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अरुणाचल प्रदेशः पैतृक भूमि को बचाए रखने के लिए इदु मिश्मी का सामुदायिक संरक्षण

सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र 70 वर्ग किलोमीटर में फैला है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज

सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र 70 वर्ग किलोमीटर में फैला है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज

  • जून 2022 में दिबांग घाटी के एलोपा और एतुगु गांवों के इदु मिश्मी समुदाय के लोगों ने अपनी पैतृक भूमि के 70 वर्ग किलोमीटर को सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र (सीसीए) के रूप में घोषित किया था।
  • यह सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र आदिवासी समुदायों को अपनी भूमि, वन्यजीवों और सांस्कृतिक परंपराओं को दिबांग नदी पर वनों की कटाई और बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं से होने वाले खतरों से बचाने का एक तरीका है। इससे आदिवासी युवाओं को रोजगार भी मिलता है, जो पर्यटकों के लिए रेंजर और गाइड के रूप में काम करते हैं।
  • हालांकि ये अभी अपने शुरुआती दौर में है, लेकिन इदु मिश्मी युवाओं को उम्मीद है कि सीसीए मॉडल उनकी स्थानीय संस्कृति को बनाए रखेगा और इस हॉटस्पॉट की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करेगा।

पुराने समय में बुजुर्ग कैसे पहाड़ों में बसे एलोपा और एटुगु गांवों से हर दिन लंबी यात्राएं करते थे, जंगलों को पार करते थे और जंगली जानवरों के झुंडों का सामना करते हुए अपने खेतों तक पहुंचते थे- इहो मितापो कुछ इसी तरह की कहानियां सुनकर बड़े हुए हैं। 30 साल के मितापो फिलहाल अरुणाचल प्रदेश के लोअर दिबांग घाटी जिले के रोइंग शहर में रहते हैं और उन्होंने भी अपने घरों से खेतों तक आने-जाने के लिए उसी रास्ते को अपनाया हुआ है।

मितापो ने कहा, समय के साथ चीजों थोड़ी आसान हुई हैं। गांवों के कुछ लोग अब अपने खेतों के करीब रहने के लिए चले गए गए हैं।

1980 के दशक के आसपास वनों की कटाई, बाढ़ और नदी के रास्ता बदल लेने के कारण नदी के किनारे बसे गांव बह गए थे। तब एलोपा और एतुगु गांवों के कबीले के लोगों को दिबांग घाटी के पार अन्य इलाकों में पुनर्वास करने के लिए मजबूर होना पड़ा। मितापो ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “आप उस इलाके में जो घास के मैदान देख रहे हैं, वो पहले खेत हुआ करते थे।”

जून 2022 में एलोपा और एटुगु गांवों के इन्हीं लोगों ने अपनी पैतृक भूमि के एक हिस्से को सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र (सीसीए) घोषित कर दिया था। इसमें इदु मिश्मी समुदाय के पुलु, मितापो, लिंग्गी और मेंदा कुल के लोग शामिल थे। उन्होंने यह कदम अपनी जमीन, वन्यजीवों और सांस्कृतिक परंपराओं को और कमजोर होने से बचाने के लिए उठाया है।

इहो मितापो एलोपा-एटुगु इको कल्चरल प्रिजर्व के सदस्यों में से एक है। एलोपा-एटुगु को सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र घोषित किया गया है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज
इहो मितापो एलोपा-एटुगु इको कल्चरल प्रिजर्व के सदस्यों में से एक है। एलोपा-एटुगु को सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र घोषित किया गया है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज

सीसीए का यह इलाका 70 वर्ग किलोमीटर में फैला है और इसे एलोपा-एटुगु कम्युनिटी इको-कल्चरल प्रिजर्व (ईईसीईपी) नाम दिया गया है। ईईसीईपी के सदस्यों में से एक अब्बा पुलु ने कहा, “लगभग 35 वर्ग किलोमीटर में तो घास के मैदान हैं और बाकी बचे इलाके में जंगल और पहाड़ हैं।” पुलु अरुणाचल प्रदेश के तेजू शहर में इंदिरा गांधी सरकारी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और भूगोल पढ़ाते हैं।

पुलु ने बताया कि वैसे तो इसका संक्षिप्त नाम ईईसीईपी, लेकिन इसे ई-सी-ई-पी के रूप में उच्चारित किया जाता है। इदु मिश्मी भाषा में इसका मतलब है, “एक ऐसी जगह जिसे हमने बहुत समय पहले छोड़ दिया था।” पुलु ने कहा “इस नाम का एलोपा-एटुगु के कबीले के सदस्यों के लिए गहरा महत्व है। उन्हें 1980-1990 के बीच अपनी पैतृक भूमि छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था क्योंकि वर्षों तक पेड़ों की कटाई के बाद दिबांग नदी (तालू) ने अपना रास्ता बदल लिया और हमारे खेत बरबाद हो गए।” पुलु ने यह भी बताया कि पिछले दो दशकों में “शिकार और संसाधन के दोहन” की घटनाएं भी काफी बढ़ी हैं।

सीसीए की जरूरत

सीसीए स्थानीय जनजातियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक और आजीविका को बचाने के लिए बनाया गया संरक्षित क्षेत्र है। सीसीए वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों से अलग होता हैं क्योंकि यहां सरकार की बजाय स्थानीय समुदाय अपनी जमीन की रक्षा करने का बीड़ा उठाते हैं।

पुलु के मुताबिक, भारत में जंगल और वन्यजीव संरक्षण के मौजूदा कानूनी ढांचे में सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र (सीसीए) एक नीतिगत चुनौती बने हुए हैं, लेकिन दुनिया भर में इस तरह के संरक्षित इलाकों की संख्या बढ़ रही है।

उदाहरण के लिए, पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड में करीब 700 सीसीए हैं, जहां ग्राम परिषदों के पास वन भूमि पर कानूनी अधिकार हैं।

निज़ामघाट नदी तट। सीसीए मूल जनजातियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक धरोहर और आजीविका को बचाने के लिए बनाया गया संरक्षित क्षेत्र है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज।
निज़ामघाट नदी तट। सीसीए मूल जनजातियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक धरोहर और आजीविका को बचाने के लिए बनाया गया संरक्षित क्षेत्र है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज।

ईईसीईपी को सीसीए घोषित किया गया है। यह घोषणा अरुणाचल प्रदेश में स्थानीय शासन के स्वीकृत रूप ‘परंपरागत प्रथा ढांचे’ के अनुसार की गई है। इस ढांचे को कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) से मान्यता प्राप्त है। भारत इन दोनों का आधिकारिक हस्ताक्षरकर्ता है।

पुलु ने बताया, हालांकि भारत में, वन अधिकार अधिनियम (FRA 2006) वन में रहने वाले समुदायों को उनके भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी स्वामित्व प्राप्त करके वन संसाधनों पर अधिकार देता है। लेकिन अरुणाचल प्रदेश में FRA का क्रियान्वयन एक चुनौती बना हुआ है। 

मितापो ने कहा, “मौजूदा समय में सीसीए के अंदर, दस सालों तक शिकार पर पूरी तरह से प्रतिबंध है और हम इसकी निगरानी करते हैं।” वह आगे कहते हैं, “केवलोपा और एतुगु एल के लोग ही इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए अपने नियम बना सकते हैं और लागू कर सकते हैं।”

उनके मुताबिक, शुरुआत में कबीले के सभी लोगों को समझाना मुश्किल था लेकिन आखिरकार वे सहमत हो गए और हमने अपनी पुश्तैनी जमीन को सीसीए घोषित कर दिया।


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आधिकारिक घोषणा के अनुसार, भूमि शुरू में दस सालों के लिए सीसीए होगी और कबीले के लोगों के परामर्श के बाद इसे बढ़ाया जा सकता है।

घोषणा में यह भी कहा गया है कि “यह उस जगह पर वापस जाने का एक तरीका है जहां कुलों की जड़ें हैं। सीसीए के जरिए हम इदु मिश्मी परंपराओं के अनुसार संरक्षण, शोध, प्रबंधन और सस्टेनेबल तरीके से (वन संसाधनों का) इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं।” 

एलोपा-एटुगु इको कम्युनिटी इको कल्चरल प्रिजर्व का महत्व

लगभग 14,000 लोगों की संख्या वाले इदु मिश्मी का जीवन जंगलों से गहराई से जुड़ा हुआ है। लेकिन दुनिया भर के कई स्वदेशी समूहों की तरह, उनके जीवन के तरीके को विकासात्मक परियोजनाओं से खतरा है।

दिबांग घाटी पूर्वी हिमालयी वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा है, जो दुनिया के केवल 36 ऐसे हॉटस्पॉट में से एक है। यह विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जीवों का घर है और इसे हिमालय क्षेत्र में सबसे समृद्ध जैव-भौगोलिक प्रांतों में से एक माना जाता है।

हालांकि, इस क्षेत्र में कई बदलाव देखे गए हैं। अब्बा पुलु ने बताया, “पहले नदी बेसिन में 17 बांध बनाए जाने का प्रस्ताव रखा था। कुछ महीने पहले, पांच एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए और कुछ और बांध ऊपर की ओर बन रहे हैं।”

आने वाले कई बांधों में से एटालिन हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना और दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना ने सबसे अधिक ध्यान खींचा है।

बहुउद्देशीय परियोजना निचली दिबांग घाटी में ईईसीईपी या सीसीए के निकट है। 2,880 मेगावाट उत्पादन क्षमता वाली इस परियोजना को भारत का सबसे बड़ा हाइड्रोपावर उद्यम माना गया है और इस पर काम शुरू हो चुका है।

पुलु ने कहा, “समुदाय के सदस्यों को लगता है कि इन विशाल बुनियादी ढांचे के विकास के चलते उन्हें अपनी जमीन की रक्षा करने की जरूरत है। यह प्रोजेक्ट कई तरीकों से हमारी सामुदायिक भूमि और जानवरों को प्रभावित करेगा।”

सीसीए के अंदर कैमरा ट्रैप

सीसीए की मुख्य विशेषताओं में से एक कैमरा ट्रैप, जंगलों में वन्यजीवों का दस्तावेजीकरण करने के लिए पूरे इलाके में लगाए गए हैं। क्लाउडेड लेपर्ड, एशियाई गोल्डन कैट के तीन प्रजातियां, मार्बल्ड कैट, लेपर्ड केट, एशियाई वाइल्ड डॉग, हिमालयी काले भालू, बड़े भारतीय सिवेट, हॉग डियर और पीले गले वाले मार्टन जैसे जानवरों की तस्वीरें कैमरा ट्रैप पर ली गईं हैं।

मितापो के अनुसार, लाल सीरो और मलायन सन बियर को इस इलाके में पहली बार (क्रमशः 2023 और 2021 में) देखा गया था। गंभीर रूप से लुप्तप्राय चीनी पैंगोलिन भी यहां पाए गए हैं। पैंगोलिन की संख्या दुनिया में 7,000 से भी कम है।

मिटापो ने कहा, “ऐसे बहुत से जानवर हैं जिन्हें हमारे गांव के लोगों ने भी नहीं देखा है जैसे बिंटूरोंग और केकड़ा खाने वाले नेवला। हमारे लिए, लुप्तप्राय प्रजातियों को मिसू (अशुभ) माना जाता है जैसे कि गिब्बन। इदु मिश्मी परंपराओं के मुताबिक इन जानवरों का शिकार हमारे लिए अभिशाप लेकर आएगा।”

उन्होंने यह भी कहा कि पास के मेहाओ वन्यजीव अभयारण्य में भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा की गई एक कैमरा ट्रैप स्टडी में 24 स्तनपायी प्रजातियां पाई गईं, जबकि इसकी तुलना में समुदाय ने 50 के करीब प्रजातियों को दर्ज किया है।

सीसीए रोइंग शहर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जीप से यहां तक जाने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। सीसीए के अंदर पहुंचने के बाद पांच किलोमीटर और ड्राइव करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर समुदाय के सदस्यों द्वारा जंगल से इकट्ठा की गई प्राकृतिक सामग्री, जैसे बांस, लकड़ी, छप्पर और बेंत से बने एक शिविर में पहुंचते हैं।

शिविर का एक मकसद पर्यटकों, शोधकर्ताओं, पैदल यात्रियों और अन्य जानकारी खोजने वाले लोगों के लिए आवास की सुविधा देना भी है। जो लोग पूरे ईईसीईपी मार्ग पर ट्रैकिंग करना चाहते हैं वे शिविर में रुक सकते हैं। यह एक गोलाकार ट्रैक होता है जो शिविर से शुरू होता है और वहीं पहुंचकर खत्म भी होता है। यहां आप अक्टूबर से मार्च तक सर्दियों के दौरान जा सकते हैं

हालांकि, जीप सफारी में शिविर में थोड़ी देर रुकना और फिर प्राचीन नदी तट की ओर ड्राइव करना भी शामिल है। इस तट को एमे-वू (निज़ामघाट) के नाम से जाना जाता है।

इदु मिश्मी के लिए रोजगार के अवसर

अपनी पुश्तैनी जमीन की रक्षा करने के अलावा, ईईसीईपी का एक अन्य उद्देश्य अपने कबीले और जनजाति के लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना भी है। मितापो ने कहा कि पूरा मॉडल पर्यटन और रिसर्च पर आधारित है। वह कहते हैं, “हम आगंतुकों से फीस लेते हैं जो हमारे ज्वाइंट अकाउंट में जमा की जाती है। हम उससे राजस्व उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हैं।’ अगर कोई नदी के किनारे का अनुभव लेने आता है, या शोधकर्ता लंबी अवधि के लिए रुकना चाहते हैं, तो उनसे अलग-अलग फीस ली जाती है। इससे हमारे लोगों को काफी मदद हो जाती है।”

ईईसीईपी में सभी समुदाय के लोग रेंजर्स और गाइड बनकर काम कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर हम एहा ताचो (26) को ले सकते हैं। वह भी इदु मिश्मी समुदाय से हैं और ईईसीईपी मॉडल से उन्हें काफी फायदा मिल रहा है।

ताचो ईईसीईपी की ओर से चलाए जा रहे गिब्बन प्रोजेक्ट में एक रिसर्चर के तौर पर काम करते है। गिब्बन इदु मिश्मी के लिए वर्जित है, इसलिए, ईईसीईपी ने गिब्बन सर्वे का काम ओझा के परामर्श के बाद शुरू किया था। ताचो कहते हैं, “मेरी मां का जन्म एलोपा में हुआ था। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि एलोपा अस्तित्व में है भी या नहीं। मेरी मां ने काफी समय बाद मुझे इस बारे में बताया था। और तभी मुझे इस बारे में दिलचस्पी हुई कि मेरे पूर्वज कहां से आए थे। इस शोध के जरिए किसी तरह से मैं अपने वंश का पता लगा सकता हूं।” ताचो ने ईटानगर में राजीव गांधी यूनिवर्सिटी से जूलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। 

एहा ताचो एलोपा-एटुगु इको कल्चरल प्रिजर्व के लिए गिब्बन पर किए जा रहे सर्वे पर काम कर रहे हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज
एहा ताचो एलोपा-एटुगु इको कल्चरल प्रिजर्व के लिए गिब्बन पर किए जा रहे सर्वे पर काम कर रहे हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज

ईईसीईपी सीसीए में मौजूद गिब्बन की आबादी का पता लगाने की कोशिश कर रहा है। वे व्यवहार पैटर्न का अध्ययन और विश्लेषण करने के लिए उन स्थानीय लोगों के साथ बातचीत भी करते हैं जिन्हें गिब्बन के बारे में जानकारी है। IUCN के अनुसार, अतिसंवेदनशील के रूप में वर्गीकृत, पूर्वी हूलॉक गिब्बन ज्यादातर असम और अरुणाचल प्रदेश में पाए जाते हैं।

लेकिन ताचो के लिए, यह सिर्फ प्राइमेट्स में उनकी दिलचस्पी नहीं थी, जो उन्हें एक शोधकर्ता के रूप में ईईसीईपी में शामिल होने के लिए खींच ले आई। दरअसल वह अपने लोगों के लिए काम करना चाहते हैं। ताचो ने कहा, “हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट शुरू करने के उद्देश्य से बड़ी कंपनियां हमारे इलाके में आई हैं और कई क्षेत्रों को तो बांध परियोजनाओं के लिए दे भी दिया गया है।”

मितापो के मुताबिक सीसीए अभी शुरुआती चरण में है। वे कैमरा ट्रैप के जरिए निगरानी करते हुए जानवरों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने कहा, “हम चाहते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी भी इस जगह की सुरक्षा करे और यह ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता रहे।”

 

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बैनर तस्वीर: सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र 70 वर्ग किलोमीटर में फैला है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज

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