- साल 2018 में असम के ताई-खामयांग बौद्ध समुदाय ने लोगों की अगुवाई में एक ग्रामीण अभयारण्य, चाला विलेज सैंक्चरी स्थापित की। हाल ही में इस अभयारण्य को बड़ा किया गया है और इसमें 30 हेक्टेयर क्षेत्र जोड़ा गया है।
- इस ग्रामीण अभयारण्य और इसमें रहने वाले जानवरों का संरक्षण स्थानीय लोग सुनिश्चित करेंगे, जिसके बदले में उन्हें पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाएं मिलेंगी। इससे जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा।
- इस पहल की शुरुआत तब हुई जब एक समुदाय ने एक स्थानीय लता को संरक्षित करने की शुरुआत की। इस लता का इस्तेमाल प्राकृतिक डाई बनाने में किया जाता है जिससे निकलने वाले रंग से स्थानीय बौद्ध भिक्षुओं के कपड़े रंगे जाते हैं।
असम के चराईदेव जिले के चाला गांव में सफराई नदी के किनारे घोड़े के खुर के आकार में बना यह हरा-भरा जंगल 680 हेक्टेयर का है। यहीं पर एक 152 साल पुरानी आयताकार थेरवाड़ा बौद्ध मोनेस्ट्री है। यह मोनेस्ट्री कई प्राचीन पेड़ों के नीचे बसी हुई है। लगभग आधे दशक पहले मोनेस्ट्री के तत्कालीन मठाधीश सासनवामसा महाथेरा ने मन कि समय के साथ यह घना जंगल कम होता जा रहा है। जो पेड़ कम होते गए उसमें भुंगलोटी भी था जिससे थेरवाड़ा मोनेस्ट्री के बौद्ध संतों के कपड़ों को रंगने के लिए प्राकृतिक केसरिया रंग बनाया जाता है।
सफराई नदी के किनारे बसे ये जंगल भुंगलोटी के प्राकृतिक स्रोत रहे हैं। भुंगलोटी को कटहल के पेड़ की जड़ के साथ जब मिलाया जाता है तो प्राकृतिक केसरिया रंग की डाई बनती है। हर साल कथिना कार्यक्रम के दौरान बौद्ध संतों को इस डाई से रंगकर बनाए गए कपड़े दान किए जाते हैं। चाला गांव के ज्यादातर निवासी ताई-खामयांग समुदाय से हैं और वे थेरवड़ा बौद्ध समुदाय को मानते हैं। ये लोग इन पौधों के खत्म होने से चिंतित थे क्योंकि इससे प्राकृतिक डाई बनाई जाती है।
एक समय पर इस मॉनेस्ट्री में संत के रूप में रहे 70 साल के अनंत श्याम कहते हैं, “डाई बनाने की कला लगभग खत्म हो चुकी है। पहले लोग प्राकृतिक डाई से रंगकर बनाए गए कपडे़ संतों को दान में देते थे। अब प्राकृतिक रंग बनाने वाले पौधे ढूंढना ही मुश्किल हो गया है। अगर आपको यहां-वहां दो-चार पौधे मिल भी गए तो उनसे कपड़ों को रंगने भर की डाई नहीं बनाई जा सकती है।”
जब मॉनेस्ट्री के महंत महाथेरा भांटे से बात की गई तो उन्होंने भी यह बात उठाई। इस गांव के लोगों ने भी विचार किया कि बचे हुए जंगल को बचाए रखने के लिए उन्हें कुछ न कुछ करना होगा।
19 सितंबर 2018 को चाला गांव और उसके आसपास के स्थानीय लोगों ने गांव के किनारे स्थित तीन रिजर्व फॉरेस्ट को मिलाकर एक ग्रामीण अभयारण्य बनाने का फैसला लिया। स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों की मदद से इस समुदाय के लोगों ने 13 जनवरी 2019 को औपचारिक रूप से इस अभ्यारण्य की घोषणा की।
इस सैंक्चरी की देखरेख के लिए बनाई गई गांव समिति चाला विलेज सैंक्चरी कंजर्वेशन सोसायटी के सचिव प्योसेंग चोवलू कहते हैं, “इस तरह से चाला विलेज सैंक्चरी का गठन किया गया। इस पहल के बारे में खास यह है कि इसके प्रबंधन और संरक्षण का काम गांव वालों के पास ही है। यह गांववालों का ही जंगल है।”
असम की पहली ग्रामीण सैंक्चरी
सफराई नदी के शांत किनारे पर बसा चाला गांव एक दशक पहले तक जैव-विविधता से भरे हुए एक घने जंगल से घिरा हुआ था। यहां तक कि ताई-खामयांग समुदाय का शब्द ‘सुई ला’ का अर्थ ‘बाघ का घर’ होता है। चाला गांव के नाम की उत्पत्ति इसी शब्द से हुई है।
पेशे से शिक्षक चोउलू कहते हैं कि चाला ग्रामीण सैंक्चरी असम की अपने तरह की पहली सैंक्चरी है। वह कहते हैं, “जहां तक मैं जानता हूं पूरे राज्य में हमारी पहली ग्रामीण सैंक्चरी है।”
आज यह सैंक्चरी कई वन्य जीवों जैसे कि कैप्ड लंगूर (Trachypithecus pileatus), तेंदुआ (Panthera pardus) और पक्षियों जैसे कि ओरिएटंल पाइड हॉर्नबिल (Anthracoceros albirostris), हूपो (Upupa epops), एमराल्ड डव (Chalcophaps indica) और क्रेस्टेड सर्पेंट ईगल (Spilornis Cheela) को देखा जा सकता है। इसके अलावा, कठफोड़वा, तोते, जंगली मुर्गे, बुलबुल, नीलकंठ, मैना, थ्रस, बगुला, सारस और उल्लू जैसे पक्षियों के साथ-साथ सांप की प्रजातियां जैसे कि ग्रीन वाइपर (Trimeresurus albolabris), मोनोक्लेड कोबरा (Naja kaouthia) और मॉनिटर लिजार्ड (Varanus bengalensis) पाए जाते हैं। तितलियों का स्वर्ग होने के अलावा यह सैंक्चरी दुर्लभ और पोषणकारी पौधों जैसे कि Gnetum gnemon का भी घर है। इसके अलावा, 500 मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर पाए जाने वाले ऑर्किड की प्रजातियां जैसे कि Tainia penangiana भी यहां पाई जाती हैं।
इस सैंक्चरी के क्षेत्रफल को अब बढ़ाया गया है और इसमें 30 हेक्टेयर का क्षेत्र और शामिल कर लिया गया है। यहां गांव के लोग 20 हजार पौधे लगा चुके हैं।
चोउलू कहते हैं कि सामुदायिक स्तर पर वृक्षारोपण के प्रयासों का मकसद यह है कि गांव के लोग सैंक्चरी से पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएं ले सकें जैसा कि वे पीढ़ियों से करते आ रहे हैं और वह भी बिना जंगल को नुकसान पहुंचाए। वह कहते हैं, “गांव के लोग सब्जियां उगा सकते हैं और जंगल के खुले इलाकों में कम समय वाली खेती कर सकते हैं। इसके बदले में वे लंबे समय वाले वृक्षारोपण की मदद करते हैं और आसपास के इलाकों को पुनर्जीवित कर सकते हैं।”
ग्रामीण अभयारण्य का विचार असम की पारंपरिक पारंपरिक बारी एग्रोफॉरेस्ट्री सिस्टम से आया। बारी एग्रोफॉरेस्ट का एक ऐसा हिस्सा होता है जहां अपने आप उगने वाले पड़े होते हैं, बांस होते हैं, झाड़ियां होती हैं, कटहल, आम, नींबू, केला और अन्य फलों के पेड़ होते हैं। चाला ग्रामीण सैंक्चरी संरक्षण समिति के सदस्य अमृत श्याम कहते हैं, “यहां हर घर के पास मुख्य घर के बगल में एक बारी जंगल होता है। ऐसे में लोग जंगलों का ध्यान रखने में रुचि लेते हैं। इसलिए जब एक बार लोग सामुदायिक जंगल को बारी का विस्तार समझ लेते हैं तो वे अपने जंगल की तरह ही प्राकृतिक रूप से उसका ख्याल रखते हैं।”
उन्होंने आगे कहा कि चाला ग्रामीण सैंक्चरी संरक्षण समिति के अन्य सदस्य आसपास के गांवों में भी ग्रामीण सैंक्चरी के विचार को फैला रहे हैं।
सब का रखें ख्याल
बौद्ध धर्म की अहम सीख पतिक्का-समुद्दपा (एक दूसरे पर निर्भरता) कहती है कि हर स्थिति और हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और कुछ भी एकांत में नहीं जी सकता है। जोरहाट में रहने वाले लेखक और ताई-खामयांग बौद्ध स्कॉलर ललित श्याम कहते हैं, “पतिक्का समुद्दपा के सिद्धांत कहते हैं कि हर किसी का ख्याल रखा जाए जिसमें कि जंगल और उसमें रहने वाले जीव भी शामिल हैं। इसलिए एक बौद्ध व्यक्ति पर्यावरण की रक्षा करता है और इससे उसे कार्मिक मेरिट या अच्छे कर्मों की प्राप्ति होती है। बौद्धों का कर्तव्य है कि वे पर्यावरण की रक्षा करें।”
अपनी बात को साबित करने के लिए ललित श्याम समुद्द-वानिजा-जातक, एक बौद्ध कहानी सुनाते हैं जिसमें मानवता की पर्यावरणीय जिम्मेदारियों का जिक्र किया गया है। वह कहते हैं, “इस कहानी में हम देखतें हैं कि एक द्वीप पर रहने वाले लोगों को भगवान की ओर से सजा दी जा रही है क्योंकि उन्होंने उस द्वीप के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया। बुद्ध ने यह समझाने की कोशिश की कि यह लोगों की जिम्मेदारी है कि वे पर्यावरण का ख्याल रखें।”
सत्तर साल के पूर्व संत अनंत श्याम कहते हैं कि चाला में रहने वाले ज्यादातर ग्रामीणों का मानना है कि पर्यावरण की रक्षा करने से उन्हें पुण्य मिलेगा। वह कहते हैं, “यह एक अहम वजह है कि गांव के लोग बढ़-चढ़कर वन संरक्षण के प्रयासों में मदद करते हैं।”
पच्चीस साल के मानस प्रीतम श्याम अपनी मर्जी से ग्रामीण अभयारण्य की रक्षा करने के लिए रात में भी चक्कर लगाते हैं ताकि लकड़ी के तस्कर और चोर कोई हरकत न कर सकें। वह आगे कहते हैं, “अगर मैं प्रकृति की रक्षा करने में कामयाब रहता हूं तो मुझे पुण्य मिलेगा। वैसे भी यह अच्छा काम है।”
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बैनर तस्वीर: भारत में दिखने वाला ओरिएंटल पाइड हॉर्नबिल। तस्वीरः तिशा मुखर्जी/विकिमीडिया कॉमन्स।