- केरल में कुछ किसान पारंपरिक किस्मों के संरक्षण में मदद करते हुए अलग-अलग किस्म के केले उगा रहे हैं। अध्ययनों के मुताबिक फसल विविधता खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
- व्यावसायिक रूप से उगाई जाने वाली केले की किस्मों को क्लोन तरीके से उगाया जाता है, जिससे उनकी आनुवंशिक विविधता कम हो जाती है और उनमें कीटों व बीमारियां लगने का खतरा बढ़ जाता हैं। जलवायु परिवर्तन एक और बड़ी समस्या है।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि संरक्षण के लिए इन-सीटू और एक्स-सीटू को एक साथ लेकर चलना होगा। क्योंकि इन-सीटू संरक्षण आपदा और बीमारी फैलने की स्थितियों में कारगर सिद्ध नहीं होता है।
केरल के वायनाड जिले के 49 वर्षीय केला किसान निशांत के. ने कहा, “केरल के हर जिले का अपना पसंदीदा केला है।” अकेले उनके खेत में ही 250 से अधिक किस्मों के केले उगाए जा रहे हैं। वह समझाते हुए कहते हैं, “वायनाड और कन्नूर में मन्नान (एक प्रकार का केला) को काफी पसंद किया जाता है। वहीं तिरुवनंतपुरम में चेनकादली (कैवेंडिश किस्म का लाल केला) बहुत लोकप्रिय है और सांस्कृतिक तौर पर इसके काफी मायने भी है। इस केले को यहां अच्छी खासी कीमत यानी 80 रुपये प्रति गुच्छा के हिसाब से बेचा जाता है। लेकिन अगर हम वायनाड की तरफ चले जाएं तो इसकी कीमत सिर्फ एक-चौथाई रह जाती है। तमिलनाडु के ज्यादातर इलाकों में उगाया जाने वाला ‘पेयान’ कोल्लम जिले का पसंदीदा है, लेकिन इसे शायद ही कहीं और पसंद किया जाता हो।”
निशांत का खेत केले के किसी म्यूजियम से कम नहीं है। यहां आपको दुनिया भर की दुर्लभ किस्में मिल जाएंगी। कुछ असामान्य लेकिन देशी किस्मों में पेरुमपदाली भी मिलेगा। इसमें लगे फलों के गुच्छे आकार में पांच फीट तक बढ़ सकते हैं। इसके अलावा काले तने और पत्तियों के साथ कृष्णवझा और पचचिंगन किस्में भी नजर आएंगी। इन पौधों की खासियत फलों के पकने के बाद भी उनका हरा बना रहना है। थाईलैंड से लाए गए लाल पत्तों वाली सियांग रूबी वॉकिंग या रनिंग बनाना को देखकर तो आप हैरान ही हो जाएंगे। रनिंग केला मुख्य पेड़ से कम से कम पांच फीट की दूरी पर अपने पौध को फैलाता है। इसमें लगे फल प्रार्थना के लिए उठे हुए हाथों वाले फिलीपींस के एक स्मारक की तरह नजर आते हैं। और प्रत्येक “हाथ” में आम तौर पर एक दूसरे के साथ जुड़े हुए छह से सात अलग-अलग फल या केले होते हैं।
हर किसी को केला क्यों है इतना पसंद
उष्णकटिबंधीय एशिया के मूल निवासी केले की उत्पत्ति भारत से दक्षिण पूर्व एशिया होते हुए उत्तरी ऑस्ट्रेलिया तक लंबे क्षेत्र में मानी जाती है। 16वीं शताब्दी में भारत आए पुर्तगाली इसे दक्षिण अमेरिका लेकर चले गए थे। केरल कृषि विश्वविद्यालय के केला अनुसंधान केंद्र में सहायक प्रोफेसर डिक्टो जोस एम. ने बताया कि आज हम केले की जिन किस्मों को देख रहे हैं, दरअसल वे केले की दो किस्मों ‘मूसा एक्यूमिनाटा’ और ‘मूसा बाल्बिसियाना’ का मिला-जुला रूप हैं।
निशांत उस समय काफी छोटे थे जब उन्हें केले की खेती को लेकर जुनून पैदा हुआ। उन्होंने अपने परिवारिक खेतों में अपने किसान पिता से खेती करना सीखा था। निशांत ने याद करते हुए कहा, “खेती के बारे में मैं आज जो कुछ भी जानता हूं, उसे मैंने अपने पिता से ही सीखा है। हमने धान से लेकर सब्जियां, फल और यहां तक कि कॉफी और काली मिर्च जैसी नकदी फसलें भी उगाईं हैं।”
निशांत के छोटे से खेत में केले के साथ-साथ सुपारी भी उगाई जाती है। दोनों प्रजातियां एक सहजीवी संबंध साझा करती हैं और एक साथ खेती करने के लिए आदर्श हैं। निशांत ने बताया, “सुपारी केले के पौधे को जरूरी छाया देती है तो वहीं केले के पेड़ों के नीचे जड़ों में मौजूद पोषण और अतिरिक्त नमी का का फायदा सुपारी को भी मिलता है।” केले को सिर्फ एक सप्ताह में एक बार देख-रेख की जरूरत होती है। निशांत एक सरकारी कर्मचारी हैं और अपना सप्ताहांत वह खेत में ही बिताते हैं। इस दौरान वह सूखे पत्तों और छाल को पेड़ से हटाने का काम करते हैं। अगर पौधे की सूखी छाल को न हटाया जाए तो वह तने पर नमी बनाए रखेगा और आखिर में पेड़ के मरने की वजह भी बन सकता है।
“संरक्षण और विज्ञान” के अपने शौक के चलते
निशांत कहते हैं, “भारत में केले की खेती में काफी ज्यादा रसायन का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन अब यह सब कुछ बदल रहा है। हालांकि, केले की जैविक खेती करना लगभग नामुमकिन है। पेड़ में कई तरह के कीट और बीमारियां लगने का खतरा बना रहता है। मैं जितना हो सकता है, मिट्टी में रसायन डालने से बचता हूं। लेकिन इसे पूरी तरह से नजरअंदाज करना मुश्किल है।”
जलवायु परिवर्तन भी केरल में खेती के लिए एक चुनौती बना हुआ है। निशांत ने कहा, “केरल हमेशा से एक कृषि कैलेंडर के मुताबिक खेती करता आया है। बुआई, जुताई, कटाई और कृषि से जुड़ी हर गतिविधि मौसम चक्र के हिसाब से की जाती थी। लेकिन गर्मियां लंबी होने और मानसून समय पर नहीं आने के कारण अब यह पूरी तरह बदल गया है।”
हालांकि निशांत को केली की खेती का शौक बचपन से ही था। लेकिन “संरक्षण और विज्ञान में गहरी दिलचस्पी” उन्हें 12 साल पहले केले की आनुवंशिक विविधता की ओर ले गई। अपने जुनून को पूरा करने की प्रेरणा उन्हें केला किसानों के एक ऑनलाइन ग्रुप “वाझा ग्रामम” (केला गांव) से मिली। दरअसल ये एक फेसबुक ग्रुप है जिसमें दुनियाभर के लगभग 10,000 केले किसान सदस्य जुड़े हैं। इसे तिरुवनंतपुरम के विनोद एस. ने शुरू किया था, जिनके खुद के खेत में केले की 500 से अधिक किस्में हैं। विनोद ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “भारत के विभिन्न हिस्सों जैसे कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और अफ्रीका के कई हिस्सों से लोग इस ग्रुप के साथ जुड़े हुए हैं। सदस्यों के बीच अक्सर विचारों, जानकारी और पौधों का आदान-प्रदान होता रहता है।”
केरल में निशांत की तरह सिर्फ मुट्ठी भर किसान नए तरीकों से केले की विभिन्न किस्मों को उगाने और उसे लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और कई तरह की परेशानियों के चलते कुछ किस्मों के नुकसान की बात भी कही जा रही है। इन्हीं आशंकाओं के मद्देनजर कोझिकोड के किसान उत्पादक संगठन ‘नीरवु’ के निदेशक बाबूराज पी. ने 2022 में नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) के सहयोग से केला बैंक नामक एक पहल की शुरुआत की थी। बाबूराज केले की 125 किस्में उगाते हैं। उन्होंने भारतीय और विदेशी लगभग 15 किस्मों को 200 किसानों तक पंहुचाने का प्रस्ताव रखा। किसानों को सिर्फ एक ही मानदंड के आधार पर चुना गया था – केले की किस्मों को लेकर उनका लगाव। इस सभी को पांच अलग-अलग केले की किस्में दी गईं और केरल के केला अनुसंधान संस्थान, कन्नारा और तमिलनाडु में राष्ट्रीय केला अनुसंधान केंद्र, त्रिची में प्रशिक्षित 25 तकनीकी विशेषज्ञों के एक व्हाट्सएप समूह से जोड़ा गया। बाबूराज ने कहा, “हमने पौध और उनकी बढ़ती संख्या पर नजर रखने के लिए एक सॉफ्टवेयर भी तैयार किया है।”
केला उत्पादन के मामले में भारत सबसे आगे
33 मिलियन टन केले के वार्षिक औसत (2021 अनुमान) के साथ भारत दुनिया में केले के उत्पादन में सबसे आगे है। चीन लगभग 12 मिलियन टन के साथ सूची में दूसरे स्थान पर है। चीन की तुलना में भारत में हर साल 20 मिलियन टन अधिक केले का उत्पादन होता है। अगर बात सिर्फ देश में हुए उत्पादन की करें तो आंध्र प्रदेश 5,839 हजार टन के वार्षिक उत्पादन के साथ शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र 4,628 हजार टन के साथ दूसरे नंबर पर आता है। केले के बढ़ते उत्पादन के बावजूद भारत में केले की लगभग 40 प्रजातियां ही व्यावसायिक रूप से उगाई जा रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय केले अनुसंधान केंद्र (आईसीएआर-एनआरसीबी) के प्रमुख वैज्ञानिक बैकियारानी एस. ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “केले की किस्म की व्यावसायिक पहुंच उसकी उपज, स्वाद और शेल्फ जीवन जैसे कारकों से निर्धारित होती है। कुछ बीज वाली किस्मों और केले की छोटी किस्मों को उपभोक्ता और किसान दोनों ही पसंद नहीं करते हैं और उनकी नापसंदगी के पीछे की वजह यही कारण हैं।”
अध्ययनों ने तेजी से गर्म हो रही दुनिया में खाद्य सुरक्षा के लिए फसलों में आनुवंशिक विविधता के महत्व को स्वीकारा है। वायरस और जलवायु परिवर्तन जैसे जैविक और अजैविक खतरों को ध्यान में रखते हुए केला अनुसंधान केंद्र केले के जर्मप्लाज्म के एक्स-सीटू संरक्षण पर ध्यान दे रहा है। त्रिची में आईसीएआर-एनआरसीबी केंद्र लगभग 350 भारतीय और 112 विदेशी केले के जर्मप्लाज्म के संरक्षण की सुविधा मुहैया कराता है।
संरक्षण के लिए खतरा बने जलवायु परिवर्तन और कीट
व्यावसायिक रूप से उगाई जाने वाली केले की किस्मों को क्लोन तरीके से उगाया जाता है। इससे उनकी आनुवंशिक विविधता कम हो जाती है और वे कीटों और बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। ये कीट और वायरस क्लोनों के बीच आनुवांशिक कमजोरी का फायदा उठाकर किस्म को नष्ट कर सकते हैं, जैसा कि ग्रोस मिशेल डेजर्ट किस्म के मामले में नजर आया था। यह किस्म एक कवक रोग का शिकार हो गई और 1950 के दशक में दुनिया से लगभग गायब ही हो गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बाद हार्ड कैवेंडिश लोकप्रिय हो गई लेकिन इसकी आनुवंशिक विविधता की कमी भी इसे कीटों और बीमारियों के प्रति समान रूप से संवेदनशील बनाती है। इन मामलों को देखते हुए केले की विविधता के संरक्षण में निशांत और विनोद जैसे किसानों का योगदान अतुलनीय है। बैकियारानी ने कहा, “हम विनोद से जर्मप्लाज्म के लिए संपर्क करते हैं जो हमारे पास नहीं है। केले में आनुवंशिक विविधता के बारे में उनका ज्ञान सराहनीय है।” विनोद केले की विविधता दिखाने वाली प्रदर्शनियों में भी नियमित रूप से जाते हैं। वह कहते हैं, “केरल के हर जिले में एक केला गांव बनाना मेरा लक्ष्य है।”
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग इकोनॉमीज के प्रोफेसर रामकुमार इन-सीटू की तुलना में एक्स-सीटू संरक्षण को ज्यादा फायदेमंद मानते हैं। (इन-सीटू संरक्षण वह है जिसमें पौधों अथवा जीवों का संरक्षण वहीं किया जाता है, जहां वे प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। जबकि एक्स-सीटू संरक्षण में पौधों अथवा जीवों का संरक्षण किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर ले जाकर किया जाता है) उन्होंने बताया, विविधता अपने आप में बेहतर उपज या खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करती है। उत्पादकता और किसानों की आय में वृद्धि के लिए विविधता का वैज्ञानिक तरीके से प्रबंधन करना होगा।” रामकुमार कहते हैं कि पारंपरिक किस्म के बीज की बार-बार खेती करने पर समय के साथ बीज अपने कुछ पारंपरिक गुणों को खो देता है, जोकि जीन बैंकों में संरक्षण के दौरान समाप्त हो जाते हैं।
बनाना रिसर्च स्टेशन के जोस ने कहा कि जर्मप्लाज्म का संरक्षण लैब में किया जाना चाहिए क्योंकि खेत में किस्मों के बीच अक्सर दोहराव देखा जाता है। वह आगे कहते हैं, किसान वैज्ञानिक रूप से किसी किस्म का निर्धारण नहीं कर सकता है। सिर्फ एक विशेषज्ञ मोलेक्युलर या मॉर्फोलॉजी अध्ययन के जरिए कुछ किस्मों में अंतर का पता लगा सकता है।
‘एक्स-सीटू संरक्षण की ओर जाने की जरूरत’
चरम मौसम की घटनाओं का केले जैसी फसलों पर खासा असर पड़ रहा है। ऐसे में हम अगर संरक्षण के लिए सिर्फ किसानों पर निर्भर रहेंगे तो बीज की किस्मों का स्थायी नुकसान होने की संभावना है। रामकुमार ने सुझाव देते हुए कहा, “आपदा की स्थिति में हम जीन बैंकों की तरफ वापस जा सकते हैं और कई तरीकों से किस्मों को फिर से बना सकते हैं। खमेर रूज युद्ध के बाद कंबोडिया में और एजेंट ऑरेंज के बाद वियतनाम में ऐसा हुआ था। कई बीज किस्मों को जीन बैंकों से फिर से वापस लाया गया था।” हालांकि वह किसानों के योगदान की सराहना करते हैं। उनका मानना है कि कृषि को पारंपरिक बीजों और पौधों की प्रजनन तकनीकों के एक्स-सीटू संरक्षण की एक कुशल प्रणाली का पालन करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति सहिष्णुता के लक्षण उत्पादकता की क्षमता को बनाए रखते हुए बीजों में स्थानांतरित हो जाएं।
गैर-व्यावसायिक केले की खेती लाभदायक नहीं होने को लेकर किसान की राय मिली-जुली है। निशांत अपने जुनून को पूरा कर सके क्योंकि वह जीविका के लिए खेती पर निर्भर नहीं थे। उन्होंने कहा, “लोग केले की किस्मों से अनजान हैं और नई किस्मों को आजमाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं।” गैर-व्यावसायिक केले की किस्मों की बाजार में भी कोई जगह नहीं है। व्यावसायिक किस्मों के जैसे स्वाद वाली कुछ दुर्लभ किस्में कभी-कभी बिक पाती हैं, लेकिन उनकी कीमत भी ज्यादा महीं मिलती है। ये किस्में अगर 40 रुपये प्रति किलो भी बिक जाएं तो गनीमत हैं। कुछ गिने-चुने दोस्त या किसान हैं जो इन किस्मों की कीमत जानते हैं और विशेष किस्मों के बारे में जानने के इच्छुक रहते हैं। निशांत ने कहा, “वे कभी-कभी 80 रुपये प्रति किलो के हिसाब से खरीद लेते हैं। इन फलों से मैंने इतना ही अधिकतम कमाया है।”
इन किसानों को ज्यादातर फायदा पौध (अंकुर) बेचने से होता है। एक साल में निशांत पौध बेचकर औसतन 1.5 लाख रुपये कमा लेते हैं जबकि केलों से मुनाफा केवल 40,000 रुपये ही होता है। उन्होंने कहा, “अंकुर की कीमतें 250 रुपये से लेकर 5000 रुपये तक हैं। प्रेयरिंग हैंड्स जैसी फैंसी किस्में रिजॉर्ट मालिकों के बीच लोकप्रिय हैं और एक पौध के लिए उन्हें लगभग 5000 रुपये मिल जाते हैं।” भूमि सुधार अधिनियम (1963) के बाद केरल जैसे राज्यों में किसान के रकबे की सीमाएं भी कई किसानों को गैर-व्यावसायिक खेती में उतरने से पीछे खींच लेती हैं। राज्य सरकार की ओर से प्रोत्साहन की कमी भी निराशाजनक है। विनोद ने कहा कि पुरस्कारों और प्रदर्शनियों के रूप में मान्यता के अलावा उनके योगदान के लिए राज्य सरकार की ओर से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली है।
बैकियारानी का मानना है कि इन किसानों के साथ सहयोग करने से विज्ञान को फायदा हो सकता है क्योंकि कई बार उनके पास केले के बारे में वैज्ञानिकों से ज्यादा जानकारी होती है। उन्होंने कहा, “ये किसान अन्य किसानों को पारंपरिक किस्मों के संरक्षण के लिए प्रेरित और शिक्षित करते आए हैं। ऐसी पहल का समर्थन किया जाना चाहिए।”
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बैनर तस्वीर: अपने खेत में केले की फसल के साथ निशांत के.। उनके इस खेत में देशी और विदेशी किस्मों सहित फलों की लगभग 250 प्रजातियां हैं। तस्वीर- अभिषेक एन चिन्नप्पा/मोंगाबे