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[कमेंट्री] जैविक अतिक्रमण और पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए भारत के प्रयास

सरिस्का बाघ अभयारण्य में झाड़ी के अंदर रॉयल बंगाल टाइगर। तस्वीर- संजय ओझा/विकिमीडिया कॉमन्स

सरिस्का बाघ अभयारण्य में झाड़ी के अंदर रॉयल बंगाल टाइगर। तस्वीर- संजय ओझा/विकिमीडिया कॉमन्स

  • भारत में गैर-मूल के पौधों के अतिक्रमण पर एक हालिया शोध बताता है कि इन प्रजातियों का असर जंगल के शाकाहारी जीवों पर हो रहा है। इस शोध में घुसपैठिए प्रजाति के पौधों से निपटने का हल भी सुझाया गया है।
  • इस शोधपत्र के लेखकों में शामिल निनाद अविनाश मुंगी इस लेख में घुसपैठिए प्रजाति के पौधों का बाघ पर हो रहे असर को भी सामने ला रहे हैं।
  • प्राकृतिक वास स्थलों को ऐसी हानिकारक जैविक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए, भारत ने अपनी राष्ट्रीय बाघ निगरानी परियोजना के अन्तर्गत गैर-मूल पादप प्रजातियों के सर्वेक्षण की पहल शुरू की है।
  • इस कमेंट्री के लेखक निनाद अविनाश मुंगी आरहूस विश्वविद्यालय, डेनमार्क में पोस्ट डॉक्टरल फ़ेलो हैं और नीरज महर वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में रिसर्च एसोसिएट हैं।

भारत, एक विशाल जैव-विविधता वाला देश, जो कि आज गैर-मूल प्रजातियों के जैविक अतिक्रमण से निपटने की चुनौती का सामना कर रहा है। बाघों जैसे खाद्य श्रृंखला के शीर्ष शिकारियों का अस्तित्व शाकाहारी जीवों की प्रचुरता पर निर्भर करता है – और ये शाकाहारी जीव, गैर-मूल पौधों की प्रजातियों के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त प्राकृतिक आवासों पर निर्भर करते हैं। प्रकृति के लिए हानिकारक इन पौधों का प्रसार और प्रभाव संकटग्रस्त पारिस्थितिक तंत्रों को और अधिक संकट में डालता है, जिससे खाद्य श्रृंखला के साथ-साथ अर्थव्यवस्था और स्थानीय जन समुदायों की आजीविका पर भी दूरगामी हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं।

प्राकृतिक वास स्थलों को ऐसी हानिकारक जैविक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए, भारत ने अपनी राष्ट्रीय बाघ निगरानी परियोजना के अन्तर्गत गैर-मूल पादप प्रजातियों के सर्वेक्षण की पहल शुरू की है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बनी कम लागत की इस प्रणाली के दोहरे लाभ हैं, जहाँ एक ओर यह गैर-मूल पादप प्रजातियों के अतिक्रमण का प्रभावी आंकलन करती है तो वही दूसरी ओर, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और प्राकृतिक स्थलों पर मानव प्रभावों का व्यापक सटीक आंकलन और गश्ती भी कराती है।

अमरीका महाद्वीप से आई माइकेनिया माइकारांथा की बेलों का वाल्मिकीटाइगर रिज़र्व में घास के मैदानों में कब्ज़ा | तस्वीर साभार- सौरभ वर्मा
अमरीका महाद्वीप से आई माइकेनिया माइकारांथा की बेलों का वाल्मिकी टाइगर रिज़र्व में घास के मैदानों में कब्ज़ा | तस्वीर साभार- सौरभ वर्मा

इस पूरी जानकारी (डेटा) को एक आधुनिक स्वदेशी तकनीक से विकसित किये गये मोबाइल एप्लिकेशन का प्रयोग करके एकत्रित किया जाता है जिसमे कि वन कर्मचारियों द्वारा लिये गये फोटोग्राफिक साक्ष्यों का उनकी ही संकलित जानकारी से मिलान करने के बाद ‘राष्ट्रीय डिजिटल डेटाबेस’ में सुरक्षित रख दिया जाता है। इस प्रकाशित शोधकार्य में वर्ष 2018 के डेटा का उपयोग किया गया है, जहां >380,000 वर्ग किलोमीटर प्राकृतिक क्षेत्र में >158,000 सर्वेक्षित प्लॉटों से जानकारी एकत्रित की गई। इस शोध के दौरान चौकाने वाले तथ्य सामने आये हैं, लगभग 72% सर्वेक्षित क्षेत्र पर कम से कम एक अति दुष्प्रभाव वाली गैर-मूल पौधे की प्रजाति का अतिक्रमण पाया गया, जो कि भारत के कुल 66% प्राकृतिक स्थलों के लिए हानिकारक हो सकता है।

© Mungi et al, 2023
© Mungi et al, 2023

ऊपर दिया गया चित्र, शोधकार्य में उपयोग की जाने वाली गतिविधियों के क्रमश: दर्शाता है, (A) जैव विविधता सर्वेक्षण के लिए MSTrIPES नामक मोबाइल ऐप् उपयोग में लाया गया (B) इसके द्वारा भारत में बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में जैव-विविधता का व्यवस्थित आकलन किया जा सका। (C) जिसके परिणामस्वरूप, 358,000 वर्ग किलोमीटर के विशाल प्राकृतिक क्षेत्र में गैर-मूल पौधों की प्रजातियों का वैज्ञानिक आकलन हो पाया और (D) पता चला कि भारत के लगभग 66% प्राकृतिक क्षेत्र पर अति दुष्प्रभाव वाली गैर-मूल पौध प्रजातियों का कब्ज़ा है। (E) इस अध्ययन ने गैर-मूल पादप प्रजाति और जैवविविधता के आंकलन का प्रयोग, प्रबंधन और स्थानीय जैव-विविधता पुनरुत्थान की प्राथमिकता को तय करने के लिए किया।

शोध निष्कर्ष और उनका कार्यान्वयन

इस अध्ययन के चौंकाने वाले नतीजे हैं। भारत में मानव जनित परिवर्तन, गैर-मूल पौधों का प्रसार, मिट्टी की नमी में बदलाव, और प्राकृतिक चक्रों पड़ रहे व्यवधान, जैविक अतिक्रमण को बढ़ावा देने वाले कुछ प्रमुख कारण हो सकते हैं।

दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला देश होने के साथ ही भारत सामाजिक-पारिस्थितिक कारकों के चलते भोजन, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे की बढ़ती मांग आने वाले समय में जैविक अतिक्रमण को और अधिक बढ़ाने का ही काम करेगा। इसलिए, सक्रिय प्रबंधन और जैव-विविधता संरक्षण बहुत ही गंभीर और जरूरी है। 

प्रकाशित शोधकार्य भारत को साक्ष्य आधारित संरक्षण और पुनरुत्थान का मार्ग दिखाता है, विशेषत: उन क्षेत्रों में जहाँ अभी तक हानि बहुत कम या प्रारंभिक चरण में है। ऐसे क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम निवेश और कम हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी, लेकिन, ये छोटे प्रयास जैव-विविधता के पुनरुत्थान के मामले में बहुत ही आशाजनक और प्रभावी हो सकते हैं। विकसित प्रणाली, संरक्षित क्षेत्रों (कुल 11%) के भीतर पुनरुत्थान के लिए उच्च-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को चिन्हित करती है, और इसके द्वारा व्यापक रूप से अतिक्रमण रहित सुरक्षित क्षेत्रों को स्थापित किया जा सकता है।

भारत में लेंटाना कमारा ने लगभग 50% प्राकृतिक इलाकों पर कब्ज़ा किया है | कान्हा टाइगर रिज़र्व में साल के जंगलो में इसके अतिक्रमण का एक उदाहरण। तस्वीर साभार- रजत रस्तोगी
भारत में लेंटाना कमारा ने लगभग 50% प्राकृतिक इलाकों पर कब्ज़ा किया है | कान्हा टाइगर रिज़र्व में साल के जंगलो में इसके अतिक्रमण का एक उदाहरण। तस्वीर साभार- रजत रस्तोगी

भविष्य की योजनाएँ और चुनौतियाँ 

वैसे तो यह अध्ययन साक्ष्य-आधारित समाधान प्रदान करता है, लेकिन फिर भी कई चुनौतियाँ और भी हैं। यह अध्ययन न केवल गैर-मूल पौधों की प्रजातियों के उन्मूलन की बात करता है बल्कि इसके प्रबन्धन पर भी जोर डालता है। यह हितधारकों की भागीदारी, तकनीकी पुनरुत्थान और भविष्य अनुकूलीत  नीतियों की आवश्यकता पर भी जोर डालता है। भारत को अब चाहिए कि वह-

  1. संरक्षण के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पुनरुत्थान प्राथमिकता मॉडल का उपयोग करे।
  2. जैविक आक्रमण को नियंत्रित करने और जैव विविधता को बचाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों में निवेश करे।
  3. गैर-मूल प्रजातियों के प्रबंधन के लिए वैज्ञानिक दिशा- निर्देशिकाओ को विकसित करे।
  4. इस विकसित प्रणाली को और पारिस्थितिक तंत्रों जैसे जलीय और द्वीपों में मिलने वाली गैर-मूल प्रजातियों के सर्वेक्षण और प्रबंधन में प्रयोग लायें।
  5. गैर-मूल प्रजातियों के लिए राष्ट्रीय नीति की बुनियाद रखें।

स्थानीय और गैर-मूल प्रजातियों से उभरने वाले मिश्रित पादप समुदाय भारत के लिए भविष्य की वास्तविकता का प्रतीत करवाता है,चूंकि दोनों को ही नये तरीकों से एक दूसरे से अनोखे प्रतिक्रिया और सम्बन्ध स्थापित करते देखा गया है। इसलिए, भविष्य में उभरते नवीन पारिस्थितिकी तंत्रो में गैर-मूल प्रजातियों के सकारात्मक प्रभावों और क्षमताओं को भी समझने की आवश्यकता है। 

आशा की किरण

भारत में गैर-मूल प्रजातियों की व्यापकता के बावजूद भी आज कई प्रमुख संरक्षित क्षेत्र मानव जनित व्यवधानों से बचे हुए हैं और यहाँ स्थानीय प्रजातियों का प्रभुत्व है। यदि इस जैवविविधता को समय पर बचाया जाए तो भविष्य में यह प्राकृतिक प्रतिरोध की क्षमता को और भी मजबूत करेगा और पारिस्थितिकी तंत्र को किसी भी परिवर्तन के लिए अनुकूलित रखेगा।


और पढ़ेंः भारत में घुसपैठ कर गए जीव-जंतुओं से हो रहा लाखों-करोड़ों का नुकसान


जैसा कि संयुक्त राष्ट्र इस दशक में पारिस्थितिकी तंत्र के पुनरुत्थान के लिए कटिबद्ध है, इस दिशा में भारत का गैर-मूल प्रजातियों के प्रबंधन को लेकर सक्रिय रुख और प्रणाली, समान चुनौतियों का सामना करने वाले अन्य देशों/क्षेत्रों और भू-भागों के लिए एक मॉडल पेश करता है। यह दृष्टिकोण गैर-मूल प्रजातियों के आंकलन को व्यापक जैवविविधता निगरानी में एकीकृत करता है, जो जिम्मेदार और दूरदर्शी संरक्षण प्रयासों के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है। संभवत: घनी मानव आबादी वाले क्षेत्रों के बीच, यह शोधकार्य  प्रभावी संरक्षण, और पारिस्थितिक तंत्र को लेकर आशावाद की नई अलख जगाने का कार्य कर सकता है।

 


यह लेख अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित है जिसे डॉ. निनाद अविनाश मुंगी ने मूल रूप से The Applied Ecologists ब्लॉग के लिए लिखा था जो कि उनके ही द्वारा Journal of Applied Ecology में प्रकाशित शोधकार्य का सार है


 

बैनर तस्वीरः सरिस्का बाघ अभयारण्य में झाड़ी के अंदर रॉयल बंगाल टाइगर। तस्वीर– संजय ओझा/विकिमीडिया कॉमन्स

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