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जम्मू-कश्मीर में बढ़ते राजमार्ग और सड़क दुर्घटनाओं में जानवरों के मरने की बढ़ती घटनाएं

पेरियार वन्यजीव अभयारण्य में सड़क पार करता बाइसन (जंगली भैंसा)। प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर- सैमसन जोसेफ/विकिमीडिया कॉमन्स 

पेरियार वन्यजीव अभयारण्य में सड़क पार करता बाइसन (जंगली भैंसा)। प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर- सैमसन जोसेफ/विकिमीडिया कॉमन्स 

  • उत्तर-पश्चिमी हिमालय की सड़कों पर अन्य रात्रिचर जीवजंतुओं की तुलना में फेलिड्स और कैनिड्स को सड़क दुर्घटनाओं का सबसे आम शिकार माना जाता है।
  • 2014 के बाद से जम्मू और कश्मीर में सड़कों पर वाहनों की संख्या 100% बढ़ गई है। चार नए राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण किया गया है।
  • तेंदुए, बंदर, नेवले, उभयचर और सरीसृप सहित कई गंभीर रूप से लुप्तप्राय और लगभग खतरे वाली प्रजातियां वाहनों की टक्कर का शिकार हो रही हैं।
  • सड़कों के किनारे लापरवाही से कूड़ा फेंकना इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण है।

सितंबर 2011 में, जम्मू यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेन एनवायरनमेंट (आईएमई) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने जम्मू-पुंछ राष्ट्रीय राजमार्ग पर सियार के एक जोड़े को मरा हुआ पाया। वन्यजीव शोधकर्ता नीरज शर्मा आईएमई की उस टीम का हिस्सा थे, जो उस दिन फ़ील्ड सर्वेक्षण के लिए निकली थी। उन्होंने कहा, “अफसोस की बात है कि मादा सियार गर्भवती थी। यह घटना मुझे परेशान करती रही। अगले कुछ सालों में, हमने बंदरों, लंगूरों, नेवले, गिलहरियों, लोमड़ियों, तेंदुओं, पक्षियों, सरीसृपों आदि जैसे जंगली जानवरों से जुड़ी ऐसी भयानक सड़क दुर्घटनाओं में लगातार वृद्धि देखी है।”

भारत में उत्तर-पश्चिमी हिमालय में वन्यजीवों की सड़क दुर्घटना में मौत एक बड़ी समस्या है। यह क्षेत्र एक वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट है जो तेंदुए, गंभीर रूप से लुप्तप्राय हंगुल या कश्मीर बारहसिंगा, भूरे भालू, संकटग्रस्त होने के करीब मार्खोर और हिमालयी ग्रिफॉन सहित अन्य प्रजातियों का घर है।

जैसे-जैसे वन्यजीवों के आवासों के पास से गुजरने वाली सड़कों पर वाहनों का दबाव बढ़ता जा रहा है, टक्कर लगने के बाद मरने वाले या घायल होने वाले जानवरों की संख्या में वृद्धि हो रही है। जम्मू और कश्मीर ट्रैफिक पुलिस के अनुसार, 2008 में जम्मू और कश्मीर में 6,68,445 वाहन थे। बाद के सालों में यह संख्या बढ़ती गई। 2010, 2011 और 2012 में वाहन संख्या में क्रमशः 10.34%, 11.92% और 11.98% की वृद्धि हुई। वहीं 2012 में 9,16,898 वाहन दर्ज किए गए। 2022 तक जम्मू-कश्मीर में लगभग 14 लाख वाहन पंजीकृत थे, जो पिछले 14 वर्षों में 100% बढ़ोतरी का संकेत देता है। इसके साथ ही, केंद्र शासित प्रदेश में राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या 2014 में सात से बढ़कर 2021 में 11 हो गई है। 2015 में भी 40,900 करोड़ रुपये की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की घोषणा की गई थी।

2022 तक जम्मू-कश्मीर में लगभग 14 लाख वाहन पंजीकृत थे, जो पिछले 14 सालों में 100% वृद्धि का संकेत देते हैं। फोटो-शुभम बदयाल/विकिमीडिया कॉमन्स।
2022 तक जम्मू-कश्मीर में लगभग 14 लाख वाहन पंजीकृत थे, जो पिछले 14 सालों में 100% वृद्धि का संकेत देते हैं। तस्वीर– शुभम बदयाल/विकिमीडिया कॉमन्स।

सड़कों पर फेलिड्स और कैनिड्स को सबसे ज्यादा खतरा 

राजमार्गों पर बढ़ते वाहन, खासतौर पर लाल लोमड़ी और सुनहरे सियार जैसे छोटे मांसाहारी जानवरों की मौत की वजह बन रहे हैं। वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि सड़कों और वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण अब उनकी मौतों की संख्या भी बढ़ गई है।

दक्षिण कश्मीर में शोपियां जिले के वन्यजीव वार्डन इंतेसार सुहैल ने पाया कि राष्ट्रीय राजमार्ग का हाल ही में निर्मित हिस्सा, काजीगुंड शहर से होकर गुजरता है। यह इलाका धान के खेतों से घिरा हुआ है, जो सितंबर और अक्टूबर में फसल के मौसम के दौरान लोमड़ियों और सियार सहित छोटे जानवरों को आश्रय देता है। उन्होंने कहा, “सियार और लोमड़ी रहने के लिए जगह, भोजन या साथी की तलाश में हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं। हालांकि, सड़क उनके बीच एक बाधा रूप में आती है। उन्हें महत्वपूर्ण संसाधनों तक पहुंचने के लिए इसे पार करना होता है। सियार और लोमड़ी दोपहर को कम ही निकलते हैं। वो शाम या रात के दौरान सड़क पार करते हैं। इसीलिए उनकी ज्यादातर मौतें रात के दौरान देखने को मिलती है। साथ ही, वाहनों की हेडलाइट्स की वजह से स्तनधारियों को कुछ भी दिखाई देना बंद हो जाता जिसके चलते उनकी मौत हो जाती है।”

मार्च से अगस्त 2019 तक श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग के 45 किलोमीटर की दूरी पर सड़क दुर्घटना पैटर्न पर कश्मीर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन को पिछले साल सितंबर में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इकोलॉजी एंड एनवायर्नमेंटल साइंसेज ने प्रकाशित किया था। राजमार्ग सिंध घाटी से होते हुए, मध्य कश्मीर में और थाजवास बालटाल वन्यजीव अभयारण्य से सटे दर्रे से होकर गुजरता है।

छह महीने के सर्वेक्षण में 19 वर्टब्रेट प्रजातियों सहित 64 जानवरों की सड़क दुर्घटना में मौत को दर्ज किया गया था। इस दौरान प्रति माह औसतन 10.6 मौतें दर्ज की गईं, जिनमें ज्यादातर सुनहरे सियार और लाल लोमड़ियां थीं।

उत्तर-पश्चिमी हिमालय में राजमार्ग पर पड़ा एक सियार। तस्वीर- नीरज शर्मा।
उत्तर-पश्चिमी हिमालय में राजमार्ग पर पड़ा एक सियार। तस्वीर- नीरज शर्मा।

अध्ययन में कहा गया है, “मरने वाले जीवों में सबसे ज्यादा स्तनधारी 37.5% थे, उसके बाद पक्षी (24%), सरीसृप (21%) और उभयचर (17%) थे। उभयचरों और सरीसृपों को छोड़कर, गैर-संरक्षित क्षेत्रों से सटे सड़क खंडों की तुलना में संरक्षित क्षेत्रों (59%) से सटी सड़कों पर काफी अधिक सड़क दुर्घटनाएं हुईं।”

वाहनों की टक्कर लगने की वजह से सड़क पर जंगली जानवरों की मौत पर एक अन्य अध्ययन में 33 महीनों तक सर्वे किया गया। शोधकर्ताओं की टीम ने जम्मू और कश्मीर में बटोटे (जम्मू) को कश्मीर घाटी से जोड़ने वाले पहाड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग 244 पर यह सर्वे किया था। साल 2022 में प्रकाशित निष्कर्षों से पता चला कि सड़क, सड़कों के किनारे और घाटियों की ढलानों पर वर्टब्रेट जीवों की 13 प्रजातियों के 49 शव दर्ज किए गए थे। इनमें सात स्तनधारी, चार पक्षी और दो सरीसृप शामिल थे।

इस अध्ययन के सह-लेखक नीरज शर्मा ने कहा कि यह जानवरों के शव थे। जांच करने से संकेत मिलता है कि ये प्रजातियां रात में तेज़ गति से चलने वाले वाहनों से टकरा गईं या कुचल दी गईं, क्योंकि इनमें से ज्यादातर रात्रिचर जानवर थे। 


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उन्होंने कहा, “रात के समय, जानवरों को भोजन की तलाश में बाज़ारों और कूड़े के ढेरों के आसपास घूमते देखा जा सकता है। शिकारी जानवर पानी और भोजन के स्रोतों की तलाश में पहाड़ से नीचे की ओर अपना रास्ता बनाते हैं। जिसकी वजह से ये लापरवाही से गाड़ी का शिकार बन जाते हैं। हमारे अध्ययन में पाया गया कि स्तनधारी अन्य टैक्सा प्रजाति की तुलना में अधिक प्रभावित होते हैं, जिनमें ज्यादातर रात्रिचर जानवर भी शामिल हैं।

शर्मा ने कहा, “सड़क से संबंधित वन्यजीवों की मौत के बारे में पढ़ने पर पता चलता है कि सभी जानवरों की सड़क पर मौत का खतरा होता है, लेकिन रात के जानवर, विशेष रूप से फेलिड और कैनिड, अधिक असुरक्षित होते हैं।”

अध्ययन में एक छोटी बस्ती के आसपास एक प्रमुख सड़क दुर्घटना समूह का भी पता चला, जहां सड़क के किनारे खुले में कचरा फेंका जाता है और यहां एक जल स्रोत भी है। वन्यजीव भोजन और पानी की तलाश में यहां बार-बार आते हैं, जिससे उन्हें वाहनों की टक्कर लगने का जोखिम बढ़ जाता है।

सड़कों का प्रभाव

भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक बिवाश पांडव, वन्यजीव मृत्यु दर पर सड़कों के प्रभाव के बारे में बात करते हुए कहा कि इन घटनाओं पर तभी ध्यान दिया जाता है जब ये बड़े शाकाहारी या मांसाहारी जानवर होते हैं।  उन्होंने बताया, हमारे पास ईरान में एशियाई चीता का एक उदाहरण है। पिछले 60 सालों में सिर्फ ईरान में ही एशियाई चीतों की आबादी पाई जाती है। लेकिन इससे पहले ये कभी मध्य पूर्व से लेकर भारत तक पश्चिम और दक्षिण एशिया के विशाल क्षेत्रों में पाए जाते थे। आईयूसीएन द्वारा गंभीर रूप से लुप्तप्रायके रूप में सूचीबद्ध है। यह एशियाई चीता उप-प्रजाति स्तर पर दुनिया की सबसे दुर्लभ बिल्लियों में से एक है। माना जाता है कि 50 से भी कम चीते ईरान में बचे हैं। वे सिर्फ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाकों में ही पाए जा सकते हैं। उनकी गिरावट का सबसे बड़ा कारक सड़कें हैं जो उनके आवासों को तहस-नहस कर रहा हैं।

द हैबिटेट्स ट्रस्ट के वन्यजीव जीवविज्ञानी अनुप प्रकाश कहते हैं कि वन्यजीवों पर सड़कों के अप्रत्यक्ष प्रभावों को मापना और उनसे निपटना आमतौर पर काफी मुश्किल होता है।

प्रकाश ने कहा, “वे तब होते हैं जब कोई सड़क प्राकृतिक या सामाजिक वातावरण को बदल देती है जिसके परिणामस्वरूप नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, सड़कें अवैध शिकार, वनों की कटाई, आक्रामक प्रजातियों का प्रसार, सघन खेती, सड़कों के पास माइक्रॉक्लाइमेट में बदलाव जैसी अवैध मानवीय गतिविधियों में वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए जानी जाती हैं।

केवलादेव नेशनल पार्क में एक सुनहरा सियार। प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर- पी जेगनाथन/विकिमीडिया कॉमन्स
केवलादेव नेशनल पार्क में एक सुनहरा सियार। प्रतीकात्मक तस्वीर– पी जेगनाथन/विकिमीडिया कॉमन्स

उप-सहारा अफ्रीकी पारिस्थितिक तंत्र में सड़कों के प्रभाव पर एक समीक्षा से पता चला कि सड़कों की वजह से पारिस्थितिक तंत्र तक पहुंच ने अवैध शिकार और कटाई के साथ-साथ लैंडयूज पैटर्न को प्रभावित किया है। अध्ययनों से पता चला है कि कांगो गणराज्य में पेड़-पौधों के बीच से बनाई गई सड़कों का हाथियों का शिकार करने वालों शिकारियों के द्वारा बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है। हाथी और चिंपांज़ी के रहने के क्षेत्रों पर इसका एक बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

प्रकाश ने कहा, “भारत में छोटे आकार के संरक्षित क्षेत्रों और लुप्तप्राय जानवरों की सीमित आबादी के साथ, सड़कें उन लोगों द्वारा अवैध शिकार के लिए सीधे तौर पर इस्तेमाल की सकती हैं जो स्थानीय लोगों की तरह उस इलाके से नहीं जुड़ हुए हैं।”

सड़कें एक पारिस्थितिक जाल के रूप में भी काम करती हैं। इससे जानवर गलत आकर्षक आवासोंकी ओर आकर्षित होते हैं। प्रकाश ने विस्तार से बताया, “उदाहरण के लिए, सड़कों पर एक पूरी खाद्य श्रृंखला बन जाती है। यहां बेहद छोटे कीड़े वाहनों की रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं जिसके कारण वे लाखों की संख्या में मर जाते हैं। यह लाखों मरे हुए कीड़े मांसाहारी मेंढकों और सांपों को आकर्षित करते हैं और फिर सड़कों पर उनकी भी मौत हो जाती है। उनके शव बड़े सरीसृपों और पक्षियों आदि को आकर्षित करते हैं, जिससे वे भी सड़कों पर चल रही गाड़ियों के चपेटे में आ जाते हैं। इस तरह से , एक पारिस्थितिक जाल तैयार हो जाता है जिसमें सड़क के अंदर और आसपास बहुत सारी स्थानीय प्रजातियों को शिकार होना पड़ता है।” 

पर्यटन और कचरा भी कम जिम्मेदार नहीं

सुहैल ने कहा, “दक्षिण कश्मीर में पहलगाम-अरु रोड पर पर्यटकों की संख्या कई गुना बढ़ गई है। पिछले साल शरद ऋतु में, हमारी टीम ने सड़क पर कश्मीर फ्लाइंग स्क्विरल (गिलहरी) का शव देखा। कश्मीर और कुछ पश्चिमी हिमालय जैसे हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में पाया जाने वाला स्थानिक रात्रिचर जानवर है। उन्होंने कहा कि गिलहरियां आमतौर पर पेड़ों पर रहना पसंद करती है और शायद ही कभी पेड़ों की चोटी को छोड़ती हो, क्योंकि यह उनके बीच आसानी से सरक सकती है। वह कहते हैं “उसका शव इस बात का सबूत था कि शुरू में दुर्गम रहे इस क्षेत्र पर यातायात कितना बढ़ गया होगा।”

श्रीनगर-लेह राजमार्ग पर भी पर्यटकों की भारी आमद देखी जा रही है। सोनमर्ग और लेह दो ऐसी जगहे  हैं जहां यात्री सबसे ज्यादा आते हैं।

पांडव ने कहा, “अपने सफर के दौरान, वे चिप्स के पैकेट और अन्य खाने की चीजें ले जाते हैं। अगर सही ढंग से निपटान नहीं किया गया तो बचा हुआ भोजन जंगली जानवरों को आकर्षित करेगा। हो सकता है कि वे शुरू में सड़क से बचते हों लेकिन जैसे-जैसे खाने का समान ज्यादा उपलब्ध होने लगता है वे कूड़े-कचरे जैसे खाद्य संसाधनों की ओर आकर्षित होते हैं। इस प्रक्रिया में वे मारे जाते हैं। कचरा सभी सीमाओं को पार कर जाएगा और जानवरों को सड़कों की ओर खींचेगा। इसके अलावा, जब कचरा खाने की बात आती है तो लगभग सभी पशु प्रजातियां एक ही तरह का व्यवहार प्रदर्शित करती हैं।” 

हिमाचल प्रदेश के कुगती वन्यजीव अभयारण्य में एक भूरा भालू और दो शावक। तस्वीर- नियाजुलखान/विकिमीडिया कॉमन्स 
हिमाचल प्रदेश के कुगती वन्यजीव अभयारण्य में एक भूरा भालू और दो शावक। तस्वीर– नियाजुलखान/विकिमीडिया कॉमन्स

वाइल्डलाइफ एसओएस द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में गंभीर रूप से लुप्तप्राय हिमालयी भूरे भालूओं के लिए कचरे से पैदा होने वाली चुनौतियों के बारे में बताया गया है। पिछली शताब्दी से उनकी आबादी में लगातार गिरावट आ रही है और देश में सिर्फ अनुमानित 500-750 भालू बचे हैं।

अध्ययन के अनुसार, भूरे भालू का 75% से अधिक आहार कचरे से मिलता है। इस बात का अंदाजा उसके मलत्याग में मिले प्लास्टिक कैरी बैग, दूध पाउडर और चॉकलेट रैपर से होता है।

सुहैल ने कहा, “विशेष रूप से पर्यटन स्थलों पर होटलों द्वारा पैदा होने वाले रसोई के कचरे का उचित तरीके से निपटान नहीं किया जाता है और वे इसे सड़क के किनारे फेंक देते हैं, जिससे भूरे भालू आकर्षित होते हैं। सौभाग्य से, जहां तक भूरे भालू का सवाल है, हमें किसी वाहन के टकराने की कोई रिपोर्ट नहीं मिली है। फिर भी, एक उचित कचरा निपटान तंत्र की जरूरत है।

खानाबदोश समुदाय और सड़क पर होने वाली मौतें

जम्मू और कश्मीर का खानाबदोश समुदाय (बकरवाल) वसंत और बाद की शरद ऋतु के दौरान दक्षिण कश्मीर में मुगल रोड पर चलता है। उनके यहां से वहां जाने की इस प्रक्रिया के दौरान, उनके पशु मारे जाते हैं, खासकर अगर भारी बर्फबारी हो या अचानक गरज के साथ बारिश हो। प्रवासी चरवाहे मृत जानवरों के शवों को सड़क पर छोड़ देते हैं जो आखिर में गिद्धों को अपनी ओर खींचते हैं और वो भोजन करते समय वाहनों की चपेट में आ जाते हैं। मुगल रोड हिरपोरा वन्यजीव अभयारण्य से होकर गुजरती है, जो हिमालयी ग्रिफॉन वल्चर और बेयर्डेड वल्चर नस्लों का घर है, दोनों को लगभग खतरे में माना जाता है।

सुहैल ने कहा, “प्रबंधन के हस्तक्षेप के रूप में, मेरी टीम हर सुबह हिरपोरा के साथ सड़क पर गश्त करती है, शवों को हटाती है, जिन्हें सुरक्षित स्थानों पर फेंक दिया जाता है जहां गिद्ध बिना किसी परेशानी के भोजन कर सकते हैं। हम इन प्रयासों के जरिए कई गिद्धों की जान बचाने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस प्रकार की गतिविधियां दक्षिण कश्मीर में सिंथन टॉप और उत्तरी कश्मीर में राजदान दर्रा जैसी अन्य सड़कों पर भी की जानी चाहिए। इन सड़कों का इस्तेमाल बकरवाल जनजाति करती है। उन्होंने जोर देकर कहा, “ये क्षेत्र गिद्ध जैसे कई अन्य ऊंचाई वाले पक्षियों का घर है।”

खतरे को कम करने के उपाय

हालांकि सड़कें कनेक्टिविटी के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वन्यजीवों के लिए इनसे होने वाले खतरे पर भी विचार किया जाना चाहिए। शहरी योजनाकारों से यह जरूर पूछना चाहिए कि सड़क की जरूरत किसे है?

लेह में सड़क दुर्घटनाओं में पक्षी भी हताहत होते हैं। तस्वीर- इकराम उल हक 
लेह में सड़क दुर्घटनाओं में पक्षी भी हताहत होते हैं। तस्वीर- इकराम उल हक

प्रकाश ने कहा, “उदाहरण के लिए, अगर किसी परियोजना में सिर्फ एक बार इस्तेमाल के लिए सड़क का निर्माण किया जाता है, तो ऐसे में सड़क को अस्थायी बनाया जा सकता है। ऐसे रास्ते अक्सर पवनचक्की परियोजना या सौर ऊर्जा परियोजना या बांध के निर्माण के समय बनाए जाते हैं। अगर सड़क किसी बड़े शहर की सेवा कर रही है, तो ऐसे कुछ मॉडल हैं जिन्हें अपनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ऊटी और कोझिकोड की दो सड़कें बांदीपुर टाइगर रिजर्व से होकर गुजरती हैं। कर्नाटक सरकार ने रात के दौरान दुर्घटनाओं और जानवरों की मौत के बार-बार होने वाले मामलों से बचने के लिए इन सड़कों पर पहली बार 2009 में रात में यात्रा करने पर प्रतिबंध लगाया था। रात में प्रतिबंध शुरू करने के बाद, वैकल्पिक मार्ग तैयार किए गए जो ज्यादातर जंगल से अलग थे। हालांकि इससे यात्रा का समय बढ़ गया लेकिन लंबे समय के लिए यह एक फायदेमंद समझौता था।

हमें यह भी समझना होगा कि जानवर निश्चित पैटर्न में चलते हैं। सड़कों की योजना बनाते समय वन्यजीव जीवविज्ञानियों को उनकी सही पहचान करनी चाहिए। पांडव ने कहा, “परियोजना शुरू होने से कम से कम एक साल पहले किए गए गहन अध्ययन के आधार पर ऐसा किया जा सकता है।” उन्होंने कहा कि हमें उन क्षेत्रों का भी पता लगाना चाहिए जिनमें पानी, खनिज लवण, विभिन्न प्रकार की वनस्पति जैसे महत्वपूर्ण संसाधन हैं जिन पर जानवर साल के अलग-अलग समय पर निर्भर हो सकते हैं। “जानवरों की आवाजाही के क्षेत्र में ऐसे संसाधनों की पहचान करने की जरूरत है। इससे उचित संरक्षण उपाय करने में और मदद मिल सकती है।”

इसके अलावा, कैमरा ट्रैप और रेडियो-कॉलर उनकी छोटी से छोटी गतिविधि के बारे में जानने में मदद कर सकते हैं। पांडव ने कहा, “अगर वे हंगुल और मार्खोर जैसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय जानवर हैं, तो उन्हें ज्यादा सावधानीपूर्वक सुपरविजन की जरूरत है। जानवरों की आवाजाही के बारे में हमारी समझ को आगे बढ़ाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल जरूरी है।

ऐसे समय में जब राजमार्ग विस्तार की व्यापक योजना बनाई जा रही है, वैज्ञानिक रूप से आधारित मिटिगेशन उपाय एक जरूरत है। शर्मा ने कहा, “इनमें संवेदन जानवरों के लिए मार्गों का निर्माण शामिल है, विशेष रूप से बड़ी प्रजातियों के लिए पुलियां और छोटे आकार की प्रजातियों के लिए जल निकासी पाइप जैसी सड़क पार करने वाली संरचनाएं, ड्राइवरों और वन्यजीवों के लिए व्यापक दृश्य क्षेत्र बनाए रखना, इंतजार करने और जाने की सुविधा के लिए सड़कों को चौड़ा करना, चेतावनी बोर्ड लगाना और जल निकायों और डंपिंग साइटों के पास स्पीड ब्रेकर लगाना, ड्राइवरों को जोखिम के प्रति आगाह करना, और बेहतर विश्लेषण के लिए एक विश्वसनीय डेटासेट बनाने के लिए नागरिकों को संगठित करना है।

 

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बैनर तस्वीर: पेरियार वन्यजीव अभयारण्य में सड़क पार करता बाइसन (जंगली भैंसा)। प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर– सैमसन जोसेफ/विकिमीडिया कॉमन्स 

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