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भोपाल में कुछ पक्षी अब कचरे से बना रहे हैं अपने घोंसले

पर्पल सनबर्ड का यह घोंसला मानवजनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाया गया है। तस्वीर-प्रीति सरयान।

पर्पल सनबर्ड का यह घोंसला मानवजनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाया गया है। तस्वीर-प्रीति सरयान।

  • एक अध्ययन से पता चलता है कि भोपाल में सात पक्षी प्रजातियां अपने घोंसले बनाने के लिए मानव जनित कचरे का इस्तेमाल कर रही हैं।
  • घोंसलों को बनाते हुए कितनी मात्रा में मानवजनित कचरे का इस्तेमाल किया गया है, दरअसल यह अलग-अलग प्रजातियों पर निर्भर करता है। ऐश-क्राउन्ड स्पैरो-लार्क यानी देयोरा अपने घोंसले बनाते हुए सबसे अधिक मात्रा में कचरे का इस्तेमाल करती है।
  • अध्ययन में सिफारिश की गई है कि प्रभावी शहरी अपशिष्ट प्रबंधन के जरिए ऐसी सार्थक कोशिशें कि जा सकती है, जिससे पक्षी अपने घोंसले बनाते समय इस तरह के कचरे का इस्तेमाल कम कर दें। साथ ही उन्हें घोंसले बनाने के लिए घास फूस मिलता रहे इसके लिए देशी पौधों को संरक्षित और रोपण किया जाना जरूरी है। इससे उन्हें काफी मदद मिलेगी।

भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) भोपाल के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक नए अध्ययन में पक्षियों के घोंसलों के निर्माण में मानवजनित कचरे के प्रभाव की जांच की गई और घोंसलों में इसके इस्तेमाल को कम करने के लिए पर्यावरण में खुले तौर पर मौजूद अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा को कम करने की सिफारिश की गई।

यह अध्ययन घोंसलों में मानव जनित अपशिष्ट पदार्थों के प्रभावों के दुनिया भर के उदाहरणों का हवाला भी देता है। हालांकि ज्यादातर शोध में नकारात्मक प्रभावों की बात कही गई है जैसे कि प्लास्टिक को निगलने का खतरा, पक्षियों के उसमें उलझने, आनुवांशिक क्षति और मृत्यु दर में वृद्धि। लेकिन वहीं दूसरे अध्ययनों का दावा है कि चमकीले रंग वाले कुछ अपशिष्ट पदार्थों का इस्तेमाल करने से वास्तव में पक्षियों को अपने क्षेत्र का संकेत देने या साथियों को आकर्षित करने में मदद मिल सकती है।

आईआईएसईआर की अनुसंधान टीम की सदस्य विनीता गौड़ा कहती हैं, “जब हम नए कैंपस में गए और प्रारंभिक पक्षी निगरानी अध्ययन शुरू किया तो संयोग से हमने इस विषय की ओर रुख किया। दरअसल हमें वहां कई घोंसलों में प्लास्टिक नजर आया। हमने यह समझने के लिए अध्ययन शुरू किया कि क्या घोंसले में प्लास्टिक चूजों के लिए नुकसानदायक है। लेकिन हमें हैरानी हुई कि माता-पिता ने यह विकल्प काफी सावधानी से चुना था। 

अध्ययन का उद्देश्य घोंसले बनाने के लिए पक्षियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक प्रकार के मानव जनित अपशिष्ट पदार्थों (एडब्ल्यूएम) की पहचान करना और सामुदायिक स्तर पर यह जांच करना था कि ठीक तरीके से कचरे का निपटान न किया जाना, किस तरह से पक्षियों पर असर डालता है। अध्ययन कहता है कि शहरी परिवेश में देशी पौधे को संरक्षित किया जाना चाहिए, ताकि  घोंसला बनाते हुए पक्षी मानव जनित कचरे की जगह पक्षी इन पौधों का इस्तेमाल करने लगें। ये पौधे प्राकृतिक घोंसले के लिए सामग्री के रूप में काम कर सकते हैं।

निर्माण के दौरान 2016 में आईआईएसईआर भोपाल में आवास। तस्वीर-साकेत श्रोत्री 
निर्माण के दौरान 2016 में आईआईएसईआर भोपाल में आवास। तस्वीर-साकेत श्रोत्री

गौड़ा कहते हैं।, उस समय हमारे लिटरेचर सर्वे से पता चला कि लोगों ने कई “हानिकारक” प्रभावों की भविष्यवाणी की थी, लेकिन इसमें से कोई भी वैज्ञानिक परीक्षणों पर आधारित नहीं था और कई बार तो इन्हें मनगढ़ंत तरीके से ही तैयार कर लिया गया था। खास तौर पर भारत में,  हमें कुछ अध्ययन मिले और उनमें से सभी हमारे पेपर में रिपोर्ट किए गए हैं। हमें और कई ब्लॉग और चित्र भी मिले लेकिन वे सिर्फ अवलोकन प्रकृति के थे।

अध्ययन से निष्कर्ष

यह अध्ययन आईआईएसईआर भोपाल परिसर में आयोजित किया गया था, जहां 25 प्रवासी प्रजातियों सहित 120 से अधिक पक्षी प्रजातियों को दर्ज किया गया है।

सर्वे का इस्तेमाल करते हुए, विश्लेषण के लिए 82 घोंसले इकट्ठे किए गए। यह काम प्रजनन के मौसम के आखिर में किया गया था ताकि इससे पक्षियों को कोई परेशानी न हो। इन इकट्ठे किए गए घोंसलों में से हर एक को औजारो की मदद से परत दर परत अलग किया गया। मानवजनित कचरे की मात्रा को तौलने के बजाय, इसे देखकर अनुमान लगाया गया था- पहले पूरे घोंसले में कचरे की मात्रा और फिर घोंसले की हर परत में कचरे की मात्रा। शोधकर्ताओं ने उस स्थान पर घोंसले की तस्वीरें भी लीं और जब भी संभव हुआ, निवास स्थान, घोंसले के आकार और प्रजातियों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर ली।

टीम ने 11 पक्षी प्रजातियों की पहचान कर ली थी। अध्ययन में शामिल घोंसलों में से 45 घोंसले इन्ही प्रजातियों ने बनाए थे। इसमें से सात मानव जनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाए गए थे। लेखकों ने निष्कर्ष निकाला कि ऐश-क्राउन स्पैरो-लार्क ने सबसे अधिक मात्रा में कचरे का इस्तेमाल किया था, जबकि घरेलू गौरैया और बैंगनी सनबर्ड ने काफी अलग-अलग चीजें इस्तेमाल की थीं।

खासतौर पर लाफिंग डव द्वारा बनाए गए साधारण घोंसलों या बया के अत्यधिक जटिल घोंसलों में मौजूद मानव जनित कचरा नहीं था। लेखकों का सुझाव है कि इस अंतर का मतलब यह हो सकता है कि घोंसले को बनाते हुए कुछ प्रजातियों के लिए ही मानव जनित कचरा खास है।

रेड-वेंटेड बुलबुल का यह घोंसला मानव जनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाया गया है। तस्वीर- एन.एस. प्रसन्ना।
रेड-वेंटेड बुलबुल का यह घोंसला मानव जनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाया गया है। तस्वीर- एन.एस. प्रसन्ना।

रेड-वेंटेड बुलबुल को लेकर एक दिलचस्प खोज की गई। इस प्रजाति के घोंसलों में कई तरह के मानवजनित कचरे का इस्तेमाल करते देखा गया था। पिछले शोध की रिपोर्ट बताती है कि यह प्रजाति घोंसले बनाने के लिए प्लास्टिक का इस्तेमाल करती है। और शहरों में इसकी आबादी बढ़ रही है। इससे पता चलता है कि वे बदलते वातावरण के अनुसार ढल सकते हैं और इंसानी शोर-शराबे वाले इलाकों में भी पनप सकते हैं।

हर घोंसले में अलग-अलग परतें होती हैं जो अलग-अलग तरह का काम करती हैं। अध्ययन में संरचनात्मक परत में सबसे ज्यादा कचरा पाया गया था। शायद इसलिए कि वे घोंसले को मजबूत करते हैं और उनके आकार बदलने की संभावना कम हो जाती है। लेखकों का अनुमान है कि सबसे कम मात्रा घोंसले की भीतरी परतों में पाई गई। शायद इसकी वजह यह थी कि यहां कचरा चूजों के सीधे संपर्क में आएगा और उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है।

प्रारंभिक अध्ययन होने के कारण, शोधकर्ता विशिष्ट प्रजातियों पर घोंसलों में इस्तेमाल किए जाने वाले मानव जनित कचरे के प्रभाव का विवरण नहीं दे पाए हैं। 

भविष्य में शोध की संभावना

स्थानीय पक्षी समुदाय के लिए इस अध्ययन के भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों को देखते हुए, गौड़ा का कहना है कि टीम अपने निष्कर्षों के बारे में कैंपस को सूचित करने की योजना बना रही है। अध्ययन लेखकों को उम्मीद है कि उनके अध्ययन के बाद ऐसे पर्यावरणीय परिवर्तनों को समझने और उनसे निपटने के लिए स्थानीय पहल सामने आ सकती हैं।

पक्षियों द्वारा व्यापक पैमाने पर मानव जनित कचरे के इस्तेमाल के बाद भी समस्या को हल करने के लिए कोई पहल नहीं की गई है। गौड़ा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमने मानव बस्तियों के बाहर प्राकृतिक बायोटा तक स्वच्छता अभियान का विस्तार करने के लिए स्वच्छ भारत अभियान पर खास तौर पर ध्यान दिया है। हम पहले से ही गोजातीय जानवरों और कई समुद्री पक्षियों में प्लास्टिक के मामलों को जानते हैं। अब समय आ गया है कि हम इस बात को सामने लाएं कि जानवर हमारी वजह से परेशान हैं। और यह हमारे वातावरण में अत्यधिक प्लास्टिक या मानव जनित कचरे के कारण है।

यह दिलचस्प है कि घोंसलों के निर्माण में मानव जनित कचरे  के इस्तेमाल के फायदे और नुकसान दोनों हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या एक्टोपारासाइट लोड को कम करने के लिए सिगरेट बट्स जैसे मानव जनित कचरे का इस्तेमाल करने के फायदे या फिटनेस का संकेत देने के लिए चमकदार वस्तुओं का इस्तेमाल उनके उपयोग की लागत से अधिक है, गौड़ा कहते हैं कि इस पर अभी तक अध्ययन नहीं किया गया है। वह इस बात पर जोर देती हैं कि ऐसे फायदों को बेहतर ढंग से समझने के लिए सावधानीपूर्वक और नैतिक रूप से प्रयोग किए जाने चाहिए।

निर्माण पूरा होने के बाद 2019 में आईआईएसईआर भोपाल में आवास। तस्वीर- एग्नेस फ्रांसिला 
निर्माण पूरा होने के बाद 2019 में आईआईएसईआर भोपाल में आवास। तस्वीर- एग्नेस फ्रांसिला

शोध दल इस अध्ययन के निष्कर्षों को आगे ले जाने की योजना बना रहा है। गौड़ा ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा, “हम समय-समय पर घोंसले के उपयोग की निगरानी करते रहेंगे। अब हमने इस पहलू पर कुछ बुनियादी डेटा स्थापित कर लिया है। हमें उम्मीद है कि यह एक मानक पैटर्न बन जाएगा और घोंसलों में प्लास्टिक की मौजूदगी को एक संकेतक के रूप में देखा जाना चाहिए कि पर्यावरण में काफी ज्यादा मानव जनित कचरा जमा हो रहा है।” 

 

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बैनर तस्वीर: पर्पल सनबर्ड का यह घोंसला मानवजनित कचरे का इस्तेमाल करके बनाया गया है। तस्वीर-प्रीति सरयान। 

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