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गुजरात के दुर्लभ जंगली गधों के संरक्षण के लिये आगे आए कच्छ में नमक बनाने वाले अगरिया

लिटिल रण ऑफ कच्छ में घूमते जंगली गधे। तस्वीर- रोहित कैडज़/विकिमीडिया कॉमन्स

लिटिल रण ऑफ कच्छ में घूमते जंगली गधे। तस्वीर- रोहित कैडज़/विकिमीडिया कॉमन्स

  • गुजरात के वन विभाग ने कच्छ के रण में नमक बनाने वाले अगरिया समुदाय के लोगों के जंगली गधों के संरक्षण में योगदान को आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है। खासतौर पर इस क्षेत्र में पाए जाने वाले जंगली गधों के संरक्षण में इस समुदाय का योगदान काफी ज्यादा है।
  • कच्छ के रण में अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से जमीन से निकलने वाले नमकीन पानी से नमक बनाते आ रहे हैं। साल 1973 में क्षेत्र को वन्य जीव अभयारण्य घोषित कर दिया गया और वन विभाग ने यहां के लोगों को इस क्षेत्र में जाने से रोक दिया।
  • हाल ही में अगरिया समुदाय के योगदान को आधिकारिक पहचान मिल जाने के बाद उन्हें आधिकारिक तौर पर इस जमीन पर जाने की अनुमति मिल गई है। साथ ही, बैंक से फाइनेंस भी मिल सकता है और बाजार में भी यहां का सामान बेचा जा सकता है। हालांकि, अभी भी उनके पारंपरिक अधिकारों को कानूनी पहचान देकर संरक्षित किया जाना बाकी है।

नमक के मैदानों में डेरा डालने के लिए तेजल मकवाना अपना सामान पैक कर रही हैं। दशहरा के त्यौहार के बाद वह और उनके पति दानाभाई मकवाना किराए पर एक ट्रैक्टर लेंगे और इसमें प्लास्टिक की पानी वाली टंकियों में 20 दिन का पानी, सोलर पैनल, एक पंप, एक डीजल जनरेटर, नमक बनाने के औजार, खाने-पीने की चीजें और किचन के जरूरी सामान लादकर ले जाएंगे। इतने सामान के बलबूते ये लोग गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के अपने जूनागाम गांव से 10 किलोमीटर दूर लिटिल रण ऑफ कच्छ में अगले सात महीने बिताएंगे।

वहां पहुंचने के बाद सबसे पहला काम बांस के खंभों और जूट के बोरों की मदद से एक छपरा यानी झोपड़ी बनाने का होगा। पेड़ रहित इस जमीन पर गर्मियों तक के लिए यही इनका घर होगा। इस छपरे की जमीन को भारतीय जंगली गधों के गोबर से लीपा जाएगा जो कि इस क्षेत्र में खूब पाए जाते हैं। इसके बाद नमक बनाने की प्रक्रिया शुरू होगी। सबसे पहले कुंई या अस्थायी कुएं खोदे जाएंगे और इसी मरुस्थल में दो-दो फीट के गड्ढे बनाकर बड़े बर्तन जैसी आकृति बना दी जाएगी। जब इनकी सतह को कई प्रक्रियाओं के बाद मजबूत बना लिया जाएगा तब इस कुएं से नमकीन पानी निकाला जाएगा और इनमें भरकर फैला दिया जाएगा। सर्दियां बीतते-बीतते यह नमकीन पानी नमक में बदल जाएगा।

इस साल तेजल मकवाना को अपने साथ वह आइडेंटिटी कार्ड भी ले जाना होगा जो गुजरात के वन विभाग की ओर से उन्हें दिया गया है। यही कार्ड इस बात की पहचान है कि वह नमक बनाने वाले अगरिया समुदाय से आती हैं जिसे कि कई सालों के प्रतिबंधों के बाद हाल ही में कच्छ के रण में जाने की अनुमति दी गई है, ताकि ये लोग नमक बनाने के अपने पारंपरिक काम को कर सकें। 

जमीन पर बड़े गड्ढे बनाने के लिए मेड़ बांधता अगरिया समुदाय का एक किसान। कई प्रक्रियाओं के बाद इनकी सतह मजबूत हो जाने के बाद कुई से नमकीन पानी निकाला जाता है और इनमें डालकर फैला दिया जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।
जमीन पर बड़े गड्ढे बनाने के लिए मेड़ बांधता अगरिया समुदाय का एक किसान। कई प्रक्रियाओं के बाद इनकी सतह मजबूत हो जाने के बाद कुई से नमकीन पानी निकाला जाता है और इनमें डालकर फैला दिया जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।

साल 1973 में लिटिल रण ऑफ कच्छ के 5000 वर्ग किलोमीटर इलाके को वन्य जीव अभयारण्य अधिसूचित कर दिया गया था जो कि भारतीय जंगली गधों के कुछ एक आखिरी शरण स्थली में से एक था। ये गधे सिर्फ गुजरात के कच्छ क्षेत्र में ही पाए जाते हैं। उसके बाद से ही अगरिया समुदाय के लोगों को वन्यजीव संरक्षणकर्तांओं और वन विभाग के अधिकारियों द्वारा लिटिल रण ऑफ में वन्य जीव संरक्षण की राह में खतरा मान लिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि इलाका खाली करने के नोटिस लगाए जाने लगे, कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलना बंद हो गया और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में किसी भी तरह के इंश्योरेंस का फायदा मिलना बंद हो गया।

हालांकि, हाल ही में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और गुजरात हाई कोर्ट में दी गई अपनी रिपोर्ट में गुजरात के वन विभाग ने माना है कि अगरिया समुदाय ने इस क्षेत्र में जंगली गधों के संरक्षण में काम किया है। इसी साल जुलाई महीने में गुजरात हाई कोर्ट में दाखिल किए गए एक एफिडेविट में वन विभाग ने कहा है, ‘जंगली गधों की जनसंख्या के अनुमान से पता चलता है कि भले ही इस क्षेत्र में नमक के खेतों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन 1969 में इन गधों की जो संख्या सिर्फ 362 थी वह 2014 में 4451 हो गई थी और 2020 में यही संख्या 6082 पहुंच गई। यह दिखाता है कि नमक उत्पादन से जुड़ी गतिविधियों का इन जानवरों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ा है।’

इसी साल फरवरी के महीने में ट्रिब्यूनल के एक आदेश के जवाब में एनजीटी ने एक ज्वाइंट कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा, ‘अगरिया समुदाय के लोगों और जंगली गधों के सह अस्तित्व का नतीजा ही है कि अभयारण्य के इस इलाके में जंगली गधों की जनसंख्या में तेजी से इजाफा हुआ है।’ जनवरी महीने में एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया था कि अभयारण्य के क्षेत्र में अवैध अतिक्रमण किया गया है। एनजीटी ने इसका स्वत: संज्ञान लिया था जिसके जवाब में जॉइंट कमेटी ने यह रिपोर्ट फाइल की थी।

एनजीटी का केस और गुजरात हाई कोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका इस बारे में थी कि अभयारण्य के क्षेत्र में अवैध अतिक्रमण किया गया है और नमक का खनन किया जा रहा है जिसके चलते यहां की पारिस्थितिकी और वन्य जीवों को नुकसान हो रहा है, जिसमें कि लेसर फ्लैमिंगो, रेगिस्तानी लोमड़ियां, भेड़िए और कराकल शामिल हैं। जनहित याचिका के जवाब में दायर की गई एफिडेविट में वन विभाग ने यह भी कहा कि खनन कानून, 1952 के मुताबिक, नमक का उत्पादन खनन की गतिविधि में नहीं आता है।

कुएं से नमकीन पानी को पंप करके निकाला जाता है। सर्दियां बीतते-बीतते यह नमकीन पानी नमक में बदल जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।
कुएं से नमकीन पानी को पंप करके निकाला जाता है। सर्दियां बीतते-बीतते यह नमकीन पानी नमक में बदल जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।

लिटिल रण ऑफ कच्छ (LRK) का इतिहास और भूगोल

LRK एक निचला इलाका है जो कटोरे के आकार वाली जमीन से बना है। मॉनसून के समय 11 बड़ी और छोटी नदियां LRK में आकर गिरती हैं और दूसरे सिरे से अरब सागर का पानी भी शंक्वाकार खाड़ी से इधर आता है और जुलाई से अक्टूबर तक यह पूरा इलाका एक बड़े वेटलैंड में तब्दील हो जाता है। मॉनसून के समय मछुआरे LRK में मछली पकड़कर अपनी आजीविका चलाते हैं। जब पानी लौट जाता है तो अगरिया लोग इस क्षेत्र में आते हैं। तब तक यहां की जमीन ठोस और जमीन में खूब नमकीन पानी इकट्ठा हो चुका होता है। तेज धूप और बहुत कम आर्द्रता की वजह से नमक का उत्पादन बेहद आदर्श होता है। गुजरात भारत के 76 प्रतिशत नमक का उत्पादन करता है।

ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, मुगलकाल में भी LRK में नमक का उत्पादन होता था। LRK में नमक से जुड़े काम पर स्टडी करने वाली बी डी बैथानी कहते हैं, ‘1947 से पहले जब नमक के काम पर अंग्रेजों का नियंत्रण हुआ करता था तब आज से भी ज्यादा नमक उत्पादन की इकाइयां यहां हुआ करती थीं।’ उन्होंने खरगोड़ा रेलवे स्टेशन से रण तक रेलवे लाइन भी बिछाई थी। इस ट्रैक पर 36 कोच वाली मालगाड़ी सीधे नमक के खेतों तक आती थी। सुरेंद्रनगर के पाटड़ी ब्लॉक में रहने वाले बैठानी खुद भी एक अगरिया परिवार से आते हैं। वह कहते हैं, ‘आज यहां काम करने वाले लोगों को पीने के पानी के लिए सरकार की ओर से हफ्ते में एक बार भेजे जाने वाले टैंकरों पर निर्भर होना पड़ता है लेकिन उस समय यहां पीने के पानी के लिए पाइप लाइन बिछी थी।’ बैठानी कहते हैं कि LRK के ठीक किनारे पर बसा खरगोड़ा रेलवे स्टेशन देश के सबसे पुराने रेलवे स्टेशनों में से एक है जिसे कि ब्रिटिश प्रशासन ने देश के अलग-अलग हिस्सों में नमक पहुंचाने के लिए बनाया गया था। वह आगे कहते हैं, ‘जब 1973 में रण को अभयारण्य घोषित किया गया तो LRK में मौजूद रेलवे ट्रैक और कॉन्क्रीट के अन्य ढांचों को ध्वस्त कर दिया गया।’

लिटिल रण ऑफ कच्छ का विस्तार। तस्वीर- एम्पररपोरस /विकिमीडिया कॉमन्स।
लिटिल रण ऑफ कच्छ का विस्तार। तस्वीर– एम्पररपोरस /विकिमीडिया कॉमन्स।

संदर्भ स्टडीज, अहमदाबाद की एक स्टडी अभी प्रकाशित होना बाकी है, जो कि अगरिया की स्थिति पर की गई है। इस पेपर में कहा गया है कि ब्रिटिश काल में नमक के मजदूर करने वाले हर अगरिया को आजादी के बाद नमक बनाने का अधिकार दे दिया गया। नेशनल कंसल्टेशन ऑन सॉल्ट वर्कर्स के लिए लिखे गए इस पेपर में कहा गया कि अगरिया को तब किसी अनुमति या लाइसेंस की जरूरत नहीं होती थी क्योंकि वे 10 एकड़ जमीन पर नमक का उत्पादन करते थे इसलिए उन्हें छोटा उत्पादक माना जाता था। उनसे इसके लिए कोई टैक्स भी नहीं लिया जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि भारत तमाम प्राकृतिक संसाधनों और नमक बनाने के लिए ज्ञात पारंपरिक तकनीकों के बावजूद नमक उत्पादन के लिए आयात पर निर्भर था।

नमक का काम करने वाले लोग बांस के कुछ खंभों और जूट के बोरों से एक छपरा बनाते हैं। तस्वीर- रवलीन कौर।
नमक का काम करने वाले लोग बांस के कुछ खंभों और जूट के बोरों से एक छपरा बनाते हैं। तस्वीर- रवलीन कौर।

ऐसे शुरू होता है सीजन

हर साल नमक का सीजन दशहरा से शुरू होता है। यह इस पर निर्भर करता है कि रण सूखा है या नहीं। लिटिल रण ऑफ कच्छ में लगभग 60 हजार अगरिया भारत में बनने वाले नमक का 30 प्रतिशत हिस्सा उत्पादित करते हैं।

अगरिया के हितों के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था अगरिया हित रक्षक मंच (ARHM) के ट्रस्टी हरिनेश पांड्या कहते हैं, ‘एनजीटी केस और जनहित याचिका के जवाब में दी गई रिपोर्ट के बाद के नमक की खेती करने वाले लगभग 5000 अगरिया किसान अब यहां की जमीन का इस्तेमाल कर सकते हैं, बैंक से लोन ले सकते हैं, बाजार में अपना नमक बेच सकते हैं और अपने उत्पाद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर सकते हैं।’

पंड्या आगे कहते हैं, ‘पहली बार ऐसा हुआ है कि वन विभाग ने एक अलग रुख अख्तियार किया है और वन्य जीव संरक्षण में अगरिया समुदाय के योगदान को आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है। यह रिपोर्ट इस बात की भी पुष्टि करती है कि यहां नमक का खनन नहीं होता है और यह भी साबित करती है कि यह उनका पारंपरिक कारोबार है जो सदियों से चला आ रहा है। 50 सालों से चली आ रही सर्वे और अभयारण्य की बसावट की प्रक्रिया के बाद यह एक निर्णायक मोड़ आ गया है।’

हालांकि, भले ही वन्यजीव संरक्षण में अगरिया के योगदान को स्वीकार किया गया है और उन्हें रण की जमीन पर जाने की अनुमति दे दी गई लेकिन अभी भी यहां की जमीन पर उन्हें कानूनी अधिकार नहीं मिला है जबकि यहां वे सदियों से नमक बनाते आए हैं।

नमक को इकट्ठा करने और उसे ले जाने के लिए लोडर और ट्रक जैसी भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।
नमक को इकट्ठा करने और उसे ले जाने के लिए लोडर और ट्रक जैसी भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- रवलीन कौर।

4 सितंबर को अगरिया समुदाय के जन प्रतिनिधि गुजरात के पर्यावरण मंत्री मुलु बेरा से मिले। मंत्री ने उनसे वादा किया कि LRK में नमक बनाने से संबंधित उनके अधिकारों को औपचारिक तौर पर पहचान दी जाएगी। वहीं, खरगोड़ा आयोडाइज्ड सॉल्ट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हिंगोर रबारी ने पर्यावरण मंत्री के इस वादे को सिर्फ चुनावी स्टंट बताया। उन्होंने आगे कहा, ‘अगरिया समुदाय एक बड़ा वोट बैंक है। अगर सरकार सच में कुछ करना चाहती तो अब तक प्रक्रिया पूरी कर ली गई होती और आधिकारिक तौर पर अधिकार दे दिए गए होते। क्योंकि इस बार अगरिया समुदाय के लोग इकट्ठा हो गए और शिकायत की है तो सरकार नर्म पड़ गई।’

कानून के मुताबिक, कहीं पर भी अभयारण्य तभी घोषित किया जा सकता है जब उस पर निर्भर लोगों के अधिकारों का सर्वे और सेटलमेंट पूरा कर लिया गया। पंड्या आगे कहते हैं कि पिछले 50 सालों में अधूरे सर्वे और सेटलमेंट की वजह से अभयारण्य का ऐलान रुका हुआ है।

कई अगरिया ऐसे भी हैं जिनका नाम सर्वे और सेटलमेंट प्रक्रिया में कभी नहीं आया लेकिन वे कई पीढ़ियों से नमक की खेती करते आ रहे हैं। ध्राणगद्रा ब्लॉक में कुडा सॉल्ट वर्क्स में काम करने वाले एक अगरिया गुणवंत कोली कहते हैं, ‘लगभग 90 प्रतिशत अगरिया का नाम इसमें नहीं आया है। कई ऐसे भी हैं जो मर गए। जब 1997 में सर्वे किया गया था तब कई अगरिया ऐसे थे जो रण की ओर प्रवास कर चुके थे और सर्वे के समय वे अपने गांव के पते पर मौजूद नहीं थे।’ पंड्या कहते हैं कि सिर्फ 3000 अगरिया का नाम प्रोविजनल एस एंड एस लिस्ट में शामिल किया गया जबकि फिलहाल 10,000 लोग LRK लोग रण में काम कर रहे हैं।

गुजरात भारत में पैदा होने वाले नमक का कुल 76 प्रतिशत हिस्सा पैदा करता है जिसमें कच्छ के रण का योगदान एक तिहाई का है। तस्वीर- रवलीन कौर।
गुजरात भारत में पैदा होने वाले नमक का कुल 76 प्रतिशत हिस्सा पैदा करता है जिसमें कच्छ के रण का योगदान एक तिहाई का है। तस्वीर- रवलीन कौर।

सशर्त अनुमति

वन्य जीव अभयारण्य के डिप्टी कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट्स धवल गढ़वी कहते हैं, ‘प्रोविजनल S&S रिपोर्ट में जिन लोगों के नाम शामिल हैं उन अगरिया लोगों के अधिकारों को पहचान देने के लिए हमने अंतरिम आदेश जारी कर दिया है। इसके लिए बेसलाइन साल 2004-05 है। अब कच्छ के रण में नमक की खेती करने की अनुमति उन्हीं लोगों को दी जाएगी जो उस समय नमक की खेती कर रहे थे। साथ ही, इसके लिए उन्हीं मशीनों और तकनीक को इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाएगी जो पहले इस्तेमाल की जा रही थी।’ गढ़वी कहते हैं कि अगरिया समुदाय के उन लोगों को ‘आगर’ कार्ड दिए जा रहे हैं। हालांकि, इन कार्ड से लोगों को राहत मिलने की बजाय अफरा-तफरी मच गई है। अपनी समस्याओं के लिए आवाज उठाने के लिए अगरिया समुदाय के लोगों ने एक नया संगठन अगरिया महासंघ बनाया है। इस संगठन के नेता बच्चू भाई डेगामा कहते हैं, ‘यह कार्ड एक साल के लिए जारी किया जा रहा है और इसमें कुल 23 शर्तें हैं जिसमें से कि अगर कोई नमक की खेती करता है तो ज्यादातर असंभव हैं।’ 

पाटड़ी के देगम गांव के निवासी देगमा कहते हैं, ‘उदाहरण के लिए इन लोगों ने नमकीन पानी निकालने के लिए कुओं की संख्या को 2 तक सीमित कर दिया है। रण में हर जगह नमकीन पानी एक जैसा नहीं होता है। पानी का स्तर लगातार कम होता जा रहा है जिसके चलते हमें नमकीन पानी खोजने के लिए हमें 10 से 15 कुईं खोदनी पड़ती हैं। आप दो से कैसे काम चलाएंगे। वन विभाग के लोगों ने रण में ज्वलनशील पदार्थ लेकर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। सोलर का इस्तेमाल सिर्फ दिन में ही किया जा सकता है। रात के समय पानी निकालने के लिए हम तेल से पंप चलाते हैं। बिना तेल के यह काम कर पाना असंभव है।’ वह आगे कहते हैं, ‘हम सिर्फ यह चाहते हैं कि हमें ऐसा कार्ड मिले जो यह बताए कि हम अगरियां है, वह शर्तों से भरा न हो। हमने इस बारे में अपने स्थानीय विधायक से भी शिकायत की है और उन्होंने मदद का भरोसा दिलाया है।’

ये शर्तें उन व्यापारियों के सामने भी चुनौती पेश करती हैं जो नमक तैयार हो जाने पर इस क्षेत्र में आते हैं। हिंगोर रबारी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, ‘उन्होंने भारी मशीनों के इस्तेमाल की अनुमति देना बंद कर दिया है। यहां जेसीबी का इस्तेमाल करके नमक उठाया जाता है, ट्रकों में भरकर इसे ले जाया जाता है। इसके अलावा, गहरे बोरवेल खोदने के लिए आने वाली मशीनें भी भारी मशीनों की श्रेणी में आती हैं। ऐसे में यहां पर इस काम के लिए इतने ज्यादा मजदूर ला पाना भी मुश्किल है।’ गढ़वी के मुताबिक, उनका मुख्य लक्ष्य अभयारण्य क्षेत्र से भारी मशीनें हटाना है। वह कहते हैं, ‘जेसीबी सिर्फ आराम के लिए है, यहां इसकी जरूरत नहीं है।’ अंबू पटेल कहते हैं कि अगरिया को निजी स्तर पर मशीनों के इस्तेमाल की अनुमति दी जानी चाहिए लेकिन व्यावसायिक स्तर पर इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यहां LRK में भूजल स्तर बहुत तेजी से गिरता जा रहा है।


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इस साल जब मार्च-अप्रैल में नमक तैयार होने के बाद उसे उठाया जाना था तब भारी मशीनों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लग जाने के नमक इकट्ठा करने का काम प्रभावित हुआ क्योंकि उसी समय वन विभाग के अधिकारी आगे आए और मशीनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया। मकवाना कहती हैं, ‘अगर नमक को यहां से उठाया ही नहीं जा सकता तो हम इसे बना ही क्यों रहे हैं? पहले उन्होंने इसकी अनुमति ही नहीं दी थी। फिर बारिश हो गई और नुकसान हो गया। हमने पटाड़ी-दसाडा के विधायक पीके परमार से अपील की। वह सत्ताधारी बीजेपी से ही हैं। जब तक हमें अनुमति मिल पाई, तब तक 15-20 दिन की देरी हो चुकी थी। सिर्फ हम ही जानते हैं कि सिर पर चमकते सूरज वाली गर्मी में यहां रुकना कितना मुश्किल होता है वह भी बाहर से खाने और पीने की चीजें लाकर।’

पंड्या के मुताबिक, भारत में हाथ से बनाए जाने वाले नमक की सबसे ज्यादा मात्रा LRK में ही पैदा होती है लेकिन यहां के लोगों की आजीविका और भंगुर पारिस्थितिकी के बीच संतुलन बनाना भी जरूरी है। वह आगे कहते हैं, ‘इस पारिस्थितिकी तंत्र में सीमित संख्या में ही लोग रह सकते हैं। यहां सिर्फ उन अगरिया लोगों को ही रहने की इजाजत देनी चाहिए जो कई पीढ़ियों से नमक की खेती कर रहे हैं। यहां बड़े उद्योगों या लीज पर नमक के खेत लेने वालों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’

 

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बैनर तस्वीरः लिटिल रण ऑफ कच्छ में घूमते जंगली गधे। तस्वीर– रोहित कैडज़/विकिमीडिया कॉमन्स

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