- गुजरात की स्थानीय पाटनवाड़ी ऊन की मांग में भारी गिरावट आई है। इसके चलते भेड़ पालक, चरवाहे और बुनकरों पर काफी असर पड़ा है।
- आयात होने वाले माल में कड़ी प्रतिस्पर्धा, बेहतर गुणवत्ता वाले ऊन और पर्यावरणीय मुद्दे इस गिरावट के मुख्य कारण हैं। बदलती जलवायु परिस्थितियों, अपर्याप्त चारे और बीमारियों के कारण पाटनवाड़ी ऊन मोटा हो रहा है।
- मालधारी अब पाटनवाड़ी जैसी ऊन उत्पादक नस्लों पर निवेश करने के बजाय मांस के लिए भेड़ पालना पसंद करते हैं।
जब हम गुजरात की देशी नस्ल की भेड़ पाटनवाड़ी की तलाश में निकले, तो हमें कच्छ का वह एक दिन काफी लंबा लगा था। काफी तलाश के बाद हमें कुछ ही भेड़े मिल पाई। घटती मांग के चलते आज राज्य में इस नस्ल की 5,000 से भी कम भेड़ें बची हैं।
भुज से नखत्राणा की ओर लगभग 80 किलोमीटर के सफर के बाद हमें एक मालधारी नौबा जडेजा से मिलने का मौका मिला। उसके पास तकरीबन 150 पाटनवाड़ी भेड़ें थीं। जडेजा ने बताया कि वह अपने गांव में एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास अभी भी ये पाटनवाड़ी हैं। उन्होंने कहा, “मैं इन्हें सिर्फ अपने लगाव के कारण रख रहा हूं। मेरे पूर्वजों ने पाटनवाड़ी को अपने पास रखा था,तो अब ये विरासत मैं संभाल रहा हूं।” उन्होंने आगे कहा, “लेकिन मुझे लगता है कि यह सिलसिला मेरे साथ ही खत्म हो जाएगा।”
स्थानीय ऊन की मांग में गिरावट, सिकुड़ते चरागाह और अन्य पर्यावरणीय मुद्दे पाटनवाड़ी की घटती लोकप्रियता का बड़ा कारण है। अगर इनकी घटती संख्या को रोका नहीं गया, तो हो सकता है आने वाले समय में इनकी नस्ल को हम देखने के लिए तरस जाएं।
पाटनवाड़ी नस्ल ज्यादातर गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र क्षेत्रों में पाई जाती है और इसके मोटे ऊन के कारण इसे अक्सर ‘कालीन-ऊन नस्ल’ कहा जाता है। कच्छ के मोटा वर्नोरा गांव के एक बुनकर राणा जयमल वानकर ने बताया, “ पुराने समय में मालधारी हमें (बुनकरों को), मानसून के बाद अपनी भेड़ों की ऊन देते थे और फिर अपने पशुओं के साथ हरे चरागाहों के लिए अन्य जगहों पर चले जाते थे।” जब वे सर्दियों की शुरुआत में दिवाली (अक्टूबर/नवंबर के महीनों में) के दौरान लौटते, तो हमारे पास इस ऊन से बुना हुआ उनका ढाबड़ा (कंबल) और जैकेट आदि तैयार मिलते थे।” लेकिन यह चलन अब खत्म होता जा रहा है।
एक दूसरे भेड़पालक गाबा भाई खेंगार भाई रबारी के पास 100 भेड़ों हैं, जिसमें से 50 पाटनवाड़ी हैं। उन्होंने कहा कि उनका परिवार अब पारंपरिक ढाबडा का इस्तेमाल नहीं करता है। गाबा भाई ने बताया “इसे मेरे पिता, दादा और अन्य पूर्वज काम में लेते थे। अब हम बाजार से खरीदे गए कंबल का इस्तेमाल कर लेते हैं।”
देसी ऊन की घटती मांग ने पाटनवाड़ी भेड़ को प्रभावित किया है। लेकिन मामला इससे कहीं अधिक जटिल है।
स्थानीय ऊन का कोई खरीदार नहीं
राज्य सरकार के अंतर्गत गुजरात भेड़ और ऊन विकास निगम लिमिटेड (GUSHEEL), भेड़ और ऊन विकास से संबंधित गतिविधियों का नेतृत्व करता है। यहां सबसे महत्वपूर्ण ऊन की खरीद और बिक्री है। हालांकि, एजेंसी ने 2018-19 से भेड़ पालकों से ऊन की खरीद बंद कर दी है। 2015 से 2018 के बीच खरीद की दर 18 रुपये प्रति किलोग्राम और 2014-15 में यह 49 रुपये प्रति किलो थी।
इसका भेड़पालकों, चरवाहों और बुनकरों पर खासा असर पड़ा है। गुशील (GUSHEEL) के जरिए भेड़चालक न सिर्फ अपनी ऊन बेच पाते थे, बल्कि उनके मवेशियों के टीकाकरण और अन्य स्वास्थ्य जांच की जिम्मेदारी भी इसी एजेंसी की थी। लेकिन अब यह सब काफी कम हो गया है।
गुशील के वाई. सोलंकी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “गुशील को खुद फिर से उठ खड़े होने की जरूरत है।” वह आगे बताते हैं, “2013 से हमारे पास कर्मचारियों की भारी कमी है।” यही कारण है कि कई समाधानों के लिए खमीर और सहजीवन जैसे गैर सरकारी संगठनों के साथ चर्चा के बावजूद एजेंसी ज्यादा कुछ नहीं कर पाई है। केंद्रीय ऊन विकास बोर्ड से गैर-सरकारी संगठनों ने भेड़ प्रजनकों की मदद के लिए फंड की मांग की थी। लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी है कि वे ऐसा सिर्फ तभी कर सकते हैं जब इस पहल से जुड़ी कोई सरकारी एजेंसी हो। जैसे कि इस मामले में ‘गुशील’ है। सोलंकी ने कहा। “लेकिन मानव संसाधन की उपलब्धता हमारी सीमा है। सरकार स्थानीय ऊन या भेड़ को फिर से लाने में भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही है।”
जडेजा जैसे कुछ भेड़पालक पहले उन लोगों को ऊन बेच देते थे, जो भेड़ों की ऊन काटने आते थे। मालधारी को औसतन 13 से 15 रुपये हर एक भेड़ का ऊन कतरने के देने पड़ते हैं। ऐसा साल में दो बार करना पड़ता है – एक बार, फरवरी के आसपास जब सर्दियां कम हो जाती हैं और मौसम गर्म हो जाता है। दूसरी बार जुलाई में मानसून के दौरान। जडेजा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “पहले, कतरनी करने वाले ज्यादातर लोग राजस्थान से आते थे। वे खुद ही ऊन खरीदते लेते थे। लेकिन अब, उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए मुझे अब अपनी भेड़ों की ऊन कतरने पर खुद ही पैसा खर्च करना पड़ता है। और बदले में कुछ नहीं कमाता हूं। मैंने हाल ही में भेड़ों से सारी ऊन उतारी है, क्योंकि कोई खरीदने वाला नहीं है।”
‘सहजीवन’ के संदीप कनौजिया ने कहा, “भेड़ों की सेहत को ठीक-ठीक बनाए रखने के लिए बाल काटना जरूरी है। इसलिए भेड़ पालक को ऊन नहीं बेच पाने पर भी जानवरों पर से ऊन को कतरना पड़ता है।”
सहजीवन पहल ‘सेंटर फॉर पेस्टोरलिज्म’ (सीएफपी) के वसंत सबरवाल के अनुसार, “भारत में 80 प्रतिशत स्थानीय ऊन का इस्तेमाल करना बंद कर दिया गया है।”
सबरवाल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “एक तरफ, भारत भारी मात्रा में ऊन का आयात करता है और दूसरी तरफ स्थानीय ऊन को छोड़ रहा है।” वह आगे कहते हैं, “विशेष रूप से पश्चिमी भारत जैसे गुजरात और दक्कन क्षेत्र से स्थानीय ऊन को कम खरीदार मिल रहे हैं। आयातित थोक ऊन के विपरीत, यह ऊन मोटी और छोटे रेशे वाली होती है। जबकि आयतित ऊन लंबे रेशे वाली और नरम होती है।’ उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश की स्थानीय ऊन लंबी होता है और इसलिए अधिक बिकती है। 2022 में, सीएफपी ने ‘देसी ऊन-हमारा अपना’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया कि भेड़ और ऊन विकास पर भारत की नीतियों का जोर मेरिनो जैसी विदेशी नस्लों के साथ क्रॉस-ब्रीडिंग कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने पर रहा है। इसके चलते स्थानीय ऊन उत्पादक नस्लों को नुकसान पहुंचा है।
उसी रिपोर्ट के एक भाग के रूप में, गुजरात में पाटनवाड़ी भेड़ों की संख्या की गणना के लिए एक सर्वेक्षण किया गया और “यह संख्या 5,000 से कम पाई गई”। सहजीवन के रमेश भट्टी ने अनुमान लगाया कि संख्या और भी कम थी – “शायद लगभग 2,000″।
इसके अलावा, पर्यावरणीय मुद्दे भी स्थानीय ऊन और स्थानीय भेड़ की गिरावट में भूमिका निभा रहे हैं।
बदलती जलवायु, सिकुड़ते चरागाह
भेड़ प्रजनकों, बुनकरों, के मुद्दे पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों सरकारी एजेंसी से जब पाटनवाड़ी भेड़ की ऊन की गुणवत्ता के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एक ही बात कही, कि यह अधिक मोटा होता जा रहा है और इसलिए बाजार में कोई खरीदार ढूंढने से भी नहीं मिलता।
गाबा भाई ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “ऊन के मोटे होने के कई कारण हैं। पहले चार महीने तक बारिश समय पर होती थी और चारागाह हरे-भरे हो जाते थे। पशुओं को भरपूर चारा मिलता था। अब, बारिश अनियमित हो गई है। चारे की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं है और मुझे लगता है कि इसी कारण जानवरों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और ऊन भी मोटा हो रहा है।”
गाबा भाई के मुताबिक, भेड़ों में नाक से खून आना, दस्त और गले में दिक्कत जैसी स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा, “लगभग 10-15 साल पहले ये बीमारियां इतनी आम नहीं थीं।”
जडेजा ने कहा कि अब उन्हें अपने जानवरों को चराने के लिए काफी दूर तक चलना पड़ता है। उनके मुताबिक, “यह क्षेत्र हरा-भरा दिखता है, लेकिन पहले के उलट अब यहां ऐसे पौधे उग रहे हैं जिन्हें भेड़ें नहीं चरतीं। जैसे गैंडो बावल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा)। अब कांटेदार पौधे हैं जो उन्हें घायल कर देते हैं।” पी. जूलीफ्लोरा एक आक्रामक प्रजाति है और IUCN के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण आक्रामक प्रजातियों का प्रसार अक्सर बढ़ जाता है।
कनौजिया ने कहा कि इस क्षेत्र में पवन टरबाइनों के बढ़ने का मतलब यह भी है कि चरागाह भूमि सिकुड़ रही है। उन्होंने बताया, “जहां भी पवनचक्की है, वहां उस दूर-दूर तक का एरिया उस तक पहुंचने का एक रास्ता है। इसका मतलब यह है कि वह पूरा क्षेत्र जहां चरवाहे अपने जानवरों को चराते थे, अब साफ कर दिया गया है।”
बुनकरों के गांव कहे जाने वाले भुजोड़ी के एक बुनकर वी. शामजी ने कहा कि सर्दियों में देरी का असर भेड़ों की ऊन की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। वह बताते हैं, “फरवरी के पहले सप्ताह में, जब सर्दियां आम तौर पर कम हो जाती थीं। तब जानवरों के बाल काटे जाते थे। लेकिन जानवरों का कतरना अब मार्च में करना पड़ता है, क्योंकि ठंड के मौसम में देरी हो रही है। इसका मतलब यह है कि दूसरी कतरनी भी प्रभावित होगी। इससे ऊन की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है।”
शामजी, राणा और अन्य बुनकरों का भी मानना है कि पशुपालकों के बीच अपने पशुओं के रखरखाव, जैसे उन्हें नियमित रूप से नहलाना आदि में रुचि कम होने से भी ऊन की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है। चरवाहे इस बात पर सहमत हैं। गाबा भाई ने कहा, “जब मैं बदले में कमाई नहीं कर रहा हूं तो मैं उन पर ओऱ खर्च नहीं करना चाहता।”
ऊन से ज्यादा मांस के लिए
इन सभी बदलावों का मतलब ये निकला कि पारंपरिक भेड़ प्रजनन, जो कभी ऊन उत्पादन की वजह से बढ़ रहा था, अब मांस उत्पादन इसके बढ़ने की वजह है।
गुशील के सोलंकी के अनुसार, मालधारियों का 80 प्रतिशत राजस्व अब जानवरों को बेचने से आता है, जबकि 20 प्रतिशत ऊन उत्पादन और खाद से आता है। उन्होंने कहा, “अब कच्छ में बाराडी नामक एक नई नस्ल पेश की गई है। अब पचास प्रतिशत भेड़ें इसी नस्ल की हैं। इसमें ऊन मुश्किल से ही आता है और इसलिए कतरने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।”
स्थानीय ऊन पर सीएफपी की रिपोर्ट भी यही कहती है कि “हिमालयी क्षेत्र को छोड़कर, पश्चिमी और दक्कन क्षेत्रों में ऊन उत्पादक नस्लों की संख्या में कमी आई है, जबकि मांस वाली नस्लों की संख्या में वृद्धि हुई है।”
स्थानीय ऊन और भेड़ को बचाने के लिए इनोवेशन की जरूरत
स्थानीय ऊन और भेड़ की आनुवंशिक विविधता के लुप्त होने की कगार पर है। इन दोनों को बचाने के लिए विभिन्न संगठनों द्वारा प्रयास चल रहे हैं। उदाहरण के लिए, खमीर ने 2016 में सीधे मालधारियों से स्थानीय ऊन खरीदने की पहल शुरू की। इसका इस्तेमाल गलीचे, कुशन कवर, मैट के साथ-साथ कोट और जैकेट जैसी चीजों को बनाने के लिए किया जाता है। दूसरी ओर, सहजीवन ने दो कतरनी मशीनें खरीदीं ताकि मालधारियों द्वारा कतरने वालों को काम पर रखने की लागत में कटौती की जा सके।
सबरवाल ने कहा, “हालांकि सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप इस ऊन के अलग-अलग इस्तेमालों को ढूंढना होगा। हम एकॉस्टिक इन्सुलेशन मैटिरियल बनाने के लिए स्थानीय ऊन का इस्तेमाल करने के लिए अन्य संगठनों, इनोवेटर, डिजाइनरों, आर्किटेक्ट के साथ काम कर रहे हैं।” उन्होंने कहा, दुनियाभर में, एकॉस्टिक और थर्मल इन्सुलेशन के लिए ऊन का इस्तेमाल करने की बड़ी औद्योगिक मांग है और शायद यही इस निराशाजनक तस्वीर से बाहर निकलने का रास्ता हो सकता है।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: गुजरात की स्थानीय पाटनवाड़ी भेड़। तस्वीर-अज़रा परवीन रहमान