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अरुणाचल प्रदेश की सैंक्चरी में घास के मैदान घटने से स्थानीय पक्षियों पर खतरा

डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में नदी के एक टापू के किनारे कटाव रोकने के लिए लगाए गए कॉन्क्रीट के कंटीलेदार स्क्रीन। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।

डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में नदी के एक टापू के किनारे कटाव रोकने के लिए लगाए गए कॉन्क्रीट के कंटीलेदार स्क्रीन। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।

  • साल 2012 से 2022 के बीच अरुणाचल प्रदेश के डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी के 55.01 वर्ग किलोमीटर घास के मैदान खत्म हो गए हैं।
  • ये घास के मैदान दुर्लभ बंगाल फ्लोरिकन और स्थानीय स्वैम्प ग्रास बब्लर का घर हैं। घास के मैदान कम होने से इन पक्षियों का खतरा मंडरा रहा है।
  • अध्ययनों के मुताबिक, बाढ़, सिल्ट जमा होने, भूक्षरण होने और अन्य इंसानी गतिविधियों की वजह से घास के मैदान कम होते जा रहे हैं।
  • कुछ ऐसी प्रजातियां जिन्हें खास तरह की जगहों की जरूरत होती हैं, वे बदलाव के प्रति बेहद संवेदनशील होती हैं क्योंकि अपने निवास स्थलों पर अचानक होने वाले बदलावों के प्रति वे खुद को ढाल नहीं पाती हैं।

जून की उमस भरी दोपहर में ऊपरी असम के धेमजी जिले के जोनाई शहर के बाहरी इलाकों में बाढ़ का सर्वे करते हुए नामाश पसार ने बढ़ते पानी में कुछ भटकता हुआ देखा। जब वह चीज पास आई तो उन्होंने पाया कि यह एक जीवित जानवर था। अपने साथ खड़े दो अन्य लोगों की मदद से नामाश ने उसे बह जाने से बचा लिया। वह उसे वन विभाग के स्थानीय अधिकारियों के पास ले गए और प्राथमिक उपचार कराया। बाद में इसे बंगाल फ्लोरिकन पक्षी (Houbaropsis bengalensis) के रूप में पहचाना गया और स्थानीय तौर पर इसे उलुमोरा कहा जाता है।

नामाश पसार आदिवासी छात्रों के एक संगठन और मिसिंग समुदाय के सामाजिक संगठन टाकम मिसिंग पोरिन केबांग (TMPK) के पदाधिकारी हैं। वह कहते हैं, ‘यह एक वयस्क उलमोरा था जो तैरकर अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहा था। संभवत: यह पास की डेइंग एरिंग वाइल्डलाइफ सैंक्चरी की चपोरी (नदी का टापू) से यहां आ गया होगा। इस पक्षी के पंखों और पैरों पर चोट लगी थी। हमने उसे सावधानीपूर्वक पानी से निकाला और उसे वन विभाग के दफ्तर ले गए।’

मानस नेशनल पार्क में उड़ता एक बंगाल फ्लोरिकन (नर)। तस्वीर- ज्योतिर्मय बैश्य/विकिमीडिया कॉमन्स।
मानस नेशनल पार्क में उड़ता एक बंगाल फ्लोरिकन (नर)। तस्वीर– ज्योतिर्मय बैश्य/विकिमीडिया कॉमन्स।

काफी भारी भरकम मॉनसून आ चुका है और जून के आखिर तक आसपास की नदियों में बाढ़ आ जाएगी और बंगाल फ्लोरिकन पक्षियों के घरों में पानी भर जाएगा। IUCN की रेड लिस्ट के डेटा के मुताबिक, बंगाल फ्लोरिकन गंभीर रूप से लुप्तप्राय पक्षी है। अब इस तरह के 1000 से भी कम पक्षी बचे हैं।

स्थानीय तौर पर शरणार्थी

अरुणाचल प्रदेश में डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी इकलौता संरक्षित स्थल है जहां यह दुर्लभ पक्षी पाया जाता है। पूर्वी सियांग जिले में स्थित इस सैंक्चरी का क्षेत्रफल लगभग 190 वर्ग किलोमीटर का है। इसमें घास के मैदान, वेटलैंड, दलदल और छोटे-छोटे जलीय वन मौजूद हैं। जहां सियांग नदी और उसकी सहायक नदियां ब्रह्मपुत्र से मिलती हैं वहां कई चपोरी भी मौजूद हैं।

इस सैंक्चरी का नाम स्थानीय आदि समुदाय की अहम प्रशासनिक और राजनीतिक शख्सियत के नाम पर रखा गया है और यह एक इम्पोर्टेंट बर्ड एरिया (IBA) है। इस सैंक्चरी का ज्यादातर हिस्सा यानी लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा नरकटों और घास से भरा हुआ है जिसकी वजह से यह बंगाल फ्लोरिकन के लिए एक आदर्श निवास स्थल बन जाता है। यह लंबा सा पक्षी देश के सब-हिमालयन घास के मैदानों वाले ईकोसिस्टम का स्थानीय पक्षी है। खेती वाली जमीन का विस्तार होने से भारतीय महाद्वीप में इस पक्षी की संख्या बहुत कम हो गई है। एक समय ऐसा भी था जब बांग्लादेश में नदी के तटों वाले इलाकों में भी ये पक्षी रहते थे लेकिन इंसानी गतिविधियों के चलते इन पक्षियों के निवास स्थल खत्म होते गए और ये पक्षी लुप्त होते गए।

डेइंग एरिंग में पक्षियों के ऊपर कुछ स्टडी ही की गई हैं जिसके चलते बहुत कम डेटा उपलब्ध है। अरुणाचल प्रदेश की राजीव गांधी यूनिवर्सिटी में जूलॉजिस्ट डेनियल मिजे ने साल 2014 में इस सैंक्चरी में एविफॉनल विविधता पर एक स्टडी की। इस स्टडी में कुल 55 प्रजातियों को दर्ज किया गया जिसमें से 9 पर खतरा था और 3 लुप्त होने की कगार पर थीं।

अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी सियांग जिले में मौजूद डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी एक एम्पोर्टेंट बर्ड एरिया है और कुल 190 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।
अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी सियांग जिले में मौजूद डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी एक एम्पोर्टेंट बर्ड एरिया है और कुल 190 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।

साल 2016 में करवाए गए एक सर्वे में डेइंग एरिग में कुल 29 नर बंगाल फ्लोरिकन पक्षी पाए गए। साथ ही, यह अनुमान लगाया गया कि सैंक्चरी में 60 से 70 बंगाल फ्लोरिकन पक्षी मौजूद होंगे। इसकी वजह से यह इस प्रजाति के लिए बेहद अहम संरक्षण स्थल हो जाता है।

स्वैम्प ग्रास बब्लर (Laticilla cinerascens) एक और स्थानीय पक्षी है जो सैंक्चरी में पाया गया। IUCN की लिस्ट के मुताबिक, हाथ न आने वाले इस पक्षी की प्रजाति संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल है। अब यह पक्षी गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों की कुछ जगहों पर ही सीमि रह गए हैं। बर्ड लाइफ इंटरनेशनल के मुताबिक, इनके निवास स्थल खत्म होने की वजह से इस प्रजाति के पक्षियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। साल 2019 में डेइंग एरिंग में स्वैंप ग्रास-बब्लर पर की गई स्टडी के मुताबिक, यह पाया गया है कि अगर इन्हें बचाना है तो सैंक्चरी के घास के मैदानों के ईकोसिस्टम की सेहत बरकरार रखनी होगी।

नदियां खत्म कर रही हैं घास के मैदान

इस संरक्षित क्षेत्र में मौजूद रेत के मैदान और वेटलैंड में एशियाई हाथी और एक समय पर सांस्कृतिक रूप से काफी अहम माने जाने वाले और एक समय पर देशव्यापी रही जंगली जलीय भैंसों (Bubalus arnee) का घर हैं। टाइगर और तेंदुओं की तरह यह प्रजाति भी संकट से जूझ रही है।

सैंक्चरी में मौजूद वर्षा वनों में भी कम संख्या हूलॉक लंगूर पाए जाते हैं। ये पेड़ों पर रहने वाली ऐसी प्रजाति हैं जो जंगलों के कटने के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं।

साल 2023 में जर्नल ऑफ अप्लाइड एंड नेचुरल साइंस में छपी एक स्टडी में पाया गया कि पिछले 10 सालों (2012-2022) में डेइंग एरिंग में 55.91 वर्ग किलोमीटर घास के मैदान सियांग और सिबिया नदियों के चौड़े होने की वजह से कम हो गए हैं।

पहले जहां घास के मैदान 84.50 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए थे, वहीं 2022 में ये सिर्फ 28.59 वर्ग किलोमीटर तक ही सीमित रह गए। इस स्टडी में यह भी सामने आया कि घास के मैदान तेजी से कम होने की वजह से रेत के मैदान बढ़ गए हैं और अब ये 25.25 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 65.19 वर्ग किलोमीटर तक हो गए हैं और इससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।

डेइंग एरिंग वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में घास से घिरा नदी का एक टापू। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।
डेइंग एरिंग वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में घास से घिरा नदी का एक टापू। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।

साल 2015 में हुई एक स्टडी के मुताबिक, ऊपरी ब्रह्मपुत्र के मैदानों में घास के मैदान तेजी से कम होते जा रहे हैं। स्टडी के सह लेखक और असम की कॉटन यूनिवर्सिटी में एन्वायरनमेंटल बायोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ साइंसेज के असिस्टेंट प्रोफेसर नबजीत हजारिका कहते हैं कि लैंड कवर में बदलाव की प्राथमिक वजह बाढ़, भूक्षरण और सिल्ट जमा होने के साथ-साथ खेती का विस्तार और अन्य इंसानी गतिविधियां हैं।”

नबजीत हजारिका ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “इस क्षेत्र में जनसंख्या बढ़ने के साथ ही इंसानी गतिविधियां डूब क्षेत्र में भी होने लगी हैं और भविष्य में इसके लगातार बढ़ने की उम्मीद भी है। इंसानी गतिविधियां और हस्तक्षेप बढ़ने की वजह से पहले से ही खतरे में चल रहे पारिस्थितिकी तंत्र को और भी ज्यादा खतरा होता जा रहा है।”

कटाव और बाढ़

43 साल के किसान नबीन बोरी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि कुछ साल पहले सैंक्चरी के पास नदी के टापू पर मौजूद उनका एक घर कटाव में बह गया। ब्रह्मपुत्र नदी के तेज बहाव में नबीन बोरी की 5 बीघा यानी लगभग 1.3 एकड़ जमीन बह गई।

भारत ने पूर्वोत्तर के राज्यों और खासकर अरुणाचल प्रदेश में पिछले सकुछ सालों में आधारभूत ढांचों का जबरदस्त विकास हो रहा है। इसमें कनेक्टिविटी और हाइड्रोपावर प्रोडक्शन से जुड़े प्रोजेक्ट शामिल हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि खेती का विस्तार हुआ है और जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि खराब मौसम की घटनाओं जैसे किए बादल फटना या तेज बाढ़ और हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के बांधों की वजह से आने वाली बाढ़ की वजह से डेइंग एरिंग जैसी सैंक्चरी की वजह से स्थानीय प्रजातियों के असतित्व को खतरा पैदा हो रहा है। बता दें कि डेइंग एरिंग ब्रह्मपुत्र नदी के निचले इलाकों में स्थित है। इस नदी को चीन में यारलांग सांगपो कहा जाता है।


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अरुणाचल प्रदेश में दुर्लभ ब्लैक नेक्ड क्रेन (Grus nigricollis) के निवास स्थलों का अध्ययन करने वाली और पहले वर्ल्ड वाइल्डलाइफ (WWF) के साथ काम कर चुकीं तितास चौधरी कहती हैं कि इन एकांत वाले निवास स्थलों में रहने वाली जंगली प्रजातियों पर बुरा असर इसलिए पड़ता है क्योंकि वे बदलावों के प्रति खुद को आसानी से ढाल नहीं पाते हैं। वह आगे कहती हैं कि शहर में रहने वाला एक कौवा बदलावों के प्रति खुद को ढाल लेता है लेकिन दुर्लभ बंगाल फ्लोरिकन अपने निवास स्थलों में होने वाले बदलाव के प्रति ढल नहीं पाता है।

जोनाई के निवासी और 40 साल के TMPK के कार्यकर्ता पसार कटाव की वजह से खत्म हो रहे नदी के एक टापू की ओर इशारा करते हुए याद करते हैं कि उनके बचपन से लेकर अब तक बहुत कुछ बदला हैं। वह बताते हैं कि पहले जब वह छोटे थे तब बंगाल फ्लोरिकन यानी उलुमोरा को खूब देखा जाता था।

उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमने तेजी से खत्म होते जा रहे जंगली जानवरों और पक्षियों के संरक्षण के लिए कई तरह के जागरूकता अभियान चलाए। इन प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए हम अधिकतम यही कर सकते थे।”

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीरः डेइंग एरिंग मेमोरियल वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में नदी के एक टापू के किनारे कटाव रोकने के लिए लगाए गए कॉन्क्रीट के कंटीलेदार स्क्रीन। तस्वीर- ज्योतिर्मय सहारिया।

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