- एक स्टडी में अंडमान द्वीप समूह के एव्स (Aves) द्वीप के एक सुदूर बीच के इंटरटाइडल जोन में प्लास्टिक-रॉक हाइब्रिड बनने का खुलासा हुआ है। भारत में इस तरह की हाइब्रिड चट्टानें बनने के सबूत पहली बार आए हैं। इन्हें प्लास्टीग्लोमेरेट्स कहा जाता है।
- इस द्वीप से मिले जिन सैंपल का विश्लेषण किया उसमें पॉलीथिलीन और पॉली वाइनिल क्लोराइड पाया गया है। अनुमान है कि प्लास्टिक के कचरे को जलाए जाने से इस तरह की चट्टानें बनी होंगी।
- प्लास्टीग्लोमेरेट्स पर अध्ययन अभी नई चीज है इसलिए समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके असर को समझा जाना बाकी है।
कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च ने अपनी एक स्टडी में अंडमान द्वीप समूह के एव्स (Aves) द्वीप प्लीस्टीग्लोमेरेट्स की मौजूदगी की पुष्टि की है। जिन सैंपल का अध्ययन किया गया है उनमें पॉलीथिलीन और पॉलीवाइनिल क्लोराइड पाए गए हैं जिनमें पत्थर और मिट्टी के टुकड़े भी मिले हुए हैं। अनुमान है कि ठोस कचरे को खुले में जलाए जाने की वजह से ऐसा हो सकता है।
भूवैज्ञानिक प्रक्रिया पर प्लास्टिक के प्रभावों में अभी बहुत कम जानकारी मौजूद है। चट्टानों के निर्माण में इसकी मौजूदगी भी प्लास्टिक प्रदूषण का बेहद नया रूप है। प्लास्टीग्लोमेरेट्स या प्लास्टिक रॉक हाइब्रिड तब बनते हैं जब प्लास्टिक का प्रदूषण कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थों से मिल जाता है और भूवैज्ञानिक प्रक्रिया के जरिए चट्टानें बन जाती हैं।
मई 2022 में इंटरटाइडल बीच का कोस्टल मॉनीटरिंग सर्वे करने के दौरान रिसर्चर्स को ये सैंपल मिले थे। उत्तरी अंडमान जिले के मायाबंदर शहर से 3.5 किलोमीटर पूर्व में स्थित एव्स द्वीप में मैनग्रोव, कोरल रीफ, समुद्री झाड़ियां और चट्टानी शैवाल पाए जाते हैं। इन सैंपल का विश्लेषण करने पर एक प्लास्टीग्लोमेरेट मिला जिसमें हरा पॉलीथिलीन और काला पॉली वाइनिल क्लोराइड प्लास्टिक पदार्थ पाया गया।
इसी साल मार्च में प्रकाशित में इस स्टडी के मुख्य लेखक प्रसून गोस्वामी ने समझाया कि प्लास्टिक और चट्टानों का यह हाइब्रिड रूप कैसे बनता है। उन्होंने बताया कि जब प्लास्टिक को कचरे के तौर पर जलाया जाता है और उसमें कॉन्ग्लोमेरेटेस् मिल जाते हैं तो इस तरह की चट्टानें बनती हैं। कॉन्ग्लोरमेरेट मिट्टी, रेत और छोटे पत्थरों से मिलकर बनी चट्टानें होती हैं। प्रसून गोस्वामी ने बताया कि अगर बेनथिक जीव जैसे की सीपियां (Mussels) या झींगे (Shrimp) अनजाने में प्लास्टीग्लोमेरेट्स को खा लेते हैं तो निश्चित तौर पर यह उन पर बुरा असर ही डालेगा।
अभी ऐसी प्रजातियों पर इसके असर के विस्तार का अध्ययन किया जाना है। स्टडी के सह-लेखक पुण्यस्लोके भादुरी चिंता जताते हैं कि यह नए तरह का ‘पत्थर’ इस क्षेत्र की समृद्ध समुद्री जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
प्लास्टीग्लोमेरेट्स पर रिसर्च अभी नया क्षेत्र है और पूरी दुनिया में इस विषय पर अभी 10 से 15 स्टडी ही प्रकाशित हुई हैं। सबसे पहले साल 2014 में हवाई में इसका पता चला। उसके बाद से प्लास्टीग्लोमेरेट्स इंडोनेशिया, पुर्तगाल, कनाडा, पेरू, ब्राजील और अब भारत में भी पाए गए हैं। अंडमान के एव्स द्वीप के तट पर जहां यह स्टडी की गई है वह क्षेत्र इंटर-टाइडल जोन से सुपर-टाइजल जोन (इसे स्प्लैश जोन भी कहा जाता है और यह हाई टाइड लाइन के ऊपर होता है) तक फैला हुआ है।
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किसी आम इंसान के लिए पहली नजर में किसी पत्थर के बारे में यह पहचानना मुश्किल होता है कि वह कॉन्ग्लोमेरेट है या फिर प्लास्टीग्लोमेरेट। प्रसून गोस्वामी कहते हैं, ‘नदी की धारा के पास मिलने वाले प्राकृतिक पत्थरों में अलग-अलग रंग हो सकते हैं इसलिए प्लास्टीग्लोमेरेट्स की मौजूदगी की पुष्टि करने के लिए रासायनिक वर्गीकरण की जरूत थी।’ प्लास्टिक रॉक साइकल में घुस जाता है और हजारों सालों तक वैसा ही रहता है इसलिए रिसर्चर्स का मानना है कि प्लास्टीग्लोमेरेट ‘एन्थ्रोपोसीन मार्कर’ की तरह काम करते हैं। इसका मतलब है कि वे दिखाते हैं कि इंसानों का कितना असर हमारे ग्रह पर पड़ रहा है।
दिल्ली स्थित एक एनजीओ टॉक्सिक लिंक की चीफ प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर प्रीती महेश कहती हैं कि अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस इस नई खोज का द्वीप के पारिस्थितिकी तंत्र पर कितना असर पड़ेगा। प्रीती महेश इस स्टडी का हिस्सा नहीं थीं।
कहां से आए प्लास्टीग्लोमेरेट्स?
भादुरी आगे कहते हैं, ‘यह द्वीप बहुत दूर है और इस पर इंसानों का कोई हस्तक्षेप नहीं है। हो सकता है कि इस द्वीप की जगह और समुद्र की धारा के पैर्टन ने प्लास्टीग्लोमेरेट के बनने में अहम भूमिका निभाई होगी।’
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, एव्स द्वीप पर सिर्फ सिर्फ एक घर था जिसमें दो लोग रहते थे। हालांकि, महेश कहते हैं कि यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक पानी या अन्य रास्तों के जरिए एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं और ऐसी जगहों पर जमा हो जाते हैं जहां इंसानी बस्तियां नहीं होती हैं।
रिसर्चर्स का मानना है कि यहां पाया गया प्लास्टिक कचरा हिंद महासागर के उत्तरी हिस्से में और अंडमान के समुद्र में गहरे समुद्र के प्रवाह से आया है और तटों पर और इंटरटाइडल इलाकों में फंस गया है। भादुरी ने एक उदाहरण देते हुए कहा, ‘हमें एव्स द्वीप पर एक टेलीविजन सेट मिला जो संभवत: यहां के आसपास के जनसंख्या वाले इलाकों से लगे समुद्र में फंका गया होगा और वह यहां पहुंच गया। समुद्री धारा के पैटर्न, लहरें और इससे जुड़ी जमीन-समुद्र की सीमाएं ऐसी कारक हैं जो जो भारत के समुद्री तट पर प्लास्टिक को जमा करता है।’
गोस्वामी कहते हैं कि इस स्टेज पर यह पुष्ट नहीं किया जा सकता कि जिस प्लास्टीग्लोमेरेट का इस स्टडी में विश्लेषण किया गया उसकी उत्पत्ति कहां की गई। वह कहते हैं, ‘मेरी समझ में जो प्लास्टीग्लोमेरेट हमें मिला है वह बहुत दूर तक तैर नहीं सकता है क्योंकि यह बहुत घना है और यह पानी में डूब जाएगा। ऐसे में हमारा मानना है कि यह ठोस कचरे को जलाने पर यहीं द्वीप पर ही बना है। यह द्वीप खुले समुद्र के इलाके में ऐसे में हो सकता है कि दूसरे देशों से समुद्र में बहाया जाने वाला प्लास्टिक भी यहां आकर जमा हो गया हो। स्थानीय तौर पर प्लास्टिक का इस्तेमाल समस्या नहीं है लेकिन यह संभव है कि लोग प्लास्टिक से मुक्ति पाने के लिए इसे जला रहे हों।’
गोस्वामी और भादुरी दोनों का मानना है कि प्लास्टीग्लोमेरेट या इस तरह के अन्य प्लास्टिक प्रदूषण भारतीय समुद्री तट के किनारे मौजूद हो सकते हैं। गोस्वामी कहते हैं, ‘इतना तो तय है कि सिर्फ एव्स द्वीप इकलौती ऐसी जगह नहीं है जहां इस तरह का प्रदूषण मौजूद है। अगर हम भारतीय समुद्री तट के किनारे पर देखेंगे तो मेरा मानना है कि हमें प्लास्टीग्लोमेरेट जरूर पाए जाएंगे। हालांकि, अभी इस तरह के प्लास्टिक प्रदूषण के बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं है ऐसे में यह जरूरी है कि इसके बारे में जागरूकता फैलाई जाए ताकि इस तरह की और खोज की जा सके।’ उनकी स्टडी यह बताती है कि प्लास्टीग्लोमेरेट ऐसी जगहों पर बन सकते हैं जहां लावा तैरता है, जंगलों में आग लगती है और बेहद ज्यादा तापमान की स्थिति पैदा होती है।
प्रीती महेश कहती हैं कि सुदूर स्थित पारिस्थितिकी तंत्र काफी भंगुर हैं और ऐसे इलाकों से छेड़छाड़ से वे पर्यावरणीय आपदाओं के प्रति और संवेदनशील हो जाएंगे। वह आगे कहती हैं, ‘कमजोर पारिस्थितिकी तंत्र उन सभी जंतुओं, पौधों और पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं जो एकसाथ मिलकर काम करते हैं।’
प्लास्टीग्लोमेरेट के बनने को कैसे कर सकते हैं कम?
अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सूखे कचरे के प्रबंधन के लिए एकमात्र जिम्मेदार शहरी निकाय पोर्ट ब्लेयर म्युनिसिपल काउंसिल (PBMC) है। पीबीएमसी लोगों के घरों से कचरा इकट्ठा करने का काम करती है लेकिन यहां पर कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। ऐसे में अनुपचारित ठोस कचरा और अप्रबंधित ठोस कचरा दोनों ही सीधे नालों में छोड़ दिया जाता है।
पोर्ट ब्लेयर में कायाक इंस्ट्रक्टर का काम करने वाले तनाज नोबेल कहते हैं, ‘हमारे नालों को कचरा ढोने वाली कनवेयर बेल्ट की तरह इस्तेमल किया जा रहा है जो लोगों के घरों से कचरा बहाकर मैनग्रोव और बीच तक ले जाते हैं। सभी बड़े नाले हमारे समुद्र के तटों पर गिरते हैं। पीबीएमसी दावा करता है कि सभी प्लास्टिक को अलग कर लिया जाता है और उसकी रीसायकलिंग के लिए उसे मेनलैंड भेजा जाता है लेकिन सच्चाई ये है कि जिस प्लास्टिक की रीसायकल वैल्यू है उसी को अलग किया जाता है। कई परतों वाले प्लास्टिक को इसमें नहीं लिया जाता और ना ही यहां रहने वाले लोगों को प्लास्टिक के कचरे को ठीक तरह के नष्ट करने की ओर प्रेरित किया जाता है।’
महेश कहते हैं कि सरकार और संस्थाओं की लापरवाही और खराब मॉनीटरिंग की वजह से प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या और बिगड़ गई है। हमारे ही देश के इंदौर, मुदैरी और सूरत समेत कई शहरों में ठोस कचरे के प्रबंधन के प्रभावी मॉडल मौजूद हैं जिन्हें देश के अन्य हिस्सों में लागू करने की जरूरत है।
गोस्वामी यह भी रेखांकित करते हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं है। वह कहते हैं, ‘जहां तक मैं समझता हूं कि ज्यादातर देश यह स्वीकार करते हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या जलवायु परिवर्तन के समांतर चल रही है। क्योंकि प्लास्टिक को जीवाश्म ईंधन जलाकर बनाया जाता है, ऐसे में यह जरूरी है कि इसके उत्पादन को कम किया जाए ताकि प्लास्टिक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन दोनों ही समस्याओं का समाधान किया जा सके।’
प्रीती महेश कहती हैं, ‘बिना किसी वैश्विक रणनीति के प्लास्टिक कचरे के एक देश से दूसरे देश तक मूवमेंट को रोकना काफी मुश्किल है। ग्लोबल प्लास्टिक ट्रीटी की चर्चा हो रही है और उम्मीद की जा रही है कि यह 2024 तक तैयार हो जाएगी और इससे समस्या का समाधान किया जा सकेगा।’
विशेषज्ञों का कहना है कि तब तक के लिए स्थानीय स्तर पर ही ठोस कचरे के प्रबंधन के बेहतर तरीके अपनाए जाएं। उन्होंने आगे कहा, ‘इंडस्ट्री प्लास्टिक की इस समस्या के बारे में चर्चा करती है और ऐसा लगता है कि रीसायकलिंग ही इसका उपाय है। हालांकि, हमें यह भी याद रखना होगा कि किसी भी प्लास्टिक को रीसायकल करने किए जाने की संख्या सीमित है। हमें इस पर ध्यान देना होगा कि कैसे हम इसके उत्पादन को ही कम कर सकें।’
भविष्य की रिसर्च की संभावनाएं
मौजूदा स्टडी में सामने आई बातें नई संभावनाएं खोलती हैं ताकि मरीन बायोटा में मिलने वाले पत्थरों में मिले प्लास्टिक पॉलीमर्स के भविष्य को समझा सके और यह भी जाना जा सके कि बायोमैग्नीफिकेशन के जरिए किस तरह प्लास्टिक के कण फूड चेन में भी शामिल हो सकते हैं। भादुरी आगे कहते हैं, ‘कई पॉलीमर ऐसे हैं जो टूटने के साथ ही पर्यावरण के लिए रासायनिक तौर पर बहुत हानिकारक हो सकते हैं। प्लास्टीग्लोमेरेट में मिलने वाले पॉलीमर या रासायनिक तत्व प्राकृतिक प्रकिया के जरिए क्षरित हो सकते हैं और वैश्विक स्तर पर समुद्री पर्यावरण पर बुरा असर डाल सकते हैं।’
गोस्वामी कहते हैं कि एव्स द्वीप पर प्लास्टीग्लोमेरेट की खोज से भारतीय तट पर मरीन जियोलॉजिस्ट्स और भी खोज की ओर बढ़ सकते हैं। वह कहते हैं, ‘ना सिर्फ रिसर्चर्स बल्कि आम लोग भी इस तरह के प्रदूषण का पता लगाने और उसकी जानकारी देने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। एक रिसर्चर के तौर पर भारत के समुद्री तट पर हम सभी इलाकों में नहीं जा सकते हैं लेकिन जो नागरिक प्लास्टिक के कचरों को साफ करने के काम में जुटते हैं वे नागरिक वैज्ञानिक के तौर योगदान दे सकते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब प्लास्टीग्लोमेरेट्स के बारे में पर्याप्त जागरूकता फैलाई जा सके।
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बैनर तस्वीर: एव्स द्वीस पर पाए गए प्लास्टीग्लोमेरेट में मिले ग्रीन प्लास्टिक फ्रैगमेंट का सबूत। तस्वीर- प्रसून गोस्वामी और पुण्यस्लोके भादुरी।