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बढ़ते वाहन, जंगल की आग से निकलने वाला ब्लैक कार्बन ग्लेशियरों के लिए बनता बड़ा ख़तरा

उत्तराखंड के पौड़ी जिले स्थित श्रीनगर वैली का दृश्य। ब्लैक कार्बन अब उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में स्थित ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है, जिसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ रही है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

उत्तराखंड के पौड़ी जिले स्थित श्रीनगर वैली का दृश्य। ब्लैक कार्बन अब उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में स्थित ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है, जिसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ रही है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

  • ब्लैक कार्बन, जीवाश्म ईंधन, जैव ईंधन और बायोमास के अधूरे दहन से बनता है, जिसके लिए प्राकृतिक और मानवीय गतिविधियों दोनों ज़िम्मेदार हैं।
  • ब्लैक कार्बन ग्लेशियरों के ऊपर एक परत के रूप में जमा हो रहा है। काले रंग की वजह से धूप की गर्मी अधिक अवशोषित होती है और ग्लेशियर का तापमान बढ़ जाता है। इससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ रही है।
  • उत्तराखंड के जंगलो में लगने वाली आग के साथ उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में बढ़ती मानवीय गतिविधियां भी इन क्षेत्रों में बढ़ते ब्लैक कार्बन के लिए जिम्मेदार हैं।

ब्लैक कार्बन हाल ही में वैश्विक जलवायु परिवर्तन में एक प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में उभर कर सामने आया है, जो संभवतः वैश्विक जलवायु परिवर्तन के मुख्य चालक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बाद दूसरे स्थान पर है। जीवाश्म ईंधन, जैव ईंधन और बायोमास के अधूरे दहन के परिणामस्वरूप ब्लैक कार्बन का उत्पादन होता है। इसमें प्राकृतिक और मानवीय दोनों गतिविधियां जिम्मेदार हैं।  

ब्लैक कार्बन कण सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं। वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की वृद्धि एक चिंता का विषय बन चुका है, खासकर उच्च हिमालयी बर्फीले क्षेत्र में, जो सबसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में ग्लेशियर, बर्फ और अल्पाइन वनस्पति और जीव जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं, जो नदियों और जल स्रोतों को पुनः चार्ज करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। उच्च हिमालय क्षेत्र की वायुमंडल संरचना में ब्लैक कार्बन और अन्य सूक्ष्मकणों के कारण से होने वाले  किसी भी परिवर्तन से प्राकृतिक संसाधनों और उन पर निर्भर जीव जंतुओं, सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों पर निश्चित रूप से असर होगा। 

ब्लैक कार्बन के खतरे की चेतावनी देते अध्ययन 

हाल ही में हुए अध्ययनों के अनुसार ब्लैक कार्बन अब उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में स्थित ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है, जिसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ रही है। ब्लैक कार्बन ओवर ए हाई एलटीटुड सेंट्रल हिमालय ग्लेशियर: वेरियवलिटी, ट्रांस्पोट एंड रेडिक्टिव इम्पैक्ट नामक शोध पत्र के अनुसार, हिमालयीय क्षेत्रों में जंगलों में लगने वाली आग और उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में बढ़ते परिवहन के लिए इस्तेमाल होने वाले डीज़ल वाहन जिम्मेदार हैं। 

एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग में आटोमेटिक वेदर स्टेशन(AWS)। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग में आटोमेटिक वेदर स्टेशन(AWS)। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

यह अध्ययन एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और एटमोस्फेरिक एंड स्पेस फिजिक्स लैबोरेटरी के अध्यक्ष डॉ अलोक सागर गौतम और उनकी टीम के द्वारा सतोपंथ और भागीरथ-खरक ग्लेशियर में किया गया है। ये ग्लेशियर लगभग 3,800 मीटर की ऊंचाई पर सेंट्रल हिमालय में स्थित है, इन दो ग्लेशियरों से निकलने वाली जलधाराएं मिलकर अलकनंदा नदी बनाती हैं। 

यह अध्ययन बताता है कि इन ग्लेशियर में मई-जून और सितम्बर अक्टूबर माह में ब्लैक कार्बन की मात्रा बहुत अधिक देखी गयी है। अध्ययन के समय पाया गया कि इस स्थान पर प्रति घंटे ब्लैक कार्बन की मात्रा 12 नैनोग्राम प्रति घनमीटर से 439 नैनोग्राम प्रति घनमीटर तक बढ़ जाती है। ब्लैक कार्बन की यह मात्रा औसतन जून माह में सबसे अधिक 230.96 ± 85.46 नैनोग्राम प्रति घनमीटर और अगस्त माह में सबसे कम 118.02 ± 71.63 नैनोग्राम प्रति घनमीटर होती है। 

साल 2018 में देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया अध्ययन भी उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन के बढ़ते खतरे की ओर इशारा करता है, इस अध्ययन में   में पाया गया है कि तीर्थ नगरी गंगोत्री के पास वातावरण में ब्लैक कार्बन की सांद्रता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यह अध्ययन गंगोत्री शहर से 12 किमी दूर गंगोत्री ग्लेशियर के पास चिलबासा में आल वेदर रियल टाइम ब्लैक कार्बन मॉनिटरिंग स्टेशन पर किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार एयरोसोल की सांद्रता मई माह के दौरान सबसे अधिक और अगस्त माह के दौरान सबसे कम थी। चिलबासा में दो प्रकार के ब्लैक कार्बन की उपस्थिति पायी गयी जिसमे गैसीय एरोसोल, जो ईंधन की लकड़ी और अन्य बायोमास के जलने से बनता है और दूसरा एलीमेंटल एरोसोल जो ऑटोमोबाइल, पेट्रोल और डीजल-आधारित बिजली के जनरेटर, केरोसिन और एलपीजी स्टोव के निकास से उत्पन्न होता है। 

हवा में ब्लैक कार्बन की मात्रा दर्शाने वाली मशीन जो एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग में स्थित है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
हवा में ब्लैक कार्बन की मात्रा दर्शाने वाली मशीन जो एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग में स्थित है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

इस अध्ययन में साल 2016 के जनवरी से दिसम्बर तक के डेटा का अध्ययन किया गया और पाया गया कि मई के महीने में बायोमास जलने के कारण काले कार्बन की सांद्रता 1,889 नैनोग्राम प्रति घन मीटर और ऑटोमोबाइल और अन्य स्रोतों के कारण 1,180 नैनोग्राम प्रति घन मीटर थी। जबकि अगस्त माह में बायोमास जलने के कारण ब्लैक कार्बन की मात्रा 168 नैनोग्राम प्रति घन मीटर और ऑटोमोबाइल और अन्य स्रोतों के कारण 123 नैनोग्राम प्रति घन मीटर पायी गयी थी। 

ब्लैक कार्बन क्या है?

ब्लैक कार्बन का निर्माण पेट्रोलियम स्रोतों से प्राप्त हाइड्रोकार्बन गैसों और वाष्प के अधूरे दहन या टूटने से होता है। “हमारे वातावरण में कुछ आयन बनते हैं, जो आकार में बहुत छोटे होते हैं और इन को नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है। इन आयन के मिलने से एरोसोल का निमार्ण होता जो आकार में आयन से थोड़े बड़े होते हैं, आयन्स के मिलने से सीसीएन और इसके बाद ब्लैक कार्बन का निर्माण होता है जिसका आकार लगभग 100 नैनो मीटर होता है,” डॉ अलोक सागर गौतम बताते हैं। 

वह आगे बताते हैं, “ब्लैक कार्बन को हम नग्न आँखों से देख सकते हैं, आसमान में हम जिस धुंध को देखते हैं वह ब्लैक कार्बन ही होता है। यह कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में बेहद कम समय के लिए वातावरण में रहता है, जबकि कार्बन डाइऑक्साइड सदियों तक वातावरण में बना रह सकता है।”

“इसका ग्लोबल वार्मिंग में काफी योगदान है, इसमें कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कई लाख गुना अधिक गर्मी-सोखने की शक्ति है और यह हवा के सहारे लंबी दूरी तक उड़ सकता है,” उन्होंने बताया। 

जंगल की आग और बढ़ता परिवहन भी है ज़िम्मेदार   

वैज्ञानिक प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ मानव-जनित कारक को भी हिमालयीय क्षेत्र में बढ़ते ब्लैक कार्बन के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। डॉ गौतम बताते हैं कि सतोपंथ और भागीरथ-खरक ग्लेशियर में मई और जून के महीने में ब्लैक कार्बन का सांद्रण सबसे अधिक देखा गया जिसका कारण इस समय उत्तराखंड के जंगलो में लगने वाली आग के साथ चारधाम यात्रा में लाखो की संख्या में आने वाली गाड़ियां भी हैं। 

जुलाई और अगस्त के महीने में जब बारिश अधिक होती है तब जंगलो में लगने वाली आग के साथ चारधाम यात्रा भी लगभग ना के बराबर होती है, इन महीनो में सतोपंथ ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन का सांद्रण भी सबसे कम देखा गया है लेकिन सितम्बर और अक्टूबर माह में एक बार फिर से चारधाम यात्रा अपने चरम पर होती है और इस समय सतोपंथ ग्लेशियर में फिर से ब्लैक कार्बन के सांद्रण को बढ़ते हुए पाया गया है। 

डॉ अलोकसागर गौतम आगे बताते हैं कि ब्लैक कार्बन की ख़ासियत होती है कि यह चार से पांच दिनों तक वायु मंडल में रहता है, हवा के माध्यम से लगातार गहराई से ऊंचाई या फिर गर्म से ठन्डे क्षेत्रों की ओर तैरता रहता है और अंततः ग्लेशियर तक पहुंच जाता है, मैदानी क्षेत्रों में परिवहन से होने वाले प्रदुषण का असर भी इन ग्लेश्यिरों पर पड़ रहा है लेकिन ग्लेशियर के इतने नजदीक होने वाली मानवीय गतिविधियों का असर इन ग्लेश्यिरों पर अधिक प्रभावशाली होता है।   

बद्रीनाथ बुलेटिन 2023 से प्राप्त जानकारी के अनुसार 8 सितम्बर 2023 तक कुल 12,73,996 यात्रियों ने बद्रीनाथ धाम और 1,53,006 यात्रियों ने हेमकुंड साहिब की यात्रा की है, साथ ही कुल 1,71,644 बड़े, छोटे और दो पहिया वाहन भी बद्रीनाथ यात्रा में आये हैं। ठीक इसी प्रकार गंगोत्री, यमनोत्री और केदारनाथ के लिए भी लाखों श्रद्धालु और वाहन उत्तराखंड में आते हैं। 

उत्तराखंड के चमोली जिले स्थित औली से दिखती हिमालय की ग्लेशियर से लदी चोटियां। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
उत्तराखंड के चमोली जिले स्थित औली से दिखती हिमालय की ग्लेशियर से लदी चोटियां। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

वन विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार जंगलो में लगने वाली आग का समय अमूमन 15 फरवरी से 15 जून तक होता है। उत्तराखंड के वनों में प्राकृतिक कारणों से होने वाली आग की घटनाएं न के बराबर होती हैं। अधिकांश आग मानव-जनित कारण जैसे किसानों के द्वारा, सड़क पर तारकोल बिछाते समय या पर्यटकों और स्थानीय लोगों द्वारा जलती बीड़ी, सिगरेट, माचिस की तिली फेंकने आदि कारणों से होती है| प्रत्येक साल वनो में लगने वाली आग में कोई पैटर्न देखने को नहीं मिलता लेकन उपलब्ध डेटा के अनुसार साल 2013 की तुलना में (245 आग की घटनाएं) साल 2022 वनों में लगने वाली आग की घटनाएं (2,186) कई गुना बढ़ गई हैं। 

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया अध्ययन भी हिमालयीय क्षेत्रों बढ़ते ब्लैक कार्बन के लिए जंगल में लगने वाली आग के साथ मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार मानता है, इस अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड में आने वाले यात्री अपनी दैनिक जरूरतों को पूर्ण करने के लिए कई प्रकार से ईंधन का इस्तेमाल करते हैं और जैसे-जैसे हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियां बढ़ रही हैं ठीक उसी के साथ ब्लैक कार्बन की मात्रा भी यहां बढ़ रही है। 


और पढ़ेंः बारिश की अनियमितता के पीछे हवा में मौजूद ब्लैक कार्बन भी जिम्मेदार


हर साल लाखो की संख्या में वाहन दूसरे राज्यों से उत्तराखंड आते हैं, सड़क निर्माण, रेल निर्माण में उपयोग होने वाली बड़ी मशीनों आदि से निकलने वाला धुआं, उच्च हिमालययी क्षेत्रो में ब्लैक कार्बन को तेज़ी से बढ़ा रहा है। 

“केदारनाथ में पोकलैंड मशीन से कार्य जोर शोर से चल रहा है, बद्रीनाथ में भी यही हालात हैं, ये भी सही है कि हिमालय क्षेत्रो में बढ़ते ब्लैक कार्बन के लिए मैदानी क्षेत्रो में होने वाला प्रदूषण भी ज़िम्मेदार है। लेकिन उच्च हिमालयीय क्षेत्रो में बढ़ती मानवीय गतिविधियां इसके लिए कितनी अधिक जिम्मेदार हैं यह शोध का विषय है। हालांकि उत्तराखंड में हमारी ही तरह कुछ और संस्थाएं भी काम कर रही हैं जो भविष्य में ब्लैक कार्बन से होने वाली समस्याओं की ओर इशारा करती हैं लेकिन इस क्षेत्र में अभी और अधिक शोध की जरूरत है,” डॉ आलोक सागर गौतम कहते है। 

ग्लेश्यिरों के पिघलने की गति को बढ़ा रहा ब्लैक कार्बन 

चूंकि ब्लैक कार्बन काले रंग का होता है इसलिए सूरज से मिलने वाली ऊष्मा को अवशोषित करता है, एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के भौतिक विज्ञान विभाग के शोधकर्ता संजीव कुमार बताते हैं कि ब्लैक कार्बन हवा के साथ तैरते हुए ग्लेशियर में जमी बर्फ के ऊपर एक परत की तरह जम जाता है, यदि इस परत के ऊपर भी बर्फ की परत जमती है तब भी यह ऊष्मा को अवशोषित करता रहता है जिससे ग्लेशियर पर तापमान बढ़ता है और बर्फ पिघलने की गति भी बढ़ जाती है| 

साल 2021 में वर्ल्डबैंक द्वारा किये गए ‘ग्लेशियर ऑफ़ दी हिमलयास, क्लाइमेटचेंज, ब्लैक कार्बन एंड रीजनल रेसलाईन्स’ नामक अध्ययन के अनुसार हिमालय, काराकोरम,और हिन्दुकुश में लगभग 55,000 ग्लेशियर हैं जो उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के अतरिक्त तीसरे सबसे अधिक ताजे पानी को इक्कठा करते हैं। इन ग्लेशियर में लगभग 163 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ़ जमा है जो सिंधु, गंगा और ब्रम्हपुत्र नदियों को 80 प्रतिशत पानी प्रदान करती है। लेकिन रिपोर्ट के अनुसार, ग्लेशियर वैश्विक औसत बर्फ द्रव्यमान की तुलना में तेजी से पिघल रहे हैं, ये ग्लेशियर पश्चिम की ओर 0.3 मीटर और पूर्व में 1.0 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। इन क्षेत्रो में बढ़ता ब्लैक कार्बन सूर्य से आने वाली ऊष्मा को सोख कर हवा के तापमान को बढ़ा रहा है जिसके कारण ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं  जिससे बाढ़, भूस्खलन, मिट्टी का कटाव और एवलॉन्च आदि समस्याएं देखने को मिल रही हैं। 

एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के एक और शोधकर्ता श्याम नारायण नौटियाल बताते हैं, “हमने अपनी प्रयोगशाला में मई 2022 से लेकर जून 2023 तक यहां होने वाली बारिश के पानी का अध्ययन किया और पाया कि इस पानी का पीएच मान 4.5 से 7.5 के बीच रहता है। हम सभी जानते हैं कि वर्षा जल की प्रवृत्ति अम्लीय होती है और औसतन पीएच मान 6.4 होना चाहिये लेकिन श्रीनगर में पीएच मान 4.5 तक जाने का मतलब है कि यहां होने वाली बारिश बहुत अधिक अम्लीय है जो यहां की वनस्पति, नदी, खेत, पेड़ पौधे और इंसान सभी के लिए खतरनाक है। और ये सभी होता है वातावरण में फैले प्रदूषण के कारण जिसमें से ब्लैक कार्बन भी एक है।”

 

बैनर तस्वीरः उत्तराखंड के पौड़ी जिले स्थित श्रीनगर वैली का दृश्य। ब्लैक कार्बन अब उच्च हिमालयीय क्षेत्रों में स्थित ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है, जिसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ रही है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

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