- राजस्थान के जैसलमेर जिले में किसान हजारों साल से बरसाती पानी का संग्रहण करके खेती करते आए हैं। पारंपरिक रूप से खेती करने की इस व्यवस्था को ‘खडीन’ कहते हैं। इसके जरिए किसानों को अपने खेतों की नमी बनाने में काफी मदद मिलती है।
- हालांकि, पिछले कुछ दशकों से कई किसान खेती करने के लिए नहर सिंचाई की तरफ चले गए हैं। उन्होंने खड़ीन खेती को छोड़ दिया है। खड़ीन के साथ-साथ वर्षा जल संचयन का पारंपरिक ज्ञान भी खत्म होता जा रहा है।
- जैसलमेर में स्थानीय आदिवासी समुदाय और किसान अब जैव विविधता की सुरक्षा करने और किसानों को पानी के लिए पलायन करने से रोकने के लिए सैकड़ों खड़ीनों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं।
“मान लो, आपकी हथेली जैसलमेर का कोई इलाका है और आपकी हथेली के बीच तक पहुंचने वाली ढलान खड़ीन है।” आसान से शब्दों में खड़ीन का मतलब समझाते हुए किसान छतर सिंह ने कहा। वह मोंगाबे-इंडिया को बता रहे थे कि पश्चिमी राजस्थान की पारंपरिक वर्षा जल संचयन प्रणाली कैसे काम करती है।
राजस्थान के जैसलमेर जिले की सूखी जमीन दूर से सपाट नजर आती है। सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टिट्यूट की मानें तो जिले में वार्षिक औसत वर्षा सिर्फ 217.12 मिमी है। जिले के पश्चिमी छोर का हाल तो और भी बुरा है। यहां साल भर में 100 मिमी से भी कम बारिश दर्ज की गई है। कह सकते हैं कि जैसलमेर के शुष्क इलाकों में अधिकांश फसलों की पानी संबंधी जरूरतें सिर्फ मानसून की बरसात से पूरी नहीं की जा सकती है। इसलिए किसान हजारों सालों से एक पारंपरिक तकनीक से सीमित वर्षा जल का संचयन करते आए हैं। इस व्यवस्था के जरिए उन्हें अपने खेतों की सिंचाई करने में मदद मिलती है। रेगिस्तान की इस प्राचीन सिंचाई व्यवस्था को खड़ीन कहा जाता है। खड़ीन की वजह से किसान इस शुष्क इलाके में भी गेहूं, चना, सरसों और सब्जियां और फल जैसी फसलें उगा पाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि खड़ीन शब्द संस्कृत के ‘खड्ड’ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है ‘जमीन में बना एक गड्ढा’। CAZRI, जोधपुर में प्रिंसिपल साइंटिस्ट महेश कुमार गौड़ बताते हैं, “जब बारिश होती है तो ऊपर ढलान से होते हुए पानी इस गड्ढेनुमा जमीन में जाकर जमा हो जाता है।”
मानसून की शुरुआत से ठीक पहले, तेज रेतीली आंधियों के कारण कुछ स्थानों पर रेत जमा हो जाती है। किसान खडीन बनाने के लिए निचली जमीन पर इसी रेत से तटबंध बनाते हैं। जब बारिश आती है, तो ये तटबंध चैनलाइज हो जाते हैं और पानी जमा करने में मदद करते हैं। बारिश का पानी लबालब भर जाता है और जमीन से एक से 10 मीटर नीचे तक रिसता है। इसमें 1.5 से दो महीने लग जाते हैं। ऊपर की जमीन कीचड़ से भर जाती है। फिर इसी कीचड़ वाली जमीन में फसलों के लिए नए बीज बोए जाते हैं।
स्थानीय समुदायों ने बताया कि खड़ीन को कभी भी कृत्रिम रूप से सिंचित नहीं किया जाता है। यह काम बादल अकेले ही करते हैं। किसानों का यह भी दावा है कि उन्होंने खडीन खेती में कभी भी रासायनिक उर्वरक या यूरिया का इस्तेमाल नहीं किया है। उनकी उपज जैविक होती है।
खड़ीनों का इतिहास और संस्कृति
जैसलमेर में खड़ीनें हजारों बीघे (राजस्थान में एक बीघे = 0.62 एकड़) तक में फैली हो सकती हैं। लाणेला, सबसे बड़ी खड़ीनों में से एक है, जो 3,000 बीघे में फैली हुई है। एक दर्जन से अधिक गांवों के किसान एक साथ यहां फसल उगाते हैं। इसी तरह पश्चिमी जैसलमेर की एक खड़ीन ‘जजिया’ हजारों बीघे में फैली है। हालांकि कुछ खड़ीन छोटी भी होती हैं, जैसे बड़ा बाग खड़ीन (100 बीघे)। इसका संबंध जैसलमेर के शाही परिवार से है।
स्थानीय संरक्षणवादी पार्थ जगानी ने कहा, “14वीं और 15वीं शताब्दी में खड़ीनों में उस समय बड़ा उछाल देखा गया था, जब पाली और मारवाड़ जैसे समुदायों ने इस इलाके की ओर रुख किया था। उन्होंने या तो मौजूदा खड़ीनों को पुनर्जीवित किया या नई खड़ीनों का निर्माण किया।” जगानी बड़ा बाग खड़ीन के पूर्व कार्यवाहक रह चुके हैं।
राजस्थान सरकार के सिंचाई विभाग के पूर्व अधिकारी ओ. पी. माली कहते हैं, “जैसलमेर में 650 से अधिक खड़ीनें हैं। लेकिन मौजूदा समय में ये सभी काम नहीं कर रही हैं।”
लेकिन कोई कैसे पहचाने कि जमीन के किस हिस्से को खड़ीन में बदला जा सकता है?
सिंह जवाब देते हैं, ”जमीन ही हमें वह संदेश देती है। साथ ही, जंगली ऊंट भी उस प्रक्रिया में मदद करते हैं। वे जानते हैं कि अच्छी खुशबू वाले पौधे कहां मौजूद हैं और जब हम उनका पीछा करते हैं, तो हम उस उपजाऊ जमीन तक पहुंच जाते हैं। उन्होंने कहा, जिस जगह पर स्थानीय पौधें बिना इंसानी मदद के प्राकृतिक तौर पर उगते हुए पाए जाते हैं, तो इसका मतलब है कि भूमि पहले से ही उपजाऊ है और इसका इस्तेमाल खड़ीन बनाने के लिए किया जा सकता है।
खड़ीन में फसल उगाने के लिए समुदाय के सदस्य मिलकर बीज बोने, फसल की रखवाली करने और कटाई का काम करते हैं। कुछ किसान फसलों की सुरक्षा के लिए फसल कटाई के समय तक खड़ीन को ही अपना घर बना लेते हैं।
सबसे पहले अनाज की एक मुट्ठी देवताओं को भेंट की जाती है और उसके बाद का हिस्सा विधवाओं, बुजुर्गों, विकलांगों और अन्य कमजोर तबके के लोगों को दिया जाता है। किसान मोंगाबे-इंडिया को बताते हैं कि वे बाजार में अपनी उपज नहीं बेचते हैं, जब तक की कोई बड़ी जरूरत न हो। फसल खुद के खाने के लिए उगाई जाती है, जिसे सभी किसान आपस में मिलकर बांट लेते हैं। वास्तव में समुदाय के सदस्यों के बीच साझा करने के लिए फसल का एक निश्चित प्रतिशत तय किया जाता है और यह प्रतिशत एक खड़ीन से दूसरे खड़ीन में अलग-अलग हो सकता है।
खडीनों का जल-भूविज्ञान पानी के रिसाव में मदद करता है। यहां कि चट्टानों का निर्माण 252-66 मिलियन वर्ष पूर्व मेसोज़ोइक युग में हुआ था। ग्रेनाइट, जिप्सम और अन्य सेमी-पोरस पत्थर बारिश के पानी को अधिक गहराई तक नहीं जाने देते, जिससे जड़ों और पानी के बीच का अंतर कम हो जाता है।
जल संसाधन मंत्रालय, केंद्रीय भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “स्थिर जल स्तर की स्थिति मिट्टी के तलछटों और कंकरों में उथली गहराई पर होती है जो वर्षा के पानी को रोकती है।”
जब पानी अधिक ऊंचाई से बहता है, तो यह अपने साथ गाद (खाद से भरपूर) की एक परत लेकर आता है जो खड़ीनों को कंबल की तरह ढक देती है और वाष्पीकरण को कम कर देती है। पौधों की जड़ों का जाइलम रिसते भूमिगत जल से पोषक तत्व और अन्य खनिज लेता है।
CAZRI के गौड़ ने कहा, “मेरा मानना तो यही है कि खड़ीन में गेहूं और सरसों के अलावा, अनार और अन्य फलियों जैसी फसल उगाने के लिए भी किसानों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। उन्हें जलवायु संकट के अनुकूल ढलने के लिए भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिसकी वजह से फसल प्रभावित हो रही है।”
वैटलैंड्स और पेयजल स्रोत के रूप में खड़ीन
मानसून के दौरान खड़ीनें प्राकृतिक आर्द्रभूमि यानी वैटलैंड्स बन जाती हैं। और शीतकालीन प्रवासी पक्षी उस जगह को अपना अस्थायी घर बना लेते हैं। संरक्षणवादी जगनी ने सिर्फ बड़ा बाग में ही 138 से अधिक पक्षियों की प्रजातियों की गिनती की है, जिनमें पेंटेड स्टॉर्क, डेमोइसेल क्रेन, कॉमन क्रेन, बार-हेडेड गीज, नॉब-बिल्ड डक और लेसर व्हिसलिंग डक आदि शामिल हैं। उन्होंने तितलियों की 38 प्रजातियां और मधुमक्खियों की चार प्रजातियों को भी यहां नोट किया है।
बेर (जिजिफस मॉरिटियाना), खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरिया) और देसी बबूल (अकेसिया निलोटिका) इस खड़ीन में पाए जाने वाले तीन मुख्य पेड़ हैं। जगनी कहते हैं, “हमारे पास आम, जामुन, मौलसरी और अन्य पेड़ भी हैं। इसके अलावा, फलीदार पेड़ खड़ीनों को नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने में मदद करते हैं।”
खड़ीन गांवों के लिए पीने के पानी की उपलब्धता का भी अभिन्न हिस्सा है। इन खड़ीनों में बैरी या छोटे कुएं खोदे जाते हैं और प्रत्येक खड़ीन में कई बैरियां हो सकती हैं। लानेला खड़ीन में काम करने वाले किसान प्रेम ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “फसल के समय लगभग 3,000 से 4,000 लोग इन बैरियों का पानी पीते हैं।”
बुनियादी ढांचे के विकास का असर
हालांकि, खड़ीन भी देश में अन्य आर्द्रभूमियों की तरह खतरे का सामना कर रही हैं। जैसलमेर का एक बड़े भाग में अब नहर से सिंचाई की जाती है। सरकार की जनगणना ने अनुमान लगाया था कि इंदिरा गांधी नहर के निर्माण के साथ ही “इस रेगिस्तानी क्षेत्र में अर्थव्यवस्था का मौजूदा पैटर्न पूरी तरह से बदल जाएगा।” शुरुआत में इसे राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था और यह भारत की सबसे लंबी (625 किलोमीटर) नहर है।
सिंह बताते हैं, “नहर ने वास्तव में इस क्षेत्र को बदल दिया, लेकिन इससे खडीनों को कोई फायदा नहीं हुआ। इसने राजस्थान के कई इलाकों में पानी पहुंचा दिया। इसकी वजह से किसान परंपरागत खडीनों को छोड़कर नहरों से सिंचाई की ओर पलायन कर गए। नहर सिंचाई से उन्हें बेहतर फसल मिल रही है।”
वह मोंगाबे-इंडिया को बताते हैं, “पहले तो लोगों ने खड़ीन खेती करनी छोड़ दी और फिर उसके बाद पत्थर-खनन शुरू हो गया। इसकी वजह से जल निकायों का जलग्रहण क्षेत्र बदल गया। इस तरह से खड़ीनें नष्ट हो गईं। उनके तटबंध (धौरा या बांध) टूट गए, चैनल (नालियां) बंद हो गए और ये ज्ञान सिर्फ कुछ पीढ़ी तक ही सिमट कर रह गया। ”
इस जगह पर चने की खेती करने वाले चिंतित किसान मनोहर सिंह ने कहा, जजिया खड़ीन अगले दशक तक ही जीवित रह पाएगी, क्योंकि इसका जलग्रहण क्षेत्र पहले ही खनन के लिए आवंटित किया जा चुका है। वह आगे कहते हैं, “किसी तरह पानी इस खड़ीन तक पहुंचने का रास्ता ढूंढ रहा है, लेकिन प्रवाह प्रभावित हो रहा है। वर्षा जल को खडीन के अंतिम छोर तक पहुंचने में मुश्किल हो रही है। यह बीच में कहीं रुक जाता है, जिससे खेती पर असर पड़ता है।”
भारत सरकार ने अपनी आखिरी जनगणना रिपोर्ट में कहा था, जिले में “किसी भी बड़े पैमाने पर सिंचाई अव्यावहारिक है। लेकिन छोटी सिंचाई उन टैंकों से संभव है जिन्हें स्थानीय रूप से ‘खडीन’ के नाम से जाना जाता है। यहां बरसात के मौसम में वर्षा जल अपने जलग्रहण क्षेत्रों से इन खड़ीनों में बहता है।”
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 के दौरान सात खड़ीनों का निर्माण या नवीनीकरण किया गया था। लेकिन ये बात समझ में आनी चाहिए कि खड़ीन कोई छोटा “टैंक” नहीं है। यह भूमि का एक बड़ा क्षेत्र है जहां पानी का संचयन किया जाता है और फसलें उगाई जाती हैं।
2010-11 में नहरों से सिंचित शुद्ध क्षेत्र 58,860 हेक्टेयर था, जबकि उसी वर्ष कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र 42,469 हेक्टेयर था। हालांकि कुओं से सिंचित क्षेत्र में खड़ीन से सिंचाई भी शामिल है। लेकिन आंकड़े ये नहीं बताते हैं कि खड़ीनों द्वारा कितने प्रतिशत क्षेत्र की सिंचाई की गई है। वर्ष 2008-09 से 2010-11 में जिले का कुल क्षेत्रफल 3,839,154 हेक्टेयर था। यह 38,401 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। लेकिन इसमें भी खडीनों के कब्जे वाला क्षेत्र दर्ज नहीं है।
माली ने बताया, 2005 के बाद से खड़ीनों के पुनरुद्धार की दिशा में कोई योजना नहीं बनाई गई है। वह आगे कहते हैं, “कुछ अन्य रोजगार योजनाओं जैसे कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार सृजन योजना (एमजीएनआरईजीएस) के जरिए लोगों को खडीनों में काम करके एक छोटी राशि प्राप्त हुई होगी, लेकिन सरकार ने खडीनों को बहाल करने, पुनर्निर्मित करने या पुनर्जीवित करने के लिए अब तक कुछ भी ठोस नहीं किया है।”
एक प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना
हर नई पीढ़ी के साथ यह प्राचीन व्यवस्था कहीं पीछे छूटती जा रही है,क्योंकि पिछली पीढ़ी से उन्हें खड़ीन के बारे में बहुत कुछ सीखने को नहीं मिल पाता है। फिर 40 साल पहले छतर सिंह ने खड़ीनों को पुनर्जीवित करने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया। और तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। स्थानीय समुदायों के सहयोग से उन्होंने बड़ा बाग सहित सैकड़ों खड़ीनों को पुनर्जीवित करने में मदद की है।
छतर सिंह और अन्य किसानों का कहना है, ”हम विकास का विरोध नहीं करते हैं, लेकिन ये कभी भी स्वदेशी जीवन शैली की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि यहां हुआ है।”
और पढ़ेंः [वीडियो] राजस्थानः बारिश की बूंद बचाकर हजारों परिवार ने पाई लोहे तक को गला देने वाले पानी से निजात
सिंह और उनकी टीम पहले बड़ी खड़ीनों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती है। शहर से लगभग 70 किलोमीटर दूर एकलपार के भील जनजाति के किसान रागा राम मोंगाबे-इंडिया को बताते हैं, “जब पानी एक हिस्से से दूसरे हिस्सें में बहता है, तो ऐसा लगता है जैसे सांप चल रहा हो।”
हाल के दिनों में भील जनजाति खडीनों को पुनर्जीवित करने के लिए छतर सिंह की मदद कर रही है। भील जनजाति के एक अन्य किसान गाज़ी राम कहते हैं, “हम काम के लिए पलायन नहीं करना चाहते थे और सिंह ने हमें अपनी और पर्यावरण दोनों की मदद के लिए खड़ीनों को पुनर्जीवित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, हमने इन खड़ीनों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया।”
तेज गर्मी वाले दिनों में जैसलमेर में रेत पानी की तरह बहता है और खड़ीन के सही ढंग से काम करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उसका किनारा है। बहती रेत से बना तटबंध (बांध) मजबूत होना चाहिए। खड़ीन पुनर्जीवन करने वाले लगभग 4.5 फीट ऊंची कंक्रीट की दीवार बनाते हैं; इस दीवार को स्थानीय तौर पर पंखा के नाम से जाना जाता है। यह बांध की रक्षा करता है। पंखा से सटी एक और छोटी दीवार होती है, जिसे चादर (धौरा या बांध से छोटी) कहते हैं। यहां से पानी अगले हिस्सों में प्रवेश करने के लिए निकलता है।
200 से अधिक बैरियों को पुनर्जीवित किया गया है। इनमें अब साल भर पीने का पानी उपलब्ध रहता है। इन कुओं में जमीन के दो से 20 फीट नीचे पानी जमा होता है। इस पानी को स्थानीय तौर पर रेजवानी पानी या छिपा हुआ पानी कहा जाता है। कई अन्य कुओं (बैरियों के अलावा), बड़े तालाबों और झीलों (पालर पानी) को भी साफ और पुनर्जीवित किया गया है।
अपने से भी लंबे सरसों के पौधों से भरी पुनर्जीवित खड़ीनों में चलते हुए छतर सिंह गर्व से कहते हैं, “इस साल हम जैसलमेर में 40 और खड़ीनों को पुनर्जीवित करेंगे। इसके लिए काम पहले से ही चल रहा है।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: छतर सिंह ने स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जैसलमेर में सैकड़ों खड़ीनों को पुनर्जीवित करने में मदद की है। तस्वीर- अमीर मलिक/मोंगाबे