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पक्षियों को भा रहे छोटे शहर, जलपक्षियों पर अपने तरह के पहले रिसर्च से सामने आई रोचक जानकारियां

उदयुपर अपनी मानव-निर्मित झीलों के लिए मशहूर है। इन झीलों को वहां के तत्कालीन राजाओं ने गर्मियों के दौरान शहर को ठंडा करने के लिए बनवाया था। तस्वीर- केएस गोपी सुंदर 

उदयुपर अपनी मानव-निर्मित झीलों के लिए मशहूर है। इन झीलों को वहां के तत्कालीन राजाओं ने गर्मियों के दौरान शहर को ठंडा करने के लिए बनवाया था। तस्वीर- केएस गोपी सुंदर 

  • भारत में छोटे शहर पक्षियों को अपना बसेरा बनाने और आबादी बढ़ाने में पूरी मदद कर सकते हैं। लेकिन, इसके लिए इन शहरों की पारिस्थितिकी और जैव-विविधता को बनाए रखना होगा।
  • यह जानकारी झीलों के शहर उदयपुर में दिसंबर 2020 और सितंबर 2021 के बीच किए गए अध्ययन में सामने आयी। इस अवधि में घोंसले बनाने और चूजों को पालने-पोसने का पूरा सीजन शामिल है।
  • उम्मीद जताई जा रही है कि इस अध्ययन से भारतीय शहरों में जल पक्षियों और दूसरे जीव-जंतुओं पर नए रिसर्च को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही, शहरों में रहने वाले वन्यजीवों और उन पर आने वाले खतरों को पहचानने में मदद मिलेगी।

झीलों के शहर उदयपुर में जलपक्षी आराम करने और घोंसला बनाने के लिए अलग-अलग जगहों का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, वे एक जैसे संकेतों (जैसे आसपास दलदली जगह) से इस काम को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, वे इन कामों के लिए अलग-अलग पेड़ों को चुनते हैं, लेकिन ये पेड़ दलदली भूमि के आसपास होते हैं।

हाल ही में आई एक स्टडी में ऐसी ही कुछ रोचक और अहम जानकारियां सामने आई हैं। इस रिसर्च में छोटे शहरों की जैव-विविधता, पारिस्थितिकी और इन्हें बनाए रखने से पक्षियों की आबादी पर पड़ने वाले सकारात्मक असर की गहराई से पड़ताल की गई है। अध्ययन में पूरे उदयपुर शहर में सभी जलपक्षियों के बसेरे और घोंसला बनाने की जगहों से जुड़े सवालों के जवाब तलाशे गए हैं। 

यह दुनिया का अकेला अध्ययन है जिसने किसी शहर के अंदर बसेरा बनाने वाले जलपक्षी समुदाय का दस्तावेजीकरण किया है। दुनिया भर के अन्य शहरों से पहले भी घोंसले बनाने वाले जलपक्षियों के दस्तावेजीकरण की कुछ जानकारी मिली हैं, लेकिन बसेरे में रहने वाले जलपक्षियों के पूरे कुनबे का अध्ययन करने की कोशिश पहले कभी नहीं की गई। पहले हुए अध्ययनों में शहर का एक हिस्सा, जैसे कोई जलाशय ही शामिल किए जाते रहे हैं। 

झील के पास पेड़ पर पक्षियों का बसेरा। तस्वीर- कनिष्का मेहता
झील के पास पेड़ पर पक्षियों का बसेरा। तस्वीर- कनिष्का मेहता

इस तरह हुआ अध्ययन 

यह अध्ययन उदयपुर में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से कनिष्का मेहता की पीएचडी स्नातक थीसिस के हिस्से के रूप में किया गया। इस थीसिस की सलाह ज्योग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम (जी.आई.एस.) और डेटाबेस स्वाति कित्तूर, विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर विजय कोली और इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीेएन) के स्टॉर्क, आईबिस और स्पूनबिल स्पेशलिस्ट ग्रुप के को-चेयर गोपी सुंदर की ओर से दी गई थी। 

गोपी सुंदर वाटरबर्ड्स नाम की पत्रिका के संपादक भी हैं। उन्होंने मोंगाबे-हिंदी को इस शहर को चुनने की वजह बताते हुए कहा, उदयुपर अपनी मानव-निर्मित झीलों के लिए मशहूर है। इन झीलों को वहां के तत्कालीन राजाओं ने गर्मियों के दौरान शहर को ठंडा करने के लिए बनवाया था। इसलिए हम जानना चाहते थे कि क्या ये कृत्रिम दलदली जगहें जलपक्षियों को अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं?“ 

स्टडी के जरिए कुछ खास सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की गई। मसलन, उदयपुर शहर में जलपक्षी कहां आराम करते हैं? वे कहां घोंसला बनाते हैं? क्या वे इन दोनों कामों के लिए एक ही जगह का इस्तेमाल करते हैं? घोंसला बनाने के लिए किस तरह के पेड़ों या अन्य संरचनाओं का इस्तेमाल किया जाता है? जलपक्षियों की कौन-सी प्रजातियां उदयपुर शहर में आराम करती हैं या फिर सोती हैं? कौन-सी प्रजातियां शहर की सीमा के भीतर घोंसला बना रही हैं?

रेड नेप्ड आइबिस पक्षी। तस्वीर- केएस गोपी सुंदर
रेड नेप्ड आइबिस पक्षी। तस्वीर- कनिष्का मेहता

कनिष्का मेहता ने मोंगाबे-हिंदी को बताया, अध्ययन से पता चला कि उदयपुर शहर की सीमा के अंदर जलपक्षियों की 17 प्रजातियां आराम करती हैं या फिर सोती हैं। वहीं, जलपक्षियों की 12 प्रजातियां शहर में घोंसला भी बनाती हैं। जलपक्षियों ने इन दो गतिविधियों के लिए पेड़ों की 23 प्रजातियों का इस्तेमाल किया। दोनों गतिविधियों के लिए काम में लिए गए पेड़ उन स्थानों पर थे जहां अपेक्षाकृत कम मात्रा में पक्का (बिल्ट अप) बना हुआ इलाका था। उन्होंने कहा कि इससे यह पता चलता है कि जलपक्षी इन गतिविधियों के लिए कम शोरगुल वाले इलाकों को ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। जलपक्षी ऐसी जगह भी चुन रहे हैं जिनके आस-पास बहुत सारी दलदली भूमि हैइससे संकेत मिलता है कि कृत्रिम दलदली भूमि इन प्रजातियों के लिए उनकी सबसे जरूरी गतिविधियों के लिए आकर्षक थीं।

स्टडी के दौरान पता चला कि उदयपुर शहर में छोटा पनकौवा (लिटिल कॉर्मोरेंट), भारतीय पनकौवा (इंडियन कॉर्मोरेंट), महा पनकौवा (ग्रेट कॉर्मोरेंट), करछिया बगुला (लिटिल एग्रेट), मध्यम बगुला (इंटरमीडिएट एग्रेट), बगुला (ग्रेट एग्रेट), सुराखिया (कैटल एग्रेट), अंधा बगुला (पॉन्ड हेरॉन), सैन (ग्रे हेरॉन), लाल सैन (पर्पल हेरॉन), तार बगुला (ब्लैक-क्राउन्ड नाईट हेरॉन), छोटा बाज (ग्लॉसी आइबिस), सफेद बाज (ब्लैक-हेडेड आइबिस), काला बाज (रेड-नेप्ड आइबिस), कठसारंग (पेंटेड स्टॉर्क), घोंघिल (एशियाई ओपनबिल स्टॉर्क), श्वेतकंठ सारस (वुली-नेक्ड स्टॉर्क) यानी कुल 17 प्रजातियों के घोंसले हैं या वे वहां आराम करती हैं। 

इनमें से तीन प्रजातियां अंधा बगुला, सुराखिया और काला बाज के शहर में सबसे ज्यादा बसेरे हैं।

दूसरी तरफ, शहर में सबसे ज्यादा घोंसले बनाने वाली पक्षी प्रजातियां सुराखिया, काला बाज और घोंघिल थीं।

गोवर्धन सागर झील में ग्लॉसी आइबिस पक्षी। तस्वीर- केएस गोपी सुंदर
गोवर्धन सागर झील में ग्लॉसी आइबिस पक्षी। तस्वीर- कनिष्का मेहता

यह अध्ययन इसलिए भी खास है, क्योंकि शहरों के भीतर जलपक्षियों के एक पूरे कुनबे के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं है। इसलिए, यह अध्ययन अपने-आप में अनोखा है। साथ ही, इसने उदयपुर शहर में इतने सारे जलपक्षियों को आसरा देने की क्षमता की समझ दी है। कई जलपक्षियों के बसेरे और घोंसले या तो शहर के बहुत पास या बहुत ज्यादा पक्की इमारतों के भीतर पाए गए। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जलपक्षियों के बहुत ज़्यादा शोर मचाने और बदबूदार होने के बाबवजूद भी उदयपुर के लोग उन्हें पसंद करते हैं। कई अन्य देशों में, शहरों के अंदर ऐसी जलपक्षियों के जमा होने को “उपद्रव” प्रजाति माना गया और इन्हें सक्रिय रूप से हटा दिया गया।

जल पक्षियों को भा रही छोटे शहरों की जैव-विविधता

दरअसल, शहरी पारिस्थितिकी भारत में बहुत हद तक नया विषय हैइस पर ज्यादातर काम पेड़ों की  विविधता पर और बेंगलुरु व दिल्ली जैसे महानगरों में ही किया गया है। जैसे, दिल्ली में साल 2012 से 2014 में पक्षियों पर हुए अध्ययन में शामिल रहे नवीन तिवारी ने मोंगाबे-हिंदी को बताया कि इससे हमें पता चला कि किसी बड़े शहरी इलाके में अगर पांच फीसदी भी हरियाली थी, तो वहां पक्षियों की विविधता 100 फीसदी मिली। उन्होंने कहा कि इससे हमें पता चलता है कि पूरा जंगल विकसित करने की बजाए छोटे हिस्से में हरियाली बढ़ाकर पक्षियों की विविधता बचाई जा सकती है। 

वहीं, भारत के शहरों और उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के अन्य शहरों में विविधता बहुत ज्यादा है। गोपी सुंदर कहते हैं, यह वैज्ञानिकों के लिए हैरान करने वाली बात है, क्योंकि शहरों पर ज्यादातर काम समशीतोष्ण क्षेत्रों के शहरों से हुआ है जहां शहर के अंदर विविधता बहुत कम है। इन अध्ययनों ने इस धारणा को जन्म दिया है कि लोगों की गतिविधियों से पक्षियों जैसे जंगली जानवरों को होने वाली परेशानी के कारण उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय के भीड़-भाड़ वाले शहरों में बहुत अधिक जैव विविधता नहीं होनी चाहिए। भारत में जिन कुछ शहरों में इस तरह के अध्ययन किए गए हैं, उनमें पक्षी विविधता का बहुत ऊंचा स्तर देखा गया है।” 

अध्ययन में सामने आया कि कई जलपक्षियों के बसेरे और घोंसले या तो शहर के बहुत पास या बहुत ज्यादा पक्की इमारतों के भीतर पाए गए। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उदयपुर के लोग जलपक्षियों को पसंद करते हैं। तस्वीर- कनिष्का मेहता
अध्ययन में सामने आया कि कई जलपक्षियों के बसेरे और घोंसले या तो शहर के बहुत पास या बहुत ज्यादा पक्की इमारतों के भीतर पाए गए। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उदयपुर के लोग जलपक्षियों को पसंद करते हैं। तस्वीर- कनिष्का मेहता

वहीं, स्वाति कित्तूर इस अध्ययन के नतीजों को रोमांचक बताती हैं। वो कहती हैं, उदयपुर में देखे गए नतीजों से हमें लगता है कि भारत के शहर जलपक्षियों के लिए जरूरी जगह हैं, जिसे वैज्ञानिकों और संरक्षण समूहों की ओर से पूरी तरह अनदेखी की गई है। 

दूसरी तरफ, अध्ययन से यह समझ भी मिलती है कि जलपक्षियों के बसेरों और घोंसले वाली जगहों के लिए पुराने और सूखे हुए पेड़ बहुत ज्यादा मायने रखते हैं। जैसे-जैसे पेड़ों की उम्र बढ़ती है, वे शहर के अंदर इन पक्षियों के पसंदीदा घर बन जाते हैं। जैसे, उदयपुर में यातायात के बावजूद जलपक्षी सड़क के किनारे पुराने पेड़ों का इस्तेमाल अपने बसेरों के लिए करते हैं। 

उनका कहना है, पुराने पेड़ों वाले अन्य अहम क्षेत्र सरकारी और संस्थागत परिसर जैसे विश्वविद्यालय हैं। सरकारी नीति में ऐसे सभी पेड़ों को बचाना शामिल होना चाहिए। साथ ही, सूखे हुए पेड़ों के संरक्षण के लिए काम करना चाहिए जो फिलहाल किसी भी नीति का हिस्सा नहीं हैं। हालांकि, इसके लिए नीति बनाते समय ऐसे पेड़ों का संरक्षण उन क्षेत्रों में होना चाहिए जहां लोगों और इमारतों पर उनके गिरने का खतरा नहीं है।

वहीं विजय कोली ने मोंगाबे-हिंदी से कहा कि फिलहाल भारत भर में शहरों के अंदर पुराने पेड़ों को काटने के लिए सड़क चौड़ीकरण परियोजनाएं और बड़े अपार्टमेंट परियोजनाएं जिम्मेदार हैं। “यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं, क्योंकि किसी पेड़ को पुराना होने में सदियां लग जाती हैं। साथ ही, हरित क्षेत्रों को ना सिर्फ पार्कों के रूप में, बल्कि बैकयार्ड और बगीचों के रूप में भी विकसित किया जाना चाहिए। पौधों और पेड़ों की प्रजातियां जो देश के किसी खास क्षेत्र में अच्छी तरह से विकसित होंगी और पक्षियों जैसे वन्यजीवों के लिए उपयोगी होंगी, उन्हें शहर की हरियाली योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए,” उन्होंने बताया। 


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दरअसल, भारतीय शहरों में इस तरह के अध्ययन नहीं होने से सिटी प्लानिंग के लिए स्पष्ट और बेहतर नीति नहीं बन पाती है। कित्तूर कहती हैं, हर भारतीय शहर में विश्वविद्यालय या स्कूल हैं और उदयपुर जैसा अध्ययन हर जगह आसानी से किया जा जा सकता है। हमें उम्मीद है कि हमारा काम भारतीय शहरों में जल पक्षियों और दूसरे जीव-जंतुओं पर नए काम को प्रेरित करेगा। हमें यह समझने में मदद करेगा कि हमारे शहरों में कौनसे वन्यजीव हैं। शहर की संरचना के कौनसे पहलू कुछ प्रजातियों की मदद करते हैं और हमें उन शहरों की पहचान करने में मदद मिलेगी जहां शहर के विकास के चलते महत्वपूर्ण वन्यजीव खतरे में हैं।” 

वहीं कोली का कहना है कि हमारे शहर अमेरिका और यूरोप जैसे समशीतोष्ण क्षेत्रों के शहरों से बहुत अलग हैं। इसलिए हमें उन तरीकों का इस्तेमाल करके रिसर्च करने की जरूरत है जो हमारी शहरी संरचनाओं से संबंधित हों। फिर इन शोध के नतीजों का इस्तेमाल करते हुए, हमें ऐसी योजनाएं बनाने की ज़रूरत है जो हमारे शहरों के लिए प्रासंगिक हों। पश्चिम से नकल करना ना तो शहर के लिए, ना ही लोगों के लिए, ना ही हमारे शहरों के वन्य जीवन के लिए बहुत फायदेमंद है। 

गोपी सुंदर कहते हैं कि उनके काम से भारतीय उपमहाद्वीप की स्थानीय प्रजाति काला बाज को लेकर नई पारिस्थितिकी समझ भी सामने आई है। इस प्रजाति को आईयूसीएन ने “घटते आवास” के चलते “कम होते” के रूप में चिह्नित किया है। हालांकि, इसकी स्थिति तय करने के लिए शायद ही कोई अध्ययन हुआ है। “लेकिन, हमारे काम से पता चला कि यह प्रजाति पूरे शहर का इस्तेमाल करते हैं और खास तौर पर दलदली भूमि जैसे किसी खास चीज को पसंद नहीं कर रहे थे। इससे समझ बनी है कि यह प्रजाति अपनी आदतों में महानगरीय है और शहरों में बस कर प्रजनन कर सकती है,” उन्होंने बताया।  

 

बैनर तस्वीरः उदयपुर में झील के पास एक पेड़ पर पक्षियों का बसेरा। कभी शहर को ठंडा रखने के लिए बनाई गई ये झीलें पक्षियों को बहुत ज्यादा रास आ रही हैं। तस्वीर – कनिष्का मेहता/मोंगाबे

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