- राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अनुसार, भारत के लगभग 65 फीसदी प्राकृतिक क्षेत्रों में विदेशी पौधों की प्रजातियों के फैलने का खतरा मंडरा रहा है।
- एक नए अध्ययन से पता चलता है कि 1,000 किलोग्राम से अधिक वजन वाले शाकाहारी जानवर जैविक प्रतिरोध में सुधार करने और बाढ़ के मैदानों जैसे ‘मिडप्रोडक्टिव’ पारिस्थितिक तंत्र में विदेशी खरपतवार के फैलने को कम करने में मदद कर सकते हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि यह आकलन करने के लिए अधिक विस्तृत अध्ययन की जरूरत है कि वे किस हद तक विशेष पारिस्थितिक तंत्र पर नियंत्रण रखते हैं और किस आक्रामक पौधों की प्रजाति को खाते हैं।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की इस वर्ष प्रकाशित ‘बाघ जनगणना’ रिपोर्ट में चिंताजनक आंकड़ा सामने आया है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 22 प्रतिशत प्राकृतिक क्षेत्रों पर आक्रामक खरपतवार तेजी से फैल रही हैं। वहीं 65 फीसदी इलाका ऐसा है जहां भविष्य में ये विदेशी आक्रामक प्रजातियां पनप सकती हैं।
विदेशी आक्रामक प्रजातियों का तेजी से प्रसार न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में एक पुरानी समस्या है। विदेशी आक्रामक पौधे तेजी से फैलते हैं और स्थानीय प्रजातियों को पनपने का मौका नहीं देते, जिससे जैव विविधता का नुकसान पहुंचता है और पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। एक बार जब आक्रामक प्रजातियां किसी क्षेत्र में उगना शुरू होती हैं, तो उन्हें हटाना चुनौतीपूर्ण और महंगा हो जाता है। बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) की सहायक वरिष्ठ फेलो अंकिला हिरेमथ ने बताया, “आक्रामक प्रजातियों से यहां मतलब तेजी से फैलने वाले विदेशी पौधों या खरपतवार से है। कई बार, तो ये आक्रामक प्रजातियां स्थानीय पौधों के साथ गठजोड़ कर लेती हैं, जिससे उन्हें तेजी से फैलने में मदद मिलती है।” एनटीसीए की रिपोर्ट का अनुमान है कि गंभीर चिंता का कारण बन चुके विदेशी आक्रामक पौधों को हटाने पर कम से कम एक ट्रिलियन रुपये का खर्च आएगा।
लैंटाना कैमारा जैसी आक्रामक पौधों की प्रजातियों से निपटने का एक सामान्य तरीका, विशेष रूप से संरक्षित क्षेत्रों में, उन्हें उखाड़ना और जलाना है। इसमें कार्यबल की जरूरत पड़ती हैं। यह काफी समय लेने वाला और महंगा तरीका है और वैसे भी प्रजातियों की बहुतायत वाले क्षेत्रों में उनका आकलन कर पाना काफी मुश्किल काम है। इनसे छुटकारा पाने के अन्य तरीकों में जैविक तरीके से नियंत्रण शामिल है। आक्रामक आबादी को “नियंत्रित” करने के लिए कीड़ों और अन्य जीवों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा रासायनिक खाद यानी शाकनाशियों के जरिए भी इनसे निजात पाने की कोशिश की जाती है।
भारतीय और डेनिश शोधकर्ताओं के एक नए अध्ययन से पता चलता है कि हाथी, गैंडे, जंगली जल भैंस और गौर जैसे 1,000 किलोग्राम से अधिक वजन वाले बड़े शाकाहारी जीव, कुछ मामलों में विदेशी आक्रामक पौधों से छुटकारा पाने में मददगार साबित हो सकते हैं। आरहस यूनिवर्सिटी के इकोलॉजिस्ट एवं शोधकर्ता और पेपर के मुख्य लेखक निनाद मुंगी ने कहा, “मेगाहर्बिवोर्स यानी बड़े शाकाहारी जीवों ने ऐतिहासिक रूप से वनस्पति पैटर्न को आकार दिया है और वे ऐसा करने के लिए विशिष्ट रूप से बने होते हैं, क्योंकि वे शिकार द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं।” पेपर में देश के 12 पारिस्थितिक क्षेत्रों में मेगाहर्बिवोर्स के साथ देशी और विदेशी आक्रामक पौधों के बीच संबंध देखे गए हैं। कुल 26,838 स्थानों पर कैमरा ट्रैप लगाए गए थे।
अध्ययन के मुताबिक, जिन जगहों पर बड़े शाकाहारी जानवर पाए जाते हैं और जिन जगहों में उनकी उपस्थिति काफी कम है अगर उन क्षेत्रों की तुलना की जाए तो मेगाहर्बिवोर्स वाले इलाकों में औसतन 13 प्रतिशत अधिक स्थानिय प्रजाति के पौधे पाए गए थे। यहां आक्रामक प्रजाति 17 प्रतिशत कम देखी गई। लेकिन ये परिणाम हर जगह एक समान नहीं हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पहले कि कोई समाधान प्रस्तावित किया जा सके, बड़े शाकाहारी जीवों और पौधों के बीच जटिल संबंधों की अधिक जांच की जरूरत है।
रिपोर्ट के नतीजे
बड़े शाकाहारी जीव अपने अलग-अलग व्यवहार के जरिए पारिस्थितिकी तंत्र में पौधों के विकास को प्रभावित कर सकते हैं, जिसमें पौधों को उखाड़ना और रौंदना और बड़ी मात्रा में उन्हें खाना शामिल है। अध्ययन में कहा गया है कि छोटे जानवरों के उलट, बड़े शाकाहारी जीव अपने आहार में विदेशी प्रजातियों की तरफ आकर्षित होने की अधिक संभावना रखते हैं क्योंकि उन्हें बहुत अधिक मात्रा में भोजन की जरूरत होती है।
अध्ययन से पता चलता है कि उनके भोजन और अपने सामने आने वाले पौधों को रौंदते चलने की आदतें, किसी पारिस्थितिकी तंत्र में तेजी से फैल रहे पौधों के स्तर के आधार पर फीडबैक में अंतर ला सकती हैं। बड़े शाकाहारी जीव उन जगहों पर विदेशी आक्रामक पौधों को प्रभावी ढंग से कम करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं जहां पहले से ही स्थानीय पौधे कम है, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें अपने लिए जरूरी पोषण नहीं मिल पाएगा। अध्ययन में कहा गया है, यह “एलियन प्लांट रिलीज़ फीडबैक” को ट्रिगर कर सकता है, जहां घटता चारा शाकाहारी जीवों की पारिस्थितिक वहन क्षमता को और कम कर सकता है और आक्रामक विदेशी पौधों के प्रसार को बढ़ा सकता है।
दूसरी ओर बड़े शाकाहारी जीव अपने खाने की आदतों के चलते विदेशी पौधों के प्रसार को कम कर सकते हैं, खासकर उन जगहो पर जहां देशी पौधों की बहुतायत है। अध्ययन में कहा गया है, “प्रचुर मात्रा में मौजूद कई तरह के देशी पौधे मेगाहर्बिवोर आबादी को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे विदेशी पौधों पर लगाम लग सकती है।”
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अध्ययन में भारत के 12 उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय पारिस्थितिक क्षेत्रों को लिया गया था और उन्हें चार श्रेणियों में विभाजित किया गया: सदाबहार और अर्ध-सदाबहार वन (‘प्रोडेक्टिव’ इकोसिस्टम), बाढ़ के मैदान और पर्णपाती वन (‘मिडप्रोडक्टिव’), शुष्क सवाना (ड्राई एडं लैस-प्रोडेक्टिव सिस्टम) और वे जगहें जहां, विदेशी प्रजातियों ने गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन क्षेत्रों में मेगाहर्बिवोर्स, स्थानीय पौधों और इन सभी विदेशी आक्रामक पौधों के बीच संबंधों की पड़ताल की। उन्होंने जांचा कि क्या बड़े शाकाहारी जानवरों की ज्यादा आबादी वाले पारिस्थितिक तंत्र स्थानीय पौधों से समृद्ध थे और क्या वहां विदेशी आक्रामक पौधों की संख्या कम थी। और क्या मेगाहर्बिवोर की आबादी और देशी बनाम विदेशी पौधों के पैटर्न के बीच संबंध “पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार, सुरक्षा के स्तर और विभिन्न अन्य पारिस्थितिक कारकों से प्रभावित थे।” अध्ययन में यह भी पड़ताल करने की कोशिश की गई कि क्या पौधों की फलने फूलने की आदतों का मेगाहर्बिवोर्स पर सामान्य प्रभाव पड़ता है और क्या इन क्षेत्रों में उगे पौधों की उत्पादकता में अंतर है और क्या आक्रामक पौधों के लक्षण मेगाहर्बिवोर्स और पौधों के बीच संबंधों को प्रभावित करते हैं।
मुंगी ने कहा, “हमने पाया कि मानवीय हस्तक्षेप आक्रामक प्रजातियों की उपस्थिति और व्यापकता पर असर डालने वाला सबसे बड़ा कारण है। जहां इंसानी आबादी अधिक थी, उन जगहों पर विदेशी प्रजातियां स्थानीय पौधों से मुकाबला करने में पिछड़ गई। जैसे आद्र सदाबहार और वर्षावनों में।” वह आगे कहते हैं, “इन सभी परिदृश्यों और स्थितियों में, हमारे अध्ययन में पाया गया कि सवाना और बाढ़ के मैदानों जैसे मध्यम उत्पादक (मिड प्रोडेक्टिव) पारिस्थितिक तंत्रों में मेगाहर्बिवोर्स का काफी प्रभाव रहा है।”
अध्ययन में पाया गया कि ब्रह्मपुत्र बाढ़ के मैदानों में स्थानीय पौधे औसतन 37 प्रतिशत अधिक जगह में फैले हुए थे। यहां तक कि मेगाहर्बिवोर्स की उपस्थिति में यह आकड़ा 63 प्रतिशत तक पहुंच गया। वहीं आक्रामक प्रजाति इससे 52 प्रतिशत कम जगह पर फैली थी, जो 31 प्रतिशत तक और कम हो गई। अध्ययन में कहा गया है, “यह इशारा करता है कि इन क्षेत्रों में शाकाहारी भोजन खाने वाले जानवरों की बड़ी पैमाने पर महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।”
हिरेमथ ने कहा, अध्ययन खोजबीन के लायक एक दिलचस्प विचार प्रस्तुत करता है, लेकिन उनके अनुसार, यह साबित करने के लिए और अधिक ठोस शोध की जरूरत है कि मेगाहर्बिवोर्स विदेशी आक्रामक पौधों को खा रहे हैं। अगर वो ऐसा कर रहे हैं तो वो कौन से पौधे हैं। उन्होंने कहा, “एक पैटर्न से यह कहना मुश्किल है कि क्योंकि वहां अधिक मेगाहर्बिवोर्स हैं इसलिए वहां अधिक स्थानीय पौधे हैं, या फिर क्योंकि वहां अधिक देशी (स्वादिष्ट) पौधे हैं, इसलिए वहां अधिक मेगाहर्बिवोर्स हैं।”
एटीआरईई शोधकर्ताओं द्वारा 2021 किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, केरल के वायनाड में आक्रामक विदेशी पौधों को कम करने के उलट हाथी इनका फैलाव कर रहे थे। प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले आक्रामक प्रजाति के पेड़ सेन्ना स्पेक्टेबिलिस के प्रसार के लिए जिम्मेदार प्रमुख स्तनधारियों में से हाथी एक थे।
एटीआरईई के एक शोधकर्ता और वायनाड में हुए अध्ययन के लेखक अनूप एनआर ने कहा, “हमने हाथियों को सेन्ना या लैंटाना के पौधे (जो घनी झाड़ियां बनाते हैं) खाते हुए नहीं देखा, लेकिन हाथियों ने सेन्ना के फल खाए, जिससे बीज के फैलाव और बाद में उनके प्रसार में मदद मिली।” वह आगे कहते हैं, “सेन्ना फल हाथियों के आहार का मुख्य हिस्सा नहीं था, बल्कि यह कुछ ऐसा था जिसे वे खाते थे क्योंकि यह उन क्षेत्रों में मौजूद था जहां वे घूमते थे।”
इंडो-डेनिश अध्ययन में पाया गया कि उन क्षेत्रों में जहां लैंटाना जैसे विदेशी आक्रामक पौधों की उपस्थिति 40 फीसदी से अधिक थी, “सामान्य मेगाहर्बिवोर प्रभाव हमारे मॉडल से अपेक्षा से कम था।” अध्ययन में कहा गया है कि कीट पतंगे खाने वाले पौधों में ऐसी विशेषताएं होती हैं जो अपनी शारीरिक बनावट के आधार पर शाकाहारी भोजन का विरोध कर सकती हैं और शाकाहारी भोजन से बच सकती हैं या वह उनके लिए अरुचिकर हो सकता हैं। साथ ही यह मेगाहर्बिवोर्स के प्रभाव को कम कर सकती हैं। जिसके चलते विदेशी पौधे तेजी से फल फूल सकते हैं।”
अनूप ने कहा कि बडे शाकाहारी जानवर विदेशी आक्रामक पौधों को खाते हैं या नहीं, यह प्रजातियों पर ही निर्भर करता है और साथ ही ये भी कि वे एक निश्चित पारिस्थितिकी तंत्र में समस्या पैदा कर रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा, “केरल में लगभग 40 आक्रामक विदेशी पौधों की पहचान की गई है, लेकिन यह लैंटाना, सेन्ना और प्रोसोपिस जूलिफोरा जैसी प्रजातियां हैं जो समस्या पैदा कर रही हैं क्योंकि कोई भी शाकाहारी उन्हें नहीं खाएगा और वे तेजी से फैल रही हैं।”
और अधिक अध्ययन की जरूरत
ब्रह्मपुत्र बाढ़ के मैदानों के 2016 के एक अध्ययन में पाया गया कि घास और शाकाहारी भोजन को खाने वाले जानवरों को बाहर कर देने से आक्रमणकारी प्रजातियों में भारी वृद्धि हुई और घास प्रजातियों के बीच विविधता को बढ़ावा मिला। इसमें पाया गया कि मध्यम और बड़े शाकाहारी जानवरों द्वारा बारी-बारी से चराई करने और आक्रामक प्रजातियों को हटाने और जलाने की गतिविधि एक साथ मिलकर सबसे अच्छा काम करती है।
मुंगी ने कहा, “यह उन कुछ अध्ययनों में से एक है, जो आक्रामक पौधों पर मेगाहर्बिवोर्स के नियंत्रण को अलग करता है। भारत भर में इस तरह के और अधिक अध्ययनों की जरूरत है ताकि हम इस बारे में अधिक जान सकें कि वे किस हद तक विशेष पारिस्थितिक तंत्र पर और किस आक्रामक पौधों की प्रजातियों के प्रसार पर रोक लगा सकते हैं या उस पर नियंत्रण कर सकते हैं।”
इंडो-डेनिश अध्ययन मध्य-उत्पादक पारिस्थितिक तंत्रों में असंगठित आवासों की रक्षा करने और “ऐतिहासिक रूप से उच्च स्तर पर शाकाहारी भोजन को बहाल करने” की बात करता है, जहां मेगाहर्बिवोर्स का प्रभाव काफी ज्यादा हो सकता है।
अध्ययन के नतीजों कि वैश्विक प्रासंगिकता भी है। अफ़्रीका में इसी तरह के अध्ययनों से पता चला है कि जंगली शाकाहारी जीव आक्रामक प्रजातियों के प्रति जैविक प्रतिरोध को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। केन्या में तीन दीर्घकालिक अध्ययनों ने विदेशी आक्रामक कैक्टि के घनत्व पर जंगली शाकाहारी जीवों के प्रभावों का परीक्षण किया और पाया कि बड़े शाकाहारी जानवरों के पहुंच वाले भूखंडों में उनकी आबादी कम थी, जबकि जिन इलाकों में मेगाहर्बिवोर्स कम थे या नहीं थे वहां यह आक्रामक प्रजाति काफी ज्यादा इलाके में फैली हुई थी।
हिरेमथ इस बात से सहमत हैं कि भारतीय संदर्भ में मेगाहर्बिवोर्स की भूमिका के बारे में अधिक जानने के लिए अधिक सबूत ढूंढना जरूरी है। उन्होंने कहा, “एक संभावित अगला कदम यह देखना हो सकता है कि क्या बाड़ लगाने वाले क्षेत्रों और शाकाहारी जीवों को बाहर करना क्या ऐसे ही नतीजे दिखाता है।” वह आगे कहते हैं, “अगर मेगाहर्बिवोर्स आक्रामक पौधों को खा रहे हैं, तो उन प्रजातियों का नाम देना भी फायदेमंद होगा जिनका वे उपभोग कर रहे हैं।”
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बैनर तस्वीर: अध्ययन में पाया गया कि जिन जगहों पर बड़े शाकाहारी जानवर पाए जाते हैं और जिन जगहों में उनकी उपस्थिति काफी कम है अगर उन क्षेत्रों की तुलना की जाए तो मेगाहर्बिवोर्स वाले इलाकों में औसतन 13 प्रतिशत अधिक स्थानीय प्रजाति के पौधे पाए गए थे। यहां आक्रामक प्रजाति 17 प्रतिशत कम देखी गई। तस्वीर– जेनिस पटेल/विकिमीडिया कॉमन्स