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झारखंड की गुमनाम साग-भाजी में छुपी है पोषण की गारंटी

झारखंड के आदिवासी हाट में सागों को सुखाकर भी बेचा जाता है। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र

झारखंड के आदिवासी हाट में सागों को सुखाकर भी बेचा जाता है। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र

  • झारखंड में आदिवासी समुदाय परंपरागत रूप से कई तरह के पत्तेदार साग-सब्जी खाते हैं। ये साग पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं और उनमें औषधीय गुण भी पाए जाते हैं।
  • इन पौधों में से कुछ चकोड़ा (गाजर घास नामक खरपतवार को रोकने में मदद करता है), सफेद और लाल कोइनार (इनके पत्तों से साग बनता है) और मुनगा (इसे सुपरफूड माना जाता है) शामिल हैं।
  • वनों की कटाई, शहरीकरण और खरपतवार नाशकों के इस्तेमाल के कारण ये पौधे कम होते जा रहे हैं।
  • इस ज्ञान को संरक्षित करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, इन पौधों का दस्तावेजीकरण करने, उनकी खेती को बढ़ावा देने और उनके फायदों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है।

सितम्बर महीने का वो दिन स्वाद में रच-बस गया, जब दोपहर के भोजन में झारखंड की थालियों की शान गरमागरम भात,दाल,सब्जी के साथ साग और चटनी परोसी गयी। परोसे गए खाने की चटनी आम स्वाद से अलग थी, साथ ही साग थोड़ा अलग पत्तियों और डंडियों सहित ही था जिसका स्वाद थोड़ा कुरकुरा सा था। इस खाने के बारे में बात करते हुए रांची की रहने वाली 72 वर्षीय कोमिला होरो ने बताया कि यह बेंग साग की यानी ब्राह्मी की चटनी है जिसे झारखंड के लोग स्वाद के साथ खाते हैं। उन्होंने अपने बगीचे में साग वाली पत्ती दिखाई तो पता चला कि यह चकोड़ा की पत्ती थी, जिसे सामान्य लोग एक अनचाहा पौधा या खरपतवार समझते हैं। 

“जहां ये चकोड़ा का पौधा होता है वहां गाजर घास बहुत कम दिखाई देती है,” उन्होंने बताया। इस बात का जिक्र जबलपुर स्थित खरपतवार अनुसंधान निदेशालय के वैज्ञानिक सुशील कुमार के अध्ययनों में पाया गया कि चकोड़ा के बीजों को अगर बारिश के पहले गाजर घास (पार्थेनियम) उगने वाली संभावित जगहों पर छिड़क दिया जाता है तो गाजर घास बिल्कुल नहीं उगती है। हाल के बरसों में चकोड़ा के पौधे बहुत कम दिखाई पड़ते हैं यह बात कोमिला होरो ने दुहराई। उन्होंने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि बेंग साग पेट को ठंडा रखता है और चकोड़ा पचाने में मदद करता है। 

हाट में साग बेचती आदिवासी महिला। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र
हाट में साग बेचती आदिवासी महिला। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र

कोमिला होरो अपने छोटे से बगीचे में कुछ पत्तियां जिसे हम खरपतवार समझते हैं उन्हें दिखाने लगीं। उस बगीचे में पालक, लाल साग, पुई/पोई, बथुआ, जैसी भाजी के अलावा दस से अधिक पौधे थे जिसका साग बनता है। सोवा, चीना, कादो, करमी, सुनसुनिया, नेथो, गुंदर, चिनिया मूली, गोलगाला साग आदि के पौधे भी उनके बगीचे में दिखाई दिए।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के रांची स्थित शोध केंद्र की कृषि वैज्ञानिक अनुराधा श्रीवास्तव झारखंड में पाई जानेवाली साग-भाजियों की पोषण गुणवत्ता पर कार्य कर रही हैं। उनके शोध पत्र के अनुसार इन सब्जियों में पोषक तत्वों सहित औषधीय गुण की भी पहचान की गई। चौलाई, चकोड़, शकरकंद, कच्चू आदि के हरे पत्ते एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होते हैं। शोध पत्र के अनुसार, स्थानीय पत्तेदार सब्जियाँ बहुत ज्यादा पौष्टिक होती हैं क्योंकि वे कैल्शियम, मैग्नीशियम, लौह और पोटेशियम जैसे खनिजों के समृद्ध स्रोत होने के साथ-साथ विटामिन का भी अच्छा स्रोत होती हैं। इनमें फाइबर भी अधिक होता है, वसा और कार्बोहाइड्रेट बेहद कम होते हैं, और प्रोटीन का उचित स्रोत भी प्रदान करते हैं। इस प्रकार, ये पत्तेदार सब्जियां सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को कम करने और ग्रामीण झारखंड की आदिवासी आबादी की पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हालाँकि, इन कम ज्ञात पत्तेदार सब्जियों की पोषण संरचना के संबंध में अभी कोई व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध नहीं है।

पतरातू के समीप इचापीड़ी गाँव के 58 वर्षीय जूरन मांझी ने बताया कि लोग अब खेत में गेहूं, धान लगाने के साथ दवाई डाल देते हैं जिससे जो साग पहले खाया जाता था वो मर जाता है। “पहले इधर चारों तरफ सफ़ेद कोइनार के पेड़ थे, लेकिन अब बहुत कम बचे हैं। सफ़ेद फूल (टुम्पा साग) से हमलोग भाजी बनाते हैं, इधर सड़क किनारे छोटा-छोटा लाल कोइनार लगाने लगे हैं,” उन्होंने बताया। जूरन की पत्नी, सुगनी मांझी (42) आस-पास में उगी सागों को दिखाते हुए उनके औषधीय गुणों को अपनी भाषा में बताने लगीं। उन्होंने बताया, “हम जंगल का आदमी बाहर का दवाएँ नहीं खाते, हम लोग का साग-भाजी दवाएँ हैं।”  

अन्य महिलाओं ने बताया कि मौसम के अनुसार इन सागों का सेवन किया जाता है, कुछ-कुछ साग का नंबर सालभर में एकाध बार ही आता है, जिनका सेवन कर विटामिन और अन्य औषधीय लाभ प्राप्त किया जाता है। सहजन यानी मोरिंगा के पेड़ को दिखाते समय हाथ जोड़ते हुए इस गाँव की पार्वती मुंडा बताने लगीं, “ई देव हैं, औषध हैं।”

झारखंड में खाई जाने वाली कुछ सागों का कोलाज। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र
झारखंड में खाई जाने वाली कुछ सागों का कोलाज। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र

रांची में स्थित राजेंद्र इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) की चिकित्सक डॉ नीलम वर्मा के अनुसार मुनगा/सहजन, झारखंड में बहुतायत में मिलने वाले पेड़ की पत्ती है। सालों भर मिलने वाले इस साग, जिसे आज सुपर फूड की संज्ञा दी जा रही है, में कई औषधीय गुण विद्यमान हैं, जो सर्दी, खांसी एवं ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों में लाभदायक हैं। इनसे अलग, मुनगा के फूल और पत्तों में प्रचुर मात्रा में ऐंटीऑक्सीडैंट्स भी पाए गए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पत्तेदार साग भोजन में सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धतता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और ये ग्रामीण झारखंड की आदिवासी आबादी को अनजाने में खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं। डॉ वर्मा ने यह भी बताया कि इन वनवासियों के पास मौसम और खानपान का गहरा अनुभव है, उन्हें पता है कि किस साग को कब खाना है।

पतरातू की आदिम जनजाति बिरहोरों की बस्ती में सुगनी बिरहोर कुछ पत्तियों को सुखा रही थीं। उनके स्थानीय नाम के अनुसार चकोर, चेंच, मुनगा की पत्तियां (सहजन के पेड़ की पत्तियां), फुटकल, बेंग, चिमटी, कोइनर, सरला, कुद्रुम, साखिन, हिर्मिचिया, सिलिअरी, माथा, कर्मी, बूट आदि की ताजी पत्तियों को धूप में सुखाकर पकाया जाता है। इन पत्तियों को सुखाकर और पीसकर इकट्ठा किया जाता है। गर्मियों में जब जंगल सूख जाते हैं और सब्जियों की उपलब्धता भी काफी कम हो जाती है तब इनका सेवन किया जाता है। सूखे साग को कई तरीके से खाने का रिवाज है। इसे प्रायः तेल, प्याज, टमाटर, हरी मिर्च और नमक डालकर चावल के माड़ के साथ पकाते हैं, जिसे स्थानीय लोग ‘साग मर झोर’ कहते हैं। इसका स्वाद थोड़ा मिट्टी जैसा होता है और इसे चावल के साथ खाया जाता है। पूछने पर पता चला बरसात के दिनों में जब जंगल जाना मुश्किल होगा बगुला, तीतर कोई शिकार न मिलेगा तब भी माड़ के साथ इन पत्तियों के पाउडर को पकाया जाता है।

रांची के बुध बाज़ार में छोटी-छोटी बोरियों में अलग-अलग सागों के पाउडर बिकते हुए देखे जा सकते हैं। निर्मला डेमटा बोरियों में साग के पाउडर बेच रहीं थी। उन्होंने बताया, “साग गरीब का खाना है। मजदूरी करने वाले उन्हीं के भाई-बंधु इसे खरीदते हैं। हम जंगल से पत्तियाँ लाते हैं और सुखाते हैं। अब जंगल में सब तरह की पत्ती नहीं मिलती है। जैसे जंगल कम होने लगा है वैसे हमारा भाजी भी कम मिलने लगा है।”  

     

गोलगाला साग। झारखंड में लगभग छप्पन से साठ तरह की हरी पत्तियों को यहां के आदिवासी उपयोग में लाते हैं। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र
गोलगाला साग। झारखंड में लगभग छप्पन से साठ तरह की हरी पत्तियों को यहां के आदिवासी उपयोग में लाते हैं। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र

रांची, पतरातू, गिरिडीह, गुमला, जमशेदपुर, मधुपुर, मैकलुस्कीगंज, गढ़वा के ग्रामीण इलाकों में साग बेचने वाले और स्थानीय लोगों से बातचीत में पाया गया कि झारखंड में लगभग छप्पन से साठ तरह की हरी पत्तियों को यहां के आदिवासी उपयोग में लाते हैं। मुंडा, संथाल, हो, उरांव आदि जनजातियों की स्थानीय बोलियों में इनके नाम भले ही अलग हों लेकिन लगभग सभी समुदायों में उन पत्तियों को अलग-अलग मौसमों में खाया जाता है। इनके अलावा, कुछ अन्य पत्तेदार साग भी हैं जो स्थानीय बाजारों में नहीं पाई जाती हैं, लेकिन ग्रामीण लोग उन्हें अपने आसपास इकट्ठा करते हैं और उनका उपभोग करते हैं।

सितम्बर महीने में राष्ट्रीय पोषण माह के दौरान झारखंड के आंगनबाड़ी केंद्रों से लेकर स्कूलों-कॉलेजों में लोगों को खाने में पोषण के लिए जागरूक किया गया। समाज कल्याण विभाग, झारखंड की सहायक निदेशक कंचन सिंह ने बातचीत के दौरान बताया कि आँगनबाड़ियों, स्कूल परिसरों और ग्राम पंचायतों में उपलब्ध स्थान में पोषण-वाटिका में झारखंड की साग-भाजी का रोपण सहज भोजन और पोषण की जरूरतों को पूर्ण करने वाला कदम होगा। पालक और पन्ना जैसे साग आयरन की कमी को पूर्ण करते हैं। यह साग-भाजी अत्यंत कम खर्च पर बहुमूल्य पोषण का उपहार देती हैं। झारखंड की यह आदिम थाती सुदूर देहात से शहरों में प्रसारित होनी चाहिए क्योंकि इन सागों का प्रयोग गर्भवती महिलाओं के साथ स्तनपान कराने वाली महिलाओं के पोषण में सहायक है।   

बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के वैज्ञानिक अरुण कुमार ने बताया कि पहले हमारे खानपान में जंगलों से मिलने वाले फल, कुछ फूल, पत्तियां और जड़ आदि का इस्तेमाल किया जाता था जो कीटनाशकों और उर्वरकों के प्रयोग से दूर थे। इन पत्तियों का कई बीमारियों के इलाज में घर की दादी-नानी इस्तेमाल करती थीं। आज जब भूमंडलीकरण की दौड़ में आमजन फास्ट फूड की तरफ बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ आदिवासियों ने इस परंपरा को जीवित रखा है। आज जब जलवायु परिवर्तन और कीटनाशकों के प्रयोग की वजह से जैव-विविधता पर खतरा मंडरा रहा है, ऐसी स्थिति में इन साग-भाजी को बचा पाना एक चुनौती है। हालाँकि सरकार इस जैव-विविधता को संरक्षित करने के लिए पोटेंशियल क्रॉप जैसे प्रोजेक्ट चला रही है। झारखंड के स्थानीय लोगों के खानपान में समाहित इन पौधों को देश के दूसरे भागों में जानकारी के अभाव में खरपतवार ही समझा जाता है। 


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कुमार ने जोर देते हुए कहा कि खाद्य संबंधित संसाधनों के संरक्षण और विवेकपूर्ण उपयोग दोनों के लिए झारखंड में रहने वाले आदिवासी समुदाय के जीवन को नज़दीक से देखने पर इसकी कोई सानी नहीं है। अत: वनवासियों द्वारा उपयोग की जा रही खाद्य पौधों, खाद्य प्रसंस्करण और औषधीय मूल्य के पारंपरिक ज्ञान को समेट अन्य लोगों तक पहुँचाने की जरूरत है। अगर इनके पाउडर को उचित बाज़ार मिले तो यह संपूर्ण देश को पोषण सुरक्षा दे सकता है। 

झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर अनुराग लिंडा ने चिंता जताते हुए कहा कि आज झारखंड के जंगल कम होते जा रहे हैं जिसकी वजह से हमारे पुरखों का यह ज्ञान भी कहीं-न-कहीं वनोपज के खत्म होने के साथ समाप्त हो जायेगा। आज तेजी से हो रहे शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण भी जैव-विविधता संकट में है। दूसरी तरफ खरपतवार नाशकों का प्रयोग सागों की प्राकृतिक उपलब्धता को कम करते जा रही है और देशी साग की जगह संकर साग बाजार में दिख रहे हैं। कीटनाशकों और आक्रामक खरपतवारों की वजह से किसी न किसी पौधे की प्रजाति हमेशा-हमेशा के लिए इस धरती से समाप्त हो रही है। ऐसे में जरूरत है इन पारंपरिक सागों से जुड़ी सारी जानकारियों का एक दस्तावेज तैयार किया जाए, खाने के मौसम का पता लगाया जाए और इन सागों की पहुंच जन-जन तक सुलभ कराई जाए, ताकि जन-स्वास्थ के रास्ते स्वस्थ भारत की परिकल्पना को साकार किया जा सके।

 

बैनर तस्वीरः झारखंड के आदिवासी हाट में सागों को सुखाकर भी बेचा जाता है। तस्वीर- विनीता परमार और कुशाग्र राजेन्द्र 

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