूनिट से भी कम आती है। फिलहाल एक यूनिट सौर ऊर्जा की लागत 2-2.85 रुपए है। वहीं सीटीपीवी से बिजली की लागत 4-4.5 प्रति यूनिट से ज्यादा है। एसएएम सोलर प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक योगेश सहगल ने कहा, डिस्कॉम (वितरण कंपनियों) द्वारा भुगतान की जाने वाली सौर ऊर्जा की दर ग्राउंड-माउंटेड और सीटीपीवी दोनों के लिए एक जैसी है, तो कोई डेवलपर ज्यादा निवेश क्यों करेगा? जब तक सरकार सब्सिडी नहीं देती, सीटीपीवी आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं होंगे। साल 2017 में, एसएएम सोलर ने पंजाब के लुधियाना और संगरूर जिलों में 2.5 मेगावाट की दो परियोजनाएं लगाई। पंजाब में कैनाल-टॉप सोलर की कुल स्थापित क्षमता 20 मेगावाट है।

साल 2014 में, केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने सीटीपीवी के लिए तीन करोड़ रुपए/मेगावाट और कैनाल बैंक सोलर के लिए डेढ़ करोड़ रुपए/मेगावाट की दर से केंद्रीय वित्तीय सहायता शुरू की। सहगल ने बताया कि यह योजना 50 मेगावाट प्रत्येक सीटीपीवी और नहर बैंक की स्थापना में सहायता करने के लिए थी, लेकिन अब बंद हो गई है।

सीटीपीवी का रैखिक प्रारूप – सौर पैनल को किसी भूखंड के बजाय लंबाई में रखा जाता है – विद्युत और रखरखाव से जुड़ी समस्याएं भी पैदा करता है। वालिया ने कहा,एक तैरता हुआ सौर ऊर्जा क्षेत्र चार एकड़ जल क्षेत्र में लगा होता है। वहीं एक मेगावाट जमीन पर लगी सौर ऊर्जा प्लांट 2.5 एकड़ (सबसे नए उन्नत दक्षता वाले पैनलों के साथ) में लगता है। वहीं चार मीटर चौड़ी नहर पर एक MWp सीटीपीवी 2.5 किलोमीटर का क्षेत्र घेरता है। सभी केबल को एक केंद्रीय नियंत्रण कक्ष में लाना होगा, जिससे केबलिंग की लागत बढ़ जाएगी और नुकसान भी अधिक होगा। एक मेगावाट पीक (MWp) डायरेक्ट करेंट (डीसी) के रूप में आदर्श परिस्थितियों में उत्पादित बिजली के अधिकतम संभावित उत्पादन का एक माप है। उन्होंने कहा, “सीटीपीवी का एकमात्र लाभ यह है कि डेवलपर को एक ही पार्टी से निपटना पड़ता है – भूमि अधिग्रहण, लोगों, पुलिस और कीमतों से निपटने में कोई परेशानी नहीं होती है।”

एसएसएनएनएल के उप कार्यकारी अभियंता (सौर) जयदीप परमार कहते हैं, सीटीपीवी को बनाए रखना बोझिल है। उन्होंने कहा,अगर वायरिंग में कोई खराबी है, तो उसे ठीक करने में 2-3 घंटे बर्बाद हो जाते हैं क्योंकि तकनीशियन सुरक्षा उपकरणों के बिना नीचे नहीं जा सकते। इस दौरान पूरी यूनिट बंद करनी पड़ती है। पैनलों के ऊपरी हिस्से के कारण सिविल संरचना में दरारों की मरम्मत करना भी मुश्किल हो जाता है।

अन्य फायदों के लिए सौर नहर को बढ़ावा देना जरूरी

बेंगलुरु स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) के वरिष्ठ नीति विशेषज्ञ सप्तक घोष ने बताया, “भारत में सीटीपीवी की मौजूदा क्षमता 100 मेगावाट से कम है।हालांकि, इस पर एमएनआरई की ओर से कोई आधिकारिक डेटा नहीं है। घोष ने कहा, हालांकि, सीटीपीवी भूमि की बढ़ती कमी की स्थिति में जल्द ही नवीन ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करेंगे। सीएसटीईपी ने एक चल रहे अध्ययन में भारत में 131 गीगावॉट की क्षमता की गणना की है जो उन नवीन सौर एप्लिकेशन की व्यवहार्यता का आकलन कर रहा है जिनके लिए भूमि की जरूरत नहीं है। यह अध्ययन जीआईजेड, अर्न्स्ट एंड यंग और फ्रौनहोफर आईएसई के सहयोग से हो जा रहा है। घोष ने कहा,क्षमता का पता विकिरण, रेल/सड़क से 10 किलोमीटर की निकटता और 132 केवी सबस्टेशन से 25 किलोमीटर की निकटता जैसे फिल्टर के आधार पर लगाया गया है। लेकिन एमएनआरई का कहना है कि चूंकि नहरें रैखिक हैं, इसलिए लंबाई के साथ वितरण के लिए छोटे ट्रांसफार्मर हो सकते हैं और वहां से सीधे बिजली भेजी जा सकती है। इससे संभावना कई गुना बढ़ जाती है।

उन्होंने कहा, “उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य जिनके पास जमीन नहीं है वे जल्द ही इस पर आगे बढ़ेंगे।”

पंजाब ऊर्जा विकास एजेंसी (पीईडीए) ने 50 मेगावाट सीटीपीवी के लिए उपयुक्त स्थानों की पहचान की है और सौर डेवलपर को अंतर वाली दरों के भुगतान के लिए केंद्र सरकार से वाइबैलिटी गैप फंडिंग (वीजीएफ) के लिए आवेदन कर रही है। पेडा के संयुक्त निदेशक कुलबीर सिंह ने कहा, “पंजाब में ज़मीन की कीमतें बहुत ज्यादा हैं क्योंकि हमारी सारी ज़मीन खेती योग्य है। पंजाब राज्य उपयोगिता सौर ऊर्जा के लिए 2.75 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान करती है, जो डेवलपर के लिए आगे आने के लिए बहुत कम है। वीजीएफ वहां मदद करेगा।

गुजरात के पाटन में एस्टनफील्ड रिन्यूएबल्स का 11.5 मेगावाट का सोलर प्लांट। तस्वीर- सिटीजनएमजे/विकिमीडिया कॉमन्स। 
गुजरात के पाटन में एस्टनफील्ड रिन्यूएबल्स का 11.5 मेगावाट का सोलर प्लांट। तस्वीर– सिटीजनएमजे/विकिमीडिया कॉमन्स।

गुजरात सरकार के सचिव और एसएसएनएनएल के निदेशक वीपी कपाड़िया ने बताया कि एसएसएनएनएल अगले तीन सालों में 650 किलोमीटर नहरों पर 1200 मेगावाट सोलर ऊर्जा बनाने की योजना पर काम कर रहा है। कपाड़िया ने कहा,अब तक प्रगति धीमी थी क्योंकि नहर नेटवर्क अधूरा था। अब जब यह पूरा होने के कगार पर है, तो बड़े उद्योगपतियों ने अपने कैप्टिव उपयोग के लिए सीटीपीवी बनाने के लिए एसएसएनएनएल से संपर्क किया है। उनकी दिलचस्पी है क्योंकि वे अपने उद्योगों के लिए बिजली का इस्तेमाल कर सकते हैं और उनके पास वितरण ग्रिड हैं, इसलिए वे बिजली बेच भी सकते हैं।

ढांचा खड़ा करने में आने वाली लागत कम करने के लिए रिसर्च जारी है। ज्यादा लोच वाले स्टील की रस्सी से सस्पेंशन पैनल – जहां इसका स्थायित्व बढ़ाने के लिए क्रोमियम, मोलिब्डेनम, सिलिकॉन इत्यादि जैसे अवयवों को मिलाया जाता है – उत्तराखंड में लगाए गए हैं। वहीं पंजाब में प्रोजेक्ट नहर के तल में बनाए गए खंभों पर लगाए गए हैं। विशेषज्ञों ने बताया कि ब्रैकट-प्रकार और ऊर्ध्वाधर पैनल जिन्हें नहर की चौड़ाई में फैलने की आवश्यकता नहीं है, के लिए भी कोशिश की जा रही है।

पटेल के अनुसार, जमीन पर लगने वाले बनाम सीटीपीवी की वास्तविक लागत की गणना तभी की जा सकती है जब इसके फायदों का पैसों में आकलन किया जाए। वालिया ने कहा,कोई निजी कंपनी सिर्फ तभी सीटीपीवी परियोजना शुरू करेगी जब उसे लाभ दिखेगा। इसलिए, अगर पानी बचाने, उसके उपचार या कार्बन क्रेडिट से लाभ होता है, तो उन्हें इसमें हिस्सा मिलना चाहिए।”

 

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बैनर तस्वीर: चूंकि नहरें दूरदराज के इलाकों तक पहुंचती हैं, इसलिए उन इलाकों में किसानों को सिंचाई पंप चलाने के लिए बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे। 

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