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[टिप्पणी] मैंग्रोव के बीच एक यात्रा और उससे मिले जीवन के सबक

मैंग्रोव की रोपाई करते लोग। तस्वीर: रवलीन कौर/मोंगाबे द्वारा

  • फील्ड रिपोर्टिंग असाइनमेंट और एक अलग जीवन जीने वाले लोगों से मिलना एक कहानी को आगे बढ़ाने के अलावा व्यक्तिगत विकास के दुर्लभ अवसर हैं, एक पत्रकार के रूप में काम करने वालीं इस टिप्पणी की लेखिका लिखती हैं।
  • लेखिका जलवायु परिवर्तन प्रभावों के प्रकृति-आधारित समाधान के रूप में, गुजरात में तटीय समुदायों द्वारा मैंग्रोव अवरोधों के निर्माण पर रिपोर्टिंग के अपने अनुभव के बारे में लिखती हैं।
  • एक अक्षुण्ण पारिस्थितिकी तंत्र न केवल जलवायु परिवर्तन से बचाने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके करीब रहने वाले समुदायों के दैनिक अस्तित्व के लिए भी महत्वपूर्ण है।
  • टिप्पणी में विचार लेखिका के हैं।

जैसे ही मैं मैदान से रिकॉर्डिंग्स को ट्रांसक्रिप्ट करने के लिए बैठी तो यादें ताज़ा हो गईं। चलने के दौरान मेरी भारी सांसों के पीछे मैं केवल “पच-पच ” और “शा-शा ” सुन सकती थी। और फिर अचानक एक झपट्टा आया…जिस क्षण मैं खाड़ी में गिरी, मैं और फोन दोनों कीचड़ में लिपट गए। यह सब आने वाली पीढ़ी के लिए, मेरे बच्चों को अपने कारनामे दिखाने के लिए रिकॉर्ड किया गया है।

इस पूरे वाकये के दौरान, जब तक कि मैंने पुरुष फील्ड गाइड से मदद के लिए नहीं पूछा,वह मेरी मदद करने में झिझकते रहे। और फिर चर्चा शुरू हुई कि फोन को कैसे साफ किया जाए। फ़ोन के सभी पोर्ट में कीचड़ भर गया था जिसे साफ़ करने के लिए एक टहनी, एक रूमाल और एक मैंग्रोव पत्ता लाया गया और फोन फिर से काम करने लगा। मुझे एक तरह से राहत मिली कि इस दौरान मेरे गिरने की बात आयी गयी हो गयी। यह मेरे लिए शर्मनाक था, क्योंकि बाकी सभी लोग इतने आत्मविश्वास से दलदल से गुजर रहे थे। मैंने भी खुद को फोन पर होने वाली झल्लाहट पर मुस्कुराते हुए पाया। ग्रामीण क्षेत्र की हर यात्रा पर, मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे लोग आपकी समस्याओं को अपना लेते हैं और उन्हें सुलझाना शुरू कर देते हैं।

पत्रकारिता का मूल आधार हर चीज़ पर सवाल उठाना है। यह गुण दैनिक जीवन में व्याप्त हो जाता है और संदेहास्पद स्वभाव हमारे अंदर घर कर जाता है। हालाँकि, कभी-कभी व्यक्ति को संदेह को छोड़ कर प्रकृति के नियमों को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। और जैसे ही कोई समर्पण करता है, मानवता, छोटे लेकिन गहन तरीकों से, हमारी सहयोगी बन जाती है। गुजरात में मैंग्रोव वृक्षारोपण पर रिपोर्ट करने के लिए हाल ही में एक क्षेत्रीय यात्रा प्रकृति और मानवता पर भरोसा करने का एक सबक थी।

जंबूसर में लगाया जाता मैंग्रोव। फोटो: रवलीन कौर/मोंगाबे 

इस साल अप्रैल में, मैंने स्थानीय लोगों और पर्यावरण पर बहु-प्रजाति मैंग्रोव वृक्षारोपण के प्रभाव को समझने के लिए राज्य के भरूच जिले के एक सुदूर तटीय ब्लॉक जंबुसर की यात्रा की।

मेरे फील्ड गाइड रमेश भाई कोटेचिया मुझसे जंबूसर में एक स्कूल के बाहर मिले और हम समुद्र तट से लगभग आठ किलोमीटर दूर एक गांव देवजगन नाडा गए, जहां गर्मी शुरू होने से पहले सीजन का आखिरी पौधारोपण चल रहा था। शुष्क परिदृश्य ने देवजगन जाने वाली सड़क को घेर लिया था। वहाँ कुछ नमक के खेत, कुछ झींगा फार्म और कुछ खाली खेत थे। “जंबूसर में पानी खारा है इसलिए वहां खेती बहुत कम होती है। लेकिन यहां सबसे अच्छा गेहूं और देसी कपास मिलता है, क्योंकि यह सब वर्षा आधारित है। लेकिन थोड़ी अधिक बारिश हुई और कुछ भी नहीं उगेगा,” रमेश भाई ने मुझे बताया। गुजरात में, वयस्क पुरुषों को आमतौर पर भाई,  महिलाओं को बेन कहकर सम्बोधित किया जाता है, इसका अर्थ भाई और बहन है। 

चार पहिया वाहन देवजगन में केवल एक जगह तक ही जा सका, जहाँ से रमेश भाई की टीम के चार लोग हमारे साथ जुड़ गए और हमने मोटरसाइकिल से यात्रा की। मैं कांति भाई के पास पीछे बैठी, जिन्होंने मुझे बहुत पतली ईंटों से बना एक पुराना लाइट हाउस दिखाया। उन्होंने कहा, ”तब समुद्र यहीं तक हुआ करता था।” हम अभी भी समुद्र की मौजूदा जगह से पाँच किलोमीटर दूर थे। थोड़ा आगे, हम साइकिल पर “तवार” (मैंग्रोव) के पत्तों के एक छोटे से ढेर के साथ एक बूढ़े आदमी के पास से गुजरे। कांति भाई ने मुझसे कहा कि तपती गर्मी में जब और कुछ नहीं उगता, तो तवार चारे का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। मैं उस बूढ़े आदमी से बात करना चाहती थी लेकिन कांति भाई ने कहा कि हमें देर हो गई है। अभी सुबह के 10 बजे थे और मैं इसका अंदाज़ा नहीं लगा सकी। “शायद वह नहीं चाहते थे कि मैं स्थानीय लोगों के साथ बातचीत करूं, जो वृक्षारोपण परियोजना के बारे में सच्चाई बता सकते हैं,” मेरी संदिग्ध मानसिकता तब तक काम करती रही…जब तक हम एक तटबंध पर नहीं पहुंच गए।

मैंग्रोव के पौधों को रोपण स्थल तक पहुंचाता एक व्यक्ति। फोटो: रवलीन कौर/मोंगाबे द्वारा

वृक्षारोपण स्थल तक पहुँचने के लिए, हमें घने मैंग्रोव के बीच से दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। सिवाय इसके कि यह कोई पैदल यात्रा नहीं थी। हर कदम घुटनों तक गहरा था, पैर अंदर जाते ही कीचड़ से केकड़ा बाहर आ जाता था। छह फुट ऊंचे मैंग्रोव के ऊपर मुझे देखने का कोई रास्ता नहीं था क्योंकि मैं जमीन से दो फुट नीचे चली गई थी। रमेश भाई हमारे जूतों को बाँधने और उन्हें बैकपैक की तरह हमारे कंधों पर ले जाने के लिए जूट की रस्सी साथ लाए थे। दलदल में इन्हें पहनने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि इससे पैरों को उठाना और भी मुश्किल हो जाता था। मिडिल स्कूल जीव विज्ञान में, हमने सीखा था – और भूल गए – हमारे पैर की उंगलियों के बीच के अंतर का कार्य। मुझे वह सबक याद आ गया जब पैर की उंगलियों के बीच फंसी कीचड़ के कारण मेरी पकड़ छूट गई थी। मैंग्रोव के मजबूत डंठल अब मेरा सहारा बन गए।

रास्ते में, मैंने कड़े सैंडल उतार दिए, सीधे चलना प्राथमिकता थी। कुछ कदम आगे, मेरे बैग का पट्टा खुल गया। फिर, नोटबुक और मेरे गिरने की घटना के बाद फोन भी रमेश भाई के बैकपैक में जमा करना पड़ा। यही उस दबी हुई रिकॉर्डिंग का कारण बताता है।

घने मैंग्रोव क्षेत्र को पार करने में हमें एक घंटा लग गया और बेतरतीब विचार मेरे दिमाग में घूमने लगे। “मैंने आज सफेद कपड़े क्यों पहने? बच्चों को कीचड़ में कूदने में बहुत मजा आया होगा। अगर केकड़ा काट ले तो क्या होगा? इस खारे मिज़ाज में जीवन कैसे खुशी से पनपता है। यदि यहाँ रेत है और मैं उसमें समा जाऊँ तो क्या होगा? मैं सुरक्षित कंपनी में हूं। मुझे वृक्षारोपण स्थल देखने की जिद नहीं करनी चाहिए थी और गांव में मिले लोगों के साक्षात्कार से खुद को संतुष्ट करना चाहिए था…ध्यान केंद्रित करें, चलने पर ध्यान केंद्रित करें।”

जंगल साफ हो गया और दो साल पुराने मैंग्रोव पौधों के आसपास भयानक भूरे जाल दिखाई देने लगे। जैसे ही कांति भाई ने मुझे हवाई जड़ें समझाईं, मैंने किसी को गुजराती में सांपों का जिक्र करते हुए सुना। मैंने बातचीत में शामिल होने पर ज़ोर दिया। वे कुत्ते के चेहरे वाले पानी के सांप के बारे में बात कर रहे थे, जिसे स्थानीय भाषा में पोन्था कहा जाता है। हल्का विषैला, यह सांप मैंग्रोव में पाया जाता है। मैं आमतौर पर सांपों से नहीं डरती, लेकिन जब मैं सांप पर कदम रखती हूं तो मेरे शरीर में सिहरन दौड़ जाती है।

बागान तक पहुंचने के लिए मजदूर घने मैंग्रोव से होकर गुजरते हैं। फोटो: रवलीन कौर/मोंगाबे द्वारा

तभी, “शा-शा ” और “पच-पच ” के साथ-साथ, सांत्वना देने वाली मानवीय आवाज़ें दृश्य में गूंज उठीं। हम मड फ्लैट पर वृक्षारोपण स्थल पर पहुँचे थे जो कि अभिवृद्धि द्वारा नवनिर्मित थे। रमेश भाई ने घोषणा की कि मेरे पास अपना काम करने के लिए दो घंटे हैं। कांति भाई द्वारा मुझे उस बूढ़े व्यक्ति से बात नहीं करने देने के बारे में मेरा पहले का संदेह अब तक दूर हो चुका था। ज्वार दोपहर 2 बजे वापस आएगा और हमें उससे पहले वापस लौटना होगा।

पूरा माहौल सौहार्दपूर्ण था। लोग एक-दूसरे पर चिल्लाने लगे। क्षेत्र में ज्वार आने से पहले काम पूरा करने का लक्ष्य था। पिछले साल अक्टूबर में प्लास्टिक की थैलियों में लगाई गई नर्सरी तट पर जमाव के कारण दब गई थी। कुछ लोगों ने पौधे खोदे जबकि अन्य उन्हें रोपने के लिए निर्धारित पंक्तियों में ले गए। उन्नीस वर्षीय तेजल ने हवा में छलांग लगाई और एक पैर दलदल में डाला, जिससे पौधे के लिए काफी गहरा गड्ढा बन गया। बैग को हटाकर, वह पौधे को गड्ढे में रखती थी और मिट्टी को अपने पैरों से वापस ठीक कर देती थी…किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं थी।

इम्तियाज ने मुझे सिखाया कि स्थानीय व्यंजन लेप्टा, मडस्किपर को दो तरीकों से कैसे पकड़ा जाता है – एक जाल डालकर और दूसरा उसे छड़ी से उसके छेद से बाहर निकालकर। मुझे दशरथ को रोकना पड़ा जब उसने एक केकड़ा उठाया और मुझे दिखाने के लिए आगे बढ़ रहा था कि पैर कैसे टूटे हैं और कौन से हिस्से खाने चाहिए। मैं शाकाहारी नहीं हूं, लेकिन मैं नहीं चाहती कि केवल प्रदर्शन के लिए एक किशोर केकड़े को मार दिया जाए।

कांति भाई हमें समुद्र के किनारे ले गए जहाँ केवल रेत थी और कीचड़ नहीं था। उन्होंने कहा, कटाव को हमेशा एक नकारात्मक घटना के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए। “यह खाड़ियाँ बनाता है जो समुद्र से दूर मैंग्रोव तक पानी पहुँचाती हैं। जिस रास्ते से हम आए हैं, वहां अगर खाड़ी नहीं होती तो मैंग्रोव नहीं होते,” उन्होंने कहा।

हम वृक्षारोपण में लगे श्रमिकों से मिलने के लिए आगे बढ़े। दो बच्चों की मां जया बेन ने मुझे च्यूइंग गम दी। उन्होंने कहा, “इससे ऐसे इलाके में आसानी से काम करने में मदद मिलती है।” हालाँकि, उनमें से अधिकांश ने गोंद के बजाय तम्बाकू चबाया।

जया इस जगह से 12 किलोमीटर दूर देवला में अपने माता-पिता के घर रुकीं हैं ताकि वह यहां काम कर सकें। उनके पति 50 किलोमीटर दूर एक बंदरगाह के पास रुके हैं जहां वह काम करते हैं। उनके दो बच्चों में से एक उनकी माँ के यहाँ और दूसरा उनके ससुराल में रहता है। “अब जब कुछ आय हो गई है, तो उनमें से एक स्कूल जाता है,” वह मुस्कुराई।

रमीला बेन ने नारंगी नेल पेंट लगाया हुआ था। दस साल पहले, वह एक पनिहारिन थीं, अपने गाँव के जमींदारों के लिए पानी भरने वाली। उन्होंने कहा, “यहां खुले में काम करना अच्छा लगता है…और फिर हमें कुछ मछलियां भी मिल जाती हैं।”

एक स्थानीय व्यंजन मडस्किपर। फोटो: रवलीन कौर/मोंगाबे द्वारा

रमेश भाई ने बाद में मुझे बताया कि राठौड़ समुदाय, जिससे महिलाएं संबंधित थीं, जंबूसर के गांवों में एक बहिष्कृत समुदाय माना जाता है। उनकी झोपड़ियाँ गाँव के बाहर हैं, जहाँ सीवर लाइनें गिरती हैं। यहां बिजली, पानी का कनेक्शन या साक्षरता नहीं है। जहां बाहर गांव में उनके साथ बंधुआ मजदूर जैसा व्यवहार होता है, वहीं अंदर उन्हें शराबी पतियों से निपटना पड़ता है। गरीबी और शराबखोरी के बीच संबंध और मजबूत हुआ। यहाँ दलदल में, यह स्पष्ट था कि रमिला और जया काम को महत्व देते थे, न केवल पैसे के लिए बल्कि इसके साथ आने वाली स्वतंत्रता की भावना के लिए भी।

वापस आते समय, कीचड़ सूख गया था, दरारें नंगे पैरों में चुभ रही थीं। मेरा सफ़ेद कुर्ता उस दिन के साहसिक कार्य का प्रमाण था, जो रमीला, जया, इम्तियाज़ और दशरथ के लिए एक दैनिक कार्य था।

हम सफाई करने के लिए देवजगन मंदिर लौट आए और दोपहर का भोजन थेपला (पतली रोटी), चटनी और फल खाये जो रमेश भाई और अन्य लोग घर से लाए थे। कर्मचारी सप्ताह में कम से कम तीन बार 30-70 किलोमीटर दूर से अपनी मोटरसाइकिलों पर विभिन्न वृक्षारोपण स्थलों की यात्रा करते थे। प्रकृति को नष्ट करना आसान है, धन के बावजूद उसका पुनर्वास करना आसान नहीं है। 

मुझे गांवों से रिपोर्ट करने के लिए क्या प्रेरित करता है? मैं अक्सर खुद से पूछती हूं। इस तरह की फील्ड यात्राएं, जहां एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति पर्यावरण और लोगों से विनम्र होता है, करती हूं। रमीला, जया और तेजल की तम्बाकू से भरी हँसी, अनुचित परिस्थितियों के बावजूद बनी रहती है। कोटेचिया और कांति भाई जैसे गुमनाम परिवर्तन-निर्माताओं से मुलाकात हुई।

बैनर तस्वीर: जंबूसर में लगाया जाता मैंग्रोव। फोटो: रवलीन कौर/मोंगाबे 

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