- कर्नाटका के कोटा मैंग्रोव में सतह पर मौजूद पानी के सैंपल में वैज्ञानिकों को कई तरह के माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं।
- इसमें सबसे ज्यादा मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक फाइबर और फिर फिल्म, फ्रैगमेंट और फोम पाए गए।
- मॉनसून के समय इनकी मात्रा सबसे कम थी। इसका संभावित कारण था कि इस मौसम में यहां का पानी अरब सागर में बह जाता है।
भारत में हुई एक नई स्टडी में दक्षिण-पश्चिमी भारत के मैंग्रोव में पाए गए कई तरह के माइक्रोप्लास्टिक और उनके डिस्ट्रीब्यूशन के बारे में जानकारी दी गई है। इससे, इन प्रदूषकों की घुसपैठ के विस्तार को लेकर ताजी जानकारी मिली है। यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम के तहत इसे ‘लंबे समय तक रहने वाला प्लास्टिक प्रदूषण’ कहा गया है।
मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और कोलंबिया की अटलांटिको यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने कर्नाटका के उडुपी जिले के एक तटीय गांव कोटा के मैंग्रोव में यह स्टडी की। यहां के सभी सैंपल में सबसे ज्यादा फाइबर श्रेणी के प्रदूषक पाए गए। इन फाइबर की माप एक मिलीमीटर से भी कम थी। कोटा के ये मैंग्रोव जंगल लगभग 3 किलोमीटर दूरी में फैले हुए हैं और यहां लगभग 10,800 लोग रहते हैं।
एशिया में की गई कुछ पिछली स्टडी में भी एशियाई मैंग्रोव में माइक्रोप्लास्टिक की प्रचुरता के सबूत मिले थे। बता दें कि दुनियाभर के 42 प्रतिशत मैनग्रोव एशिया में ही पाए जाते हैं। साल 2020 में चीन में हुई एक स्टडी में सामने आया कि चीन के मैंग्रोव में फोम और फाइबर की अधिकता ज्यादा थी। वहीं, थाईलैंड की एक स्टडी के मुताबिक, मे क्लॉन्ग नदी के बेसिन में मैंग्रोव सेडीमेंट पाए गए। मे क्लॉन्ग नदी थाईलैंड की ऊपरी खाड़ी में मछली पकड़ने की एक अहम जगह मानी जाती है। यहां के पानी में माइक्रोप्लास्टिक और माइक्रोपार्टिकल पाए गए। इनमें अधिकतर वे थे जिनका इस्तेमाल कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
हालांकि, मैंग्रोव इकोसिस्टम में माइक्रोप्लास्टिक के पाए जाने और उनके वितरण को लेकर बहुत कम डेटा उपलब्ध है। खासकर, दक्षिण पश्चिमी भारत के लिए यह डेटा न के बराबर है।
कोटा की इस स्टडी में वैज्ञानिकों ने फील्ड सैंपलिंग, लैब में विश्लेषण और स्टैटिस्टिकल तरीकों के संयोजन का इस्तेमाल किया ताकि मैंग्रोव में माइक्रोप्लास्टिक का अध्ययन किया जा सके। इस तरीके से इन वैज्ञानिकों ने माइक्रोप्लास्टिक के प्रकार और मैनग्रोव इकोसिस्टम पर उनके प्रभाव के बारे में जानने की कोशिश की।
इन वैज्ञानिकों को कोटा मैंग्रोव के पानी के सैंपल में सभी श्रेणियों- फ्रैगमेंट, फोम, फाइबर, फिल्म और दानों के रूप में प्रदूषक मिले। इसमें सबसे ज्यादा फाइबर और उसके बाद फिल्म, फ्रैगमेंट और फोम की मात्रा पाई गई।
वैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि मॉनसून के समय प्रदूषकों की मात्रा सबसे कम थी। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि इस मौसम में फ्लो रेट ज्यादा होता है जिसके चलते यह हो सकता है कि मैंग्रोव में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक अरब सागर में बह जाते हों। मॉनसून के बाद इसकी मात्रा बढ़ जाने की वजह पर्यटन से संबंधी गतिविधियां हो सकती हैं।
यह स्टडी कहती है, “इस मौजूदा स्टडी में दक्षिण-पश्चिम भारत के कोटा के ऊष्णकटिबंधीय मैंग्रोव इकोसिस्टम में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण की गहराई से जांच की गई। इसमें ईकोलॉजिकल सेहत के पहलुओं को भी सम्मिलित किया गया है।”
रिसर्चर्स का कहना है कि इन नतीजों से स्थानीय और क्षेत्रीय नीति निर्धारित करने में मदद मिलेगी और मैंग्रोव इकोसिस्टम के सतत प्रबंधन और संरक्षण के जुड़ी कार्रवाई करने में आसानी होगी।
रिपोर्ट कहती है, “इस स्टडी के नतीजे वैश्विक स्तर पर इसी तरह के इकोसिस्टम के लिए मॉडल के तौर पर काम कर सकते हैं। इससे मरीन इकोसिस्टम में प्लास्टिक प्रदूषण के खिलाफ एकीकृत कार्रवाई करने की जरूरत पर भी जोर दिया जा सकता है।” स्टडी में आगे कहा गया है, “हमने उन कारकों के बारे में भी जाना जिनकी वजह से इन बदलावों पर असर होता है और क्षेत्रीय जैव विविधता को खतरे पैदा होते हैं। इस रिसर्च का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास के लक्ष्यों में योगदान देना भी है। उदाहरण के लिए- सतत विकास लक्ष्य-6- पानी और स्वच्छता, सतत विकास लक्ष्य-14 पानी के नीचे जिंदगी और सतत विकास लक्ष्य-12 जिम्मेदार उपभोग और उत्पादन।”
सीमित अध्ययन
मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मणिपाल के सेंटर फॉर क्लाइमेट स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर और इस रिपोर्ट के लेखकों में से एक अनीष वारियर ने मोंगाबे-इंडिया को समझाया कि भारत में की गई पिछली स्टडी में माइक्रोप्लास्टिक के वितरण का मौसम के हिसाब से अध्ययन नहीं किया गया था। वह आगे कहते हैं, “हमने अपनी स्टडी में पाया कि मॉनसून की तुलना में उसके बाद के मौसम में माइक्रोप्लास्टिक का दबाव बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मॉनसून के समय पर बहाव की दर काफी बढ़ जाती है और मैंग्रोव में रुके माइक्रोप्लास्टिक को अरब सागर में बहा ले जाती है।”
वैज्ञानिकों ने यह देखा कि माइक्रोप्लास्टिक के दबाव में भारी बढ़ोतरी हुई है। वैज्ञानिक इसकी वजह अवैज्ञानिक तरीके से बनाए गए बांध के निर्माण को मानते हैं।
वारियर कहते हैं, “यह बांध हाइड्रोडायनिक परिस्थितियों को बाधित करते हैं और इसके चलते पानी में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा बढ़ती है। हमने पाया कि माइक्रोप्लास्टिक की सतह पर कई भारी धातुएं भी मौजूद थीं। ये भारी धातुएं पर्यावरण में भी मिल सकती हैं और आस-पास रहने वाले जीव-जंतुओं पर पड़ने वाले माइक्रोप्लास्टिक के असर और बुरा बना सकती हैं।”
इस टीम ने यह भी पाया कि जहां इंसानी गतिविधियां ज्यादा हैं वहां माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण भी ज्यादा है। वह कहते हैं, “इसकी वजह मलबे को खराब प्रबंधन और मछली पकड़ने जैसी गतिविधियां हो सकती हैं।”
यह जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर प्लास्टिक कचरे के उचित निस्तारण के लिए कोई रेगुलेटरी फ्रेमवर्क हो। इसके अलावा, स्थानीय लोगों को माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण और उनके जीवन पर इसके संभावित बुरे असर के बारे में बताया जाएगा। खासकर उन लोगों को जागरूक किए जाने की जरूरत है जो अपनी आजीविका के लिए इस मैंग्रोव के संसाधनों पर आश्रित हैं। वह आगे कहते हैं, “ये जंगल हर तरह से बहुत जरूरी हैं और इन्हें बचाने की जरूरत है क्योंकि इंसानी गतिविधियों से सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है।”
अन्य वैज्ञानिक भी ऐसे डेटा की अहमियत को मानते हैं और वे ऐसे अध्ययनों की कमी पर सहमत भी हैं।
एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन, चेन्नई में कोस्टल सिस्टम रिसर्च के सीनियर फेलो आर रामासुब्रमण्यन कहते हैं, “जलीय इकोसिस्टम में पाए जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक को पानी में पाए जाने वाले जीव जैसे कि मछलियां खा लेंगी और इससे उनकी मेटाबॉलिक प्रक्रिया प्रभावित होगी।” वह आगे कहते हैं, “मैंग्रोव वेटलैंड में ऐसी ज्यादा स्टडी नहीं की गई हैं और मुंबई जैसे शहरी इलाकों जहां प्लास्टिक की मात्रा काफी ज्यादा है और उन्हें मैंग्रोव वेटलैंड के पास ही फेंक दिया जाता है, वहां के लिए इस तरह के अध्ययन बहुत जरूरी भी हैं।”
अन्नामलाई यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडीज इन मरीन बायोलॉजी के डायरेक्टर कतीरेसन कंडास्वामी कहते हैं, “भारत के मैंग्रोव वाले क्षेत्रों खासकर कर्नाटका के तटीय क्षेत्र में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण को लेकर बहुत ही कम अध्ययन किया गया है और बेहद कम डेटा मौजूद है।” भारत के मैंग्रोव में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण तेजी से उभरती हुई समस्या है। ज्यादा पर्यटकों वाले मैंग्रोव में यह समस्या और गंभीर है जिसे नियंत्रित किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि कर्नाटका पर की गई इस स्टडी के नतीजों को अन्य क्षेत्रों पर लागू करने से हो सकता है कि वे बहुत सटीक न हों।
वारियर कहते हैं, “यह समझना जरूरी है कि इस क्षेत्र के मैंग्रोव में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी की सबसे बड़ी वजह तरह-तरह की इंसानी गतिविधिया हैं। ऐसे में इस स्टडी के नतीजों को किसी अन्य मैंग्रोव पर लागू करने पर उसके सटीक न होने की संभावना ज्यादा है। यह भी समझना चाहिए कि जहां मैंग्रोव स्थित है वह नदी कहां है और नदी के ऊपरी हिस्से में किस तरह की गतिविधियां होती हैं।”
वारियर समझाते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक नदी के ऊपरी हिस्से से बहकर नीचे की ओर से आ सकते हैं और मैंग्रोव में प्रवेश कर सकते हैं। दरअसल, मैंग्रोव में वनस्पतियों और उनकी घनी जड़ों की वजह से पानी का बहाव धीमा हो जाता है और माइक्रोप्लास्टिक वहीं जमा होने लगते हैं। इसके अलावा, मैंग्रोव की जगह भी माइक्रोप्लास्टिक के वितरण को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, नदियों के मुहाने पर विकसित हुए माइक्रोप्लास्टिक का वितरण डेल्टा पर विकसित हुए माइक्रोप्लास्टिक की तुलना में अलग होगा। वारियर आगे कहते हैं, “इसके बावजूद मैंग्रोव को सिंक समझा जाता है और ये माइक्रोप्लास्टिक जैसे हानिकारक प्रदूषकों का स्रोत बनते जा रहे हैं। भारत के ऐसे सभी मैंग्रोव फॉरेस्ट के बारे में यह बात सही भी है।”
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कंडास्वामी कहते हैं कि इस स्टडी के नतीजों को ठीक इसी तरह दूसरे इलाकों पर लागू नहीं किया जा सकता है। इसके लिए पर्यटकों की गतिविधियां, इंसानी गतिविधियों का हस्तक्षेप, मैंग्रोव का प्रकार जैसे कि डेल्टा, द्वीप सिस्टम और बैकवॉटर जैसे कारकों को भी देखना होता है।
भविष्य की दिशा
वारियर कहते हैं कि पानी में माइक्रोप्लास्टिक ढूंढने के बाद से उनकी टीम अब इस क्षेत्र के जीवों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा को माप रही है। वह कहते हैं, “इस क्षेत्र में आर्थिक रूप से अहम ऐसे जीव हैं जिनका निर्यात भारत से दूसरे देशों में किया जाता है, ऐसे में यह समझना बेहद जरूरी है कि अलग-अलग तरह की मछलियों और केकड़ों में इन माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा कितनी है।”
वह कहते हैं कि यह समझना जरूरी है कि माइक्रोप्लास्टिक फूड चेन में कैसे आगे बढ़ते हैं और पौष्टिकता के अलग-अलग स्तरों पर इनका जैव संचयन किस तरह होता है। अनीष आगे कहते हैं, “हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या पर्यावरण में मौजूद सूक्ष्म जीवों के व्यवहार में बदलाव हुआ है? इसके लिए हम प्लास्टिक पर मौजूद सूक्ष्म जीवों की तुलना प्राकृतिक चीजों जैसे कि पत्थरों पर पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों से कर रहे हैं। एक बार हमारे पास सभी अहम स्रोतों जैसे कि पानी, सेडिमेंट और बायोटा में पाए जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक का डेटा होगा तो हम अपनी रिसर्च को नीति संबंधित वैज्ञानिक लेखों पर केंद्रित करेंगे जिससे माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण कम करने वाली संबंधित संस्थाओं को मदद मिल सकेगी।”
कंडास्वामी कहते हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की गंभीरता के बारे में लोगों में ज्यादा कार्रवाई आधारित जागरूकता फैलाने की जरूरत है। वह आगे कहते हैं, “रिपोर्ट के मुताबिक, इंसानों के खाने वाले समुद्री नमक में भी माइक्रोप्लास्टिक पाए जाते हैं। हालांकि, अभी तक इंसानों की सेहत पर माइक्रोप्लास्टिक के असर को साफतौर पर समझा नहीं जा सका है।”
कंडास्वामी आगे कहते हैं कि बेहतर यही होगा कि प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोका जाए लेकिन जो प्लास्टिक पहले से इस्तेमाल में है उससे पड़ने वाले असर को रोका नहीं जा सकता है। वह कहते हैं, “हमारे पर्यावरण के हर हिस्से पर माइक्रोप्लास्टिक के प्रदूषण को लेकर दुनियाभर में चिंताएं जताई जा रही हैं और वैश्विक स्तर पर इसको लेकर अध्ययन किया जा रहा है। हालांकि, भारत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं। हमारे देश में भी माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के विस्तार को समझने की जरूरत ज्यादा है।”
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बैनर तस्वीर: मुंबई में एक मैंग्रोव की प्रतीकात्मक तस्वीर। मैंग्रोव में माइक्रोप्लास्टिक पाए जाने की सबसे अहम वजह उस क्षेत्र में इंसानी गतिविधियों को माना जाता है और ये अलग-अलग इलाकों के हिसाब से अलग-अलग हो सकती हैं। तस्वीर- सौमित्र शिंदे/मोंगाबे।