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जम्मू-कश्मीर के जलाशयों में माइक्रोप्लास्टिक, इंसान और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा

झेलम नदी के किनारे नगरपालिका के ठोस कचरे का निपटान गैर-वैज्ञानिक तरीके से होता है और यह माइक्रोप्लास्टिक का संभावित स्रोत है। तस्वीर- मुनीब फारूक।

  • जम्मू और कश्मीर में नदियों के किनारे बिना अलग किए हुए ठोस कचरे का अवैज्ञानिक तरीके से निपटान होता है। इससे उत्तर-पश्चिमी हिमालय में प्लास्टिक के बेहद सूक्ष्म कणों (माइक्रोप्लास्टिक) का प्रदूषण बढ़ा रहा है।
  • सर्दियों के मौसम में कम तापमान और उसके बाद अलग-अलग पर्यावरणीय तनावों के चलते प्लास्टिक तेजी से सूक्ष्म कणों में टूट रहा है और मोलस्क जैसे मैक्रोफोना को प्रभावित कर रहा है।
  • बिना अंकुश वाला पर्यटन प्लास्टिक कचरे को बढ़ा रहा है, यहां तक कि दूरदराज के क्षेत्रों में भी कुशल कचरा प्रबंधन प्रणाली नहीं है।
  • जैविक कोशिकाओं और पर्यावरण में प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों को मापने में कठिनाई माइक्रोप्लास्टिक के असर और संभावित समाधानों को समझने में बाधा डालती है।

जम्मू और कश्मीर में किया गया एक नया अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण की गंभीरता की तरफ इशारा करता है। अध्ययन में स्थानीय तौर पर व्येथ के नाम से जानी जाने वाली झेलम नदी में प्लास्टिक के बेहद सूक्ष्म कणों की मौजूदगी की पुष्टि हुई है। अध्ययन बताता है कि झेलम नदी के किनारे नगरपालिका के ठोस कचरे (एमएसडब्ल्यू) के निपटान की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होना माइक्रोप्लास्टिक का एक संभावित स्रोत है।

तापमान में बदलाव और यूवी (अल्ट्रा-वायलेट) किरणों के संपर्क में आने पर, प्लास्टिक बेहद सूक्ष्म कणों में टूट जाता है। पांच मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। कुछ तो नैनोमीटर जितने छोटे भी होते हैं।

प्राथमिक माइक्रोप्लास्टिक, कारोबार में इस्तेमाल के लिए बनाए गए छोटे कण हैं। इनमें सौंदर्य प्रसाधन की चीजें शामिल हैं। साथ ही कपड़ोंऔर मछली पकड़ने के जाल से निकलने वाले माइक्रोफ़ाइबर हैं। द्वितीयक माइक्रोप्लास्टिक पानी की बोतलों जैसी प्लास्टिक की बड़ी वस्तुओं के टूटने से बनते हैं। हालांकि, अलग-अलग पर्यावरणीय परिस्थितियों में माइक्रोप्लास्टिक कैसे बनता है, इसकी समझ सीमित है।

उत्तर-पश्चिम हिमालय में माइक्रोप्लास्टिक

श्रीनगर स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) ने झेलम में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का विश्लेषण किया है। यह अध्ययन साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में छपा है। अध्ययन के लिए नदी के किनारे के ठोस कचरे के निपटान वाली जगहों की जांच की गई।

अध्ययन के मुताबिक जल निकायों के किनारे डंपिंग साइटों में अवैज्ञानिक तरीके से कचरे का निपटान होता है। हालांकि कश्मीर सहित पूरे देश में ऐसा ही होता है। इसके चलते माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण बहुत ज़्यादा बढ़ रहा है।

एनआईटी, श्रीनगर के शोधकर्ता और अध्ययन के मुख्य लेखक मुनीब फारूक ने कहा, यह अध्ययन साल 2022 में झेलम नदी के किनारे उन साइटों से नमूने लेकर किया गया था जहां ठोस कचरा अवैध तरीके से फेंका जाता है। नमूने वेरिनाग झरने से लेकर वुलर झील तक लिए गए। हमने पाया कि सभी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक मौजूद था। पानी में माइक्रोप्लास्टिक की प्रचुरता ठोस कचरा फेंकने वाली जगहों के निचले हिस्से में ज्यादा थी।

फारूक ने उल्लेख किया कि अध्ययन के दौरान पहचाने गए माइक्रोप्लास्टिक बड़े पैमाने पर प्लास्टिक के बैग और इलाके में इस्तेमाल की जाने वाली खाद्य पैकेजिंग सामग्री के टुकड़े थे, जो प्लास्टिक के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल और गैर-वैज्ञानिक तरीके से निपटान की व्यवस्था के बारे में बताते हैं।

झेलम नदी के किनारे रिसर्च के लिए नमूनों का संग्रह। तस्वीर – मुनीब फारूक।

केमोस्फियर में छपे 2022 के एक अन्य अध्ययन में श्रीनगर में अंचार झील के तलछट में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा, प्रकार और स्रोतों का विश्लेषण किया गया। इसमें माइक्रोस्कोप की मदद से 24 नमूनों का मूल्यांकन किया गया और उनकी संरचना का निरीक्षण करने के लिए एटेन्यूएटेड टोटल रिफ्लेक्टेंस फूरियर ट्रांसफॉर्म इन्फ्रारेड (एटीआर-एफटीआईआर) स्पेक्ट्रोस्कोपी नाम की तकनीक का इस्तेमाल किया गया।

अध्ययन में कहा गया, नतीजों से पता चला कि तलछट में पाया गया सबसे सामान्य प्रकार का प्लास्टिक पॉलियामाइड (PA) था। यह 96% थाइसके बाद पॉलीथीन टेरेफ्थेलेट (PET) 1.4%, पॉलीस्टाइनिन (PS) 1.4%, पॉलीविनाइल क्लोराइड (PVC) 0.9% और पॉलीप्रोपाइलीन (PP) 0.7% था।”

जल निकायों में माइक्रोप्लास्टिक की वजहें 

यूवी जोखिम जैसे पर्यावरणीय तनावों के अलावा कुछ अन्य कारकों का भी माइक्रोप्लास्टिक के बनने में योगदान हो सकता हैं। दरअसल, कश्मीर जैसी जगहों में गर्मियों और सर्दियों के बीच स्थानीय तापमान में बहुत ज्यादा अंतर होता है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि जम जाने पर, प्लास्टिक कचरा टूटने लायक हो जाता है और किसी भी मामूली पर्यावरणीय दबाव से उस पर टूटने का खतरा होता है।

प्लास्टिक से बनी चीजें शहरी क्षेत्रों में हर जगहों पर हैं।  लेकिन अब कश्मीर के दूरदराज के इलाकों में भी इनकी उपलब्धता बढ़ रही है। केंद्र शासित प्रदेश में कोई कुशल ठोस कचरा प्रबंधन प्रणाली नहीं है। एनआईटी में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के सहायक प्रोफेसर खालिद मुजामिल ने कहा,इसके चलते, नदी तट कचरे के निपटान की अवैज्ञानिक जगहें बन गई हैं। ग्रामीण इलाकों की बात छोड़ भी दें, तो श्रीनगर शहर में सिर्फ अचान में एक लैंडफिल साइट है। इसके अलावा शहर में कहीं भी ठोस कचरे को वैज्ञानिक तरीके से निपटाने की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से, हम बहुत ज्यादा मात्रा में प्लास्टिक कचरे और उसके बाद माइक्रोप्लास्टिक की चुनौती का सामना कर रहे हैं। 

मुज़म्मिल ने घाटी में बेलगाम पर्यटन के संबंध में नियमों की कमी की ओर इशारा किया। सोनमर्ग, पहलगाम, गुरेज़ और बंगस घाटी जैसी जगहों में अल्पाइन झीलों को देखने आने वाले सैलानियों में बढ़ोतरी देखी गई है, जिससे पारिस्थितिक रूप से नाजुक इन क्षेत्रों में ज्यादा प्लास्टिक आ गया है। उन्होंने कहा, “तुरंत हस्तक्षेप के बिना, स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है और हमारे ग्लेशियरों, जंगलों और वन्यजीवों को प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण का खामियाजा भुगतना पड़ेगा।”

पर्यटन और अल्पाइन झीलों की यात्रा को लेकर नियमों की कमी के चलते पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में प्लास्टिक की मौजूदगी बढ़ गई है। तस्वीर- मुनीब फारूक।

कश्मीर विश्वविद्यालय के जियो-इन्फोर्मेटिक्स विभाग के सहायक प्रोफेसर इरफान राशिद ने कहा कि यह बताया गया है कि माइक्रोप्लास्टिक ग्लेशियर की बर्फ के पिघलने की गति तेज कर सकता है। अल्पाइन झीलों में माइक्रोप्लास्टिक विकिरण बजट में परिवर्तन और खाद्य श्रृंखला में संचय के जरिए जैव विविधता पर असर डाल सकता है। माइक्रोप्लास्टिक और अन्य प्रदूषक सौर विकिरणों को ट्रैप कर सकते हैं जिससे सतह का पानी गर्म हो जाता है और पानी में पारदर्शिता कम हो जाती है। इससे रोशनी भी अवरुद्ध हो जाती है। इसके अलावा, जब माइक्रोप्लास्टिक जल निकायों में पाए जाते हैं, तो वे समुद्री जीवों के जरिए इंसानों तक पहुंच सकते हैं ओर इस तरह वे खाद्य श्रृंखला में जमा हो जाते हैं।

हमारे पास हिमालय के ग्लेशियरों में माइक्रोप्लास्टिक पर कोई वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालांकि, तेजी से ग्लेशियर पिघलने और पिघले पानी में प्लास्टिक की मौजूदगी की चिंताओं को देखते हुए, इस उभरते खतरे को रोकने के लिए राष्ट्रीय, सीमा पार और वैश्विक पहल की जरूरत है। राशिद ने कहा कि एडवेंचर पर्यटन को प्लास्टिक मुक्त बनाना और प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करना कुछ ऐसा हो सकता है जिस पर नीति बनाने वालों को ध्यान देने की जरूरत है।

नदी के किनारे बनी हाउसिंग कॉलोनियों से बिना साफ किया हुआ पानी और सेप्टिक कचरा सीधे नदियों में छोड़ दिया जाता है। तस्वीर- मुनीब फारूक।

दूसरी तरफ, काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन (सीएसआईआर-आईआईआईएम) के वरिष्ठ वैज्ञानिक रवैल सिंह वर्तमान में जम्मू के नदी क्षेत्रों में मैक्रोफ़ौना पर माइक्रोप्लास्टिक के असर का पता लगा रहे हैं। उन्होंने कहा कि क्षेत्र के जल निकायों में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण मुख्य रूप से प्लास्टिक कचरे के सीधे डंपिंग से पैदा होता है, जबकि एक छोटा हिस्सा सतही अपवाह और धार्मिक गतिविधियों के कारण होता है। नदी के किनारे बसी हाउसिंग कॉलोनियां खुले तौर पर बिना साफ किया हुआ पानी और सेप्टिक कचरे को सीधे नदियों में छोड़ देती हैं।

सिंह ने कहा,मेरी विशेषज्ञता मैक्रोफौना, विशेष रूप से मोलस्क में है। इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से निम्न-मध्यम वर्ग द्वारा किया जाता है। पूरी आबादी पर उनका असर वर्तमान में बहुत मामूली हैलेकिन आने वाले समय में यह एक संभावित खतरा बन सकता है।”

सिंह की प्रयोगशाला में शोधकर्ता अजाज अहमद खान वर्तमान में पानी, तलछट और मोलस्क में पाए जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक का शुरुआती डेटाबेस बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। उन्होंने कहा,पानी और तलछट में माइक्रोप्लास्टिक का संचय अलग-अलग श्रेणी को दिखाता है, जिसमें प्रमुख प्रकार पॉलीस्टाइनिन, पॉलीइथाइलीन, पॉलीविनाइल क्लोराइड और माइक्रोबीड्स हैं। जीवों के बीच, उनके नतीजों से संकेत मिलता है कि अलग-अलग मोलस्क प्रजातियों की आंत सामग्री में माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं। इन जीवों में प्रमुख प्रकार पॉलीथीन और पीवीसी हैं।”

माइक्रोप्लास्टिक का असर

जमा करने से लेकर उसके बेहतर तरीके निपटान तक कचरे में माइक्रोप्लास्टिक का प्रबंधन करना एक चुनौती है। मुज़म्मिल ने कहा,माइक्रोप्लास्टिक से जुड़ा जोखिम यह है कि इसे हवा, धूल, बर्फ, बारिश, पानी आदि जैसे अलग-अलग माध्यमों से आसानी से एक जगह से दूसरे जगह तक ले जाया जा सकता है। अगर किसी विशेष स्थान पर माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण होता है, तो संभावना है कि वे अन्य जगहों को भी प्रदूषित कर सकते हैं।उन्होंने कहा कि आकार घटने से जैवसंचय क्षमता की संभावना बढ़ जाती है। माइक्रोप्लास्टिक को इंसान, मछलियां, पक्षियां और स्तनधारी भी निगला रहे हैं।

नागपुर में सीएसआईआर-राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (एनईईआरआई) के एक वरिष्ठ परियोजना सहयोगी वेद प्रकाश रंजन ने कहा कि इंसानों के खून, फेफड़े, अजन्मे शिशुओं के प्लेसेंटा और डिस्पोजेबल प्लास्टिक कप में माइक्रोप्लास्टिक का पता चला है। वर्तमान में, पर्यावरण में माइक्रोप्लास्टिक के लिए कोई तय सीमा की सिफारिश नहीं की गई है। प्रायोगिक निगरानी पद्धति में सीमाओं के कारण एक समस्या बढ़ गई है।

रंजन ने कहा, शोधकर्ताओं को प्रायोगिक तरीकों में कुछ कठिनाइयां पाई हैं क्योंकि माइक्रोप्लास्टिक को अलग करने और उनका विश्लेषण करने के लिए तय तरीके नहीं हैं। इससे अलग-अलग नतीजे मिलते हैं। संभावित जोखिमों को सही मायने में समझने के लिए, उचित मानक दिशा-निर्देश तय करना जरूरी है।उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अधिकांश पर्यावरणीय प्रदूषकों के विपरीत, प्लास्टिक में रसायनों का एक जटिल मिश्रण होता है जो जानबूझकर इसे खास गुण देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि रंग, आग का जोखिम कम करना, यूवी स्टेबलाइजर, रंगद्रव्य और एंटी-ऑक्सीडेंट।

कचरे में माइक्रोप्लास्टिक का प्रबंधन करना कठिन है क्योंकि इसे हवा, धूल, बर्फ, बारिश या पानी की मदद से एक जगह से दूसरी जगह तक आसानी से ले जाया जा सकता है। तस्वीर- अजाज अहमद खान।

उन्होंने कहा, “रंगों में आर्सेनिक और कैडमियम जैसी भारी धातुओं का उपयोग किया जाता है। इसलिए, माइक्रोप्लास्टिक में एडिटिव्स का संयोजन ज्यादा खतरनाक स्थिति पैदा करता है। जब माइक्रोप्लास्टिक कुछ धातुओं के साथ सहजीवी तरीके से संपर्क करता है, तो धातु आसानी से माइक्रोप्लास्टिक की सतह पर चिपक जाती है, जिससे यह कहीं ज्यादा जहरीला हो जाता है।”

आईआईटी-जम्मू में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के सहायक प्रोफेसर प्रतीक कुमार ने बताया कि पीने के पानी में माइक्रोप्लास्टिक का ज्यादा आसानी से विश्लेषण किया जा सकता है। हालांकि, खून या जैविक कोशिकाओं में उनकी मौजूदगी का अध्ययन करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।

कुमार ने समझाया,हमें खून में प्लाज्मा, प्लेटलेट्स और कोशिकाओं में होने वाली हलचल से निपटना होगा, जो आमतौर पर पीने के पानी में मौजूद नहीं होती हैं। यह जटिलता विश्लेषण को मुश्किल बनाती है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि विश्लेषण में गड़बड़ी हो सकती हैं, जिससे नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक को कम या ज्यादा आंका जा सकता है। कभी-कभी, रिपोर्ट की तुलना में ज्यादा मौजूदगी हो सकती है और कभी-कभी कम।”

खून या जैविक कोशिकाओं के मुकाबले पीने के पानी में माइक्रोप्लास्टिक का पता लगाना ज्यादा आसान है। तस्वीर- मुनीब फारूक।

उन्होंने बताया कि जब प्लास्टिक पारिस्थितिक तंत्र में प्रवेश करता है, तो यह अनिवार्य रूप से माइक्रोप्लास्टिक में बदल जाता है। इसका आकार जितना छोटा होगा, खतरा उतना ही ज्यादा होगा। माइक्रोप्लास्टिक की तुलना में नैनोप्लास्टिक आसानी से जैविक कोशिकाओं में प्रवेश कर सकता है। तो, भले ही हम प्लास्टिक के टूटने पर ध्यान केंद्रित करें, यह अभी भी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अच्छा नहीं है। दुर्भाग्य से, वर्तमान में हमारे पास प्लास्टिक को कुशलतापूर्वक रीसायकल करने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे का अभाव है। इसके बजाय, हमें जो लक्ष्य रखना चाहिए वह स्रोत से ही प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करना है।

कुमार कहते हैं कि वैज्ञानिक तरीके से लैंडफिल बनाने और इन लैंडफिल में स्वीकृत प्लास्टिक के प्रकारों को रेगुलट करने की भी जरूरत है। रिसर्च ने ऐसे प्लास्टिक की पहचान की है जो तेजी से खत्म हो जाते हैं, इसलिए उनके निपटान को सीमित करना फायदेमंद हो सकता है। घर-घर प्लास्टिक संग्रहण प्रणाली लागू करने से प्लास्टिक को सूक्ष्म कणों में टूटने से रोका जा सकता है। उन्होंने कहा,सरकार ने प्लास्टिक की कम से कम मोटाई पर दिशा-निर्देश जारी किए हैं, क्योंकि मोटे प्लास्टिक को रीसायकल करना आसान होता है। हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में, इन दिशा-निर्देशों का हमेशा पालन नहीं किया जाता है। प्लास्टिक के हानिकारक असर और प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के बारे में जागरूकता पैदा करना फायदेमंद होगा।

 

बैनर तस्वीर: झेलम नदी के किनारे नगरपालिका के ठोस कचरे का निपटान गैर-वैज्ञानिक तरीके से होता है और यह माइक्रोप्लास्टिक का संभावित स्रोत है। तस्वीर- मुनीब फारूक।

 

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