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[साक्षात्कार] छठवीं अनुसूची में संरक्षण मिलने से कैसे बचेगी नाजुक लद्दाख की आबोहवा, समझा रहे हैं पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक

लद्दाख के नाजुक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अभियान के तहत सोनम वांगचुक ने जून 2023 में क्लाइमेट फास्ट (जलवायु उपवास) रखा। तस्वीर- सोनम वांगचुक/ट्विटर

लद्दाख के नाजुक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अभियान के तहत सोनम वांगचुक ने जून 2023 में क्लाइमेट फास्ट (जलवायु उपवास) रखा। तस्वीर- सोनम वांगचुक/ट्विटर

  • केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में पर्यावरण और स्थानीय आबादी की सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण के लिये लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग उठ रही है।
  • लद्दाख के पर्यावरणविद् और शिक्षाविद् सोनम वांगचुक ने मोंगाबे-हिन्दी से साक्षात्कार के दौरान इस मांग के पीछे की वजहों को समझाया। उनका मानना है कि लद्दाख की नाजुक आबोहवा को बचाने के लिए यह जरूरी है।
  • उन्होंने बताया कि ऊंचे हिमालय की पारिस्थितिकी काफी नाजुक है और यहां का विकास अन्य स्थानों की तरह ही हुआ तो समस्याएं खड़ी होंगी। जलवायु परिवर्तन के साथ पर्यटन और विकास की वजह से स्थानीय मानवीय गतिविधियों से ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
  • वह कहते हैं कि संविधान की छठवीं अनुसूची से स्थानीय लोगों को निर्णय लेने का अधिकार मिलेगा और वह अपने इलाके को अपने हिसाब से संरक्षित कर पाएंगे। पढ़िए पूरा साक्षात्कार।

ग्लेशियर की वजह से लद्दाख में जीवन संभव है। सबसे बड़ा मुद्दा ग्लेशियर के तेजी से पिघलने का है। यह एक ठंडा रेगिस्तान है और यहां जिंदगी मुमकिन है तो ग्लेशियर की वजह से है। लद्दाख ही नहीं पूरे उत्तर भारत में एक बिलियन आबादी (100 करोड़ लोगों) को यह ग्लेशियर सपोर्ट करते हैं। इतनी ही संख्या में चीन की तरफ के लोग भी इस पर निर्भर हैं। इस तरह पूरे विश्व की एक चौथाई आबादी का जीवन ग्लेशियर पर निर्भर करता है।

ग्लेशियर के पिघलने की दो वजह हैं, एक ग्लोबल वार्मिंग और दूसरा स्थानीय कारण। ग्लोबल वार्मिंग का हम यहां स्थानीय समाधान नहीं ढ़ूंढ सकते हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर जो समाधान हैं उन्हें जरूर अपनाना चाहिए।

अभी तक हमें लगता था कि ग्लेशियर केवल ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जो क्लाइमेट चेंज हो रहा है उसी वजह से पिघल रहे हैं, लेकिन हाल के समय में पता चला है कि स्थानीय स्तर पर जो मानव गतिविधियां हो रही हैं उससे भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इसके जिम्मेदार यहां के स्थानीय लोग काफी कम हैं और वो बहुत सादा जीवन बिताते हैं। उसके बाद आर्मी आता है, टूरिज्म आता है, इनकी वजह से ऐसी गतिविधियां होती हैं जिससे धुआं, धूल आदि पैदा होता हैं, और ग्लेशियर पर जाकर बैठ जाते हैं। जिससे वे काले पड़कर जल्द पिघल जाते हैं। पर्यटकों के लिए हजारों टैक्सी खारदुंगला, तांगलांग ला या चांगला से गुजरती हैं। आर्मी के ट्रांसपोर्ट के लिए ट्रक्स, टैंक्स आदि भी इन सड़कों पर चलते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है।”  

क्यों उठ रही छठवीं अनुसूची की मांग?

हिमालय का ऊंचाई वाला हिस्सा पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही नाजुक है। ऐसे में अगर ज्यादा संख्या में इंडस्ट्री हो, गाड़ियां हो या जनसंख्या हो तो यहां की जलवायु को बहुत ज्यादा खतरा हो सकता है। ऐसे में यहां के लोग भी यहां नहीं रह पाएंगे और आने वाले लोग भी नहीं रह पाएंगे। 

जम्मू कश्मीर से अलग होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश बनने से इसका कोई संरक्षण नहीं है। इस वजह से यह इलाका और संवेदनशील बना है। अभी के हिसाब से यहां कोई भी खनन इंडस्ट्री, कुछ भी लगाए, यहां के स्थानीय लोगों का कोई नियंत्रण नहीं है। लोकतंत्र के हिसाब से भी यहां के लोगों का कोई कंट्रोल नहीं है क्योंकि यहां कोई इलेक्टेड फोरम नहीं है।

सोनम वांगचुक कहते हैं कि पहले लेह शहर में टूरिज्म 30 हजार के करीब हुआ करता था। 80-90 के दशक से 2000 तक स्थित यही थी। लेकिन, अब यह तीन लाख, पांच लाख तक छू रहा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
सोनम वांगचुक कहते हैं कि पहले लेह शहर में टूरिज्म 30 हजार के करीब हुआ करता था। 80-90 के दशक से 2000 तक स्थित यही थी। लेकिन, अब यह तीन लाख, पांच लाख तक छू रहा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

प्रदूषण, लोकल एक्टिविटी, टूरिज्म और मिलिट्री की वजह से बढ़ी जनसंख्या और ऐसा ही रहा तो एक-एक इंडस्ट्री के साथ लाखों की संख्या में लोग आएंगे, जिससे संवेदनशील स्थान पर असर होगा। इसकी संवेदनशीलता को सरकार नहीं समझ पा रही है। इस वजह से यहां एक अभियान चलाया जा रहा है ताकि लद्दाख को संरक्षित किया जाए, और संविधान की छठी अनुसूची में इसे संरक्षण मिले।  

क्यों जरूरी है सिक्स्थ शेड्यूल या छठी अनुसूची

हमारे देश में बहुत विविधता है, अलग-अलग तरह के और जनजाति के लोग रहते हैं। संसार में जो संजीदा देश हैं वह इस विविधता को बचाते हैं। इसमें एक देश भारत भी है जो अपने आदिवासियों को संरक्षण देता है। शेड्यूल ट्राइब्स (अनुसूचित जनजाति) का मतलब ऐसे निवासी जो भारत के मूल निवासी हैं, जो जंगलों में हैं जैसे छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, या पहाड़ों में रहते हैं।

संविधान की पांचवी अनुसूची में जो मैदानी इलाकों में हैं उन्हें संरक्षण दिया जाता है, जैसे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश। पहाड़ों के लिए छठी अनुसूची में संरक्षण दिया जाता है। पूर्वोत्तर में यह ज्यादातर है लेकिन लद्दाख में भी यह उपयुक्त है। यहां पर भी एक अलग लोग हैं जिसके अपने दायरे हैं जिसके भीतर वह रहते हैं और उन्हें बचाने की जरूरत है। ऐसी जगह पर जहां की प्रकृति संवेदनशील हो, संस्कृति संवेदनशील हो और जमीन संवेदनशील हो, इस प्रावधान के अंतर्गत संरक्षण दिया जाता है।

स्थानीय लोग जो हजारों साल से यहां रहे हैं, अपने लिए जो भी फैसला करें उसका नतीजा वह भुगतेंगे। दो-तीन साल के लिए ब्यूरोक्रेट्स कुछ भी फैसला करके चले जाएंगे, इसके आलावा उनकी गलतियों का खामियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ेगा, जो कि बहुत नाजुक हालातों में रहते हैं। यहां के लोग पांच लीटर पानी में गुजारा करते हैं, बाकी जगहों पर 500 या कम से कम 50 लीटर लगता है। यहां के लोग ठंड से मुकाबला करते हैं। साथ में मानव निर्मित चुनौतियां जैसे चीन, पाकिस्तान के बॉर्डर पर तनाव की स्थिति का सामना करते हैं। यहां के लोग नाजुक हालात में रहते हैं तो इनके पास कुछ तो डिसिजन मेकिंग हो।

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छठे शेड्यूल का मतलब है स्थानीय लोगों को आवाज देना। स्थानीय लोगों को कानून बनाने का अधिकार भी मिलता है। स्थानीय लोग चाहें तो पर्वतों को बचा सकते हैं और चाहें तो इंडस्ट्री या माइनिंग भी ला सकते हैं। हमें लगता है कि छठी अनुसूची ही लोगों को बचा सकती है। क्योंकि जो पायलट जहाज उड़ा रहा है वह उसे नहीं गिराएगा क्योंकि वह खुद भी उसमें है।

जम्मू कश्मीर में धारा 370, 35ए में संरक्षण मिला हुआ था। जब लद्दाख के लोग यूनियन टेरेटरी मांग रहे थे, तब उन्हें पता था। वह दो चीजें मांग रहे थे। केंद्र शासित प्रदेश के साथ चुनी हुई सरकार जो फैसले ले। और दूसरा कि जम्मू कश्मीर से हटने के बाद हमें सिक्स्थ शेड्यूल का संरक्षण मिले। जम्मू कश्मीर से अलग होने के बाद इसकी मांग जोर पकड़ी, क्योंकि इसकी जरूरत ज्यादा पड़ने लगी। सरकार ने तमाम वादे किए लेकिन करने की बात आई तो वह पीछे हटने लगे। सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में भी इसका जिक्र था, लेकिन चार साल होने को आया अभी तक कुछ नहीं हुआ। अब वह कह रहे हैं कि यह नहीं हो पाएगा। लिखित वादे के आधार पर इलेक्शन जीतने के बाद भी वह अपने वादे से पलट गए। इस वजह से संघर्ष और बढ़ा है।

लगातार बढ़ता टूरिज्म

पहले टूरिज्म 30 हजार के करीब हुआ करता था। 80-90 के दशक से 2000 तक स्थित यही थी। लेकिन, अब यह तीन लाख, पांच लाख तक छू रहा है। बढ़ते पर्यटन के हिसाब से यहां पर इंतजाम नहीं हैं। कचरे के हिसाब से बहुत ही नाजुक हालत है। घरेलू टूरिज्म बढ़ने की वजह से कचरे की समस्या बढ़ी है। लोग ये नहीं देखते कि कहां आए हुए हैं और कचरा फैलाते हैं। वैसे तो गैर-जिम्मेदार टूरिज्म कहीं नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसे नाजुक इलाके में तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। पर्यटकों की जिम्मेदारी में भी कुछ कमियां हैं। दूसरी तरफ, स्थानीय प्रशासन और स्थानीय व्यवस्था बहुत कमजोर है। वे लद्दाख के हालात को न समझते हुए लेह को किसी भी दूसरे शहर जैसे दिल्ली या देहरादून की तरह समझ रहे हैं। पर्यटकों की संख्या तीन लाख या पांच लाख होना अधिक है अगर अव्यवस्थित हो। अगर इन्हें व्यवस्थित ढंग से रखा जाए तो यह संख्या बिल्कुल ज्यादा नहीं है। अभी तो लेह में पांच महीनों में पांच वर्ग किमी में पांच लाख लोग आ रहे हैं। इससे लेह बर्बाद हो रहा है। अगर इसी को पूरे लद्दाख में फैलाएं तो यह तीव्रता काफी कम होगी।

सिंध (इंडस) नदी। सोनम वांगचुक बताते हैं कि लद्दाख के पानी पानी की कमी है। लेह शहर में जिस तरह पानी की खपत हो रही है उसे पूरा करने के लिए सिंध नदी से पानी लाना होगा। इससे प्रदूषण बढ़ेगा और ऊर्जा की खपत होगी। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
सिंध (इंडस) नदी। सोनम वांगचुक बताते हैं कि लद्दाख के पानी पानी की कमी है। लेह शहर में जिस तरह पानी की खपत हो रही है उसे पूरा करने के लिए सिंध नदी से पानी लाना होगा। इससे प्रदूषण बढ़ेगा और ऊर्जा की खपत होगी। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

लेह शहर को हम ऐसे समझ रहे हैं जैसे हमारे पास अथाह पानी है। यह एक रेगिस्तान है यह समझकर आपको आगे बढ़ना होगा। अगर दूसरे शहर की तरह इसे समझा जाए, और लोग होटलों में 100 लीटर के बाथटब में नहाएं, खाना बर्बाद करें तो समस्या होगी। यहां सदियों से कंपोस्ट वाले शौचालय का चलन रहा है जिसमें पानी की जरूरत नहीं होती। मल, खाद के रूप में खेतों में जाता है। अब अचानक फ्लश टॉयलेट्स आ गए हैं। हम पीते पांच लीटर हैं और फ्लश में 50 लीटर गंवा देते हैं।

जिम्मेदार पर्यटन की आवश्यकता 

हमारे पास इतना पानी है भी नहीं। अगर पानी लाना भी होगा तो इंडस (सिंध) नदी से पानी लिफ्ट करके लाना होगा, जिसमें बिजली की खपत होगी। इसका अपना प्रदूषण और खर्च है। बिल्कुल तबाही का मंजर है यह। आप अगर एवरेस्ट पर जाएं तो यह उम्मीद नहीं करेंगे न कि 100 लीटर का बाथटब लेकर जाएं, फ्लश टॉयलेट लेकर जाएं। जैसे आप एवरेस्ट के लिए माहौल के साथ ढलते हैं वैसे ही उतना नहीं तो लद्दाख की जरूरत के हिसाब से एडजस्ट करें। यह एक शीत मरुस्थल है और यहां के स्थानीय लोग कैसे रहते हैं, उस हिसाब से रहें तब वो टूरिज्म और रंगीन होता है। वही जिंदगी जो दिल्ली या मुंबई में है, उसी को हम लद्दाख या एवरेस्ट तक ले जाएं तो आप क्यों आएंगे। यहां जिस तरह रहना जरूरी है उसी तरह रहेंगे तो आप कुछ सीखकर जाएंगे। नया अहसास या तजुर्बा करके जाएंगे। 


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लेह को इस तरह का बना रहे हैं कि जिसमें सात मिलियन लीटर प्रति दिन पानी की जरूरत होगी। सबसे अधिक पानी मेरे ख्याल से फ्लश के लिए जा रहा है। इससे बचने के लिए कंपोस्ट टॉयलेट का उपयोग करना चाहिए। कंपोस्ट टॉयलेट बोलने का मतलब यह नहीं कि शौचायल 100 साल पुराना ही हो, सिद्धांत वही हो लेकिन उसका आधुनिकीकरण हो।

ऐसे तरीके जो हमारे पूर्वजों से हमें मिले हैं, उन्हें बेहतर करने के बजाए हम वही कॉपी कर रहे हैं जो श्रीनगर ने दिल्ली से कॉपी किया, और दिल्ली ने लंदन से, और लंदन में ही गलत हुआ था ये।

 

बैनर तस्वीरः लद्दाख के नाजुक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अभियान के तहत सोनम वांगचुक ने जून 2023 में क्लाइमेट फास्ट (जलवायु उपवास) रखा। तस्वीर– सोनम वांगचुक/ट्विटर

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