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आर्थिक विकास और वित्तीय स्थिरता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की जांच करती आरबीआई की रिपोर्ट

मुंबई शहर। नेट जीरो के लक्ष्य को पाने के लिए बिजली क्षेत्र सहित सभी कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर उत्सर्जन कम करने की जरूरत है। तस्वीर- जोनाह/फ़्लिकर।

  • भारतीय रिज़र्व बैंक की मुद्रा और वित्त (करेंसी एंड फाइनेंस) पर हालिया रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर ध्यान दिया गया है। यह रिपोर्ट ऊर्जा में बदलाव और निवेश के लिए राजकोषीय नीति की भूमिका को रेखांकित करती है।
  • रिपोर्ट जलवायु, अर्थव्यवस्था, वित्तीय प्रणालियों और संबंधित नीतियों के संचालन के जटिल और असामान्य तरीकों की जांच करती है। साथ ही इसमें जलवायु कार्रवाई में आरबीआई जैसे केंद्रीय बैंकों की भूमिका पर भी चर्चा की गई।
  • इसमें कहा गया है कि ग्रीन एनर्जी की तरफ जाने के लिए एक क्षेत्र-विशिष्ट दृष्टिकोण तभी सफल हो सकता है जब सभी प्रमुख कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में उचित और निरंतर प्रगति हासिल की जाए।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 2022-23 के लिए मुद्रा और वित्त रिपोर्ट (आरसीएफ) में मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन पर ध्यान दिया है। यह भारत में केंद्रीय बैंकिंग और व्यापक आर्थिक मुद्दों से संबंधित समसामयिक मुद्दों पर एक थीम-आधारित वार्षिक रिपोर्ट है। इस साल की रिपोर्ट नीतिगत प्राथमिकता के रूप में जलवायु लक्ष्यों पर जोर देती है और भारत के लिए जलवायु परिवर्तन के संभावित व्यापक-वित्तीय परिणामों का विश्लेषण करती है।

इस साल 3 मई को प्रकाशित की गई इस रिपोर्ट का विषय “हरित स्वच्छ भारत की ओर” है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ जाने में राजकोषीय नीति की मुख्य भूमिका हो सकती है। साथ ही रिपोर्ट में ग्रीन टैक्सोनॉमी की तत्काल जरूरत को रेखांकित किया है। ग्रीन टैक्सोनॉमी एक वर्गीकरण प्रणाली है जो विस्तार से बताती है कि कौन से निवेश विकल्प टिकाऊ हैं और कौन से नहीं। रिपोर्ट तैयार करने में शामिल विशेषज्ञों का कहना है कि भारत ने अपनी ग्रीन टैक्सोनॉमी तैयार कर ली है लेकिन अभी तक इसे जारी नहीं किया है।

रिपोर्ट विश्व स्तर पर और भारत में जलवायु परिवर्तन और नीतिगत कार्रवाई के भौतिक संकेतकों पर गौर करती है। इसमें भारत में जलवायु परिवर्तन के बड़े स्तर पर आर्थिक प्रभाव, जलवायु परिवर्तन एवं वित्तीय क्षेत्र और जलवायु जोखिमों को कम करने के लिए नीति विकल्पों पर चर्चा की गई है।

जलवायु कार्रवाई के लिए जरूरी प्रयास के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है, “2070 तक नेट जीरो लक्ष्य पाने के लिए भारत को ऊर्जा तीव्रता में कमी लानी होगी, इतनी कमी कि वह सकल घरेलू उत्पाद का 5% रह जाए। वहीं 2070-71 तक नवीकरणीय ऊर्जा के पक्ष में अपने एनर्जी मिक्स में लगभग 80% तक महत्वपूर्ण सुधार की जरूरत है। 2030 तक, ग्रीन एनर्जी के लिए भारत की वित्तीय जरूरत सालाना सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 2.5% होने का अनुमान है।” 

इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में भारत में आरबीआई जैसे केंद्रीय बैंकों की भूमिका पर भी चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है, “इस बात की मान्यता बढ़ रही है कि भले ही सरकारें जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे प्रभावशाली एजेंसी हैं, लेकिन केंद्रीय बैंकों और वित्तीय क्षेत्र के नियामकों सहित सभी संस्थानों की भूमिका भी कम नहीं है, क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करेंगे तो उनके पूरे ढांचे का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।” यह रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक में आर्थिक नीति अनुसंधान के लिए एक नॉलेज सेंटर ‘आर्थिक और नीति अनुसंधान विभाग’ (डीईपीआर) में कार्यरत लेखकों ने तैयार की है।

पवन टरबाइन ब्लेड को एक बड़े ट्रक से ले जाते हुए। तस्वीर: Pxshere

जलवायु परिवर्तन को अपने केंद्रीय विषय के रूप में चुनने वाली आरबीआई की रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) की सहायक प्रोफेसर सुरंजलि टंडन का कहना है कि आरबीआई ग्रीन फाइनेंस को सुव्यवस्थित करने के लिए क्रमिक और चरणबद्ध नजरिए से काम कर रही है। इससे पहले, इसने जलवायु-संबंधी वित्तीय जोखिमों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी और फिर हाल ही में जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के साधन के रूप में ग्रीन डिपॉजिट पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। अब, नया आरसीएफ भी जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। आरबीआई रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन पर लगातार ध्यान इस विषय की मुख्यधारा में आने का संकेत देता है।

आरबीआई अब तक महंगाई को नियंत्रित करते हुए वित्तीय प्रणाली के नियामक की भूमिका निभाता रहा है। वह कहती हैं कि यह वित्तीय जोखिम को कम करने में एक नियामक भूमिका निभाता है, इसलिए आरबीआई को वित्तीय परिसंपत्तियों पर भौतिक और परिवर्तनीय संबंधी जोखिमों का आकलन करना है।

जलवायु जोखिम से वित्तीय स्थिरता को खतरा

आरसीएफ रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के लिए वित्तीय स्थिरता बेहद जरूरी है। इसके रहते ही वो जलवायु परिवर्तन के जोखिमों का सामना कर सकते हैं। क्योंकि वित्तीय स्थिरता ही उन्हें निवेशकों से जोड़े रख सकती है।

जलवायु आपदाओं से अक्सर प्रभावित होने वाले देशों में मुद्रा अवमूल्यन का दबाव वित्तीय अस्थिरता, उच्च आयात लागत और व्यापार की नकारात्मक शर्तों का कारण बन सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस संदर्भ में, दुनिया भर के केंद्रीय बैंक धीरे-धीरे अपने उद्देश्यों को मूल दायरे या फोकस से आगे बढ़ा रहे हैं।

पश्चिम बंगाल के बक्खाली में मुख्य भूमि से बिजली की आपूर्ति बाधित हो सकती है। साथ ही यह कोल्ड-स्टोरेज चैन के रखरखाव जैसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपयोगिताओं को भी प्रभावित करेगी। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और भंडारण का इस्तेमाल करके इन मामलों का समाधान किया जा रहा है। तस्वीर- अमित्व चंद्रा/क्लाइमेट विजुअल्स

जलवायु परिवर्तन मुद्रास्फीति और वित्तीय संपत्तियों को कैसे प्रभावित कर सकता है, इसके अन्य उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन भोजन और ऊर्जा की कम आपूर्ति से होने वाले नुकसान के जरिए मूल्य स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।

इसके अलावा, जब कंपनियों और परिवारों को लगातार प्राकृतिक आपदाओं के कारण पैसों का नुकसान होता है, तो मांग को झटका लग सकता है। भौतिक और परिवर्तनीय जोखिम वित्तीय संस्थानों और बैंकों की बैलेंस शीट को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे वास्तविक अर्थव्यवस्था में ऋण का प्रवाह सीमित हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु की वजह से होने वाली अनिश्चितता परिवारों को एहतियातन ज्यादा बचत करने पर मजबूर कर सकती है, जिससे वास्तविक संतुलन ब्याज दर में कमी आ सकती है। यह वो ब्याज दर है जिस पर पैसे की मांग आपूर्ति से मेल खाती है।

अलग-अलग क्षेत्रों पर असर

रिपोर्ट अलग-अलग क्षेत्रों मसलन बिजली, मोबिलिटी, औद्योगिक, कृषि में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर चर्चा करती है। यह क्षेत्रीय हरित परिवर्तन चुनौतियों पर भी प्रकाश डालती है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र को डीकार्बनाइज करना सबसे मुश्किल काम है क्योंकि यह अत्यधिक ऊर्जा गहन क्षेत्र है और इसमें काफी बड़ा निवेश भी है। इस क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए उत्पादन प्रक्रियाओं, महंगी रेट्रोफिट्स, विकास और नई तकनीकों को लाने के साथ-साथ व्यावसायिक तरीकों और नीतियों में बड़े बदलाव की जरूरत होगी।

रिपोर्ट कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के एक पैटर्न के बारे में भी बात करती है। इसमें कहा गया है कि इसका प्रभाव बागवानी में अधिक दिखाई देता है, खास तौर पर सब्जियों पर। यह जल्दी खराब होने वाले उत्पाद हैं और बागवानी फसलें मौसम की चरम घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। इसकी तुलना में, खाद्यान्न उत्पादन पर प्रभाव हल्का लगता है, शायद इसलिए क्योंकि खाद्यान्न उत्पादन भौगोलिक रूप फैला हुआ है। और वैसे भी जलवायु घटनाओं की प्रकृति एक क्षेत्र विशेष तक सीमित होती है।

मुद्रा और वित्त पर आरबीआई की हालिया रिपोर्ट में जलवायु पर ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट बागवानी पर भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रेखांकित करती है। तस्वीर- तपेश यादव/विकिमीडिया कॉमन्स

इसके अलावा, रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने के अलावा, ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में कृषि की एक बड़ी भूमिका है। भारत में, कृषि क्षेत्र लगभग 14% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इसके अलावा, यह क्षेत्र देश में इस्तेमाल की जाने वाली कुल बिजली का लगभग 17% और लगभग 5.9 लाख टन डीजल की खपत करता है। इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से पूरे भारत में 2 करोड़ पानी पंपों को बिजली देने के लिए किया जाता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि हरित परिवर्तन के लिए एक क्षेत्र-विशिष्ट दृष्टिकोण तभी सफल हो सकता है जब सभी प्रमुख कार्बन-उत्सर्जक क्षेत्रों में उचित और निरंतर प्रगति हासिल की जाए। इसमें राज्य और स्थानीय सरकारों से लेकर निजी कॉर्पोरेट्स और गैर सरकारी संगठनों तक सभी हितधारकों की सक्रिय भागीदारी की जरूरत होगी।

 

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना

रिपोर्ट में कहा गया है कि नेट जीरो लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बिजली, परिवहन, औद्योगिक उत्पादन प्रक्रियाओं, निर्माण गतिविधि और कृषि जैसे सभी कार्बन-उत्सर्जक क्षेत्रों में बड़े स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत होगी। इसके अलावा, यह नागरिकों को अपनी आदतों और उपभोग प्राथमिकताओं को बदलने के लिए प्रेरित करने पर भी जोर देती है।

रिपोर्ट में कहा गया है, भारत के मौजूदा वार्षिक कार्बन उत्सर्जन में से लगभग 40% जीवाश्म ईंधन की वजह से होता है। इसे हम नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ जाकर कम कर सकते हैं। इसके अलावा 15% को घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) और ऊर्जा-कुशल विद्युत उपकरणों में स्विच करके कम किया जा सकता है। हालांकि, बाकी का 45%, उत्सर्जन भारी उद्योगों, पशुपालन और कृषि जैसे क्षेत्रों से जुड़ा है जहां उत्सर्जन को कम करना एक मुश्किल काम है। रिपोर्ट कहती है, “उन्हें कम करना मुश्किल है क्योंकि या तो ग्रीन एनर्जी की तरफ जाने में मदद करने वाली तकनीक उपलब्ध नहीं है, या लागत काफी ज्यादा है।” 

रिपोर्ट उचित कार्बन मूल्य निर्धारण के बारे में बात करती है जो 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को 80% तक कम करने के लिए महत्वपूर्ण होगा। भारत का ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2022 कार्बन मूल्य निर्धारण के महत्व को पहचानता है और इसका लक्ष्य कार्बन बाजार या उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (ईटीएस) विकसित करना है। 

रिपोर्ट में कहा गया है, “कार्बन करों से सार्वजनिक राजस्व जुटाने और अन्य करों के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के साथ-साथ कोयले से बिजली उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्थानांतरित करने की उम्मीद है।”

रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि मिटीगेशन, अनुकूलन और आपदा प्रबंधन के लिए भारी संसाधनों की जरूरत होगी, और भारत को 2050 तक 7.2 ट्रिलियन डॉलर से 12.1 ट्रिलियन डॉलर की सीमा में अनुमानित नए निवेश की व्यवस्था करनी होगी।

यह रिपोर्ट एक और चुनौती यानी तकनीक और खनिजों तक पहुंच पर प्रकाश डालती है। बैटरियों में प्रयुक्त नई तकनीकों पर बढ़ती निर्भरता, सौर पैनल और पवन टरबाइन, ग्रीन हाइड्रोजन, कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन और स्टोरेज (सीसीयूएस) और ई-कचरा प्रबंधन के लिए अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) और रणनीतिक सहयोग पर अधिक खर्च करने की जरूरत होगी। रिपोर्ट के अनुसार, पैसा जुटाने के लिए एक अलग वित्तीय तंत्र पर चर्चा करनी होगी। 

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के एक विजिटिंग फेलो श्रीनाथ श्रीधरन का कहना है कि आरबीआई ने जलवायु पर आम सहमती से संबंधित बातचीत को एक नई दिशा दी है, उन्होंने जलवायु जोखिमों और अनुकूलन चुनौतियों, जलवायु फाइनेंस के आसपास के विचारों, या ईएसजी मानकों की जरूरतों पर प्रकाश डाला है। आरबीआई ने सभी हितधारकों को सहयोग करने की जरूरत पर जोर दिया, अब चाहे वह नीति निर्माता, नागरिक समाज, कॉर्पोरेट, वित्तीय संस्थान, शिक्षाविद और नई अर्थव्यवस्था के परिवर्तनकारी उद्योग हों।

श्रीधरन कहते हैं, हालांकि, चुनौती उपयोगकर्ता क्षेत्रों की ओर से आती नजर आ रही हैं। उनका कहना है कि भारत सरकार की सकारात्मक और सक्रिय जलवायु पहलों और आरबीआई द्वारा अपने नीतिगत विचार नेतृत्व को प्रदर्शित करने के बावजूद अभी भी औद्योगिक क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। वित्तीय संस्थान जो जलवायु, हरित और ईएसजी की अवधारणा के लिए दिखावा कर रहे हैं, उन्हें अब संस्थागत रूप से अपना सबसे बड़ा परिवर्तन प्रबंधन शीघ्रता से करना होगा। उन्होंने कहा कि आरबीआई की यह रिपोर्ट उनके लिए एक अच्छा रिमाइंडर है। 

 

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बैनर तस्वीर: मुंबई शहर। नेट जीरो के लक्ष्य को पाने के लिए बिजली क्षेत्र सहित सभी कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर उत्सर्जन कम करने की जरूरत है। तस्वीर– जोनाह/फ़्लिकर।

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