Site icon Mongabay हिन्दी

मध्य प्रदेश के जंगलों में क्यों कम हो रहा है औषधीय पौधों का उत्पादन

पातालकोट इलाके में जड़ी बूटी बेचते भारिया आदिवासी। इनके अनुसार जंगल से मिलने वाली जड़ी-बूटियों की मात्रा कम होने से आमदनी में कमी आई है। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

पातालकोट इलाके में जड़ी बूटी बेचते भारिया आदिवासी। इनके अनुसार जंगल से मिलने वाली जड़ी-बूटियों की मात्रा कम होने से आमदनी में कमी आई है। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

  • जंगल से वनोपज इकट्ठा करने वाले आदिवासियों और वैद्यों को महसूस हो रहा है कि मध्यप्रदेश के जंगलों में वनोपज की कमी हो रही है। इससे उनकी आजीविका प्रभावित हो रही है।
  • कई शोध के शुरुआती नतीजे बता रहे हैं कि मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में वनों में जड़ी-बूटी समेत वनोपज के उत्पादन में 80 फीसदी तक की कमी आई है।
  • वैज्ञानिक पेड़ पौधों, वनस्पतियों में जलवायु परिवर्तन प्रभाव के आंकलन के लिए फिनोलॉजिक अध्ययन पर जोर देने की बात करते हैं ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को मापा जा सके।
  • वनों में पेड़-पौधों, वनस्पतियों के जीवनचक्रण में परिवर्तन तो आया है पर वैज्ञानिकों के अनुसार अभी इस पर अध्ययन, ऑब्जरवेशन और आंकड़ों की कमी है।

“हाथ में पैसा होगा तभी त्योहार मनाना अच्छा लगता है,” रक्षाबंधन के त्यौहार के दिन मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क से सटे मोरावन गांव की सहरिया आदिवासी बस्ती में रहने वाली गुड्डी बाई कहती हैं। गुड्डी बाई बस्ती की कुछ महिला और पुरुषों के साथ एक घेरे में बैठ कर किसी मुद्दे पर चर्चा कर रही हैं। पूछने पर गुड्डी बताती हैं, “जंगल में अब इतना वनोपज नहीं है कि उसे इकट्ठा कर बेच सकें।”

चर्चा में बैठे लोग बस्ती के एक वनोपज समूह का हिस्सा हैं। पिछले एक वर्ष से इस समूह की कोई खास आमदनी नहीं हुई है। “जंगल में कुछ नहीं बचा है,” गुड्डी एक साल पहले बेची गई वनोपज की रसीद दिखाते हुए कहती हैं।

दिलीप आदिवासी मोरावन गांव में एक वनोपज समूह के संचालक हैं, बताते हैं, “जंगलों में वनोपज की भारी कमी होती जा रही है आंवला भी बहुत कम मिल पा रहा है और शतावर, सफ़ेद मूसली, गुड़मार, पमार जैसी जटीबूटीयां जिनकी बाजार में अच्छी मांग है अब यहां बिलकुल नहीं हैं।”

वनोपज में गिरावट की स्थिति जानने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने कूनो नेशनल पार्क के आसपास के खोहरी, मढखेड़ा, ककरा,टिकटोली,करई सहित एक दर्ज़न आदिवासी गांवों में वनोपज संग्रह करने वालों से बात की।

“पहले के मुकाबले अब वनोपज से रुपया में चवन्नी की कमाई भी नहीं हो पा रही है। हमारे पास खेती के लिए कोई जमीन तो है नहीं इसलिए साल के तीन चार महीने जंगलों से जड़ी-बूटियां इकट्ठी कर बेचकर जीवनयापन करते थे इसी से हमारा जीवन चलता था। बाकी महीने मजदूरी के लिए पलायन करते हैं,” ककरा गांव के राजकिशोर बताते हैं। 

कुनो नेशनल पार्क के मोरावन गांव में सहरिया आदिवासी समुदाय की गुड्डी बाई। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
कुनो नेशनल पार्क के मोरावन गांव में सहरिया आदिवासी समुदाय की गुड्डी बाई। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

राजकिशोर के अनुसार सहरिया आदिवासियों की आजीविका वनोपज पर निर्भर है। एक सहरिया परिवार साल भर में बीस से तीस हजार नगद रुपए वनोपज से कमाता था। 

कूनो के करीब पोहरी कस्बे में करीब 50 वर्षों से जडीबूटियों और अन्य वनोपज का व्यापार करने वाले ब्रजेश गुप्ता को लगता है अगले तीन-चार साल में उन्हें अपना व्यापार बंद करना पड़ेगा। गुप्ता के अनुसार, “पोहरी, कराहल, शिवपुरी क्षेत्र में औषधियों के व्यापार में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है।”

कई शोध में वनोपज की कमी का इशारा

व्यापारी और आम लोग जिन इलाकों में वनोपज में कमी की शिकायत कर रहे हैं, उन इलाकों में वनोपज कम होने की बात एक रिपोर्ट में भी सामने आई है।  

मध्य प्रदेश सरकार के पर्यावरण विभाग की एक रिपोर्ट “क्लाइमेट चेंज वनरबिलिटी असेसमेंट फॉर मध्यप्रदेश” में सामने आया है कि मध्यप्रदेश में नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी (एनपीपी) के मामले में पूर्वी, मध्य और पश्चिमी जिले पीछे हैं। इन जिलों में ग्वालियर, भिंड, मुरैना, दतिया और शिवपुरी जैसे इलाके शामिल हैं। 

मध्य प्रदेश के जंगलों में एनपीपी को बायोमास उत्पादकता का एक मानक माना जाता है। बायोमास उत्पादकता में बढ़ोतरी से लकड़ी, ईंधन की लकड़ी और अन्य गैर-काष्ठ वन उत्पाद (एनटीएफपी) सहित वन उत्पादों की आपूर्ति में बढ़ोतरी हो सकती है। अनुमान है कि आने वाले समय में जंगलों में वनस्पति वितरण,उनके जीवन चक्र और वन प्रकार पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देखने मिलेगा।

ग्रीन इंडिया मिशन की सस्टेनबल हार्वेस्टिंग प्रोटोकॉल फॉर एनटीएफपी प्लांट्स नाम की एक रिपोर्ट भी वनोपज में कमी का इशारा करती है। इसके मुताबिक देश की फार्मा कंपनियों की कच्चे माल की 85 प्रतिशत मांग की पूर्ति जंगलों से होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्षों में ये मांग बढ़ी है जिससे जंगलों पर दबाव भी बढ़ा है। रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि गैर टिकाऊ तरीके से औषधियों और वनोपज के निकालने से वनों पर दबाव बढ़ा है। 

इस रिपोर्ट में सलाहकार के तौर पर जुड़े राष्ट्रीय पादप और औषधि बोर्ड के पूर्व सदस्य सुशील उपाध्याय ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में कहा, “भारी मांग की वजह से जंगलों से प्राप्त होने वाली औषधियों में 70 से 80 प्रतिशत तक कमी आई है। इससे अजीविका के लिए वनों पर निर्भर रहने वाले आदिवासी परिवारों पर संकट खड़ा हो गया है। पहले ही इन्हें बाजार से न के बराबर दाम मिलता था अब उस पर भी संकट है।”

उपाध्याय आगे कहते हैं, “पिछले 20 वर्षों में वनों से वन संसाधनों का काफी दोहन हुआ है। इससे वनों के स्वरूप में और उसकी पारिस्थितिकी में बहुत परिवर्तन हुआ है। इसका सीधा प्रभाव वनों से जुड़े उन लोगों पर पड़ता है जिनकी आजीविका वनों पर निर्भर है।”

अर्जुन बोरकर बैगा पेश से वैद्य हैं। अर्जुन के मुताबिक अनियमित बारिश, जंगल की आग, ओलावृष्टि, औषधीय पौधों के जीवनचक्र को प्रभावित कर रहे हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
अर्जुन बोरकर बैगा पेश से वैद्य हैं। अर्जुन के मुताबिक अनियमित बारिश, जंगल की आग, ओलावृष्टि, औषधीय पौधों के जीवनचक्र को प्रभावित कर रहे हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

वनों पर निर्भरता बढ़ने के पीछे उपाध्याय खेती की जमीन कम होने को मानते हैं। 

मध्यप्रदेश में क्लाइमेट,औषधीय पौधों के व्यापार और आजीविका नाम के शोध पर काम कर चुके बाइफ डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े इकोलॉजिस्ट उत्कर्ष घाटे कहते हैं, “वनवासियों की आय में तेंदूपत्ता,महुआ,आंवला जैसी वृक्ष आधारित वनोपज का हिस्सा तो होता ही पर उस आय में औषधि पौधों का भी इसमें अहम हिस्सा होता है। ये वनोपज इन वनवासियों की आय का तब जरिया बनती है जब साल के तीन चार महीने इनके पास कोई काम नहीं होता। इस समय पानी की कमी की वजह से इनके खेत खाली होते हैं।”

घाटे ने अपने शोध में पाया कि आदिवासी औषधि पौधों के व्यापार में सीधे शामिल नहीं होते हैं। वे अपने संग्रहण को छोटे व्यापारियों को बेचते हैं जो न के बराबर कीमत पर इनसे खरीदते हैं और दिल्ली, पंजाब, हरियाणा की दवा निर्माता कंपनीयों को बड़े ऊँचे दामों पर बेचते हैं। 

“इन व्यापारियों और दवा निर्माताओं को न वनों की जैव विविधता से मतलब होता है और वनवासियों से। अब तो बड़े किसान भी खेतों में उगाये जाने वाले औषधि पौधों की खेती करने लगे हैं जिसमें वनवासी पिछड़ गए हैं,” घाटे बताते हैं।

आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सिमट रहा जंगल

डिंडोरी जिले में बैगा चक्क इलाके के शिल्पीड़ी गांव के एक सीलन भरे कच्चे मकान की रसोई में बैठी 43 वर्षीय दसमीबाई बैगा वैद्य हैं। दसमी ने औषधियों का ज्ञान अपने पिता और ससुर से लिया है। दसमी बाई ने बताया, “हम जंगली औषधियों को बाजार में बेचते नहीं हैं, पर इससे इलाज करते हैं। रोगी दूर-दूर से इलाज के लिए हमारे पास आते हैं और बदले में पैसे, धान, गेहूं दे कर जाते हैं।”


और पढ़ेंः लघु वनोपज संग्रहण का मॉडल राज्य छत्तीसगढ़ में कितनी सुधरी आदिवासियों की स्थिति?


दसमी कहती हैं, “अब वनों में उतनी जड़ी-बूटियां नहीं हैं जितनी उनके पिता और ससुर के समय पर थी। पहले उन्हें अपने गांव से सटे जंगल में आसानी से मिल जाती थी पर अब उन्हें तलाशना मुश्किल हो गया है।” दसमी इसके पीछे वनों का सिमटना, जंगल की आग और मौसम को कारण मानती हैं। 

पास के ही तांतर गांव के वैद्य अर्जुन बोरकर दसमी की बात से सहमति जताते हुए कहते हैं, “पहले वन सघन और घने थे तो उन्हें अपने गांव के पास ही वनों में जरूरत की सभी जड़ीबूटीयां मिल जाती थी अब उन्हें उनकी तलाश में 30 से 40 किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है।”

वहीं पातालकोट इलाके में रहने वाले भरिया आदिवासी भी मौसम में परिवर्तन से जड़ीबूटी और अन्य वनोपज में कमी से परेशान हैं। राथेढ़ गांव के 40 वर्षीय श्यामलाल भारती भरिया आदिवासी समुदाय से आते हैं और पुश्तैनी तौर पर जड़ीबूटी बेचने का काम करते हैं। वह कहते हैं, “एक समय पातालकोट इलाका जड़ीबूटियों का खजाना माना जाता था, पर अब यहां उतनी मात्रा में यह नहीं मिलती है।”

श्यामलाल का मनाना है, “गर्मी का मौसम बहुत लम्बा हो गया है इस वजह से जड़ीबूटीयों की पैदावार तो कम हुई ही है,इस बार महुआ का सीजन भी कम रहा और चिरोंजी भी किसी साल होती है,किसी साल नहीं होती।”

जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी तय करने से पहले लंबा शोध जरूरी

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) के वन पारिस्थितिकी तंत्र समूह के सह-अध्यक्ष और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं अध्ययन करने वाले राजीव चतुर्वेदी बताते हैं, “जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा और सबसे पहला असर प्लांट फिनोलॉजी (Phenology) यानी पौधों के जीवन चक्रण पर पड़ता है। कब पौधे में फूल आना है, कब परागण 

होना है,कब फल आना है, कब उसके पत्ते झड़ने हैं, ये सब फिनोलॉजी पर निर्भर करता है।”

मौसम में हो रहे बदलावों को लेकर चतुर्वेदी कहते हैं, “भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। इसके साथ ही वर्षा के पैटर्न में नाटकीय बदलाव आया है। कभी बारिश एक दम से बहुत ज्यादा हो रही है, कभी मानसून देर से आ रहा है और समय से पहले ही चला जा रहा है, सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं। इन चरम मौसमी घटनाओं का प्रभाव वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों और पेड़ पौधों पर पड़ता है।”

मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी आती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

वनोपज कम होने के अन्य कारणों के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “हाल के दिनों में वनों में जंगल में आग की घटनाएं बढ़ी है। वन में नमी 40 से 30 प्रतिशत तक कम हो जाती है तो वनों में आग पकड़ने और तीव्रता से फैलने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। आग से वनोपज उत्पादन कम होता है।” 

ऑब्जरवेशन,अध्ययन और आंकड़ों के आभाव को जाहिर करते हुये ट्रॉपीकल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट जबलपुर के वैज्ञानिक अविनाश जैन कहते हैं, “वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एकदम से कहना मुश्किल है कि मध्य प्रदेश के जंगलों पर जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसके लिए हमें लम्बे समय के अध्ययन और ऑब्जरवेशन की आवश्यकता है।”

“हम मध्यप्रदेश में जलवायु परिवर्तन पर मॉनिटरिंग के शुरुआती दौर में हैं। इसके लिए दो साल पहले कान्हा नेशनल पार्क में एक 10 हेक्टयर का परमानेंट रिज़र्व मॉनिटरिंग प्लॉट स्थापित किया है जहां हम पेड़ पौधों और वनस्पतियों पर जलवायु प्रभाव की लंबे वक्त के लिए निगरानी कर रहे हैं।” अविनाश बताते हैं। 

 

बैनर तस्वीरः पातालकोट इलाके में जड़ी बूटी बेचते भारिया आदिवासी। इनके अनुसार जंगल से मिलने वाली जड़ी-बूटियों की मात्रा कम होने से आमदनी में कमी आई है। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

Exit mobile version