- गाजियाबाद में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि दोपहिया वाहनों पर सवार होकर खाना पहुंचाने वाले राइडर बहुत ज्यादा प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं।
- गाजियाबाद में डिलीवरी करने वाले ये लोग, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से तय मानकों की तुलना में बहुत ज्यादा स्तर पर पार्टिकुलेट मेटर और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के संपर्क में आते हैं।
- अध्ययन में यह भी पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल लगभग 67% श्रमिकों को उनकी सेहत पर प्रदूषण के प्रतिकूल असर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
- जानकार कंपनियों द्वारा बेहतर नीतियों, सुरक्षात्मक उपकरणों के प्रावधान और नियमित स्वास्थ्य जांच और स्वास्थ्य बीमा जैसी कामकाजी परिस्थितियों को बेहतर बनाने पर जोर दे रहे हैं।
अट्ठाइस साल के रोहित विश्वास की कोविड-19 महामारी के दौरान मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव की नौकरी चली गई। इसके बाद उन्होंने 2021 में एक किराना डिलीवरी ऐप के लिए डिलीवरी करने का काम शुरू किया। वह हर दिन आठ से दस घंटे सड़क पर बिताते थे। हालांकि अब वह बाइक टैक्सी ऐप के लिए काम करते हैं, लेकिन उनका काम अभी भी मुश्किल है। वे हर दिन ट्रैफिक जाम में इंतजार करते हुए, दक्षिणी दिल्ली में ग्राहकों को पहुंचाने में दो घंटे बिताते हैं। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “जब मैं बहुत ज्यादा मेहनत करता हूं, तो मुझे सिर में दर्द होने लगता है।”
विश्वास की तरह 2020-21 में भारत में 77 लाख डिलीवरी पर्सन थे। आने वाले अगले दस सालों यानी 2029-30 तक इनकी संख्या बढ़कर दो करोड़ 35 लाख होने का अनुमान है।
एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि खाना पहुंचाने वाले कर्मचारी अपना दोपहिया वाहन चलाते समय जिस हवा में सांस लेते हैं, वह पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वीओसी) जैसे बेंजीन और कैंसर की वजह बनने वाली चीजों से भरी होती हैं।
सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ रिसर्च सहयोगी और अध्ययन के प्रमुख लेखक अबिनया सेकर ने कहा, “सबसे चिंताजनक हिस्सा पार्टिकुलेट मैटर के स्तर के प्रति उनका जोखिम और इसके बारे में जानकारी नहीं होना है।” उन्होंने इस अध्ययन को कालीकट स्थित केरल में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में अपनी पीएचडी थीसिस के रूप में किया। इस सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 67 फीसदी लोगों को गैसीय प्रदूषकों के संपर्क में आने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
स्वास्थ्य से जुड़ा जोखिम चिंताजनक
उनका यह अध्यनय एटमॉस्फेरिक पॉल्यूशन रिसर्च पत्रिका में छपा है। अध्ययन दिसंबर 2020 में गाजियाबाद में डिलीवरी करने वाले 30 लोगों के सैंपल पर आधारित है। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में यह महीना वायु प्रदूषण के लिहाज से चरम महीनों में से एक होता है। इसी इलाके में गाजियाबाद भी है। स्विस वायु गुणवत्ता प्रौद्योगिकी कंपनी आईक्यूएयर (IQAir) की विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट के अनुसार, गाजियाबाद 2021 में दुनिया का दूसरा सबसे प्रदूषित शहर था। साल 2022 में यह उसी सूची में 11वें स्थान पर था।
अध्ययन में पाया गया कि डिलीवरी कर्मचारी अपने वाहन चलाते समय क्रमशः 516, 180 और 113 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा में पीएम 10, पीएम 2.5 और पीएम 1 कणों के संपर्क में आए। यह अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संगठनों द्वारा तय मानकों से बहुत ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु गुणवत्ता दिशा-निर्देश 2021 मानक PM10 के लिए 45 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा और PM2.5 के लिए 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा तय हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक (NAAQS) PM10 के लिए 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा और PM2.5 के लिए 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा या उससे कम का सुझाव देते हैं।
अध्ययन में 54 वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों की सांद्रता का विश्लेषण किया गया। इनमें टॉलीन सबसे ज्यादा (89 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा, 51 के मानक विचलन के साथ) था, उसके बाद बेंजीन (19 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हवा में 11 के मानक विचलन के साथ) था। ये सब तय सीमा से ज्यादा थे। NAAQS की ओर से सुझाए गए (5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर वायु)। सेकर ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) वर्गीकरण के अनुसार बेंजीन एक ज्ञात कैंसर बीमारी वाला यौगिक है। बेंजीन को NAAQS में भी सूचीबद्ध किया गया है। हालांकि, इसकी नियमित रूप से निगरानी नहीं की जाती है।”
सेकर ने राइडर के बीच एक प्रश्नावली सर्वेक्षण किया और वास्तविक समय पर सड़क नमूने का उपयोग करके सांस के स्तर पर प्रदूषकों के प्रति उनके जोखिम को मापा। मूल्यांकन में मल्टीपल-पाथ पार्टिकल डोसिमेट्री मॉडल (एमपीपीडीएम) का इस्तेमाल किया गया, जो एक कम्प्यूटेशनल मॉडल है। यह सांस के रास्ते में वायुजनित कणों के जमा होने की गणना करता है। एमपीपीडीएम नतीजों से पता चला कि सांस के रास्ते में पीएम10 का जमाव, क्रमशः पीएम2.5 और पीएम1 से 2.5 और 3.7 गुना ज्यादा था। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रात में प्रदूषण का जोखिम सबसे ज्यादा होता है। इसके बाद सुबह और दोपहर का समय आता है। एक संवेदनशीलता विश्लेषण से पता चला कि चौराहों पर प्रदूषकों की सांद्रता डिलीवरी कर्मियों के स्वास्थ्य जोखिम पर असर डालने वाला एक प्रमुख पैरामीटर था।
अध्ययन में हिस्सा लेने वाले 30 लोगों में से 70% ने कहा कि उन्हें किसी भी स्वास्थ्य असर का अनुभव नहीं हुआ है। महज 10% ने फेफड़े से जुड़े रोगों और आंखों में जलन की जानकारी दी।
स्वास्थ्य और सामाजिक प्रभाव
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरूपति में सिविल और पर्यावरण इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर सुरेश जैन ने कहा कि यह एक शुरुआती अध्ययन है क्योंकि इसके घटक सर्वेक्षण पर आधारित हैं। 2022 में, जैन ने दिल्ली में ऑटो रिक्शा चालकों, विक्रेताओं, यातायात पुलिस कर्मियों और सफाईकर्मियों जैसे बाहरी श्रमिकों पर वायु प्रदूषण और चरम मौसमी घटनाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का मूल्यांकन किया था।
उन्होंने कहा, “वायु प्रदूषण के बहुत ज्यादा बढ़े हुए स्तर के संपर्क में आने वाले लोगों में हम कई लक्षण देखते हैं। ये लक्षण हैं सांस की तकलीफ, मतली, खांसी, गले में संक्रमण, चक्कर आना और आंखों में जलन।” उनके अध्ययन से यह भी पता चला कि दिल्ली में बाहर काम करने वालों में फेफड़ों के काम करने की क्षमता सीमित थी।
हालांकि उनका मानना है कि डिलीवरी पर्सन पर अध्ययन “निश्चित रूप से अहम है।” उन्होंने डिलीवरी पर्सन का एक लंबा अध्ययन करने की जरूरत पर भी जोर दिया, जो ज्यादा सटीक डेटा प्राप्त करने के लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रोफ़ाइल को ध्यान में रखता है।
“भारत में डिलीवरी पर्सन (गिग वर्कर्स) आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। अगर आपके पास भोजन के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है, तो आप वायु प्रदूषण के बारे में कैसे सोच सकते हैं?” ऑल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन के बेंगलुरु चैप्टर के समन्वयक सुमन दास महापात्रा ने कहा, यह 3,000 सदस्यीय मजबूत संस्था है जो तीन साल से प्रमुख शहरों में काम कर रही है।
महापात्रा का सुझाव है कि सरकार कानून और एक नीति बनाए जो डिलीवरी का काम करने वालों को परिभाषित करे। इनमें ऐसे श्रमिकों को मिलने वाले लाभ, श्रमिकों के प्रति कंपनियों की जिम्मेदारियां, उनका अनुपालन और मुआवजे के नियम शामिल हों। दास ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “अगर डिलीवरी का काम जोखिम भरा काम है, तो सुरक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।”
विश्वास का मानना है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि राइडर अपने स्वास्थ्य के लिए खुद जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा, “जैसे-जैसे कंपनियां बड़ी होती जाती हैं, वे राइडर के प्रति अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच लेती हैं क्योंकि राइडर की कोई कमी नहीं है।”
सेकर ने कहा, “यह एक जोखिम मूल्यांकन अध्ययन है जहां हमारे पास महामारी विज्ञान डेटा नहीं है और स्वास्थ्य से जुड़ी कोई निगरानी नहीं है। भविष्य के शोध में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए कि इस जोखिम को कम करने के लिए किस तरह की सावधानियां बरती जा सकती हैं।” उन्होंने नीति बनाने वालों और अधिकारियों को उन तरीकों के बारे में सोचने की आवश्यकता पर जोर दिया, जिनसे व्यस्त रास्तों पर यातायात की भीड़ और वाहनों से होने वाले टेलपाइप उत्सर्जन को कम किया जा सके। जैन का सुझाव है कि कुछ समाधान जो कंपनियां राइडर को दे सकती हैं, वे हैं मास्क, फिल्टर के साथ हेलमेट, बीमारियों का जल्द पता लगाने के लिए नियमित चिकित्सा जांच, व्यस्त क्षेत्रों में आराम की जगह और स्वास्थ्य बीमा।
विश्वास ने कहा, “ज्यादा से ज्यादा जो मैं कर सकता हूं वह है कि अपने चेहरे को रुमाल से लपेट लूं या मास्क पहन लूं। लेकिन मुझे अभी भी काम करना है।”
बैनर तस्वीर: खाना पहुंचाने वाला एक व्यक्ति। एक हालिया अध्ययन के संवेदनशीलता विश्लेषण से पता चला है कि चौराहों पर प्रदूषकों की सांद्रता डिलीवरी कर्मियों के स्वास्थ्य जोखिम को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख पैरामीटर था। तस्वीर– टीआरडी स्टूडियोज/पिक्साबे।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें