- पूर्वी घाट के एक अध्ययन से पता चलता है कि कुछ सवाना पारिस्थितिक तंत्रों में देसी घास का तेजी से फैलना एक भू प्रबंधन समस्या है।
- क्षेत्र में आद्र सवाना पारिस्थितिकी तंत्र को पुरानी स्थिति में बहाल करने के लिए घास को लगातार काटना और आग पर नियंत्रण एक तत्काल समाधान माना गया है।
- अध्ययन के मुताबिक इस क्षेत्र के रखरखाव में स्थानीय समुदायों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
पूर्वी घाट के एक अध्ययन में मेसिक सवाना पारिस्थितिकी तंत्र में तेजी से फैल रही देसी सिम्बोपोगोन घास (लेमनग्रास) को लेकर चिंता जाहिर की और पारिस्थितिक तंत्र को पुरानी स्थिति में बहाल करने के तरीकों और नियंत्रण उपायों की पड़ताल भी की। अध्ययन का मानना है कि जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को संरक्षित करने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी है।
तेजी से फैलने वाले पौधों या आक्रामक प्रजातियों के बारे में जब भी चर्चा की जाती है तो जिक्र सिर्फ विदेशी प्रजातियों का ही होता है। लेकिन अध्ययन से पता चलता है कि सिम्बोपोगोन जैसी देसी घासों का किसी क्षेत्र पर हावी होना असामान्य नहीं है। जानवर इस घास को पसंद नहीं करते हैं और साथ ही ये अन्य स्वादिष्ट घासों के उगने नहीं देती है। और जब ऐसा होता है तो उस क्षेत्र में मवेशियों और शाकाहारी जानवरों के बने रहने की बहुत ही कम गुंजाइश बचती है।
सिंबोपोगोन एक C4 घास या गर्म मौसम की घास है जिसे उगने के लिए भरपूर धूप की जरूरत होती है। इस घास में गर्मी और आग को झेलते हुए फिर से पनपने की क्षमता भी है। घास में तेल होता है और ऐसी ज्वलनशील घास के तेजी से फैलाव की वजह से बार-बार बड़ी आग लग सकती है। ये जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अनुकूल नहीं है।
भारत और जर्मनी के वैज्ञानिकों ने मिलकर इस अध्ययन को किया और घास पर नियंत्रण लगाने के लिए बेहतर रणनीतियों की पड़ताल भी की।
भूमि के इस्तेमाल में बदलाव से प्रभावित पारिस्थितिकी तंत्र
सवाना जैसे खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र अपने आप में अनोखे हैं। हालांकि ये विशिष्ट जैव विविधता को आश्रय देते हैं लेकिन फिर भी उपेक्षित हैं। उन्हें अक्सर खराब जंगलों या मौसमी शुष्क उष्णकटिबंधीय जंगलों के रूप में देखा जाता है। पेपर में कहा गया है कि सवाना पारिस्थितिकी तंत्र भारत में दस लाख वर्षों से अधिक समय से अस्तित्व में है। विविध और स्थानिक सी4 घासों के जीवाश्म और सबसे सूक्ष्म साक्ष्यों से इस बात का संकेत मिलता है कि इसका अस्तित्व भूदृश्य में किसी भी मानवीय परिवर्तनो से पहले का है। सुरक्षा न दिए जाने के कारण इस क्षेत्र को इंसानो की वजह से काफी नुकसान झेलना पड़ा है।
यह अध्ययन आंध्र प्रदेश के चित्तूर और मदनप्पल्ले में मेसिक सवाना घास के मैदानों में किया गया था। इस क्षेत्र में सिंबोपोगोन घास की प्रजातियां प्रमुख रूप से पाई जाती हैं। सिम्बोपोगोन घास का तेजी से फैलाव हाल के भू प्रबंधन में हुए बदलाव की वजह से हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि 1987 से पहले पूर्वी घाट में स्थानीय समुदाय अपनी झोपड़ियों की छत बनाने के लिए सिंबोपोगोन घास की कटाई करते थे। बार-बार लगने वाली आग और समय-समय पर की जाने वाली कटाई ने इसके बढ़ने पर काफी हद तक रोक लगाई हुई थी। और यही वजह थी कि इस क्षेत्र में पशुओं के खाने के लिए स्वादिष्ट घास उपलब्ध थी। लेकिन 80 के दशक के उत्तरार्ध में इस घास की कटाई में गिरावट आई और फूस की झोपड़ियों की जगह ईंटों और गारे के घरों ने ले ली। पेपर में लिखा था, चरवाहों को अब भी याद है कि पहले इस क्षेत्र में सिंबोपोगोन घास काफी कम हुआ करती थी। जबकि पशुओं के लिए स्वादिष्ट चारा अधिक मात्रा में मौजूद था।
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अध्ययन स्थानीय आबादी और मवेशियों की संख्या में वृद्धि की ओर भी इशारा करता है, लेकिन बड़े पैमाने पर भेड़ और बकरियां इस घास को खाना पसंद नहीं करती है। नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज में वन्यजीव जीवविज्ञान और संरक्षण कार्यक्रम की निदेशक जयश्री रत्नम ने कहा, “इस प्रजाती को आमतौर पर सिर्फ घास खाने वाले बड़े जानवर जैसे गौर और मवेशी ही खाते हैं। लेकिन ये जानवर भी इसे तभी खाते हैं जब घास की पत्तियां मुलायम,ताजी और छोटी होती हैं। जब ये घास बढ जाती हैं, तो उनकी पत्तियों को ये जानवर भी खाना पसंद नहीं करते हैं।” रत्नम ने सवाना घास के मैदानों का बड़े पैमाने पर अध्ययन किया है।
अध्ययन ने इस घास से छुटकारा पाने के लिए तीन अलग-अलग रणनीतियों का पता लगाया। इसमें से एक रणनीति सिंबोपोगोन घास और आग दोनों पर नियंत्रण करने को लेकर थी, तो वहीं दूसरी रणनीति में आग की घटनाओं को रोकने की बात कही गई। तीसरी रणनीति में घास को हाथ से हटाने और आग को रोकने के प्रयासों का जिक्र किया गया। अध्ययन में पाया गया कि स्वादिष्ट जड़ी-बूटी वाले पौधों के बायोमास और प्रजातियों की विविधता के महत्वपूर्ण विकास के लिए घास को हटाना और आग को रोकने के प्रयास दोनों जरूरी थे।
भूमि प्रबंधन रणनीति के रूप में आग पर नियंत्रण किया गया
आग का लगना सवाना के प्रबंधन का एक अभिन्न हिस्सा है। आद्र पारिस्थितिक तंत्रों में नमी बायोमास को कम कर देती है, तो वहीं इसके विपरीत सवाना जैसे शुष्क पारिस्थितिक तंत्र बायोमास को पुनर्चक्रित करने के लिए आग पर निर्भर करते हैं। पेपर के लेखक सी.एस. सनीश ने कहा, “इन क्षेत्रों में सबसे अधिक वार्षिक वर्षा लगभग 500 मिमी होती है। वर्षा भी अनियमित है। बायोमास को खत्म करने के लिए कभी भी पर्याप्त वर्षा नहीं होती है। इसलिए आग एक जरूरी हिस्सा है।” इन पारिस्थितिक तंत्रों में आग पर नियंत्रण बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि संभावित फायर रेजिमेन (समय-समय पर आग लगने का सामान्य पैटर्न) स्वस्थ घास की किस्म और उन पर निर्भर प्रजातियों को बढ़ावा देता है।
पेपर निश्चित अंतरालों में आग पर नियंत्रण का तर्क देता है जो अब प्रसंगिक नहीं है। “हमने पाया कि आमतौर पर हर 1.7 साल के अंतराल पर आग लगती है। मेरे कुछ अध्ययन क्षेत्रों में एक वर्ष के भीतर आग लगने की दो घटनाएं भी हुईं, जो आदर्श नहीं है।” सनीश के मुताबिक, मुख्य निष्कर्ष यह है कि अगर इस क्षेत्र में डेढ़ या दो साल के लिए आग पर नियंत्रण रखा जाए और घास को काट कर हटा दिया जाए, तो स्वादिष्ट घास की प्रजाति में लगभग 90% तक की बढ़ोतरी हो जाएगी। हालांकि, लंबे समय के लिए आग लगने की घटनाओं का होना सवाना प्रबंधन के लिए जरूरी है। यह संभव है कि आगे बढ़ने वाला सबसे अच्छा प्रबंधन आग लगने के पुराने पैटर्न को वापस लाना होगा।
अध्ययन यह भी रेखांकित करता है कि घास को फैलने से रोकने में स्थानीय समुदाय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं। सनीश के मुताबिक, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जैसी सरकारी पहल के जरिए स्थानीय समुदायों को इस क्षेत्र के प्रबंधन के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
रत्नम ने बताया कि इन पारिस्थितिक तंत्रों के प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। क्षेत्र की स्थिति के आधार पर कटाई, आग पर नियंत्रण और मवेशियों से चराई जैसे कामों में उन्हें शामिल करके ऐसा किया जा सकता है।
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बैनर तस्वीर: अपनी बकरियों को चराने के लिए ले जाता हुआ एक चरवाहा। शुष्क क्षेत्रों में तेजी से फैलने वाली घास को कम करने में आग एक जरूरी भूमिका निभाती है। तस्वीर- सी.एस. सनीश