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अधिक नजर आने लगी है लद्दाख की अनोखी बिल्ली रिबिलिक, क्या बढ़ रही है संख्या

कैमरा ट्रैप के माध्यम से ली गई रिबिलिक की तस्वीर। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।

कैमरा ट्रैप के माध्यम से ली गई रिबिलिक की तस्वीर। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।

  • ऊनी फर वाली लद्दाखी बिल्ली रिबिलिक या मानुल को पलासेस कैट के नाम से जाना जाता है। यह बिल्ली इन दिनों काफी नजर आने लगी है। इसकी एक वजह है इको टूरिज्म, जिसकी वजह से लोग उन इलाकों में अधिक जा रहे हैं जहां रिबिलिक का आवास है। हालांकि, वन्यजीव विशेषज्ञ इसके संरक्षण को लेकर चिंतित हैं।
  • अधिक ऊंचाई पर बिल्लियों के लिए शिकार की उपलब्धता कम होती है। इसके अलावा पर्यटकों की संख्या बढ़ने से भी रिबिलिक के आवास पर संकट बढ़ा है।
  • जानकार मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऊंचे हिमालय क्षेत्र की आबोहवा बदल रही है, जिसका असर पलासेस कैट या रिबिलिक के आवास और भोजन पर हो सकता है। हालांकि, इसके लिए और अधिक शोध की जरूरत है।

साल 2002 में मैंने एक अनोखा जीव देखा जो दिखने में बिल्ली जैसा था, लेकिन मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा था। लद्दाख के एक कारिश्माई जीव के बारे में बताते हुए 45 वर्षीय खेनरब फुंटसोग रोमांचित हो उठते हैं। पेशे से वन्यजीव गार्ड फुंटसोग करीब 23 वर्षों से लद्दाख के अलग-अलग वन्यजीवों वाले क्षेत्र में गश्त करते आए हैं। इस दौरान उन्होंने कई दुर्लभ जीवों का सामना किया और उनके संरक्षण में योगदान दिया। 

मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत के दौरान वह रिबिलिक या पलासेस कैट के बारे में विस्तार से बताते हैं। 

“हानले में वर्ष 2002 में मैं अपने एक साथी के साथ गश्त पर था, तभी पहाड़ी की ढलान पर कोई जीव उतरता हुआ दिखा। दूरबीन लगाकर देखा तो उस जीव का आकार किसी बिल्ली जैसा था। उसका रोएंदार, ऊनी और गहरे रंग का मोटा शरीर उसे अब तक दिखी बिल्लियों से अलग बना रहा था। शरीर पर ऊनी फर की वजह से ये बिल्ली वास्तविकता से अधिक बड़ी दिख रही थी,” खेनरब ने बताया। 

उन्होंने आगे कहा, “उस वक्त हमें बिल्कुल पता नहीं चला कि यह कौन सी बिल्ली है। दफ्तर लौटकर जब अपने साथियों से बात की तो पता चला यह पलासेस कैट था। इस बिल्ली को देखने का यह हमारा पहला अनुभव था। इसके बाद हमने कई स्थानों पर इसे देखा और संरक्षण की कोशिशें की।  

वह बताते हैं, “वर्ष 2002 के बाद मैंने अब तक दो रिबलिक के शावकों, जिन्हें उनकी मां ने छोड़ दिया था, को रेस्क्यू किया है।”

हिमालय की ऊंची चोटियों पर रहने वाली इस बिल्ली को स्थानीय भाषा में रिबिलिक, ‘तक शं या ‘सुकथंग’ भी कहा जाता है। इसे पलासेस कैट या पलास की बिल्ली नाम इसको खोजने वाले पीटर साइमन पलास के नाम पर दिया गया। पहली बार 1776 में पीटर साइमन पलास ने रूस के बैकाल झील के पास इस बिल्ली के नमूने इकट्ठे किए थे। 

अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट के मुताबिक पलासेस कैट मुख्य रूप से मध्य एशिया में पाई जाती हैं, जो पश्चिमी ईरान, मंगोलिया और चीन तक फैली हुई हैं। इन्हें रूस में मंगोलिया और चीन की सीमा पर भी देखा जा सकता है। कजाकिस्तान और किर्गिस्तान में, ये बिल्ली पहाड़ी मैदानों और अर्ध-रेगिस्तानी तलहटी में निवास करती हैं। 

वैज्ञानिकों द्वारा इकट्ठा जानकारियों के मुताबिक इस बिल्ली का गठीला शरीर, छोटे पैर और घने फर इन्हें अनोखी आकृति देते हैं। इनके कान चपटे होते हैं और सर पर काला धब्बा दिखता है। अधिकांश छोटी बिल्लियों के विपरीत इनकी आंखों की पुतलियां गोल होती हैं। ये बिल्लियां लद्दाख में पत्थरों के बने छोटे मांद में रहती हैं, जहां ये शावकों को जन्म देती हैं। सुबह और शाम के समय ये अधिक सक्रिय होती हैं। आकार में छोटे होने के बावजूद इनका इलाका 100 किलोमीटर तक का हो सकता है। ये एक बार मे अधिकतम 8 बच्चों को जन्म दे सकती हैं और जंगल में 6 वर्ष तक जीवित रह सकती हैं। विश्वभर में पलासेस कैट की संख्या लगभग 58,000 आंकी गई है, जो कि समय के साथ कम हो रही है। 

बिल्ली का गठीला शरीर, छोटे पैर और घने फर इन्हें अनोखी आकृति देते हैं। इनके कान चपटे होते हैं और सर पर काला धब्बा दिखता है। तस्वीर- खेनरब फुंटसोग
बिल्ली का गठीला शरीर, छोटे पैर और घने फर इन्हें अनोखी आकृति देते हैं। इनके कान चपटे होते हैं और सर पर काला धब्बा दिखता है। तस्वीर- खेनरब फुंटसोग

लद्दाख में पलासेस कैट की उपस्थिति 1970 के दशक की शुरुआत से किताबों में दर्ज है। वर्तमान में, इस प्रजाति की पुष्टि लद्दाख और सिक्किम के ट्रांस-हिमालयी क्षेत्रों में की जाती है। लद्दाख में, चांगथांग वन्यजीव अभयारण्य के भीतर हानले और लाल पहाड़ी जैसे क्षेत्रों में और सिक्किम में 3,000 से 4,800 मीटर की ऊंचाई पर रूपशू में देखी जाती है। सिक्किम में यह 5,073 मीटर की ऊंचाई पर एक बार देखी गई थी, जो पलासेस कैट के लिए उच्चतम ऊंचाई थी। हिमाचल प्रदेश के स्पीति क्षेत्र में इस प्रजाति के बारे में 1998 में रिपोर्ट आई थी, लेकिन इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है।

लद्दाख में इसकी उपस्थिति को लेकर लद्दाख के वन्यजीव संरक्षक पंकज रैना बताते हैं, “पहले तो ये माना जाता था कि ये बिल्लियां चांगथान के वेट लैंड्स के आसपास मिलती हैं, लेकिन हमारे हाल के अनुभव बताते हैं कि यह लद्दाख में कई स्थानों पर हैं।”

रैना हाल में हुए कैमरा ट्रैपिंग के आधार पर मिली तस्वीरों का हवाला देते हुए कहते हैं, “इस दौरान हेमिस राष्ट्रीय उद्यान में कई स्थानों पर इसे पाया। यहां से चांगथांग के बीच कारगिल और नुब्रा में भी पलासेस कैट के निशान मिलते हैं।”

रैना इन जानकारियों के आधार पर मानते हैं कि लद्दाख में अंदाजे से कहीं अधिक पलासेस कैट पाए जा रहे हैं। 

“हेमिस क्षेत्र में हमें जो लोकेशंस मिली हैं, वह कहीं 3000-4000 मीटर ऊपर भी मिली हैं। ऐसे में लगता है कि पलासेस कैट का संबंध सिर्फ वेटलैंड्स से नहीं है। जहां पिका (एक तरह का खरगोश), वोल (पानी में रहने वाली चूहा) और मर्मोट (गिलहरी की एक प्रजाति) की संख्या होगी वहां पलासेस कैट भी रह सकते हैं,” रैना कहते हैं।  

अधिक संख्या में क्यों दिख रहे हैं रिबिलिक 

खेनरब फुंटसोग स्वीकारते हैं कि इन दिनों रिबिलिक अधिक संख्या में दिखने लगी हैं। “इसकी एक वजह हो सकती है इको टूरिज्म का बढ़ना। लोग अधिक से अधिक संख्या में उन इलाकों में जा रहे हैं जहां रिबिलिक का आवास है,” वह कहते हैं। 

रैना, खेरराब से सहमति जताते हैं, साथ ही इसकी कई और वजह भी मानते हैं। 

“हानले में हमने पिछले साल दो मादाओं को देखा जिसने तीन-तीन शावकों को जन्म दिया था। एक मां का बाद में पता नहीं चला लेकिन एक अपने बच्चों के साथ उस इलाके में कई बार देखी गईं। इलाके में कई लोग घूमने आए और लगा कि विज़िबिलिटी बढ़ गई है,” रैना कहते हैं। 

रैना इसकी दूसरी वजह बताते हैं शिकार की उपलब्धता। 

वह बताते हैं, “अगर बिल्ली को खाने के लिए शिकार की संख्या बढ़ेगी तो बिल्लियां अपने बच्चों को आसानी से पाल सकेंगी। एक साल में पलासेस कैट ने हानले में दो बार तीन-तीन बच्चों को जन्म दिया और बड़ा किया। हालांकि, इस विषय में और शोध की जरूरत है।”

नागरिकों की संस्था वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन एंड बर्ड्स क्लब ऑफ लद्दाख के अध्यक्ष लोब्जांग विशुद्धा लद्दाख के सुदूर इलाकों में वन्यजीवों को देखने में पर्यटकों की सहायता करते हैं। वह बताते हैं कि पलासेस कैट को देखने के लिए हानले और चांगथांग सबसे प्रसिद्ध स्थान है। “हानले बेसिन में वेटलैंड एरिया में पलासेस कैट को भोजन के लिए भरपूर शिकार मिलता है। खाने की कमी न हो तो ये बिल्लियां तेजी से प्रजनन करती हैं,” विशुद्धा ने कहा। 

हिमालय की ऊंची चोटियों पर रहने वाली पलासेस कैट को स्थानीय भाषा में रिबिलिक, ‘तक शं या ‘सुकथंग’ भी कहा जाता है। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।
हिमालय की ऊंची चोटियों पर रहने वाली पलासेस कैट को स्थानीय भाषा में रिबिलिक, ‘तक शं या ‘सुकथंग’ भी कहा जाता है। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।

वह आगे कहते हैं, “2022 से पहले इस बिल्ली को इतनी बार नहीं देखा गया था। इस साल देश-दुनिया से फोटोग्राफर्स तस्वीरें लेने आए। एक शोध के मुताबिक जब शिकार उपलब्ध होता है तो ये बिल्लियां अधिक तेजी से प्रजनन करती हैं। संख्या बढ़ने की एक वजह शिकार की उपलब्धता भी हो सकती है।”

उन्होंने पलासेस कैट की अन्य स्थानों पर मौजूदगी को लेकर कहा, “छोटी बिल्लियों के साथ स्थानीय लोगों का कोई कॉन्फ्लिक्ट नहीं है इसलिए स्थानीय लोग इसपर अधिक ध्यान नहीं देते हैं। इसलिए कई बार पता नहीं चलता कि ये बिल्लियां कहां दिख रही हैं।”

संरक्षण की संभावनाएं और चुनौतियां

पंकज रैना कहते हैं कि लद्दाख में संरक्षण में जानवरों का शिकार न के बराबर चुनौती पैदा करता है। इसकी बड़ी वजह है राज्य में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या। इस वजह से शिकार कम होता है। दूसरी वजह से सेना की उपस्थिति, जिससे शिकारी फायर करने से डरते हैं। 

हालांकि, बावजूद इसके पलासेस कैट के संरक्षण में कई चुनौतियां भी हैं। 

लद्दाख में वन्यजीवों के संरक्षण पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था स्नो लेपर्ड कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट के निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक सेवांग नामग्याल ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत के दौरान लद्दाख में छोटी बिल्लियों के संरक्षण में आ रही चुनौतियों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि पलासेस कैट अक्सर चट्टानी इलाकों में रहना पसंद करती हैं। उन्हें शिकार के लिए घास वाले क्षेत्रों की आवश्यकता होती है, क्योंकि यह छोटे कृंतकों का शिकार करती है। 

बिल्ली के आवास के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “क्षेत्र की कुछ सड़कें चट्टानों या चट्टानी इलाकों से होकर गुजरती है, जहां बिल्लियां भी रहती हैं। यह बिल्ली की गतिविधियों को बाधित कर सकता है क्योंकि वे शिकार मिलने की जगह और अपनी मांदों के बीच आते-जाते रहते हैं। ऐसे में सड़क पर गाड़ियों की टक्कर की वजह से उनकी मौत हो जाती है। गाड़ियों की आवाज भी उनके निवास स्थान पर अशांति पैदा करती है।”

नामग्याल आगे बताते हैं कि पर्यटकों की बढ़ती गतिविधियां इन बिल्लियों के संरक्षण में बाधक बन रही है। 


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“सड़कों पर बने साइनेज या चिन्ह पर्यटकों के लिए क्षेत्र में सुरक्षित रूप से आने-जाने में मदद करते हैं। हालांकि, इसके न होने से बाइक या गाड़ियों से आने वाले पर्यटक अनजाने में पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों में चले जाते हैं। यहां अन्य जीवों के साथ पलासेस कैट भी रहती है,” वह बताते हैं।  

उन्होंने कहा, “इस मुद्दे को संबोधित करना पारिस्थितिकी तंत्र के नाजुक संतुलन और लद्दाख में पर्यटकों और वन्यजीवों दोनों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।”

संरक्षण में जलवायु परिवर्तन भी एक चुनौती हो सकता है। रैना बताते हैं, “जलवायु परिवर्तन साइलेंट किलर की तरह है। बारिश ज़्यादा हो रही है, घास ज़्यादा हो रही है। हालांकि, इसका छोटी बिल्लियों पर क्या प्रभाव हो रहा है यह शोध के बाद पता चलेगा। अगर इनके निवास स्थान पर खाने की कमी हुई तो संरक्षण प्रभावित होगा।”

संदर्भ

Dhendup, Tashi & Shrestha, Bikram & Mahar, Neeraj & Kolipaka, Shekhar & Regmi, Ganga Ram & Jackson, Rodney. (2019). Dhendup et al 2019 Distributtion and status of manul in the Himalayas and China. 13. 31-36. 

Prater, S. H. (Stanley Henry). The Book of Indian Animals / S.H. Prater ; with 28 Coloured Plates by Paul Barruel and Many Other Illustrations. Third (revised ) edition. Bombay: Bombay Natural History Society, 1971. Print.

Mahar, Neeraj & Shrotriya, Shivam & Habib, Bilal & Takpa, Jigmet & Hussain, Syed. (2017). Recent records of the Pallas’s cat in Changthang Wildlife Sanctuary, Ladakh, India. 65. 36-37.

 

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बैनर तस्वीरः कैमरा ट्रैप के माध्यम से ली गई रिबिलिक की तस्वीर। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।

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