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बेहतर वन प्रबंधन के लिए आदिवासी समुदाय का नजरिया शामिल करना जरूरी

मध्य प्रदेश की बैगा आदिवासी महिलाएं। बैगा मूलतः वनवासी हैं, जो जंगलों में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में वनों की कटाई और विकास की गति ने उन्हें शहरों के नजदीकी स्थानों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है। (प्रतीकात्मक इमेज) तस्वीर-सैंडी और व्याज/विकिमीडिया कॉमन्स

मध्य प्रदेश की बैगा आदिवासी महिलाएं। बैगा मूलतः वनवासी हैं, जो जंगलों में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में वनों की कटाई और विकास की गति ने उन्हें शहरों के नजदीकी स्थानों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है। (प्रतीकात्मक इमेज) तस्वीर-सैंडी और व्याज/विकिमीडिया कॉमन्स

  • वनों के साथ स्थानीय लोगों का जुड़ाव सम्मान, जिम्मेदारी, विश्वास और रिश्तों पर आधारित है। तो वहीं आधुनिक समय और औपनिवेशिक काल के बाद बनाए गए संरक्षित क्षेत्रों का नजरिया वनों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले संसाधनों के रूप में देखना रहा है। एक नए अध्ययन से यह जानकारी निकल कर आई है।
  • स्थानीय समुदाय जंगलों को अपना जीवन मानते हैं और सदियों से उनकी बेहतर तरीके से देखभाल करते आए हैं। लेकिन इसके बावजूद औपनिवेशिक और औपनिवेशिक काल के बाद के जंगलों को बचाए रखने वाले तरीकों में आदिवासियों के अनुभवों को दरकिनार कर दिया गया है।
  • शोधकर्ताओं का मानना है कि जहां स्थानीय नजरिए को शामिल कर अधिक न्यायसंगत तरीके से जंगलों को बचाने में योगदान मिल सकता है, वहीं इसके जरिए मानव अधिकारों और जैव विविधता संरक्षण उद्देश्यों को बढ़ावा देने वाले सामूहिक प्रयासों को भी मजबूत किया जा सकता है।

भारत में जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए जंगल का क्या मतलब है? क्या वे वन पारिस्थितिकी तंत्र को उसी तरह देखते हैं जैसे जंगल के बाहर के लोग इसे देखते हैं? जंगलों को लेकर उनके विचार देश के वन प्रबंधन और संरक्षण ब्लूप्रिंट में कितने नजर आते है? केरल के वायनाड जिले में एक स्थानीय शिकारी-वनवासी समुदाय ‘काट्टुनायकन समुदाय’ और जंगल के साथ उनके संबंधों पर हाल ही में एक अध्ययन किया गया, जिसमें ये कुछ सवाल उठाए गए थे।

‘आदिवासी पोरट्रायल्स ऑफ प्रोटेक्टिड फॉरेस्ट एरिया इन साउदर्न इंडिया’ नामक यह अध्ययन वायनाड वन्यजीवन अभयारण्य और उसके आसपास स्थित सात काट्टुनायकन बस्तियों यानी पोंखुझी, अनासीमप, कुझिमूला, अलाथूर, कलामकांडी, कुमुझी और चुक्कलिकुन्नी में पांच सालों तक किया गया था। काट्टुनायकन जंगल को स्थानीय रुप से कडु कहते हैं। इस अध्ययन से पता चला कि काट्टुनायकन का जंगल यानी कडु उन संरक्षित क्षेत्रों से काफी अलग है जिन्हें वन प्रबंधन एजेंसियां जंगल मानती हैं।

जंगल को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखने वाला नजरिया 

अगर हम संरक्षित क्षेत्रों से जुड़े दृष्टिकोण की बात करें तो वन भूमि को या तो उपभोग करने या संरक्षित संसाधनों के रूप में देख जाता है। इसलिए संरक्षित इलाकों पर किए गए ज्यादातर अध्ययन वन्यजीव संरक्षण, राजस्व सृजन और राजकोषीय मुआवजे पर ही आधारित होते हैं। लेकिन स्थानीय लोगों के लिए जंगल का मतलब कुछ और ही है। वे जंगलों को ऐसी जगह के तौर पर देखते हैं जो इंसानी और प्राकृतिक संबंधों के लिए अवसर मुहैया कराते हैं। अध्ययन के मुताबिक, जंगल के साथ उनका जुड़ाव “सम्मान, जिम्मेदारी, विश्वास और रिश्तों” पर आधारित है।

वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में कट्टुनायकन समुदाय के कुछ लोग। कट्टुनायकन ने अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिहाज से दिन में कम से कम एक बार कडु में जाने को नियम बना रखा है। तस्वीर- हेलिना जॉली
वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में काट्टुनायकन समुदाय के कुछ लोग। काट्टुनायकन ने अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिहाज से दिन में कम से कम एक बार कडु में जाने को नियम बना रखा है। तस्वीर- हेलिना जॉली

काट्टुनायकन के लिए कडु और जंगल एक जैसे शब्द नहीं है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, वे संरक्षित क्षेत्रों के लिए “जंगल” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इसमें वन विभाग, वन नियम और जंगलों में सख्ती और निषेध भी शामिल हैं। वहीं उनके लिए कडु का अर्थ है “एल्लम” यानी सबकुछ। अपनी खुद के अधिकारों के साथ एक पूर्ण और सर्वव्यापी इकाई। उदाहरण के लिए अध्ययन से जुड़े लेखकों ने समुदाय के सदस्यों के साथ कुछ बातचीत की थी। एक बातचीत में उन्होंने कहा था, “हम जंगल (मतलब वन विभाग) से डरते हैं, हम जब चाहे तब जंगल (संरक्षित क्षेत्र के रूप में) में घुस नहीं सकते हैं।” वहीं एक अन्य व्यक्ति ने कहा, “जंगल में हमें उनके नियम और कानून सुनने पड़ते हैं”। लेखकों ने समझाया कि इस अर्थ में “जंगल” एक समकालीन शब्द है जो बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के नए शासकीय नियमों की ओर इशारा करता है। वहीं इसके उलट, ‘कडु’ शब्द स्वतंत्रता, विश्वास, श्रद्धा, शक्ति और विश्वास का प्रतीक है।

काट्टुनायकन का मानना है कि उन्हें कडु के करीब रहने की जरूरत है। इसलिए उन्होंने अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिहाज से दिन में कम से कम एक बार कडु में जाने को नियम बना रखा है। अध्ययन से पता चलता है कि उनकी कल्याण की भावना कडु में की जाने वाली गतिविधियों से जुड़ी है, मसलन मृत पूर्वजों को याद करते हुए वहां तक जाना, पहाड़ी देवताओं से प्रार्थना करना, शहद इकट्ठा करना, मशरूम, फल, कंद इकट्ठा करना, या कभी-कभी छोटे जानवरों को फंसाना।

अगर संरक्षित क्षेत्रों के अंदर और बाहर जैव विविधता का संरक्षण किया जाता है, तो लोग प्रकृति के साथ मिलजुल कर रहेंगे। केरल के कन्नूर जिले में नीलियारकोट्टम पवित्र उपवन में थेय्यम करते हुए एक स्थानीय आदिवासी- तस्वीर- एस. गोपीकृष्ण वारियर/मोंगाबे 
अगर संरक्षित क्षेत्रों के अंदर और बाहर जैव विविधता का संरक्षण किया जाता है, तो लोग प्रकृति के साथ मिलजुल कर रहेंगे। केरल के कन्नूर जिले में नीलियारकोट्टम पवित्र उपवन में थेय्यम करते हुए एक स्थानीय आदिवासी- तस्वीर- एस. गोपीकृष्ण वारियर/मोंगाबे

अध्ययन की प्रमुख लेखिका हेलिना जॉली ने कहा कि संरक्षित क्षेत्रों (या जंगलों) में काट्टुनायकन के लिए बाघों के आवास और हाथी गलियारों के अलावा और भी बहुत कुछ है। उन्होंने बताया, “इसमें पुश्तैनी कब्रगाह, रात में आराम करने के लिए जगह, देवताओं से संबंध और यहां तक कि मंदिर भी शामिल हैं।” जंगल को एक अलग अस्तित्व के तौर पर देखा जाता है जो जैव-विविधता से परिपूर्ण हैं। इसे नल्ला स्टालमगल (अच्छे स्थान) कहा जाता है। उन्होंने कहा, “काट्टुनायकन के लिए जंगल एक ऐसा इलाका है जहां लगातार बदलने वाला मानवीय समुदाय और प्रकृति एक साथ रहती है और यह संरक्षित क्षेत्रों की भौतिक सीमाओं से परे है।”

जंगलों के प्रति यह पारस्परिक और सौहार्दपूर्ण दृष्टिकोण उनके जंगली जानवरों के साथ बने रहने के तरीके में भी नजर आता है। इसे जॉली ने उसी क्षेत्र में अपने किए गए पिछले अध्ययन में खोजा था। 2022 के अध्ययन में पाया गया कि काट्टुनायकन जंगली जानवरों के प्रति सहनशीलता और स्वीकृति दिखाते है। जंगली जानवरों के साथ उनका सह-अस्तित्व जंगली जानवरों के तर्कसंगत बातचीत करने वाले प्राणियों जैसे देवताओं, गुरूओं और समकक्षों के विचारों के साथ-साथ धर्मम (सामाजिक व्यवस्था के अनुसार सही व्यवहार के अंतर्निहित एक लौकिक कानून) का पालन करने वाले साझा मूल के रिश्तेदारों के विचारों पर केंद्रित है।

भूमि प्रबंधकों को वन प्रबंधन से अलग करना

इस तथ्य के बावजूद कि स्थानीय समुदाय सदियों से बेहतर तरीके से जंगलों के इस्तेमाल और उसकी देखरेख करते आए है, भारत में प्रचलित औपनिवेशिक और औपनिवेशिक काल के बाद के भूमि प्रबंधन तरीकों में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को दरकिनार कर दिया गया है। यह अक्सर उन्हें उन जंगलों से अलग-थलग महसूस कराता है जो उनके मूल घर हैं। नीलगिरी के एक गैर-लाभकारी कीस्टोन फाउंडेशन की संस्थापक-निदेशक स्नेहलता नाथ ने कहा, “उनके लिए जंगल उनका घर, आश्रय देने वाला, उनकी जीविका और आराम करने की जगह है। दूसरी ओर वन विभाग जंगलों को उन संसाधनों के रूप में देखते हैं जिन्हें इस्तेमाल किया जा सकता है।” कीस्टोन फाउंडेशन काट्टुनायकन समेत नीलगिरी के कई स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम करता है। उन्होंने कहा कि आदिवासी भी जंगलों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं लेकिन वह ऐसा अपनी आजीविका के लिए बिना कोई नुकसान पहुंचाए करते हैं। उन्होंने कहा, “वे जो चाहते हैं, ले लेते हैं लेकिन आर्थिक फायदे के लिए जंगलों का अत्यधिक दोहन नहीं करते।”

जंगलों के साथ सहजीवी संबंध यानी जहां मनुष्य भी जंगल का हिस्सा हैं, भारत में प्रचलित संरक्षण के फॉरट्रेस मॉडल में कहीं नजर नहीं आता है। उनका नजरिया काट्टुनायकन जैसे जंगलों में रहने वाले समुदायों को जंगलों का निवासी मानने के बजाय उन्हें अतिक्रमी या जंगलों में अनधिकृत तरीके से प्रवेश करने वाला मानता है।

वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में कट्टुनायकन का जैव सांस्कृतिक लैंडस्केप
वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में काट्टुनायकन का जैव सांस्कृतिक लैंडस्केप

हालिया अध्ययन बताता है कि वनों और उनके प्रबंधन के नजरिए में बदलाव लाना कितना जरूरी है। जॉली ने तर्क देते हुए कहा कि भारत में संरक्षित क्षेत्र का कोई भी नक्शा इन क्षेत्रों से जुड़े जटिल स्थानीय मानव इतिहास को नहीं दर्शाता है। उन्होंने कहा, “यह सीमित स्थानिक प्रतिनिधित्व अनजाने में मानव और प्रकृति को अलग करने में निहित भूमि प्रबंधन की औपनिवेशिक विरासत को कायम रखता है।” अध्ययन में काट्टुनायकन समुदाय के एक व्यक्ति को जंगल में पवित्र स्थानों के बारे में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, “यह सब हमारे मनसु (दिमाग) में है। जैसे नाडु (जंगल के बाहर) में लोगों के पास सड़कें और स्थानों के नाम हैं। हमारी भी अलग-अलग जगहें औऱ उनके नाम हैं। हम पढ़ते-लिखते नहीं हैं। इसलिए ऐसा कहीं लिखा नहीं है, लेकिन हम जानते हैं। हम इसी कडू में पले-बढ़े हैं। हमारे पूर्वज यहीं रहते थे। हमें कडु के हर कोने के बारे में पता हैं।”

वन पारिस्थितिकी तंत्र के अप्रत्यक्ष फायदे

पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन किसी जंगल के मूल्य को ठोस रूप में मापने का एक तरीका है। जॉली ने कहा, लेकिन कडु के मामले में यह व्यावहारिक नहीं हो सकता है क्योंकि काट्टुनायकन समुदाय के लिए इसकी कई सेवाएं जैव-सांस्कृतिक संबंधों की तरह अप्रत्यक्ष हैं और हमारे पास उन्हें मापने के तरीके नहीं हैं।


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उन्होंने संरक्षित क्षेत्रों के बारे में कहा कि हाथियों के गलियारों और बाघों के आवासों के बारे में चर्चाएं होती हैं लेकिन इस जमीन पर सदियों से रहते आए मानव इतिहास के बारे में शायद ही कोई बातचीत होती हो। उन्होंने कहा, “काट्टुनायकन जैसे समुदाय एक ही जगह पर रहने वाले शिकारी-वनवासी हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस जमीन से लंबे समय से जुड़े रहने के बावजूद उनके संबंधों को इसकी उत्पादकता के तरीके के तौर पर नहीं देखा जाता है। यह स्थिति कृषि से जुड़े समुदायों के ठीक विपरीत है। क्योंकि उनके पास अपनी जमीन से लंबें समय तक जुड़े होने का सबूत होता है, लेकिन काट्टुनायकन जैसे आदिवासी समुदायों के पास ऐसा कुछ नहीं है।”

कडु के मामले में पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन व्यावहारिक नहीं हो सकता है क्योंकि कट्टुनायकन समुदाय के लिए इसकी कई सेवाएं जैव-सांस्कृतिक संबंध की तरह अप्रत्यक्ष होती हैं। तस्वीर- हेलिना जॉली
कडु के मामले में पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन व्यावहारिक नहीं हो सकता है क्योंकि काट्टुनायकन समुदाय के लिए इसकी कई सेवाएं जैव-सांस्कृतिक संबंध की तरह अप्रत्यक्ष होती हैं। तस्वीर- हेलिना जॉली

जॉली का तर्क है कि काट्टुनायकन समुदाय के लिए ‘कडु’ का जो मतलब है, उसे लेकर भारत के संरक्षित क्षेत्रों के इतिहास के साथ-साथ वन और वन्यजीव प्रबंधन नीतियों और दृष्टिकोणों में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व और चर्चा करने की जरूरत है। उन्होंने कहा, “यह निरीक्षण उन आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण नतीजे देता है जिनके पास वन भूमि के साथ उनके दीर्घकालिक और उत्पादक संबंधों के लिखित या भौतिक साक्ष्य की कमी है।” शोधकर्ताओं का मानना है कि जहां स्थानीय नजरिए को शामिल कर अधिक न्यायसंगत तरीके से जंगलों को बचाने में योगदान मिल सकता है, वहीं इसके जरिए मानव अधिकारों और जैव विविधता संरक्षण उद्देश्यों को बढ़ावा देने वाले सामूहिक प्रयासों को भी मजबूत किया जा सकता है। 

 

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बैनर तस्वीर: मध्य प्रदेश की बैगा आदिवासी महिलाएं। बैगा मूलतः वनवासी हैं, जो जंगलों में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में वनों की कटाई और विकास की गति ने उन्हें शहरों के नजदीकी स्थानों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है। प्रतीकात्मक तस्वीर-सैंडी और व्याज/विकिमीडिया कॉमन्स

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