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संरक्षण के अभाव में कहीं विलुप्त न हो जाए रोबदार बिल्ली स्याहगोश

कैराकल को भारत में आईयूसीएन  रेड लिस्ट में खतरे के करीब के रूप में रखा गया है और यह भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) कानून की अनुसूची- I में आता है। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।

कैराकल को भारत में आईयूसीएन  रेड लिस्ट में खतरे के करीब के रूप में रखा गया है और यह भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) कानून की अनुसूची- I में आता है। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।

  • अनुमान है कि राजस्थान और गुजरात राज्यों में महज 50 कैराकल (बिल्ली की एक प्रजाति) बचे हैं। इससे एशियाई चीता के बाद कैराकल भारत में विलुप्त होने के कगार पर पहुंचने वाली बिल्ली की दूसरी प्रजाति बन गई है।
  • आबादी में कमी के लिए जिम्मेदार वजहों की अभी तक पहचान नहीं की जा सकी है। हालांकि, जानकारों का अनुमान है कि इस प्रजाति को होने वाली खास बीमारी इसकी वजह हो सकती है, लेकिन उनकी अटकलों को सपोर्ट करने के लिए ज़्यादा डेटा की जरूरत है।
  • साल 2021 में, राष्ट्रीय जैव विविधता वन्यजीव बोर्ड ने भारत में कैराकल सहित 22 प्रजातियों के संरक्षण और इनकी आबादी बढ़ाने के लिए एक योजना की घोषणा की थी।

भारत में एक छोटी जंगली बिल्ली पाई जाती है। स्थानीय भाषा में इसे स्याहगोश कहते हैं। इसे कैराकल (कैराकल कैराकल श्मित्ज़ी)  के नाम से भी जाना जाता है। अब अनुमान लगाया जा रहा है कि देशभर में इनकी संख्या महज 50 ही बची है और वो भी देश के पश्चिमी हिस्से में। लंबे गुच्छेदार कानों और लाल-भूरे या रेतीले-भूरे रंग के फर के लिए प्रसिद्ध कैराकल गंभीर खतरे में है। शायद यह प्रजाति भारत में खत्म होने के कगार पर है। वन्यजीव विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को डर है कि 1952 में विलुप्त घोषित किए गए एशियाई चीता के बाद कैराकल देश से विलुप्त होने वाली बिल्ली की दूसरी प्रजाति होगी।

इन आशंकाओं को साल 2015 के एक अध्ययन से भी बल मिला। इस अध्ययन के अनुमान के अनुसार, राजस्थान के रणथंभौर टाइगर रिजर्व में लगभग 28 कैराकल हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि गुजरात के कच्छ में लगभग 20 कैराकल हैं। अनुमान है कि भारत में बिल्ली की ये प्रजाति अब इन्हीं दो जगहों पर है।

आईयूसीएन कैट स्पेशलिस्ट ग्रुप के अनुसार, चेहरे पर खास काले निशान और आंखों और मुंह के चारों ओर सफेद घेरे वाली बिल्ली अफ्रीका, मध्य-पूर्व, मध्य एशिया, पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत के शुष्क क्षेत्रों की मूल निवासी है।

भारत में कैराकल की आबादी सिर्फ गुजरात के कच्छ और राजस्थान के रणथंभौर में बची है। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।
भारत में कैराकल की आबादी सिर्फ गुजरात के कच्छ और राजस्थान के रणथंभौर में बची है। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।

हालांकि, इस प्रजाति को दुनिया भर में आईयूसीएन की रेड लिस्ट के तहत कम से कम चिंतावाली श्रेणी में रखा गया है। इसे भारत में संरक्षण मूल्यांकन और प्रबंधन योजना (CAMP) और आईयूसीएन रेड लिस्ट असेसमेंट द्वारा खतरे के करीबके रूप में सूचीबद्ध किया गया है। यह प्रजाति भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 की अनुसूची-I श्रेणी में शामिल है, जो इसे ज्यादा से ज्यादा संभव सुरक्षा देता है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के पूर्व डीन वाईवी झाला कहते हैं, ऐतिहासिक रूप से, कैराकल पूरे मध्य भारत और सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में पाया जाता था। लेकिन पिछले 40 सालों से इन क्षेत्रों में इस जानवर को नहीं देखा गया है।“हमने 2006 से कुनो नेशनल पार्क में बड़े पैमाने पर इसे कैमरा ट्रैप (कैराकल) करने कोशिश की है, लेकिन यह सब व्यर्थ रहा।”

2022 में, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के साथ वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने मध्य प्रदेश वन विभाग और नीदरलैंड के लियो फाउंडेशन के साथ नौ राज्यों – छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कैराकल की मौजूदगी पर एक अध्ययन किया।

आबादी में गिरावट के बारे में अनिश्चितता

हालांकि, चार दशकों से ज्यादा समय से कैराकल को मध्य भारत क्षेत्र में नहीं देखा गया हैलेकिन वैज्ञानिक और वन्यजीव विशेषज्ञ अभी तक आबादी में गिरावट की वजह तय नहीं कर पाए हैं। झाला का कहना है कि प्राकृतिक निवास का नुकसान सभी वन्यजीवों के लिए एक सामान्य कारक हैबिल्लियों की अन्य प्रजातियां अपेक्षाकृत अच्छा कर रही हैं, लेकिन कैराकल के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

झाला कहते हैं, गांधीसागर राष्ट्रीय उद्यान और नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य जैसे संरक्षित क्षेत्रों में ही सभी कैराकल थे और यहां शिकार का बहुत ज्यादा खतरा है। इसलिए, प्राकृतिक निवास में खतरे या शिकार की कमी का कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन यह अभी भी समझ में नहीं आता है कि इन संरक्षित क्षेत्रों में भी आबादी इतनी ज्यादा क्यों गिर रही है।”

मध्य प्रदेश के सहायक प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) शुभरंजन सेन, झाला की बात दोहराते हुए कहते हैं, “कोई नहीं जानता कि बिल्लियां अब क्यों नहीं देखी जा रही हैं। यह किसी बीमारी के कारण हो सकता है लेकिन इसकी वजह तय नहीं हैं।

झाला का भी यही अनुमान है। हालांकि, वह कहते हैं कि जबकि एक सामान्य बीमारी ने कम आबादी वाली बिल्लियों की अन्य प्रजातियों पर भी असर डाला होगाअगर कोई ऐसी बीमारी है जो कैराकल के खत्म होने का कारण बन रही है, तो यह प्रजाति के लिए खास होनी चाहिए। वे कहते हैं, “ये अटकलें हैं, लेकिन संरक्षण रणनीतियों के बारे में सोचना शुरू करने से पहले हमें मूल वजह तय करने के लिए इस पर गौर करने की जरूरत है।”

साल 2010 में ली गई तस्वीर। राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान एक कैराकल। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।
साल 2010 में ली गई तस्वीर। राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान एक कैराकल। तस्वीर: गोबिंद सागर भारद्वाज।

शुरू में, बड़े पैमाने पर शिकार और अवैध व्यापार गिरावट के दो मुख्य कारण थे। लेकिन सेन का कहना है कि कई दशकों से बिल्ली के अवैध शिकार और जब्ती के बारे में रिपोर्ट नहीं की गई है। उन्होंने कहा कि हालांकि मध्य प्रदेश में लंबे समय से बिल्ली को नहीं देखा गया था, हो सकता है कि वे इतने समय से गलत जगहों पर देख रहे हों।

वह कहते हैं, वन विभाग ज्यादातर घने जंगलों पर ध्यान केंद्रित करता है लेकिन कैराकल खुले जंगलों और झाड़ियों में पाया जाता है। यह बंजर भूमि की एक प्रजाति है, जो आम तौर पर राजस्व विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है, इसलिए हम उनसे चूक गए होंगे, क्योंकि हमने इन क्षेत्रों में कैमरा ट्रैप नहीं लगाए थे।

संरक्षण में चुनौतियां 

साल 2021 में, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEFCC) ने कैराकल सहित भारत में 22 प्रजातियों के संरक्षण और आबादी में बढ़ोतरी के लिए एक योजना की घोषणा की थी।

प्रोजेक्ट योजना के अनुसार रणथंभौर, निजी क्षेत्र की भागीदारी, क्षेत्रीय सहयोग और ज्ञान हस्तांतरण और लैंगिक मुख्यधारा और निगरानी और मूल्यांकन के आधार पर सीखने को बढ़ावा देकर जंगली बिल्लियों और उनके आवासों के सरकारी प्रबंधन को मजबूत करने पर ध्यान देने के साथ प्रजातियों के संरक्षण पर काम कर रहा है।

यह योजना संरक्षण मास्टर प्लान विकसित करने, जंगली बिल्लियों के लिए निगरानी प्रोटोकॉल, मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) और वन्यजीव-संबंधी कानून को लागू करने को मजबूत करने की बात करती है।

नोएडा में एमिटी यूनिवर्सिटी में एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट्री एंड वाइल्डलाइफ के एसोसिएट प्रोफेसर, रणदीप सिंह ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि यह परियोजना चंबल और सवाई के बीहड़ों में शुरू होगी, क्योंकि इन्हें प्रजातियों के लिए संभावित आवास माना जाता है। रणदीप इस साल के आखिर में RKL में अध्ययन करेंगे

सिंह कहते हैं,हम आबादी का अध्ययन करने के लिए राजस्थान और कुनो राष्ट्रीय उद्यान के कुछ हिस्सों में कैमरा ट्रैप लगाएंगे और फिर संरक्षण के लिए रणनीति तैयार करेंगे। सबसे पहले और सबसे अहम, क्षेत्र में मौजूद कैराकल की संख्या जानना ज़रूरी है।”

कैलादेवी करौली, रणथंभौर टाइगर रिजर्व में कैमरा ट्रैप में कैद एक कैराकल। तस्वीर- राजस्थान वन विभाग।
कैलादेवी करौली, रणथंभौर टाइगर रिजर्व में कैमरा ट्रैप में कैद एक कैराकल। तस्वीर- राजस्थान वन विभाग।

मध्य प्रदेश के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) जेएस चौहान का भी मानना है कि संरक्षण रणनीतियों को डिजाइन करने से पहले संभावित आवासों का सर्वेक्षण जरूरी है। चौहान कहते हैं,अगर शोधकर्ताओं को पता चलता है कि जिस जगह पर वे अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं, वहां थोड़ी सी आबादी भी है, तो मुझे यकीन है कि मध्य प्रदेश वन विभाग प्रजातियों की रक्षा के लिए क्षेत्र में एक से ज्यादा अभयारण्य बनाने के लिए तैयार होगा। चूंकि इसे कई दशकों से मध्य प्रदेश में नहीं देखा गया है, इसलिए कुछ स्तर पर, मुझे लगता है कि यह दूर की कौड़ी जैसा है।”

राजस्थान वन विभाग भी कैराकल के लिए एक प्रजनन कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा हैलेकिन कई चुनौतियों और तकनीकी समस्याओं के साथ, यह परियोजना अपने शुरुआती चरण में है। हालांकि, संरक्षण प्रक्रिया तभी शुरू होगी जब गिरावट की ओर ले जाने वाले प्रमुख खतरों की पहचान हो जाएगी।


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हालांकि, झाला को लगता है कि प्रजनन कार्यक्रम से आबादी को स्थिर करने में मदद मिल सकती है, लेकिन इससे जंगली प्रजातियों में गिरावट आएगी।

झाला कैराकल प्रजनन केंद्र की स्थापना में कुछ प्रमुख बाधाओं पर रोशनी डालते हुए कहते हैं,खतरों की पहचान हो जाने पर हम उनसे निपटने के लिए रणनीति तैयार कर सकते हैं। लेकिन प्रजनन केंद्र में भी, कार्यक्रम शुरू करने से पहले हमें एक अच्छी मूल आबादी की जरूरत होती है। अगर 50 से कम कैराकस बचे हैं, तो उनका प्रजनन शुरू करना कठिन है। 

 

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