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खराब और पुराने टायर क्यों हैं पर्यावरण के लिए गंभीर मुद्दा?

सोमालिया में खराब पड़े टायर। प्रतीकात्मक तस्वीर। साल 2021 में भारत में हर दिन 2,75,000 टायर खराब हो रहे थे और इन खराब हो रहे टायरों की कोई ट्रैकिंग ही नहीं होती है। तस्वीर- वंगारी पैट्रिकके/विकिमीडिया कॉमन्स।

सोमालिया में खराब पड़े टायर। प्रतीकात्मक तस्वीर। साल 2021 में भारत में हर दिन 2,75,000 टायर खराब हो रहे थे और इन खराब हो रहे टायरों की कोई ट्रैकिंग ही नहीं होती है। तस्वीर- वंगारी पैट्रिकके/विकिमीडिया कॉमन्स।

  • गाड़ियां की मांग बढ़ने के साथ-साथ टायर का इस्तेमाल भी खूब बढ़ा है और इससे पुराने या खराब टायरों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है।
  • खराब टायर खतरनाक या जहरीले कचरे की श्रेणी में आते हैं क्योंकि इनमें आग लगने की आशंका होती है और ये हवा और पानी में जहर घोलने का काम भी करते हैं।
  • सरकार साल 2022 में खराब टायरों के लिए एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर्स रेस्पॉन्सिबिलिटी के नियम लेकर आई लेकिन आंकड़े दिखाते हैं कि टायर बनाने वाली इंडस्ट्री ने अभी तक इसका पालन शुरू नहीं किया है।

दिसंबर 2022 में भारत जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार बन गया। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में ऑटोमोबाइल सेक्टर का योगदान लगभग 7 प्रतिशत का है। जैसे-जैसे गाड़ियों का बाजार बढ़ रहा है, वैसे-वैसे भारत के टायर बाजार में भी बढ़ोतरी हो रही है।

साल 2022 में भारत में टायर का उत्पादन 221 प्रतिशत बढ़ा और साल 2023 में 6 प्रतिशत और बढ़ा। इस तरह एक साल में टायरों का कुल उत्पादन 217.4 मिलियन यूनिट तक पहुंच गया। वजन के हिसाब से देखें तो साल 2019 से भारत में हर साल 25 लाख मीट्रिक टन टायर हर साल बनाए जा रहे हैं।

हालांकि, इस बढ़ोतरी का एक दूसरा पहलू भी है। टायर एंड रबर रीसायकलर्स असोसिएशन ऑफ इंडिया (TRRAI) के अध्यक्ष सतीश गोयल कहते हैं, “20 पर्सेंट की टूट-फूट और खराब होने वाले टायरों की संख्या के साथ लगभग 2 मिलियन मीट्रिक टन टायर हर साल खराब हो जाते हैं।” इसके अलावा 8 लाख मीट्रिक टन खराब टायर हर साल यूके, ऑस्ट्रेलिया और UAE से आयात किए जाते हैं। सतीश गोयल बताते हैं, “इन देशों में टायर रीसायकलिंग की अनुमति नहीं है। ऐसे में भारत में खराब टायरों की संख्या 28 लाख मीट्रिक टन पहुंच जाती है।”

हरियाणा में सड़क किनारे मौजूद टायर रिपेयरिंग की दुकान। साल 2022 में टायर उत्पादन 21 प्रतिशत और 2023 में 6 प्रतिशत बढ़ गया है। तस्वीर- शाश्वत नागपाल/Flickr।
हरियाणा में सड़क किनारे मौजूद टायर रिपेयरिंग की दुकान। साल 2022 में टायर उत्पादन 21 प्रतिशत और 2023 में 6 प्रतिशत बढ़ गया है। तस्वीर– शाश्वत नागपाल/Flickr।

साल 2022 में भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) मंत्रालय ने खराब टायरों के लिए एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर्स रेस्पॉन्सिबिलिटी (EPR) की शुरुआत की जिसका मतलब है कि खराब होने वाले टायरों के सुरक्षित निस्तारण की जिम्मेदारी उत्पादक या आयातक की है। उत्पादक या आयातक रीसाइकलिंग करने वालों से EPR सर्टिफिकेट खरीद सकते हैं जो कि इन खराब टायरों को पर्यावरण के लिए सुरक्षित उत्पाद में बदलने का काम कर रहे हैं। गोयल कहते हैं, “भारत में टायर रीसाइकलिंग के लिए EPR वरदान की तरह है। हालांकि, जब तक टायर उत्पादक इसके लिए कीमत चुकाने आगे नहीं आएंगे तब तक यह आसान नहीं होगा।” केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) का डेटा दिखाता है कि फिलहाल टायर की रासाइकलिंग के लिए होने वाले खर्च का सिर्फ एक प्रतिशत टायर उत्पादकों की ओर से दिया जाता है।

पर्यावरण और सेहत पर प्रभाव 

साल 2021 में आई केंद्रीय आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय (MoHUA) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में निकलने वाले कुल ठोस कचरे का 1 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ खराब टायर होते हैं। हालांकि, टायर जैविक रूप से विघटित नहीं होते यानी ये नॉन-बायोडिग्रेडेबल होते हैं और कचरा फेंकने वाली जगहों पर काफी ज्यादा जगह भी घेरते हैं। खराब तरीके से फेंके गए टायरों में पानी जमा होने से ये मच्छरों और चूहों के लिए उपयुक्त जगह बन जाते हैं जहां इनके बच्चे खूब पनपते हैं और मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियां फैलाते हैं।

गर्मी बनाकर रख पाने की क्षमता के चलते रबर के टायरों से ऊर्जा पैदा की जा सकती है। वैसे तो इस पर बैन है लेकिन यह ईंट और गुड़ के भट्टों के लिए एक सस्ता लेकिन प्रदूषण फैलाने वाला ईंधन हो सकता है। टायर जलाने से कैंसर पैदा करने वाले प्रदूषक जैसे कि एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन, डायोक्सिन, फ्यूरान आदि उत्सर्जित होते हैं।

टायर आसानी से आग पकड़ते हैं। एक बार आग पकड़ने के बाद इनको बाहर निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो आग की कई बड़ी घटनाओं के जिम्मेदार टायर ही रहे हैं। चिंतन एन्वायरनमेंटल रिसर्च एंड ऐक्शन ग्रुप की साल 2017 की एक रिपोर्ट ‘सर्कुलेटिंग टायर्स इन द इकोनॉमी‘ के मुताबिक, टायर से लगने वाली आग में अब तक की सबसे बड़ी आग साल 1989 की है जो वेल्स में लगी थी और उसे बुझाने में 15 साल लगे थे। यह आग खराब पड़े एक करोड़ टायरों की वजह से लगी थी। इसके अलावा एक और घटना साल 2016 के मई में घटी जब स्पेन के मैड्रिड में टायर के डंपिंग ग्राउंड में आग लगने से उठने वाले जहरीले धुएं के बादलों के चलते 9 हजार लोगों को घर छोड़ने को कहा गया। भारत में अभी तक टायर के ढेरों में आग लगने की कोई घटना नहीं हुई लेकिन कूड़े के डंपिंग ग्राउंड पर लगने वाली आगों में रबर के जलने से उठने वाले धुएं का अहम योगदान है। इसी आग के बाद निकलने वाले धुएं और राख से मिट्टी और जमीन के अंदर का पानी और दूषित होता है।

भारत में निकलने वाले कुल ठोस कचरे का 1 प्रतिशत हिस्सा खराब टायर ही होते हैं। तस्वीर- डेनियल्स जीन-अमेरिकी नेशनल आर्क्वाइव्स एंड रिकॉर्ड्स एडमिनिस्ट्रेशन/विकिमीडिया कॉमन्स। 
भारत में निकलने वाले कुल ठोस कचरे का 1 प्रतिशत हिस्सा खराब टायर ही होते हैं। तस्वीर– डेनियल्स जीन-अमेरिकी नेशनल आर्क्वाइव्स एंड रिकॉर्ड्स एडमिनिस्ट्रेशन/विकिमीडिया कॉमन्स।

MoHUA की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021 में भारत में हर दिन 2,75,000 टायर खराब हो रहे थे। इस रिपोर्ट में कहा गया था, “भारत में खराब होने वाले इन टायरों और उनके डिस्पोजल को लेकर कोई ट्रैकिंग नहीं की जाती है।” वहीं, रीसाइकलिंग करने वालों का कहना है कि स्क्रैप हुए टायरों के सभी हिस्सों का फिर से इस्तेमाल कर लिया जाता है।

TRRAI के गोयल के मुताबिक, भारत में लगभग 800 रजिस्टर्ड रीसाइकलर हैं। इसमें से 70 से 80 प्रतिशत सिर्फ टायर रीसाइकलिंग सेक्टर के हैं। ज्यादातर प्लांट उत्तर प्रदेश (250 यूनिट) और हरियाणा (150 यूनिट) में स्थित हैं। गोयल की संस्था TRRAI में 400 लोग हैं। भारत के 800 रीसाइकलर में से 650 ऐसे हैं जो टायर पायरोलसिस ऑइल (TPO) का उत्पादन करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, मौजूदा समय में टायर और रबर रीसाइकलिंग की इंडस्ट्री 3500 करोड़ की है। स्थानीय स्तर पर तेजी से बढ़ रही ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के आकार और इसी समय में रीसाइकलिंग इंडस्ट्री में वैल्यू-एडीशन को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय में यह 10 गुना बड़ी हो सकती है।

कैसे रीसाइकल होते हैं टायर?

MoEFCC की अनुमति के मुताबिक, खराब टायरों से रिकवर होने वाली चीजों में रीक्लेम्ड रबर, क्रम्ब रबर, क्रम्ब रबर मोडिफाइड बिटुमन (CRMB), रिकवर्ड कार्बन ब्लैक (RCB) और टायर पायरोलसिस ऑइल (TPO) और इसका चार होता है।

इसके अलावा, पुराने टायरों की रीट्रीडिंग करके और उनको फिर से नया करके भी इस्तेमाल में लाया जाता है। रीट्रीडिंग का मतलब है कि वल्कनाइजेशन (एक रासायनिक प्रक्रिया) के जरिए उन टायरों पर एक नई परत चढ़ाई जाती है जिनकी स्थिति अच्छी होती है। रीग्रूविंग का मतलब है कि पुराने टायरों में मैनुअल तरीके से खांचे बनाए जाते हैं। रीट्रीडिंग वाले टायर पुराने और धीमे चलने वाले वाहनों और जानवरों से चलने वाली गाड़ियों में इस्तेमाल होते हैं वहीं तेज चलने वाली गाड़ियों के लिए इन्हें असुरक्षित माना जाता है। लुधियाना के टायर रीसाइकलर और उत्पादक बताते हैं, “धान के खेतों में चलने वाले ट्रैक्टरों में हर दो साल में नए टायरों की जरूरत होती है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा में रीट्रीडिंग टायरों का एक बड़ा बाजार है।” चिंतन की रिपोर्ट कहती है कि भारी गाड़ियों जैसे कि लॉरी, ट्रक और बस में रीग्रूविंग टायरों का मतलब है कि फ्लीट ऑपरेटरों के लिए लागत कम हो जाती है।

रीक्लेम और क्रम्ब रबर का इस्तेमाल कन्वेयर बेल्ट, डोरमैट, जिम और खेलने वाली जगहों के लिए फ्लोर टाइल बनाने, साइकिल के पैडल बनाने, जूतों के सोल बनाने, गमले बनाने, रबर की शीट बनाने, बैटरी कंटेनर और होजपाइप बनाने में किया जाता है। इसके अलावा, CRMB का इस्तेमाल सड़क बनाते समय बिटुमन में मिलाकर भी किया जाता है। रबर मिला होने से बिटुमन तापमान बदलने और बारिश से कम प्रभावित होता है। साथ ही, थर्मल क्रैकिंग, फटीग क्रैकिंग और लीक, नमी और उम्र के साथ कठोर होने जैसी चीजों से भी यह बचा रहता है। साल 2017 तक 1,25,000 किलोमीटर सड़कों का निर्माण CRMB से किया गया था। चिंतन की रिपोर्ट में कहा गया है, “खराब टायरों का निस्तारण करने का यह सबसे पर्यावरण अनुकूल तरीका है। भारत में हर साल लगभग 6 से 8 लाख मीट्रिक टन बिटुमन का आयात किया जाता है। ऐसे में बिटुमन में क्रम्ब रबर मिलाकर इसके आयात को 12 से 14 प्रतिशत कम किया जा सकता है।”

पायरोलसिस कार्बनिक पदार्थों का उच्च तापमान पर ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में रासायनिक डीकंपोजीशन होता है। टायर पायरोलसिस प्रक्रिया से 40 प्रतिशत तेल, 33 प्रतिशत कार्बन चार और 15 से 20 प्रतिशत स्टील का तार निकलता है। इस तेल या TPO का इस्तेमाल भट्टी में वैकल्पिक ईंधन के रूप में किया जाएगा। इसका इस्तेमाल आमतौर पर हॉट मिक्स बनाने और सड़क बिछाने में किया जाता है। गोयल बताते हैं कि भारत में हर साल 1 मिलियन मीट्रिक टन टीपीओ का उत्पादन होता है। अगर TPO निकालने का काम सही से नहीं होता है तो इससे धुआं और कालिख निकलने लगता है। लुधियाना के टायर प्रोड्यूसर और रीसाइकलर नाम ना छापने की शर्त पर कहते हैं, “जिन स्थितियों में ये मजदूर काम कर रहे हैं वह अमानवीय है। इन क्लोज यूनिट में हवा के लिए भी जगह नहीं होती है। भट्टियों के मालिक उनको गुड़ और शराब देते हैं ताकि फेफड़ों पर कार्बन का दबाव कम हो सके लेकिन लंबे समय तक इससे लंबे समय तक राहत नहीं मिलती है।”

पायरोलसिस से निकलने वाले कार्बन चार का इस्तेमाल काले पॉलीमर उत्पादों जैसे कि पानी की टंकियों और पेंट और डाई में फिलर मटीरियल के तौर पर किया जाता है। गोयल कहते हैं, “ज्यादा कैलोरिफिक वैल्यू की वजह से ईंट और सीमेंट की भट्टियों में कार्बन चार का इस्तेमाल किया जाता है जबकि इसकी अनुमति नहीं है। पहले इसी चार को धूल समझा जाता था और इसे वातावरण में छोड़ दिया जाता था और अब इसे इकट्ठा करके RCB बनाने में किया जा रहा है जिसका फिर से इस्तेमाल नए टायरों को बनाने में किया जाता है।”

मौजूदा समय में एक नए टायर का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा एक पेट्रोलियम उत्पाद यानी वर्जिन कार्बन ब्लैक से बनता है। हालांकि, इसकी जगह पर RCB का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसे कई प्रक्रियाओं की सीरीज के बाद बनाया जा सकता है। गोयल कहते हैं, “एक नई नीति बनाई जा रही है जिसके तहत नए टायर बनाने में 5 से 10 प्रतिशत RCB का इस्तेमाल किया जा सकेगा। इससे नए टायरों में वर्जिन कार्बन ब्लैक का इस्तेमाल कम किया जा सकेगा।”

कटे-फटे टायरों के टुकड़ों का ढेर। टायरों के कचरे से निकलने वाले जिन पदार्थों की अनुमति MoEFCC देता है, उनमें रीक्लेम्ड रबर, क्रम्ब रबर, क्रम्ब रबर मोडिफाइड बिटुमन, रिकवर्ड कार्बन ब्लैक और टायर पायरोलसिस ऑइल के साथ-साथ इसका चार होता है। तस्वीर- शुकी/विकिपीडिया कॉमन्स।
कटे-फटे टायरों के टुकड़ों का ढेर। टायरों के कचरे से निकलने वाले जिन पदार्थों की अनुमति MoEFCC देता है, उनमें रीक्लेम्ड रबर, क्रम्ब रबर, क्रम्ब रबर मोडिफाइड बिटुमन, रिकवर्ड कार्बन ब्लैक और टायर पायरोलसिस ऑइल के साथ-साथ इसका चार होता है। तस्वीर– शुकी/विकिपीडिया कॉमन्स।

क्या कहता है कानून?

साल 2022 में आई EPR की अधिसूचना के मुताबिक, टायर उत्पादकों, आयातकों (स्क्रैप टायरों का आयात करने वाले भी), रीसाइकलर्स और रीट्रीडर्स को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के EPR पोर्टल पर रजिस्टर कराना जरूरी है। उत्पादक और आयातक इस पोर्टल के जरिए रीसाइकलर्स से EPR सर्टिफिकेट खरीदकर अपने EPR दायित्व को निभा सकते हैं। रीसाइकल किए गए टायर की मात्रा के हिसाब से ये रीसाइकलर इस पोर्टल पर ये सर्टिफिकेट जेनरेट करते हैं। रीसाइकलिंग के हर तरीके को वेटेज प्वाइंट दिया जाता है और इसी के हिसाब से रीसाइकलर्स को क्रेडिट दिए जाते हैं। साल 2022-23 में रीसाइकलर्स ने 4 लाख से ज्यादा क्रेडिट जेनरेट किया था और 2023-24 में 91 हजार से ज्यादा क्रेडिट जेनरेट किए गए। अगर EPR का पालन नहीं किया जाता है तो इसके लिए एक रिफंडेबल जुर्माना लगाया जाता है।

साल 2022-23 में जब अधिसूचना आई थी तब उत्पादकों को टायरों के 35 प्रतिशत के बराबर EPR भरना जरूरी था। इसके हिसाब से वजन के मुताबिक, लगभग 8 लाख क्रेडिट जेनरेट होना था। साल 2023-24 के लिए यह 70 प्रतिशत या 18 लाख क्रेडिट प्वाइंट था। साल 2024-25 में और इसके बाद यह 100 पर्सेंट था। हालांकि, पोर्टल के मुताबिक, अभी तक उत्पादकों ने सिर्फ 5000 क्रेडिट प्वाइंट यानी 1 पर्सेंट से भी कम खरीदे हैं।

गोयल बताते हैं, “टायर उत्पादक EPR देना नहीं चाहते हैं क्योंकि यह उनके लिए यह अतिरिक्त लागत हो जाती है इसलिए उनका आरोप है कि TPO एक अस्थायी और प्रदूषण वाली इंडस्ट्री है। वे EPR क्रेडिट को 2 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचना चाहते हैं लेकिन किसी भी रीसाइकलिंग कंपनी को 5 से 6 रुपये प्रति किलो से कम के रेट पर चला पाना संभव नहीं है।” भारत की सभी 650 रजिस्टर्ड TPO यूनिट को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से अनुमति मिली हुई है। गोयल कहते हैं कि अगर वे प्रदूषण फैला रही होतीं तो उन्हें मंजूरी ही नहीं मिलती।

नवंबर 2023 में CPCB ने TPO में होने वाले दहन और भीषण उत्सर्जन के चलते संभावित वायु प्रदूषण की वजह से इसे ऑरेंज कैटगरी की इंडस्ट्री घोषित कर दिया। पॉल्यूशन इंडेक्स (PI) के मुताबिक, सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली इंडस्ट्री रेड कैटगरी की है और ऑरेंज कैटगरी की इंडस्ट्री नंबर दो पर है। इसी साल जनवरी के महीने में CPCB ने इस इंडस्ट्री के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) जारी किया है और TPO उत्पादन के लिए वेस्ट टायरों के आयात पर प्रतिबंधों को दोहराया है।


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गोयल आगे कहते हैं, “अनुमति होने की वजह से क्रम्ब रबर सेक्टर में ज्यादातर कच्चे माल का आयात ही किया जाता है। वहीं, TPO सेक्टर में भारत में बनने वाले टायर वेस्ट का इस्तेमाल किया जाता है जबकि देशभर के औपचारिक रिसाइकलरों में 80 प्रतिशत इसी सेक्टर से हैं। इसे दूर हटाने के बजाय यह जरूरी है कि TPO सेक्टर में टेक्नोलॉजी और और बेहतर बनाया जाए। अन्यथा भारत में कचरों के इस बोझ को कौन झेलेगा?”

वह कहते हैं, “मैं मानता हूं कि आज से दो साल पहले तक भी TPO इंडस्ट्री स्थायित्व वाली नहीं थी। साल 2010 में जब चीन से भारत में टेक्नोलॉजी आने की शुरुआत हुई तब वह अपने साथ कई तरह की समस्याएं भी लेकर आई। हालांकि, समय के साथ हमने पर्यावरण के मानकों के हिसाब से इसे अपग्रेड किया है। अब हम दावा कर सकते हैं कि TPO एक जीरो वेस्ट टेक्नोलॉजी है। यहां तक कि जो गैस निकलती है उसे भी फिर से संघनित करके ईंधन बना लिया जाता है जिससे प्लांट चलता है।” 

सड़क बिछाने का काम जारी। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के मुताबिक, 2017 तक लगभग 1,25,000 किलोमीटर सड़क को क्रम्ब रबर मोडिफाइड बिटुमन (CRMB) मिलाकर बिछाया गया था। तस्वीर- सूर्य प्रकाश.S.A/विकिमीडिया कॉमन्स
सड़क बिछाने का काम जारी। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के मुताबिक, 2017 तक लगभग 1,25,000 किलोमीटर सड़क को क्रम्ब रबर मोडिफाइड बिटुमन (CRMB) मिलाकर बिछाया गया था। तस्वीर– सूर्य प्रकाश.S.A/विकिमीडिया कॉमन्स

चिंतन की निदेशक भारती चतुर्वेदी असहमित जताते हुए कहती हैं, “लैब में अच्छी साबित होने वाली एक टेक्नोलॉजी का मतलब यह नहीं है कि यह रियल टाइम में भी अच्छा ही काम करेगी। यह वैज्ञानिक तरीके से डिजाइन की गई लैंडफिल या वेस्ट टू एनर्जी प्लांट की तरह है जो सिद्धांतों के मुताबिक तो अच्छी होती है लेकिन बिना प्रदूषण किए अच्छे से काम ही नहीं कर पाती है। अगर यह इतना ही अच्छा आइडिया है तो जहांतहां राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड TPO यूनिटों को बंद क्यों करता रहता है?”

उनके मुताबिक, उत्पादकों और रीसाइकरर्स के बीच वेस्ट टायरों के बेहतर चैनलाइजेशन की जरूरत है। इसके अलावा, वेस्ट टायरों से बनने वाले रीसाइकल्ड टायरों की बेहतर मार्केटिंग भी करना जरूरी है। वह कहती हैं, “उदाहरण के लिए, सरकार सड़क निर्माण में CRMB को अनिवार्य किया जा सकता है या कम से कम PWD सड़कों में इसका इस्तेमाल जरूरी किया जा सकता है। उत्पादकों को रीसाइकलर्स से बात करके कीमतों पर चर्चा करनी चाहिए। इसके अलावा, स्टोरेज और ट्रांसपोर्टेशन के लिए भी बात करना जरूरी है। इसके अलावा इनफॉर्मल सेक्टर हर हाल में ऐसा करने को तैयार है और वह वैसा करने जा रहा है जैसा कि बीते कुछ सालों में करता आ रहा है।”

 

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बैनर तस्वीर: सोमालिया में खराब पड़े टायर। प्रतीकात्मक तस्वीर। साल 2021 में भारत में हर दिन 2,75,000 टायर खराब हो रहे थे और इन खराब हो रहे टायरों की कोई ट्रैकिंग ही नहीं होती है। तस्वीर– वंगारी पैट्रिकके/विकिमीडिया कॉमन्स।

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