- पहाड़ी राज्य अरुणाचल प्रदेश में जैसे- जैसे पर्यटन बढ रहा है, वैसे-वैसे वहां के गांवों में निर्बाध बिजली आपूर्ति की मांग भी बढ़ने लगी है। राज्य इस बढ़ती मांग को पूरा करने में असमर्थ है।
- राज्य में पारंपरिक पनचक्की या चोस्कोर में इस ऊर्जा समस्या का कुछ हद तक हल करने की क्षमता है।
- बंद पड़ी पनचक्कियों को पुनर्जीवित करना ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने, रोजगार पैदा करने और एक खोई हुई परंपरा को संरक्षित करने का एक स्थायी तरीका हो सकता है।
रूपा बौद्ध मठ में काफी चहल पहल है। उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश के पश्चिम कामेंग जिले के रूपा उप-मंडल में रहने वाली एक प्रमुख जनजाति शेरटुकपेन अपने सबसे लोकप्रिय त्यौहार खिक-सबा की तैयारियों में जोर-शोर से जुटे हैं। स्थानीय पहाड़ी देवताओं के सम्मान में हर साल नवंबर के आखिर में मनाया जाने वाले इस त्योहार का समुदाय के लिए काफी सांस्कृतिक महत्व है। हालांकि ये जनजाति बौद्ध धर्म का पालन करती हैं उसके बावजूद अपनी प्राचीन परंपराओं का सम्मान करने की अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ बनी हुई है। सप्ताह भर चलने वाले त्योहार में कई समारोह होते हैं जिनमें काफी ज्यादा मात्रा में मक्के के आटे की जरूरत होती है। इससे पारंपरिक शराब और अन्य पवित्र प्रसाद बनाया जाता है।
त्योहार में बस कुछ ही दिन बचे हैं, लेकिन शेरटुकपेन समुदाय के सामने एक बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई है; मठ अनाज पीसने के लिए जिस बिजली की चक्की पर भरोसा करता था वह खराब हो गई। समस्या तब और बढ़ गई, जब इसकी मरम्मत के लिए शहर में कोई जानकार नहीं मिला। गांव की अन्य मिलों पर भी मक्के को पिसवाना आसान काम नहीं था क्योंकि अनियमित बिजली आपूर्ति के कारण वो भी ढंग से काम नहीं कर पा रही थी। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि सबकी आंखों की खोई हुई चमक वापिस आ गई। उन्हें मठ से 10 किमी दूर दीक्षापम में एक पारंपरिक पनचक्की के बारे में पता चला। अब उनकी समस्य़ा का समाधान हो चुका था। स्थानीय रूप से चोस्कोर या चुस्कोर के नाम से जानी जाने वाली ये पनचक्कियां सदियों से समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं और अरुणाचल प्रदेश में स्वदेशी समुदायों की कृषि आजीविका और सांस्कृतिक विरासत के जरूरी हिस्से की तरह काम कर रही हैं।
पर्यटन बढ़ा, तो बिजली की जरूरतें भी बढ़ गई
रूपा उप-मंडल में बिजली की सप्लाई नियमित तौर पर नहीं हो पा रही है। बढ़ती बिजली कटौती के चलते इस इलाके को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। स्थानीय निवासी केजांग दोरजी थोंगडोक के मुताबिक, बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है, खासकर पर्यटकों की आमद के कारण। वह कहते हैं, “कुछ साल पहले तक, यहां लोड शेडिंग या वोल्टेज में उतार-चढ़ाव जैसा कुछ नहीं था। शायद पर्यटकों की बढ़ती संख्या इसकी बड़ी वजह है।” थोंगडोक का मानना है कि बढ़ते पर्यटन उद्योग की वजह से कई तरह के बिजनेस फल फूल रहे हैं, और इसी कारण बिजली की मांग राज्य के बुनियादी ढांचे की क्षमता से अधिक हो गई है।
उन्होंने कहा कि ग्रिड की पावर ट्रांसमिशन लाईन, खासतौर पर अरुणाचल में पश्चिम कामेंग को पड़ोसी राज्य असम से जोड़ने वाला खंड, मौसम संबंधी परेशानियों से जूझता रहता है। उन्होंने बताया, “मानसून के दौरान, लगातार बारिश से अक्सर पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन हो जाता है। इससे बिजली लाइनों को नुकसान होता है। कुछ इलाकों में हफ्तों और कभी-कभी तो महीनों तक आपूर्ति बाधित रहती है। इसके अलावा सर्दियों में बिजली की बढ़ती मांग वोल्टेज के उतार-चढ़ाव को बढ़ा देती है।”
रूपा शहर से लगभग 24 किमी दूर बसे ‘सुरम्य शेरगांव उप-मंडल’ को 2023 में भारत के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन गांवों में से एक के रूप में सराहा गया था। हरे-भरे पन्ने के जंगलों और बड़े हिस्से में फैले बागवानी के इलाके के बीच में बसा शेरगांव पूर्वी हिमालय में पड़ता है। इसकी आबादी महज 3,077 है। लेकिन अपनी छोटी आबादी के बावजूद, यह इलाका सालाना 8,000 से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है। इस क्षेत्र में लगभग 19 होमस्टे और फार्म स्टे हैं। पर्यटन सीजन के चरम पर होने के दौरान, ये होमस्टे चौबीसों घंटे काम करते हैं, जिससे शेरगांव की बिजली आपूर्ति के बुनियादी ढांचे पर काफी दबाव पड़ता है। नतीजतन इलाके में बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता अक्सर डगमगाती रहती है।
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश की कुल बिजली खपत में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 2021 में यह 405 गीगावॉट से बढ़कर 2022 में 518 गीगावॉट हो गई। जबकि राज्य का बिजली उत्पादन पिछले वित्तीय वर्ष में 2.10 GWh था जो 2021-22 में मामूली रूप से बढ़कर 2.13 GWh हुआ है। बाकी की मांग क्षेत्रीय ग्रिड के जरिए पूरी की जाती है।
सीईए ने राज्य के लिए बिजली की खपत में और वृद्धि का अनुमान लगाया है। उनके मुताबिक, बिजली की खपत 2025-26 तक 644 गीगावॉट और 2031-32 तक 978 गीगावॉट तक पहुंच जाएगी। यह अनुमान अरुणाचल प्रदेश में बढ़ती ऊर्जा मांगों को उजागर करता है। इससे निपटने के लिए ऊर्जा संसाधनों की सावधानीपूर्वक योजना बनाने और प्रबंधन की जरूरत है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि सालों से जिस स्वेदेशी तरीके यानी चोस्कोर की हम उपेक्षा करते आए हैं, वही राज्य के बिजली संकट को कम करने के लिए एक आशाजनक समाधान ला सकता है। आमतौर पर देश भर के कई ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पानी से चलने वाले ये चोस्कोर ऑफ-ग्रिड बिजली उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं। बस इनमें कुछ बदलाव करने की जरूरत है। हालांकि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में बिजली उत्पादन के लिए ऐसी हजारों उपेक्षित पनचक्कियों को फिर से स्थापित और पुनर्जीवित किया गया है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश में चोस्कोर को लेकर अभी भी लोगों में कोई उत्साह नजर नहीं आता है।
एक उन्नत चोस्कोर पांच kWh तक बिजली पैदा करने में सक्षम है। दोनों जिलों में इन निष्क्रिय पड़ी सैकड़ों संरचनाओं को पुनर्जीवित करके, राज्य की बिजली जरूरतों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पूरा किया जा सकता है। केवल बहते पानी की शक्ति से चलने वाली इस स्वदेशी तकनीक को किसी भी तरह के ऊर्जा स्रोत की जरूरत नहीं होती है। इसे चलाने के लिए सिर्फ एक व्यक्ति ही काफी है। यह स्वदेशी प्रणाली न सिर्फ किफायती है, बल्कि लंबी समय तक बनी रहती है।
आधुनिक बिजली समस्याओं का एक पारंपरिक समाधान
अरुणाचल प्रदेश में चोस्कोर का इस्तेमाल शेरटुकपेन और मोनपा जातीय समूहों की पारंपरिक कृषि जीवन शैली में गहराई से शामिल है। ये जनजाति क्रमशः पश्चिम कामेंग और तवांग जिलों में रहती हैं। लंबे समय से कृषि के कामों में लगी जनजातियां बाजरा और मक्का जैसी फसलों की खेती करती हैं और कई कामों के लिए पनचक्कियों पर बहुत अधिक निर्भर थीं। पानी से चलने वाली इस तकनीक से न सिर्फ मिलों को चलाया जाता था बल्कि इससे बौद्ध प्रार्थना चक्र (प्रेयर व्हील) को घुमाने के लिए भी किया जाता था। पुराने समय में बौद्ध मठों में टरबाइन से जुड़े ऐसे प्रार्थना चक्र हुआ करते थे। इस क्षेत्र में एक समय में कई चोस्कोर और जल धारा से चलने वाले कई प्रार्थना चक्र मठ मिल जाएंगे, लेकिन समय के साथ उनकी संख्या कम होती चली गई।
फुडुंग नदी के किनारे बसा दीक्षिपम एक शांत गांव है। यहां पानी की मदद से चलने वाला एक ऐसा ही चोस्कोर है, जो 18 किसान परिवारों और चार पड़ोसी गांवों वाले पूरे गांव की जरूरतों को पूरा करता है। एक छोटी सी जलधारा नदी से पानी को मिल हाउस के पत्थर के खंभों के नीचे बने लकड़ी के टरबाइन की ओर मोड़ती है। पानी के बहाव को लकड़ी के तख्ते की मदद से नियंत्रित किया जाता है; इसे हटाने से पानी तेजी से निकलता और टरबाइन को गति मिल जाती है। इससे इसके ऊपर स्थित पीसने वाले पत्थर भी घूमने लग जाते हैं।
दीक्षिपम के किसान त्सेरिंग गोम्बू याद करते हुए बताते हैं, “इस पनचक्की का निर्माण हमारे दादाओं ने किया था। ग्रामीणों की कई पीढ़ियां इसका इस्तेमाल करती आई हैं। फसल के मौसम के बाद सर्दियों के दौरान ये सबसे ज्यादा काम में आती थी। पड़ोसी बस्तियों के लोग मुफ्त में अनाज पीसने के लिए यहां आया करते थे। लेकिन, गर्मियों के महीनों के दौरान जब हममें से ज्यादातर लोग खेतों में व्यस्त रहते थे, तो चोस्कोर से बहुत ही कम काम लिया जाता था।
गोम्बू ने बताया कि पनचक्की उनके रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं में बहुत महत्व रखती है। वह कहते हैं, “इन चक्कियों में इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थर को पनचक्की बनाने वाले पेशेवर ‘ज़्योपो’ खासतौर पर चुनकर लाते थे और इन्हें बड़ी कुशलता के साथ तैयार किया जाता था। इसके लिए महीनों की कड़ी मेहनत और विशेषज्ञता की जरूरत होती है।”
पनचक्की के लिए नियमित रखरखाव जरूरी है, जैसे हर पांच से छह साल में पीसने वाले पत्थरों की आंतरिक खुरदरी सतहों को तेज करना और लगभग हर दशक में लकड़ी के तख्तों को बदलना। परंपरागत रूप से, इन कामों के लिए जरूरी विशेषज्ञता को गावों में ज़्योपो ने सहेज कर रखा हुआ था। लेकिन ज़्योपो की कमी के कारण, इन संरचनाओं को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
गोम्बू बताते हैं, “आजकल, ज़्योपो मिलते ही नहीं हैं, इसलिए ज्यादातर रखरखाव का काम ग्रामीणों को खुद से ही करना पड़ता है। यह ज्ञान पीढ़ियों से चला आ रहा है और अब हम यह ज्ञान अपने बच्चों को दे रहे हैं। हालांकि विशेषज्ञों के मार्गदर्शन के बिना यह एक चुनौतीपूर्ण प्रयास है।
76 वर्षीय दावा नोरबू बोम्यक्पा की संगती घाटी में एक पवनचक्की है। यह सदियों पुरानी पनचक्कियों में से एक और उनकी आमदनी का जरिया भी। पुराने समय में, पनचक्की के इस्तेमाल के बदले में लोग उन्हें या तो शारीरिक श्रम या पिसे हुए आटे का एक हिस्सा दिया करते थे। लेकिन अब नकद लेनदेन चलने लगा है। बोम्यक्पा अब लगभग 20 किलो वजन वाले अनाज की एक बोरी को पीसने के लिए 100 रुपये लेते हैं। उन्होंने कहा, “हमेशा दो से तीन ग्राहक आ ही जाते हैं और अच्छे कारोबारी दिनों में पांच या छह ग्राहक भी मिल जाते हैं।“
नोरबू जामचू थोंगडोक बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब हर गांव में कम से कम एक चोस्कोर हुआ करता था, लेकिन बदलती जीवनशैली, जलवायु, कृषि और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारकों के चलते ज्यादातर का इस्तेमाल बंद हो गया है। थोंगडोक इन्हें उत्तर भारत के घराटों के समान ही मानते है, जिन्हें बिजली पैदा करने के लिए उन्नत किया गया है। वह दावा करते हैं कि इनमें से कई पनचक्कियों को भी फिर से शुरू किया जा सकता है।
सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने पनचक्कियों की अनदेखी की
1990 में, हिमालयी राज्यों में हाशिए पर रहने वाले पनचक्कियों के मालिकों ने इन पारंपरिक जल मिलों के पुनरुद्धार की मांग करने के लिए खुद को हिमालय पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (HESCO) के साथ जोड़ लिया था। नतीजतन, केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने मिल मालिकों को समर्थन देने के लिए एक योजना शुरू की। पिछले तीन दशकों में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की सहित कई सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने बिजली उत्पादन के लिए पनचक्कियों को छोटी जल-विद्युत प्रणालियों में बदलने और आगे बढ़ाने में सक्रिय रूप से भाग लिया है।
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बिजली पैदा करने के लिए, पनचक्की के पारंपरिक पत्थर और लकड़ी के तख्तों को धातु के बीयरिंगों से, और लकड़ी के टरबाइन व्हील को हल्के स्टील से बदल दिया जाता है। पीसने वाले पत्थर के आरपीएम (प्रति मिनट चक्कर) को बढ़ाने के लिए उसके नीचे एक चरखी लगाई जाती है और एक जनरेटर से जोड़ा जाता है। टरबाइन रोटेशन से मिलने वाली ऊर्जा जनरेटर के रोटर को चलाती है, जिससे इलेक्ट्रिक पावर पैदा होती है। आउटपुट यूपीएस की तरफ जाता है, जो कंट्रोल पैनल को स्टेबलाइज पावर प्रदान करता है। इसमें लगा पहिया और बेल्ट विभिन्न कृषि-प्रसंस्करण मशीनों को चलाने में भी मददगार रहते हैं।
एक पनचक्की को एक से डेढ लाख रुपये में अपग्रेड किया जा सकता है, जो कृषि क्षेत्र में बढ़ी हुई दक्षता के अलावा तीन से पांच किलोवाट घंटे (kWh) बिजली पैदा कर सकती है।
पर्यावरण कार्यकर्ता और HESCO के संस्थापक, अनिल प्रकाश जोशी का दावा है कि पनचक्कियों के एक नेटवर्क में पर्याप्त बिजली पैदा करने की क्षमता है, जिसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली जलविद्युत परियोजनाओं के व्यवहार्य विकल्प के रूप में, ग्रिड प्रणाली में निर्बाध रूप से एकीकृत किया जा सकता है। पनचक्कियों के पुनरुद्धार में लगे उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के आयुक्त दीपक रावत भी इससे सहमत हैं। वह बताते हैं, “घराट या पनचक्कियां टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल स्वदेशी प्रणालियां हैं जहां ग्रामीण एक साथ बिजली पैदा करने, अनाज पीसने और एक ही जल धारा के भीतर मछली पकड़ने का काम कर सकते हैं। इसके अलावा, घराट में संसाधित अनाज को कोल्ड-प्रेस्ड किया जाता है, जिससे उच्च पोषण मूल्य बरकरार रहता है और इसका बाजार बढ़ता है।” एक अपग्रेड पनचक्की ग्रामीणों को ग्रिड से उत्पन्न अतिरिक्त बिजली बेचने का विकल्प भी देती है।
नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि पनचक्कियों के अपग्रेड करने से छोटे उद्योगों को बढ़ावा मिल सकता है और दूरदराज के पहाड़ी क्षेत्रों में ऊर्जा जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। 2016 में, केरल, कर्नाटक, जम्मू और कश्मीर, तमिलनाडु, नागालैंड और उत्तराखंड में लगभग 2460 अपग्रेडिड वाटर मिल – मैकेनिकल और इलेक्ट्रिकल (पांच किलोवाट तक आउटपुट के साथ) स्थापित की गई थीं।
राज्य में जहां एक ओर छोटी और सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओं की स्थापना पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है, वहीं पारंपरिक पनचक्कियों को इससे बाहर रखा गया है। जोशी याद करते हुए कहते हैं कि HESCO ने 2000 में तवांग में एक वाटर मिल को अपग्रेड करने के लिए भारतीय सेना के साथ सहयोग किया था, लेकिन मुश्किल इलाके, सीमित संचार और सरकारी समर्थन की कमी ने परियोजना की क्षमता को बाधित कर दिया, जिससे यह केवल एक स्थापना तक सीमित हो गई।
चूंकि अरुणाचल प्रदेश में ग्राम परिषदें सक्रिय रूप से कुछ पनचक्कियों को फिर से चलाने पर विचार कर रही हैं, विशेषज्ञों की राय है कि इस तरह के बदलाव से न सिर्फ ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा मिलेगा बल्कि जल धाराओं के संरक्षण, पहाड़ी समुदायों और उनकी परंपराओं के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए पर्यावरण की दृष्टि से व्यवहार्य स्वदेशी प्रथाओं को पुनर्जीवित करने के बारे में जागरूकता भी बढेगी।
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बैनर तस्वीर: अपने खेतों में काम करते हुए मोनपा जनजाति के कुछ लोग। तस्वीर- सुरजीत शर्मा/मोंगाबे