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वन्यजीवों की पहचान और निगरानी के लिए भारत में हो रहा ईडीएनए तकनीक का इस्तेमाल

दार्जिलिंग में लाल पांडा। तस्वीर- संदीप पाई/विकिमीडिया कॉमन्स 

दार्जिलिंग में लाल पांडा। तस्वीर- संदीप पाई/विकिमीडिया कॉमन्स 

  • जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया पर्यावरणीय डीएनए (ईडीएनए) के जरिए जैव विविधता का आकलन करने के लिए नई तकनीक का परीक्षण कर रहा है।
  • ईडीएनए तकनीक शोधकर्ताओं को वन्यजीवों, वनस्पतियों और जीवों की संख्या निर्धारित करने और छिपी हुई प्रजातियों का पता लगाने में सहायता कर सकती है।
  • उम्मीद है कि ये नई तकनीक भारत में आक्रामक विदेशी प्रजातियों पर जरूरी आंकड़े भी उपलब्ध कराएगी।

जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण) ने वन्यजीवों पर अध्ययन और निगरानी के लिए ईडीएनए (एनवायरमेंटल डीएनए) का इस्तेमाल करने के लिए एक पायलट परियोजना तैयार की है।

मौजूदा समय में जैव विविधता का आकलन करने के लिए शोधकर्ता जानवरों का मल एकत्र करते हैं और उन्हें पहचान के लिए ले जाते हैं। यह उन क्षेत्रों में किया जाता है जहां वे अध्ययन कर रहे होते हैं। और फिर जनसंख्या अनुमान के लिए विशेष लक्षित प्रजातियों के डीएनए को छांटा जाता है।

लेकिन यूनाइटेड किंगडम के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन में एक नई तकनीक यानी एअर क्वालिटी नेटवर्क के जरिए प्रजातियों की पहचान करने का आसान और बेहतर तरीका सुझाया गया था। अध्ययन में कहा गया कि एयर क्वालिटी नेटवर्क पर्यावरणीय डीएनए को इकट्ठा कर लेता है। इसके जरिए महाद्वीपीय स्तर पर जैव विविधता का पता लगाया जा सकता हैं। इन नमूनों में ‘आश्चर्यजनक रूप से स्थिर डीएनए’ मिला है और यह स्थलीय जैव विविधता का पता लगाने का सबसे अच्छा संभव तरीका है।

इस अध्ययन को ध्यान में रखते हुए जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भी इस ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। इसका पायलट प्रोजेक्ट विभिन्न सरकारी एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशनों से डीएनए के नमूनों को उठाएगा और फिर जैव विविधता का आकलन करेगा। आमतौर पर इन स्टेशनों का इस्तेमाल हवा में मौजूद कणों को पहचानने और उन्हें इकट्ठा करने के लिए किया जाता रहा है। इन स्टेशनों में दो फिल्टर, पीएम10 और पीएम 2.5 होते हैं, जो हवा में प्रदूषण के स्तर को मापने के लिए वायु कणों को इकट्ठा करते हैं। हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वैज्ञानिक अधिकारी राजेंद्र कुमार ने कहा, “पीएम10 के मामले में ये फिल्टर क्रमशः आठ घंटे में और पीएम2.5 के मामले में 24 घंटे में बदल दिए जाते हैं।” फिल्टर पर मौजूद या एकत्र किए गए कणों के आधार पर प्रयोगशाला में फिल्टर के प्रसंस्करण और विश्लेषण के बाद हवा में प्रदूषण का स्तर निर्धारित किया जाता है।

हवा के कणों को इकट्ठा करने वाले पीएम2.5 फिल्टर का इस्तेमाल डीएनए लेने के लिए किया जा सकता है। तस्वीर-संजीव कुमार।
हवा के कणों को इकट्ठा करने वाले पीएम2.5 फिल्टर का इस्तेमाल डीएनए लेने के लिए किया जा सकता है। तस्वीर-संजीव कुमार।

अध्ययन में यह भी कहा गया है कि “एयर मॉनिटरिंग नेटवर्क वास्तव में अपने नियमित कार्य के दौरान ईडीएनए डेटा एकत्र कर लेते हैं और इसके जरिए महाद्वीपीय स्तर पर स्थानीय जैव विविधता का आकलन किया जा सकता है। कुछ क्षेत्रों में एयर क्वालिटी के नमूने दशकों तक संग्रहीत किए जाते रहे हैं, जो हाई-रिज़ॉल्यूशन बायोडायवर्सिटी सीरीज की क्षमता दिखाते हैं। वर्तमान प्रोटोकॉल में न्यूनतम संशोधन के साथ, यह सामग्री मौजूदा प्रतिकृति अंतरराष्ट्रीय डिजाइन का इस्तेमाल करके स्थलीय जैव विविधता की विस्तृत निगरानी के लिए आज तक का सबसे अच्छा तरीका है और यह पहले से ही प्रचालन में है।

कोलकाता स्थित जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक ललित कुमार शर्मा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि उन्होंने जानवरों के ईडीएनए को इकट्ठा करने और एयर फिल्टर या एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशनों का इस्तेमाल करके वन्यजीवों की निगरानी के लिए उत्तरी बंगाल में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है। वह कहते हैं, ” हम क्षेत्र की जंगली आबादी, वनस्पतियों और जीवों का पता लगाने के लिए ईडीएनए का सहारा लेंगे और इसके लिए एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन पर लगे फिल्टरों में मौजूद कणों का इस्तेमाल करेंगे।” वह आगे कहते हैं, “यह नया तरीका वैज्ञानिकों को उन छिपी हुई प्रजातियों को खोजने में भी मदद कर सकता है जो किसी विशेष क्षेत्र में रहती हैं, लेकिन आज तक उनके बारे में किसी को पता नहीं है।”

उन्होंने कहा कि इस तकनीक का इस्तेमाल फिलहाल संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में जैव विविधता की निगरानी और किसी क्षेत्र की वनस्पतियों और जीवों का आकलन करने के लिए किया जा रहा है।

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रेखांकन- रूपसी खुराना 

जैव विविधता निगरानी के लिए ईडीएनए

नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ) के कार्यक्रम समन्वयक अजय बिजूर ने कहा कि वन्यजीवों, विशेष रूप से इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा नामित प्रजातियों का अनुमान लगाने के लिए फिलहाल जो तरीका इस्तेमाल में लाया जा रहा है, वह एक तरह के ‘प्रयत्न और त्रुटि’ (ट्रायल एंड एरर) सिद्धांत पर काम करता है। 

उन्होंने बताया कि जब भी कोई शोधकर्ता या वैज्ञानिक जनसंख्या आकलन के लिए जाता है, तो उसे लक्षित प्रजातियों को पकड़ने या मल इकट्ठा करने के लिए स्थानीय वन अधिकारियों या स्वयंसेवकों के साथ छोटी टीमें बनानी पड़ती हैं। अगले चरणों में नमूनों को सावधानीपूर्वक संरक्षित करना और उन्हें विश्लेषण के लिए डीएनए प्रयोगशालाओं में भेजना शामिल है।

वैज्ञानिक ललित शर्मा ने कहा, “प्रयोगशालाओं में प्रोसेसिंग के लिए हर एक सैंपल पर लगभग 1,000 रुपये से 1,500 रुपये की लागत आती है और प्रक्रिया को पूरा करने में लगभग एक या दो सप्ताह लग जाते हैं।” उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि डीएनए को संसाधित करने और उसका विश्लेषण करने के लिए जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की अपनी प्रयोगशालाएं हैं, लेकिन “राज्य विभागों के निजी शोधकर्ताओं या वैज्ञानिकों के लिए प्रयोगशालाएं खोजना और नमूनों को संसाधित करना मुश्किल और समय लेने वाला काम है।”

जलीय प्रणालियों में जैव विविधता निगरानी के लिए पर्यावरणीय डीएनए का इस्तेमाल करने पर मई 2022 के एक अध्ययन में कहा गया था, “ईडीएनए में जैव विविधता विज्ञान के बारे में हमारी समझ विकसित करने और रिअल टाइम में व्यापक पैमाने पर मौजूद प्रजातियों की जनगणना के आंकड़ों के साथ संरक्षण तरीकों के लिए निहितार्थ प्रदान करने की जबरदस्त क्षमता है।”

लेखिका मनीषा रे और गोविंदस्वामी उमापति ने बताया कि पर्यावरणीय डीएनए (ईडीएनए) को 1987 में तलछट में सूक्ष्मजीव समुदायों का पता लगाने के लिए सबसे पहले माइक्रोबायोलॉजी के क्षेत्र में लाया गया था। अध्ययन में कहा गया है,“एक जीव द्वारा पर्यावरण में छोड़े गए डीएनए को पर्यावरणीय डीएनए (ईडीएनए) कहा जाता है। इसे मिट्टी, हवा या पानी से लिया जाता है।” 0.2 माइक्रोमीटर से अधिक ईडीएनए के समूह को पार्टिकुलेट डीएनए (पी-डीएनए) कहते है, तो वहीं 0.2 माइक्रोमीटर से कम वाले समूह को डिजोल्वड डीएनए (डी-डीएनए) कहा जाता है।

पीएम10 फिल्टर यूनिट। तस्वीर-संजीव कुमार
पीएम10 फिल्टर यूनिट। तस्वीर-संजीव कुमार

ईडीएनए कई स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है जैसे कि स्लॉड कोशिकाएं, मल पदार्थ, बीजाणु, स्लीमी कोटिंग (उभयचरों में) या मृत शव।

अध्ययन में कहा गया है, “जैव विविधता का आकलन करने के पारंपरिक तरीके विशेष प्रजातियों के नमूने के प्रति पक्षपाती हैं या संवेदनशील जीवों के लिए खतरा भी पैदा कर सकते हैं।”


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ईडीएनए तकनीक का इस्तेमाल जलीय प्रणाली में किसी प्रजाति की उपस्थिति या अनुपस्थिति का पता लगाने या किसी विशेष प्रजाति की संख्या अनुमान के लिए भी किया गया है। अध्ययन में कहा गया है, “इसका प्रयोग लोटिक और लेंटिक पारिस्थितिक तंत्र के बीच अलग-अलग होता है क्योंकि उनकी प्रकृति एक दूसरे से अलग होती है।” “लोटिक पारिस्थितिकी तंत्र बहता हुआ पानी है। इस तंत्र में पानी का बहाव अपने साथ उस जीव के ईडीएनए को सही जगह से नीचे की ओर ले जा सकता है, जिसके बारे में हमें जानकारी जुटानी है। जबकि लेंटिक पारिस्थितिकी तंत्र स्थिर यानी रुका हुआ पानी होता है। ईडीएनए पर्यावरण में मौजूद होता है और बाद में कई जैविक और अजैविक कारकों के कारण लगातार अपघटन से गुजरता है।

उमापति ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि ईडीएनए के लिए एकत्र किए गए पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) से यह पता चला है कि इसमें न सिर्फ किसी विशेष क्षेत्र के वन्यजीवों, वनस्पतियों और जीवों के डीएनए शामिल हैं, बल्कि कवक और यहां तक कि विभिन्न वायरस के बारे में भी जानकारी होती है।

उमापति ने कहा, “हमारे विश्लेषणों से पता चला है कि ईडीएनए तकनीक किसी विशेष क्षेत्र या क्षेत्र में जैव विविधता और वन्य जीवन की सटीक भविष्यवाणी और संख्या निर्धारित कर सकती है।”

शिमला में वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन। तस्वीर-संजीव कुमार
शिमला में वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन। तस्वीर-संजीव कुमार

ईडीएनए से बेहतर संरक्षण की ओर कदम

उमापति के अध्ययन में कहा गया है कि ऐसे कई प्रयोग हैं जिनमें ईडीएनए रेंज का इस्तेमाल संरक्षण के लिए किया जा सकता है। यह “आक्रामक प्रजातियों, लुप्त प्रजातियों या किसी अन्य पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण या खतरे वाली प्रजातियों का पता लगाने में मदद कर सकता है ताकि सामुदायिक गतिशीलता और बदलते स्थानिक-सामयिक परिवर्तनों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के बारे में खुलासा हो सके।”

उदाहरण के लिए कुछ साल पहले अमेरिका में एक अध्ययन में सिल्वर कार्प (हाइपोफथाल्मिचथिस मोलिट्रिक्स) के “प्रवेश और उसके प्रसार” का अध्ययन करने के लिए ईडीएनए तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। यह एक आक्रामक प्रजाति है। भारत जैसे जैव विविधता से समृद्ध देश, जो प्राकृतिक और कृषि को खतरे में डालने वाली आक्रामक प्रजातियों की एक बड़ी समस्या के साथ-साथ संरक्षण की समस्याओं से जूझ रहा है, में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।

पीएम10 फिल्टर हवा के कणों को पकड़ता है। इसका इस्तेमाल डीएनए लेने के लिए किया जा सकता है। तस्वीर-संजीव कुमार
पीएम10 फिल्टर हवा के कणों को पकड़ता है। इसका इस्तेमाल डीएनए लेने के लिए किया जा सकता है। तस्वीर-संजीव कुमार

अनुमान है कि पिछले 60 सालों में 10 आक्रामक विदेशी प्रजातियों के कारण भारत को 127.3 बिलियन डॉलर (8.3 ट्रिलियन रुपये) का नुकसान हुआ है। इसके बावजूद आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रभाव के संबंध में अभी भी बहुत सारे शोध की जरूरत है, लेकिन डेटा की कमी इसके आड़े आ रही है।

अध्ययन में कहा गया है, “ईडीएनए तकनीक संस्थानों को चाहे वह सरकारी हो या निजी, “विशेष महत्व के क्षेत्रों या प्रजातियों पर बेहतर संरक्षण फोकस” तैयार करने में मदद कर सकती है। तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन और इससे जुड़ी चिंताओं के इस युग में अन्य पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ ईडीएनए भी बेहतर परिणाम पाने के लिए जैव विविधता की निगरानी में सहायता कर सकता है” 

 

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बैनर तस्वीर: दार्जिलिंग में लाल पांडा। तस्वीर– संदीप पाई/विकिमीडिया कॉमन्स 

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