- जंगलों से जुड़ी बहाली परियोजना के बाद साउंडस्कैप के जरिए पक्षियों की आवाज़ की रिकॉर्डिंग और निगरानी से जंगल की सेहत में आ रहे बदलाव का पता लगाने में मदद मिल सकती है।
- वैज्ञानिक पक्षियों की आवाज़ सुनने और आक्रामक प्रजाति की झाड़ी ‘लैंटाना कैमारा’ को हटाने के बाद फिर से बहाल किए गए शुष्क, पतझड़ जंगलों की सेहत में बदलाव की निगरानी करने के लिए पूर्वी मध्य प्रदेश में पेड़ों के चारों ओर रिकॉर्डर लगा रहे हैं।
- इस तरह के साउंडस्कैप माप जंगलों में लंबी अवधि में हो रहे बदलावों पर नज़र रखने के लिए आधारभूत डेटा दे सकते हैं। लेकिन बहाली से जुड़े असरदार नतीजे पाने के लिए बायोएकोस्टिक को जमीनी हकीकतों के साथ देखने की जरूरत है।
“हम लैंटाना (विदेशी प्रजाति का एक पौधा) के प्रकोप से आजाद हैं,” मध्य भारत में स्थानीय समुदाय के एक सदस्य बसंत झारिया मुस्कुराते हुए कहते हैं। यह क्षेत्र कभी आक्रामक लैंटाना पौधों से भरा हुआ था।
वे पूर्वी मध्य प्रदेश के मंडला जिले के चिचचारी गांव में जमीन के एक हिस्से में मुरझाई हुई लैंटाना झाड़ियों की ओर इशारा करते हैं। एक समय में यह टीला लैंटाना की झाड़ियों से भरा हुआ था। यह जगह भारत में शुष्क, पतझड़ वाले जंगलों का एक अहम हिस्सा है।
झारिया 14 हेक्टेयर की सामुदायिक जमीन पर लैंटाना के साथ अपने और अपने समुदाय के अनुभव के बारे में बताते हैं। वो कहते हैं, “अपनी अभेद्य झाड़ियों के साथ यह आक्रामक प्रजाति समुदाय को अपनी आजीविका के लिए जमीन के एक छोटे से हिस्से तक पहुंचने से रोकती थी। यहां लैंटाना ने तेंदू और महुआ जैसे देशी पौधों की बढ़ोतरी को रोक दिया था। इन पौधों की उपज को मौसम के हिसाब से एकत्र किया जाता है और फिर बेचा जाता है। इसका इस्तेमाल रोजमर्रा की जरूरतों (औषधीय पौधों और पशुओं को चराने) के लिए भी किया जाता है।
दशक 1800 की शुरुआत में भारत में सजावटी पौधे के रूप में इसे लगाया गया था। लैंटाना बगीचों से निकल कर पारिस्थितिक तंत्र में फैल गया। अब इसका फैलाव मध्य भारत में एक बड़े क्षेत्र तक है। यही नहीं अकेले भारत के बाघ क्षेत्र के 40 प्रतिशत हिस्से तक इसका फैलाव है। क्षेत्र के लोग लैंटाना को “बारहमसिया” कहते हैं। हिन्दी में इसका मतलब ‘12 महीनों का‘ होता है, क्योंकि यह पूरे साल हरा-भरा रहता है। झारिया याद करते हैं, “हम अपने खेतों को फसल पर हमला करने वाले जंगली जानवरों से भी बचाते थे क्योंकि वे लैंटाना की झाड़ियों में छिपते थे।”
इसके बाद समुदाय के लोगों ने साल 2017 में खुद से लैंटाना की घनी झाड़ियों को हटाना शुरू किया। इस कोशिश को बाद में राज्य वन विभाग और फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी की मदद मिली। झारिया कहते हैं, “धीरे-धीरे, जंगल वापस आ गया… लैंटाना को हटाने के साथ औषधीय पौधे वापस उग आए। हम लैंटाना को हटाने के लिए जमीन की निगरानी करना जारी रखे हुए हैं।”
लैंटाना को हटाने के बाद स्थानीय मूल और महत्व के पेड़ों को लगाने से समुदाय को पारिस्थितिकी तंत्र से मिलने वाले आजीविका से जुड़े लाभ फिर से मिलने लगे। साथ ही फिर से बहाल किए गए क्षेत्र ने ध्वनि परिदृश्य (साउंडस्कैप) पर भी अपनी छाप छोड़ी, जो पारिस्थितिक स्वास्थ्य में योगदान करने के लिए छोटे पैमाने पर इन बहाली प्रयासों की क्षमता के बारे में बताता है। कोलंबिया विश्वविद्यालय से हाल ही में स्नातक और ध्वनि–विज्ञान अनुसंधान सहयोग, प्रोजेक्ट ध्वनि की सह-संस्थापक, रेस्टोरेशन इकोलॉजिस्ट पूजा चोकसी कहती हैं।
चोकसी ने मंडला में फिर से इन जगहों की अपनी यात्रा पर मोंगाबे-इंडिया को बताया, “ध्वनि से जुड़े बहुत सारे रिसर्च जो हुए हैं वे बड़े पैमाने पर गीले जंगलों में हुए हैं। तो कुल मिलाकर, मैं कहूंगा कि पतझड़ वाले शुष्क जंगल एक कम प्रतिनिधित्व वाले बायोम थे। ”
चोकसी और उनके सहयोगियों ने पूर्वी मध्य प्रदेश के लैंडस्केप बहाली परियोजना के बाद साउंडस्कैप में आए बदलाव की निगरानी के लिए ध्वनि रिकॉर्डर का इस्तेमाल किया। यह अध्ययन मंडला के एक उप-जिले बिछिया में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में आधिकारिक रूप से बनाए गए बफर में फिर से बसाए गए गांवों में किया गया था। यह जगह बाघों का एक अहम निवास स्थान है। शोधकर्ताओं ने बहाली परियोजना (लैंटाना हटाने के जरिए) को समझने के लिए पक्षियों की आवाजों पर ध्यान दिया। इन जगहों में चिचचारी भी शामिल है।
उन्होंने अध्ययन वाली जगहों में तीन स्थानों पर पेड़ के तनों पर आवाज को रिकॉर्ड करने वाले यंत्र लगाए- बहाल क्षेत्र, लैंटाना कैमारा के प्राकृतिक रूप से कम घनत्व वाले जंगल और आक्रामक झाड़ी के ज्यादा घनत्व वाले जंगल। नतीजों से पता चलता है कि फिर से बहाल की गई जगहों पर साउंडस्केप ज्यादा सक्रिय था (फिर से बहाल साइटों पर ज्यादा ध्वनियां), “जो आमतौर पर पारिस्थितिक स्वास्थ्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है।” लेकिन लैंटाना कैमारा के खत्म होने के बाद जानवरों के फिर से आने का एक अस्थायी असर भी हो सकता है।
दो सालों में 55 नमूना स्थलों का अध्ययन किया गया। चोकसी और उनके सहयोगियों ने पाया कि हालांकि सभी साइटों पर पक्षी प्रजातियों की कुल संख्या में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था। लेकिन जब उन्होंने इसे सामान्य प्रजातियों (वे जो खेत से जंगल तक अलग-अलग तरह के आवासों में रह सकते हैं) में बांटा तो कुछ अंतर दिखे।
चौकसी कहती हैं, “जिन साइटों को बहाल नहीं किया गया था वहां सामान्य प्रजातियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। इसका मतलब है कि उन्हें जीवित रहने के लिए जंगल में पाए जाने वाले खास तरह के पेड़ों की जररूत नहीं है। चोकसी कहते हैं, जंगल से जुड़ी प्रजातियों के संदर्भ में, हमें कोई खास अंतर नहीं मिला, लेकिन निश्चित रूप से हमने पाया कि फिर से बहाल की गई साइटों में, बहाल नहीं की गई साइटों की तुलना में वन से जुड़ी प्रजातियों की संख्या ज्यादा थी।”
भारत बॉन चैलेंज के तहत साल 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर और वनों की कटाई वाली भूमि को बहाल करने पर जोर दे रहा है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बायोकॉस्टिक्स (जैव ध्वनिकी) ऐसी कोशिशों के दीर्घकालिक सामाजिक और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले असर की निगरानी में प्रभावी तरीके से मदद कर सकता है। एक ही नमूना अवधि में पक्षियों की आवाज़ और कीड़ों का दस्तावेजीकरण करने के लिए भौतिक सर्वेक्षण से ध्वनि परिदृश्य को मापने के पूरक के रूप में पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले बदलावों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी।
वह कहती हैं, “यह देखते हुए कि उष्णकटिबंधीय शुष्क वन कितनी धीरे-धीरे फिर से बहाल होते हैं, मुझे लगता है कि अगर इन जंगलों में कोई बदलाव होता है, तो इन्हें देखने में कुछ और साल लगेंगे।”
दिल्ली विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन विभाग में प्रोफेसर एमेरिटस और बहाली से जुड़े वैज्ञानिक सीआर बाबू ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “कीड़ों और स्तनधारियों के साथ पक्षियों की बायोकॉस्टिक्स का संयोजन बहाली की सफलता की निगरानी के लिए काफी अच्छे महत्वपूर्ण पैरामीटर प्रदान करेगा। पूरी तरह से बहाल पारिस्थितिकी तंत्र में जैव विविधता होनी चाहिए और गिरावट से पहले की तरह काम करना चाहिए।” हालांकि वो बायोकॉस्टिक्स रिसर्च से जुड़े नहीं थे।
बाबू पूछते हैं, “लेकिन आप बहाल किए गए पारिस्थितिकी तंत्र और लैंटाना से प्रभावित पारिस्थितिकी तंत्र के बीच अंतर कैसे करेंगे जिसने पक्षियों को आकर्षित किया है?”
हाल ही में कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क (जीबीएफ) अपनाया गया था। यह प्रकृति की रक्षा के लिए एक वैश्विक नीति है। इसमें प्रकृति-आधारित समाधानों को मान्यता दी गई है, जिसमें पारिस्थितिकी बहाली जैसे सफल प्रकृति-आधारित समाधानों को रेखांकित करने वाले जैव विविधता लाभ शामिल हैं।
जैव विविधता से होने वाले फायदों को लेकर लोगों की धारणा
चोकसी अपने शोध में समुदायों द्वारा उपयोग किए जाने वाले जंगलों में फिर से बहाल की गई जगहों पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी। वह कहती हैं, ”यह एक ऐसा परिदृश्य है जहां लोग जंगलों पर निर्भर हैं। यही कारण है कि स्वस्थ जंगल बनाने के बारे में उनकी धारणाएं भी मायने रखती हैं। अध्ययन के लिए उन्होंने जो संदर्भ स्थल चुने वे इस बात पर आधारित थे कि लोग उन्हें स्वस्थ जंगल मानते हैं।
“ज्यादातर समय, लोग कहते थे, ‘थोड़ा साफ होना चाहिए, चल सकते हैं‘ (यह इतना स्पष्ट और प्रवेश योग्य होना चाहिए ताकि वे जंगल में चल सकें) और वे जंगल में कुछ खास प्रजातियां चाहते थे। यह मौसमी रूप से शुष्क जंगल हैं, हमारे पास थोड़ा चलने योग्य जंगल है, मैं गीले जंगलों की तुलना में उन्हें चलने योग्य कहना पसंद करता हूं। तो, अधिकांश समय, उनका मतलब यह था कि उस जंगल में कोई लैंटाना नहीं था।
दुधिया, एक देशी औषधीय प्रजाति है, जो लैंटाना की तरह जंगल छाया में उगती है, लेकिन इसकी बढ़ोतरी से लोगों की आवाजाही में बाधा नहीं आती है।
“तो बहुत सी जगहें जिन्हें लोग बहुत स्वस्थ जंगल मानते थे, जिन्हें मैंने अपने पेपर में संदर्भ स्थलों के रूप में इस्तेमाल किया था, वे भी अपनी समझ में काफी समृद्ध थे, लेकिन यह लैंटाना की तरह नहीं था, जो लगभग अभेद्य है।”
चिचचारी में रहने वाले झारिया ने पाया कि बच्चों ने लैंटाना हटाने के बाद हाल ही में नीलकंठ पक्षी को देखा।
चोकसी ने कहा, “हमें वास्तव में अपनी बातचीत के केंद्र में धारणाओं को रखने की ज़रूरत है, क्योंकि एक मांसाहारी पारिस्थितिकी विज्ञानी के हिसाब से बाघों के लिए लैंटाना के बहुत सारे फायदे हैं; वे अपने बच्चों को वहां छोड़ देते हैं। यह शिकार के लिए बहुत अच्छा है, इससे अलग-अलग प्रजातियों को लाभ होता है, ठीक है। इसलिए हो सकता है कि अगर आपने मांसाहारी पारिस्थितिकी विज्ञानी से पूछा, तो वे कहेंगे कि एक बहाल नहीं की गई साइट शानदार है।” “लेकिन हो सकता है कि आप किसी स्थानीय समुदाय के सदस्य से पूछें जो सोचता है कि इससे उन प्रजातियों के विकास में बाधा आ रही है जो वे चाहते हैं, तो आपको एक अलग जवाब मिलेगा।”
मगध में दूल्हाधबराई जंगल के पास किसान प्रह्लाद, एक अन्य बहाल स्थल जो अध्ययन का हिस्सा है, अपने समुदाय के लिए एक स्पष्ट फायदा दिखाते हैं जिसका श्रेय वह बहाली (लैंटाना को हटाना) को देते हैं। उनका कहना है कि बहाली से फसलों को नीलगाय, चीतल और जंगली सूअर जैसे जानवरों से बचाने में मदद मिली है, जो सीधा आर्थिक लाभ है। लैंटाना की झाड़ियां जानवरों को छिपा देती थीं।
वो कहते हैं, “अगर हम दो एकड़ क्षेत्र में खेती करते हैं, तो फसलों पर जानवारों के हमले के कारण हमें एक एकड़ जमीन का नुकसान होगा।”
पिछले चार सालों से, मगध के 30 घरों में से एक या दो सदस्य अगस्त से अक्टूबर तक लैंटाना की निराई करने के लिए जमा होते हैं, जब जंगल की जमीन गीली होती है और झाड़ी में फूल नहीं आते हैं। उन्हें वन विभाग द्वारा भुगतान किया जाता है।
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प्रह्लाद कहते हैं, “जंगल पहले बहुत घना था। लैंटाना के खत्म हो जाने पर जब बड़े पेड़ों के नीचे छोटे पौधे उगने लगेंगे तो यह सघन हो सकता है। उन्हें विकास के लिए आवश्यक जगह मिल रही है। और पहले, जंगली जानवर उन फलों को खाते थे जो जमीन पर गिर जाते थे, जिससे नए पौधे नहीं उग पाते थे।”
चोकसी उन जंगलों पर करीब से नज़र डालने के लिए वनस्पति का भी विश्लेषण कर रही हैं जिन्हें अपने आप वापस आने के लिए छोड़ दिया गया है। साउंडस्केप रिसर्च ने एक आधारभूत डेटा तैयार किया है, जिसके बारे में शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि यह बायो-अकोस्टिक के साथ दीर्घकालिक निगरानी प्रोटोकॉल तैयार करने में काम आ सकता है।
“भले ही ज्यादा कुछ बताने में अकोस्टिक असमर्थ है, लेकिन मुझे लगता है कि हम इसे जमीनी डेटा से जोड़ने में उसी तरह बेहतर हैं, जिस तरह उपग्रह इमेजरी में… वास्तविक वन डेटा को उपग्रह से ली गई तस्वीर से जोड़ना।”
चोकसी कहते हैं, “मुझे लगता है कि हम उसी चरण से गुजर रहे हैं जहां हम वास्तविक जमीनी सच्चाई डेटा को इस (साउंडस्केप) डेटा से जोड़ना शुरू करते हैं।”
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बैनर तस्वीर: ग्रेटर रैकेट-टेल्ड ड्रोंगो। भारत में इसे भीमराज और भृंगराज के नाम से जाना जाता है। तस्वीर– बी मैड शहंशाह बापी/विकिमीडिया कॉमन्स।
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