- नीलगिरी जिले का पहाड़ी शहर कोटागिरी में मनुष्य और वन्यजीव के आमने-सामने आने की खबरें बढ़ रही हैं।
- अपने खंडित वन खंडों के लिए मशहूर इस पहाड़ी शहर में खुले में कचरा डाला जाता है तो आस-पास कई लैंडफिल भी हैं। ये जगहें वन्यजीवों को खाने के लिए अपनी ओर खींचती हैं।
- मनुष्य और वन्यजीव बढ़ते शहरों में अपनी-अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तो वहीं इस मसले से निपटने के लिए वन विभाग और स्थानीय अधिकारियों की तैयारी पर सवाल उठाया जा रहा है।
38 साल की जयासुधा इसे अपना सौभाग्य मानती हैं कि 11 दिसंबर, 2020 की रात वह घर पर नहीं थीं। उस रात तमिल नाडू के नीलगिरी जिले के कोटागिरी शहर की एक आवासीय कॉलोनी, इंदिरा नगर में दो शावकों के साथ एक भालू उनके घर में घुस आया और वहां से कुछ खाने का समान लेकर चला गए। उन्होने बताया, “मैं और मेरी बेटियां एक सप्ताह तक घर वापस नहीं गए। जब तक कि मेरे पति ने टूटा हुआ दरवाज़ा ठीक नहीं कर दिया। हम सब काफी डरे हुए थे।”
एक अन्य घटना में, एक भालू 54 साल के रामर के घर में घुस आया था। उस समय उनका पांच लोगों का परिवार सो रहा था। उनके 26 वर्षीय बेटे रंजीत ने कहा, “हम चिल्लाने लगे, जिससे वह आगे बढ़ने से रुक गया।” जब तक गांव के लोग भालू को भगाते, तब तक वह चार और घरों एवं कुछ दुकानों को तोड़ चुका था। वन विभाग ने भालुओं के लिए जाल बिछाया और जल्द ही, उन्हें पास के मिलिधाने गांव में पकड़ लिया गया। बाद में भालुओं को नीलगिरी जिले के पश्चिमी जलग्रहण क्षेत्र में ऊपरी भवानी में स्थानांतरित कर दिया गया।
इंदिरा नगर के निवासियों के लिए वन्यजीवों से इतनी नजदीकी कोई नई बात नहीं है। दूर तक फैले चाय के बागानों और एक आरक्षित वन लॉन्गवुड शोला के बीच स्थित, लगभग 750 निवासियों की इस कॉलोनी में जंगली जानवरों का अक्सर आना-जाना लगा रहता है। 18 मार्च, 2022 को ढलान पर चर रहा एक गौर (जंगली बैल) फिसल गया और 67 वर्षीय दोराईसामी के घर की छत से नीचे आ गिरा। उन्होंने कहा, “हमने नया घर बनाया था, लेकिन हमें इसमें शांति से रहने का मौका नहीं मिला।” दोराईसामी की पत्नी वीरमणि ने कहा कि इलाके में कई गौर हैं। उन्होंने आगे कहा, “भालू भी आते हैं। इनसे काफी डर लगता है क्योंकि वे लोगों को मारते हैं। कॉलोनी में कोई भी चैन से नहीं सो सकता है।”
लॉन्गवुड शोला के दक्षिण में स्थित लगभग 150 लोगों की एक और कॉलोनी है ‘अम्बेडकर नगर’। यहां रहने वाले लोगों के पास भी बताने के लिए ऐसी बहुत सी कहानियां हैं। कॉलोनी के एक युवा रामजयम ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि कॉलोनी जंगल के किनारे बसी है। इस वजह से जंगली जानवरों के हमले का लगातार खतरा बना रहता है। उन्होंने कहा, “ऐसी कोई सीमा या बाड़ नहीं है जो हमारी कॉलोनी को जंगल से अलग करती हो।” वह आगे बताते हैं, “जब हमने शिकायत की, तो हमें अपना ख्याल रखने के लिए कहा गया। इससे हमारे रोजमर्रा के कई कामों पर रोक लग गई। खेल के मैदान नहीं हैं। बच्चे जंगल के पास खेलते हैं, जिससे उन पर जानवरों के हमला किए जाने का खतरा बढ़ गया है।”
मनुष्यों और जानवरों के बीच की दूरी को कम करता बायोस्फीयर रिजर्व
पश्चिमी घाट क्षेत्र में स्थलरुद्ध (लैंड लॉक्ड) जिला, 2,545 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले नीलगिरि में लगभग 1,731 वर्ग किमी का वन क्षेत्र है। यह विशाल चाय बागानों और कृषि भूमि से घिरा हुआ है, यह अत्यधिक खंडित वन क्षेत्र है। यह जिला नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व के अंतर्गत आता है, जो 5,520 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के साथ देश का पहला बायोस्फीयर रिजर्व है। यूनेस्को के मुताबिक, बायोस्फीयर रिजर्व, “स्थायी विकास के लिए सीखने के क्षेत्र” हैं। मानव-पशु सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने के लिए इसे तैयार किया गया है। इसे एक मुख्य क्षेत्र में विभाजित किया गया है, जो वन्यजीवों के लिए एक संरक्षित क्षेत्र है, एक बफर ज़ोन और एक ट्रांजिशन एरिया से घिरा हुआ है जहां मनुष्यों और जानवरों के बीच की सीमाएं कम होती चली जाती हैं।
जानवर सीमाएं नहीं समझते हैं। ऐसे बहुत से कारण हैं, जो उन्हें मानव निवास के करीब ला रहे हैं। वन का कम होना, कृषि क्षेत्र का बढ़ना, बुनियादी ढांचे का विकास और जलवायु परिवर्तन जानवरों को जंगलों से बाहर धकेलने वाले कुछ कारक हैं। वे फसलों, फलदार पेड़ों, खाद्य अपशिष्ट और पशुधन जैसे भोजन तक आसान पहुंच के कारण इंसान की रहने वाली जगहों की ओर खिंचे चले आते हैं।
नीलगिरी के ऊपरी पठार जैसे ऊटी, कुन्नूर और कोटागिरी के शहरों से मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच नजदीकी के कई मामले सामने आए हैं। नवंबर 2022 में, ऊटी गोल्फ कोर्स के पास शिकार के साथ देखे गए एक बाघ की व्यापक रूप से रिपोर्ट की गई थी। पश्चिमी घाट के स्थानिक दुर्लभ और मायावी स्तनपायी नीलगिरि मार्टन को देखे जाने की भी खबरें ऊटी और कुन्नूर जैसे शहरों से मिलीं हैं। चाय के बागानों में चरने वाले गौरों के झुंड यहां एक आम दृश्य हैं और अब तो भालू, तेंदुए, साही, जंगली कुत्ते और जंगली बिल्लियां जैसे जानवर आवासीय क्षेत्रों में तेजी से देखे जा रहे हैं। मुदुमलाई नेशनल पार्क के वन्यजीव पशुचिकित्सक राजेश कुमार ने कहा कि इन शहरों में, अंधाधुंध तरीके से फेंका जाने वाला ठोस कचरा जानवरों के लिए आसानी से मिलने वाला भोजन है, जबकि पुरानी खंडर इमारतें उनके रहने की जगह बन जाती हैं।
जंगली जानवरों को शहरों की ओर आकर्षित करता है खुले मैदान में बना कचरे का ढ़ेर
कोटागिरी में रहने वाले लोगों की आमतौर पर एक ही शिकायत होती है कि यहां कचरे का निपटान सही तरीके से नहीं किया जाता है। इन आवासीय कालोनियों के पास कूड़े डालने की कई खुली जगहे हैं। जंगली जानवर भोजन की बर्बादी से इस ओर खिंचे चले आते हैं और अक्सर उन्हें इधर-उधर घूमते या कूड़ा-कचरा छानते हुए देखा जा सकता है। रामजयम ने कहा, “हमारे पास अपशिष्ट निपटान के लिए कोई विशेष जगह नहीं है, इसलिए हम इसे जंगल के आस-पास फेंक देते हैं। उसे खाने के लिए बहुत सारे जंगली सूअर वहां आते हैं।”
कृष्णा पुदुर कालोनी में बड़े पैमाने पर सफाई कर्मचारी रहते हैं। यहां रहने वाली श्रीदेवी ने कचरे फैंकने की बात को स्वीकार करते हुए कहा “हां, हम नदी में कचरा डालते हैं।” कॉलोनी से होकर गुजरने वाली एक जलधारा, जो पीने के पानी का स्रोत है, प्लास्टिक और अन्य कचरे से भरी हुई दिखाई देती है। यहां रहने वाले लोग शौचालय की भी मांग करते हैं। एक अन्य निवासी कन्नगी ने बताया, “महिलाओं का सूरज निकलने से पहले या सूरज छिपने के बाद खुले में शौच के लिए जाना, उनकी मजबूरी है। हर जगह सांप हैं। एक बार तो एक साही ने एक महिला पर लगभग हमला ही कर दिया था।” कोटागिरी में मानव-वन्यजीव संघर्ष (एचडब्ल्यूसी) को कम करने पर काम करने वाले गैर-लाभकारी कीस्टोन फाउंडेशन से मिले एक अनौपचारिक रिकॉर्ड में कहा गया है कि यहां सिर्फ लगभग 30 प्रतिशत घरों में शौचालय हैं।
कोटागिरी तालुक सरकारी अस्पताल के सहायक सर्जन डॉ. अंबू मुरुगन से जब जानवरों के साथ हुई मुठभेड़ की वजह से अस्पताल में आने वाले मामलों के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा, “हमें औसतन हर महीने एक मामला मिलता है और यह ज्यादातर गौर या जंगली सूअर का होता है।” उन्होंने कहा, “मैं गौर के हमले में बांह टूटने के दो मामलों का इलाज कर रहा हूं। इसमें एक महिला चाय श्रमिक है और दूसरा एक पुरुष है जो गलती से गौर के झुंड के बीच में आ गया था।”
कन्निगदेवी कॉलोनी, 500 से कुछ अधिक लोगों की आवासीय कॉलोनी है। यहां खड़ा कूड़े का पहाड़ कोटागिरी शहर का एक लैंडमार्क बन चुना है। शहर का सारा कचरा इसी कॉलोनी में जाता है। मुर्गियों के कटे हुए सिर और पंखों से भरी एक संकरी सड़क। यहां से बमुश्किल एक कार निकल पाती है और इसी रास्ते से होते हुए लैंडफिल की ओर चले जाते हैं। शिकारी पक्षी, कौवे और बगुले इसके ऊपर मंडराते हुए दिखाई दे जाएंगे। और हवा सड़ते हुए कचरे की गंध से भरी रहती है। निवासियों का कहना है कि बारिश के दौरान दुर्गंध असहनीय हो जाती है। यहां रहने वाले थंगादुरई बताते हैं, “यह लैंडफिल 40 साल पहले से यानी कॉलोनी के अस्तित्व में आने से पहले से ही मौजूद है। लेकिन पहले, बहुत कम बर्बादी होती थी। अब बढ़ती आबादी के साथ कचरा भी बढ़ रहा है।” 2011 की जनगणना के रिकॉर्ड बताते हैं कि 1981 के बाद से नीलगिरी में जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत बढ़ गई है।
2011 में, मूसलाधार बारिश से लैंडफिल का एक हिस्सा ढह गया, जिससे तीन लोगों का एक परिवार जिंदा दफन हो गया। इस घटना के बाद से लैंडफिल को स्थानांतरित करने की मांग बढ़ गई है। थंगादुरई ने कहा, “भालू आना शुरू हो गए हैं, क्योंकि कचरे की गंध उन्हें आकर्षित करती है। हमने उनसे (अधिकारियों से) इसे स्थानांतरित करने के लिए कहा है लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया।”
निवासियों ने हमें बताया कि कॉलोनी में बार-बार भालू के आने के कारण कॉलोनी में एक आंगनवाड़ी को बंद कर दिया गया है। रसेल वाइपर जैसे सांप, जो पहले ऊंचे इलाकों में नहीं पाए जाते थे, नीलगिरी में भी देखे जा रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा गर्म जलवायु के कारण हो सकता है। नीलगिरी के जिला वन अधिकारी (डीएफओ) गौतम एस ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि खुले में बना कचरा डंपिंग स्थल एक मुद्दा है और विभाग ने इस पर ध्यान दिया है और समाधान खोजने की प्रक्रिया में है।
इंसानों के साथ जगह बनाने की कीमत जानवरों को भी चुकानी पड़ती है।
इधर जंगली जानवर इंसानों की मौजूदगी के साथ अधिक सहज होते दिख रहे हैं। हालांकि, तेजी से बढ़ती मानव बस्तियों के लिए अनुकूलित होना हमेशा उनके पक्ष में काम नहीं करता है। जंगली जानवर खुले कुओं में गिरकर या जाल में फंसकर मर जाते हैं या घायल हो जाते हैं। वन्यजीव पशुचिकित्सक कुमार ने कहा कि जहर से जानवरों की मौत भी आम है। कुछ जानवरों के पोस्टमार्टम से पता चला है कि उनकी आंत में प्लास्टिक, कपड़े और नायलॉन की रस्सियां थीं।
मनुष्यों के साथ संघर्ष की बढ़ती घटनाओं के बावजूद, कोटागिरी में कोई वन्यजीव पशुचिकित्सक नहीं है जो किसी जंगली जानवर के खतरे में पड़ने पर उसका इलाज कर सके। एक स्थानीय पशुचिकित्सक हैं, लेकिन वह भी जंगली जानवरों को संभालने के लिए प्रशिक्षित नहीं है। उन्हें अकसर छोटी-मोटी चोटों का इलाज करने के लिए बुलाया जाता है। बड़ी चोटों या अनुसूची 1 प्रजातियों से जुड़े मामलों में, मुदुमलाई या कोयंबटूर से एक वन्यजीव पशुचिकित्सक को लाया जाता है, जो 70 किलोमीटर से अधिक दूर से आते हैं। कीस्टोन फाउंडेशन के साथ काम करने वाले संरक्षण फोटोग्राफर चंद्रसेकर दास ने कहा, ” इससे कीमती समय बर्बाद हो जाता है।” उन्होंने एक मामले को याद करते हुए बताया कि जाल में फंसा एक तेंदुआ घटना के लगभग छह घंटे तक मुदुमलाई से पशुचिकित्सक के आने का इंतजार करता रहा। और आखिर में उसने दम तोड़ दिया।
कुमार इस बात से सहमत हैं कि कोटागिरी जैसे मानव-पशु संघर्ष वाले इलाकों में जंगली जानवरों में विशेषज्ञता वाले पशुचिकित्सक की जरूरत है। उन्होंने कहा, “स्थानीय पशु चिकित्सकों को लगातार कार्यशालाओं के जरिए वन्यजीवों से निपटने की तकनीकों से लैस करना भी एक विकल्प है।” गौतम ने कहा कि विभाग में इस बात को लेकर चर्चा चल रही है। सरकारी अधिकारियों के साथ प्रत्येक वन प्रभाग में एक वन्यजीव पशुचिकित्सक रखने पर विचार किया जा रहा है, जो इस मुद्दे को हल करने में मदद कर सकता है।
जानवरों को बार-बार देखने और उनका सामना करने से लोगों में डर और उनके प्रति दुश्मनी पैदा होती है। कोटागिरी में मानव-पशुओं के संघर्ष के मामले वन विभाग पर जानवर को पकड़ने और स्थानांतरित करने के लिए दबाव डालते हैं। अक्सर उन्हें मुदुमलाई राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ दिया जाता है, जहां बाघ जैसे शिकारी होते हैं, या ऊपरी भवानी क्षेत्र जहां स्थानांतरित जानवर के भाग्य की अक्सर निगरानी नहीं की जाती है। चन्द्रशेखर ने कहा, “ये शहर में रहने वाले जानवर हैं जो जंगल में जिंदा नहीं रह सकते हैं।”
हालांकि गौतम उनकी इस बात से असहमत हैं। उन्होंने कहा, “सिर्फ इसलिए कि वे मानव उपस्थिति के आदी हैं, इससे उनकी मूल पशु प्रवृत्ति खत्म नहीं हो जाती है। वास्तव में, उनके पास शहरों की तुलना में जंगल में जीवित रहने की बेहतर संभावना है।” उन्होंने कहा कि वन विभाग के पास पर्याप्त फील्ड कर्मचारी हैं जो छोड़े गए क्षेत्रों में जानवरों की लगातार निगरानी कर रहे हैं।
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बैनर तस्वीर: कोटागिरी में कन्निगदेवी कॉलोनी में खुले मैदान में पड़ा कचरे का ढ़ेर एक लैंडमार्क बन चुका है। यह वन्यजीवों को आकर्षित करता है। इसकी वजह से अक्सर इंसान और जानवरों का आमना-सामना हो जाता है या फिर जानवर इसके आसपास रहने वाले लोगों के घरों में घुस आते हैं। तस्वीर- अभिषेक एन चिन्नप्पा/मोंगाबे
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