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नेपाल में स्थिर है गिद्धों की आबादी, एक्शन प्लान बनाकर आबादी बढ़ाने पर जोर

नेपाल के नवलपुर में एकत्रित सफेद पूंछ वाले गिद्ध। तस्वीर - अभय राज जोशी/मोंगाबे।

नेपाल के नवलपुर में एकत्रित सफेद पूंछ वाले गिद्ध। तस्वीर - अभय राज जोशी/मोंगाबे।

  • एक नए अध्ययन से पता चला है कि नेपाल में गंभीर रूप से लुप्तप्राय सफेद पूंछ वाले गिद्धों (जिप्स बेंगालेंसिस) की दो कॉलोनियों ने एक दशक से ज़्यादा समय से स्थिर आबादी बनाए रखी है। ऐसा डाइक्लोफेनाक (जहरीला रसायन) संकट और अन्य खतरों के बावजूद हुआ है।
  • यह अध्ययन ऐसे समय सामने आया है, जब नेपाल ने गिद्धों को बचाने के लिए नया एक्शन प्लान (2023-2027) तैयार किया है। इसका उद्देश्य देश में मौजूद नौ गिद्ध प्रजातियों को संरक्षित करना है। इनमें से आठ खतरे में या बहुत ज्यादा खतरे में हैं।
  • एक्शन प्लान में नेपाल में गिद्ध संरक्षण के लिए मुख्य खतरों की पहचान की गई है। इनमें नॉनस्टेरॉइडल एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (एनएसएआईडी), इलेक्ट्रोक्यूशन, विषाक्तता, प्राकृतिक आवास कम होना और इनकी स्थिति खराब होना शामिल है। एक्शन प्लान में इन समस्याओं को दूर करने और अलग-अलग उपाय करना भी शामिल है।
  • अध्ययन में यह भी सवाल उठाया गया है कि गिद्धों की आबादी क्यों नहीं बढ़ी है। साथ ही, सुझाव दिया गया है कि उनकी संख्या में बढ़ोतरी को सीमित करने वाले कारकों को समझने के लिए और ज्यादा शोध की जरूरत है।

नेपाल में निचले पहाड़ चीड़ के पेड़ों (पीनस रॉक्सबर्गी) से ढके हुए हैं। गुनगुनी धूप वाली एक सुबह सफ़ेद पूंछ वाले गिद्ध (जिप्स बेंगालेंसिस) का एक जोड़ा एक पेड़ की सुई जैसी हरी पत्तियों और भूरी शाखाओं के बीच घोंसला बनाते हुए देखा जा सकता है।

वे एक मजबूत तना चुनते हैं जो शिकारियों से बचने के लिए पर्याप्त ऊंचा है। साथ ही, यह तना गर्म हवाओं को भी आसानी से उन तक पहुंचा सकता है। वे टहनियां और शाखाएं इकट्ठा करते हैं और उन्हें एक मंच जैसा आकार देते हैं; वे घोंसले के फर्श को अपने अंडे के लिए आरामदायक बनाने के लिए कुछ पंख और घास भी वहां रखते हैं, क्योंकि इसी अंडे से चूजा निकलेगा। इतनी जतन वो इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि गिद्ध हर साल सिर्फ और सिर्फ एक अंडा देने के लिए जाने जाते हैं।

नेपाल के अरघाखांची में एक गिद्ध अपने घोंसले की रखवाली करता हुआ। तस्वीर: कृष्णा प्रसाद भुसाल।
नेपाल के अरघाखांची में एक गिद्ध अपने घोंसले की रखवाली करता हुआ। तस्वीर: कृष्णा प्रसाद भुसाल।

अब गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति के ये दो गिद्ध घोसला बनाने वाले अकेले नहीं हैं। आस-पास इनकी प्रजाति के कई गिद्ध घोंसला बना रहे हैं। इन्हें कभी दुनिया के बड़े शिकारी पक्षी के रूप में जाना जाता था जिनकी संख्या भी प्रचुर थी।

वहीं, नेपाल में हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि पिछले दशक में कॉलोनियों में गिद्ध के घोंसलों, चूजों और हर घोंसले में चूजों की संख्या में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। यह अध्ययन अंतरराष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस (तीन सितंबर) से कुछ ही दिन पहले और नेपाल की नई गिद्ध संरक्षण कार्य योजना (2023-2027) के लॉन्च के तुरंत बाद प्रकाशित हुआ। इसमें अरघाखांची जिले में स्थित दो कॉलोनियों का दस्तावेजीकरण किया गया है।

अध्ययन के नतीजे संरक्षणवादियों के लिए राहत के रूप में सामने आए हैं, क्योंकि दक्षिण एशियाई गिद्ध “डाइक्लोफेनाक संकट” (जिसमें पक्षियों की मौत मवेशियों के शवों को खाने से हुई थी, जिन्हें दर्द निवारक डाइक्लोफेनाक दिया गया था) से उबर गए हैं। हालांकि,  नए एक्शन प्लान के मुताबिक उन्हें नए खतरों का सामना करना पड़ रहा है। जर्नल ऑफ रैप्टर रिसर्च में प्रकाशित अध्ययन के प्रमुख लेखक कृष्ण प्रसाद भुसाल ने कहा, “दो कॉलोनियों ने जिस तरह एक दशक से ज्यादा समय तक अपनी आबादी को स्थिर रखा है, उससे हमें प्रोत्साहन मिला है।”

नेपाल के नवलपुर में भोजन वाली जगह के पास लाल सिर वाले गिद्ध। तस्वीर- अभय राज जोशी/मोंगाबे।
नेपाल के नवलपुर में भोजन वाली जगह के पास लाल सिर वाले गिद्ध। तस्वीर- अभय राज जोशी/मोंगाबे।

आईयूसीएन रेड लिस्ट मानदंड के मुताबिक नेपाल गिद्धों की नौ प्रजातियों का घर है। इनमें से आठ खतरे या गंभीर खतरे में हैं। इनमें सफेद पूंछ वाला गिद्ध, पतला चोंच वाला गिद्ध (जी. टेनुइरोस्ट्रिस), लाल सिर वाला गिद्ध (सरकोजिप्स कैल्वस) और भारतीय गिद्ध (जी. इंडिकस) गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किए गए हैंमिस्री गिद्ध (नियोफ्रॉन पर्कनोप्टेरस) लुप्तप्राय है और दाढ़ी वाला गिद्ध (जिपेटस बारबेटस), सिनेरियस गिद्ध (एजिपियस मोनैचस) और हिमालयन ग्रिफॉन (जी. हिमालयेंसिस) लगभग खतरे में हैं। नौवीं प्रजाति यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (जी. फुल्वस) सबसे कम चिंता वाली है। यह ठंड के मौसम में नेपाल आती है।

सफेद पूंछ वाला गिद्ध जिसकी निगरानी कार्यक्रम के तहत टैगिंग की गई है। तस्वीर- अंकित बिलास जोशी/बीसीएन।
सफेद पूंछ वाला गिद्ध जिसकी निगरानी कार्यक्रम के तहत टैगिंग की गई है। तस्वीर- अंकित बिलास जोशी/बीसीएन।

नेपाल ने साल 2006 में डाइक्लोफेनाक संकट खत्म करने के लिए इस दवा के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी। साथ ही, विकल्प के तौर पर गिद्धों के लिए सुरक्षित दवा मेलॉक्सिकैम को बढ़ावा दिया गया और गिद्धों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए स्थानीय समुदायों के साथ काम करने का विचार शुरू किया गया। इसके चलते, हाईवे ट्रांसेक्ट सर्वेक्षणों के अनुसार गिद्धों की आबादी, खासकर गंभीर रूप से लुप्तप्राय गिद्धों की आबादी में मामूली सुधार हुआ है।

रैप्टर्स शोधकर्ता तुलसी सुबेदी ने कहा, “अरघा अध्ययन उम्मीद की एक किरण है कि नेपाल में गिद्धों की आबादी में सुधार हो रहा है।” उन्होंने कहा, “हालांकि, यह कहना जल्दबाजी होगा कि यह पूरे देश में हो रहा है।” सुबेदी इस अध्ययन में शामिल नहीं थे।

इस जानकारी के बाद नेपाल के अधिकारी अब नए एक्शन प्लान के तहत उन्हें सुरक्षित भोजन और आवास प्रदान करके नेपाल में गिद्धों की व्यवहार्य जंगली आबादी को बहाल करने और बनाए रखने की योजना बना रहे हैं।

लेकिन एक्शन प्लान में कई प्रकार की चुनौतियों का भी अनुमान लगाया गया है। कार्य योजना के अनुसार, नॉनस्टेरॉइडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवाओं (एनएसएआईडी) के बाजार सर्वेक्षण से पता चलता है कि डाइक्लोफेनाक फार्मेसी में पूरी तरह से गैर-मौजूद है। साथ ही, मेलॉक्सिकैम, टोलफेनेमिक एसिड (डाइक्लोफेनाक के गिद्ध-सुरक्षित विकल्प) की बिक्री में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, डाइक्लोफेनाक के अलावा निमेसुलाइड, केटोप्रोफेन, फ्लुनिक्सिन और एसेक्लोफेनाक जैसे एनएसएआईडी दवा बाजार में बिक रहे हैं। इन्हें भी गिद्धों के लिए जहरीला माना गया है

एक्शन प्लान की तकनीकी टीम के सदस्य जोशी ने कहा, “एनएसएआईडी नेपाल में गिद्धों को मारने में नंबर एक बना हुआ है।”

एक्शन प्लान के अनुसार, इंसानों की ओर से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से उत्पीड़न या घरेलू मवेशियों को जहर देना, करंट लगना, प्राकृतिक आवास में गिरावट और खनन के चलते होने वाली गड़बड़ी से गिद्धों के लिए नकारात्मक नतीजे सामने आए हैं।

सुबेदी ने कहा कि अधिकारियों को एनएसएआईडी पर ध्यान देने की जरूरत हैलेकिन, करंट लगने और अलग-अलग मांसाहारी जीवों के जहर से गिद्धों की होने वाली मौत को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। उन्होंने मोंगाबे से कहा, “मुझे लगता है कि जब चुनौती से निपटने की बात आती है, तो एक्शन प्लान थोड़ा सीमित है।”

अरघा में, नतीजों ने भुसाल और उनकी टीम को यह पूछने के लिए प्रेरित किया कि असल में आबादी क्यों नहीं बढ़ सकती। भुसाल ने कहा, “इस क्षेत्र में एक नई सड़क बनाई जा रही है।”

अध्ययन के लेखकों का कहना है कि संरक्षित क्षेत्रों के बाहर कालोनियों की जगह और पेड़ों की कटाई से गिद्धों के लिए समस्याएं खड़ी हो सकती हैं और ये वजहें इनकी आबादी को सीमित करने का काम करती हैं।

सुबेदी ने कहा कि अगला कदम ज्यादा से ज्यादा घोंसलों में इसी तरह का अध्ययन करना और नतीजे निकालना होगा जो ज्यादा घोंसले वाले स्थानों पर लागू हो सकते हैं।

 

उद्धरण:

भुसल, के.पी., जोशी, ए.बी., राणा, डी.बी., ठाकुरी, डी.सी., और मैकक्लर, सी.जे. (2023)। अरघा महत्वपूर्ण पक्षी और जैव विविधता क्षेत्र, नेपाल में गंभीर रूप से लुप्तप्राय सफेद पूंछ वाले गिद्ध (जिप्स बेंगालेंसिस) की आबादी और उसमें बढ़ोतरी। जर्नल ऑफ़ रैप्टर रिसर्च, 57(3).doi:10.3356/jrr-22-61

 

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बैनर तस्वीर: नेपाल के नवलपुर में एकत्रित सफेद पूंछ वाले गिद्ध। तस्वीर – अभय राज जोशी/मोंगाबे।

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