- ऐसे बहुत से अध्ययन हैं जो विदेशी प्रजातियों को स्थानीय प्रजातियों के लिए एक बड़ा खतरा बताते हैं। लेकिन कुछ अध्ययनों का कहना है कि विदेशी प्रजातियां स्थानीय और लुप्तप्राय प्रजातियों को फलने-फूलने का अवसर देती हैं।
- ऊपरी पलानी पहाड़ियों में हाल ही में किए गए एक अध्ययन से विदेशी प्रजातियों के मौजूदा इलाकों में देसी शोला वनों के पुनर्जनन की संभावना का संकेत मिलता है।
- अध्ययन में पाया गया कि जिन वनों में बबूल की संख्या काफी ज्यादा थी, वहां शोला वृक्ष के पौधों का औसत घनत्व सबसे अधिक था। हालांकि पहले बबूल को वन बहाली में बाधक पाया गया था, लेकिन यह अध्ययन कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है।
पश्चिमी घाट में वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया कि विदेशी पेड़ों की छाया में शोला वनों की मूल प्रजातियों के पुनर्जनन यानी फिर से फलने फूलने की संभावना होती है। यह टीम शोला वनों की बहाली की संभावनाओं की जांच कर रही थी।
भारत में विदेशी प्रजातियों को अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लगाया जाता रहा है। विभिन्न जरूरतों के चलते, जैसे सजावट से लेकर इमारती लकड़ी और जलाऊ लकड़ी और टैनिन के लिए बबूल को खूब उगाया गया और यह आक्रामक प्रजाति तेजी से फैलती चली गई।
हालांकि ऐसे बहुत से अध्ययन हैं जो विदेशी प्रजातियों को स्थानीय प्रजातियों के लिए एक बड़ा खतरा बताते हैं। लेकिन कुछ अध्ययनों का कहना है कि विदेशी प्रजातियां स्थानीय और लुप्तप्राय प्रजातियों को फिर से पनपने का अवसर देती हैं।
इस टीम में जर्मनी के फ्रीबर्ग यूनिवर्सिटी, टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, भारत; कार्लज़ूए इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जर्मनी; और फैकल्टी ऑफ फॉरेस्ट्री, हंस-कार्ल-वॉन-कार्लोविट्ज़-प्लाट्ज,जर्मनी के वैज्ञानिक शामिल थे। उन्होंने अलग-अलग विदेशी प्रजातियों वाले इलाकों में शोला वन वृक्ष प्रजातियों के पुनर्जनन की प्रचुरता, विविधता और संरचना का आकलन किया।
अध्ययन क्षेत्र ऊपरी पलानी पहाड़ियों (1,500 मीटर – 2,450 मीटर) में किया गया था, जिसमें “पर्वतीय वन, घास के मैदान, विविध कृषि-वानिकी प्रणाली, जल निकाय, जंगलों में लगे पेड़ और कृषि भूमि” सहित विविध इलाके शामिल थे। मौजूदा समय में, तमिलनाडु वन विभाग को पलानी पहाड़ियों में ब्लैक वेटल (अकेसिया मेरनसी ) के पेड़ों को हटाने और शोला वृक्ष प्रजातियों के नमूने लगाकर इस क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय पर्वतीय जंगलों को बहाल करने की दिशा में काम करने की अनुमति दी गई है।
फिलहाल विदेशी प्रजातियां को लेकर दो बड़े सवाल किए जा रहे हैं। इनमें से एक विदेशी आक्रामक प्रजातियों की वजह से कम होते घास के मैदान हैं, तो वहीं दूसरा सवाल प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियां पैदा करने से जुड़ा है जो देसी वृक्ष प्रजातियों को नुकसान पहुंचा रहा है और उन्हें फलने-फूलने का मौका नहीं देता है। विदेशी प्रजातियां देसी प्रजातियों के पुनर्जनन को कैसे प्रभावित करती हैं, यह स्थान, पर्यावरणीय कारकों और वन प्रकारों के आधार पर अलग-अलग हो सकता है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी घाट में पिछले शोध से पता चला कि शोला पेड़ की प्रजातियां यूकेलिप्टस और सागौन के वनो में फिर से फल-फूल सकती हैं। वन कैनेपी प्रजातियां इस पुनर्जनन को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। अन्य शोधों से पता चला कि यूकेलिप्टस की तुलना में पाइन कैनोपीज की छाया में उगने वाले शोला पेड़ों की वृद्धि दर अधिक होती है। इसके अलावा, वन कैनोपी का निर्माण करने वाली प्रजातियां भी इन पेड़ों के पुनर्जनन को प्रभावित करती हैं।
देसी प्रजातियों पर बबूल का कोई प्रभाव नहीं
अध्ययन की शुरुआत इस बात की जांच से हुई कि बबूल, देवदार और यूकेलिप्टस के पेड़ों के बीच स्थानीय पौधों के फिर से फलने फूलने में कितनी समानता है। इसके अलावा उन्होंने “विभिन्न पहलुओं, ढलानों, ओपननेस कैनोपी, वृक्षारोपण के प्रकार, निकटतम शोला वनों से दूरी, संरचनात्मक विविधता और शाकाहारी जीवों की उपस्थिति” के आधार पर शोला प्रजातियों का घनत्व और विविधता कैसे भिन्न थी, इसका भी पता लगाया।
कैनेपी से मतलब पेड़ों की ऊपरी शाखाओं और पत्तियों से बनने वाले आवरण से है। कैनपी अगर क्लोज यानी सघन होगी तो सूरज की रोशनी नीचे जमीन तक आसानी से नहीं पहुंच पाएगी और छाया बनी रहेगी। वहीं ओपन कैनपी में शाखाएं और पत्तियां इतनी सघन नहीं होती और सूरज की रोशनी जमीन पर आसानी से पहुंच जाती है।
यहां “अंकुर” या “वृक्ष पुनर्जनन” शब्द का इस्तेमाल उन सभी पौधों के लिए किया गया जिनका व्यास ब्रेस्ट हाइट पर 7 सेमी से कम था। यह अध्ययन 33 जगहों में किया गया था, जहां हर एक जगह में पांच फील्ड प्लॉट शामिल किए गए थे। यह सुनिश्चित किया गया था कि विभिन्न परिस्थितियां जैसे कि ऊंचाई और धूप अध्ययन में शामिल हों।
अध्ययन बताता है कि जहां बबूल के काफी ज्यादा पेड़ थे, वहां शोला पेड़ के पौध की संख्या और विविधता सबसे ज्यादा पाई गई। हालांकि एक प्रजाति के रूप में बबूल को पहले वन बहाली में बाधक पाया गया था, लेकिन इस अध्ययन में ऐसा नहीं था।
अध्ययन के प्रमुख लेखक जोआचिम श्मेर्बेक ने कहा, “हम यहां 1800 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले पश्चिमी घाट के बारे में बात कर रहे हैं। यहां, अकेशिया मेरनसी घास के मैदान पर फैलता है और शोला वन को तेजी से फलने-फूलने के लिए वातावरण तैयार करता है। मेरे अवलोकन और इन पौधों में दिख रहे बदलाव से पता चलता है कि अगर अकेशिया मेरनसी या अन्य विदेशी पौधों को हटा दिया जाएं तो यहां शोला के पेड़ नहीं हो पाएंगे या फिर बहुत कम होंगे। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि अकेशिया मेरनसी एक डिस्टर्बेंस इंडिकेटर यानी परिवर्तन का सूचक है। जब यह फिर से उगता है, तो यह कहता है: “अरे, ज़मीन पर बहुत ज़्यादा धूप है! मैं बढ़ता हूं और छाया बनाता हूं!” शोला के पेड़ खुले क्षेत्र में बेहद कम सीमा तक ही पुनर्जीवित हो पाते है: क्योंकि उनमें से ज्यादातर के लिए यहां बहुत अधिक धूप होती है और शाकाहारी जीव भी काफी ज्यादा होते हैं। शोला पेड़ की प्रजातियों को एक पेड़ की छाया में लगाया जाना चाहिए और शाकाहारी जीवों से संरक्षित किया जाना चाहिए। खुली जगहों पर सिर्फ कुछ शोला वृक्ष प्रजातियां, जो शाकाहारी जीवों के लिए कम आकर्षक हैं, जैसे पिटोस्पोरम नीलघेरेंसे ही उग पाएंगी, लेकिन यह युवा जंगल बहुत घना नहीं होगा।
यूकेलिप्टस के वनों में स्थानीय प्रजातियों के उगने का घनत्व बबूल के वनों के बराबर ही था। यूकेलिप्टस के पेड़ों के बीच स्थानीय प्रजातियों की समृद्धि दूसरे स्थान पर थी, लेकिन दक्षिणी पश्चिमी घाट में स्थानीय प्रजातियों के पुनर्जनन पर यूकेलिप्टस के पेड़ों के प्रभाव पर 2009 में इसी तरह के एक अध्ययन में मिले नतीजों की तुलना में यह अभी भी कम थी।
हालांकि चीड़ के बागानों में पुनर्जनन घनत्व सबसे कम था, लेखकों का कहना है कि ये संख्या केन्या और श्रीलंका में अन्य अध्ययनों द्वारा बताई गई संख्या के निचले स्तर पर है। सबसे ऊंचे पौधे चीड़ के बागानों में पाए गए। हालांकि बाद में विश्लेषण से कनोपी ओपननेस को हटाना पड़ा था, फिर भी शोधकर्ता मानते हैं कि रोशनी ने शोला पेड़ के पौधों के फिर से फलने फूलने में भूमिका निभाई होगी।
आक्रामक प्रजातियों के साथ-साथ वनों की बहाली की व्यवहार्यता के बारे में पूछे जाने पर, श्मेर्बेक बताते हैं कि अकेशिया मेरनसी के बागानों को स्थानीय वनों की बहाली के लिए आदर्श माना जा सकता है। वह कहते हैं, “आप इसे हमारे पेपर और हमारे इस शोध में देख सकते हैं कि यह ‘अलग-अलग’ नहीं बल्कि एक साथ चलने वाली प्रक्रिया है। इसके पीछे के विज्ञान को सिल्विकल्चर कहा जाता है। सिल्वीकल्चरल तकनीकों में पहले ट्रिगर करने के लिए कैनोपी को धीरे-धीरे हटाना और फिर शोला की पौध को वहां लगाना शामिल होगा। यहां शाकाहारी जीवों को आने से रोकने के लिए बाड़ लगाना बहुत महत्वपूर्ण है।”
कोटागिरी में कीस्टोन फाउंडेशन की निदेशक अनीता वर्गीस ने कहा, “अक्रामक प्रजातियों से घिरे जंगलों की बहाली के कई सफल प्रयास किए गए हैं। दरअसल यह इस बात पर निर्भर करता है कि आक्रामक प्रजातियां उस जगह पर कितने सालों से हैं, उन्हें हटाने के लिए जरूरी प्रयास अलग-अलग होते हैं, क्योंकि मिट्टी में बीज बैंक होते हैं, जो बने रहते हैं और परिस्थितियां अनुकूल होने पर नए अंकुर फूट सकते हैं। हमने सिर्फ आक्रामक प्रजातियों को मैनुअली हटाया है, और वह भी कई चरणों में। शोला रोपण के मामले में हमने यह भी देखा है कि ये प्रजातियां अपनी जड़े जमा लेने के बाद, आक्रामक प्रजातियों को फिर से उगने नहीं देती हैं।
विकास के रंग
जंगल की इन गतिविधियों में कैनोपी ओपननेस एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हालिया अध्ययन में पाया गया कि यूकेलिप्टस के वनों में सबसे अधिक ओपन कैनेपी थीं, जबकि पाइन के वनों में सबसे अधिक क्लोज कैनेपी थीं। श्मेरबेक कहते हैं, “कैनोपी ओपननेस पौधों की प्रजातियों के पनपने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिन प्रजातियों को रोशनी की बहुत अधिक जरूरत होती है उन्हें औपन कैनेपी से फायदा होता है, जबकि वे प्रजातियां जो कम रोशनी में विकसित हो सकती हैं वे क्लोज कैनेपी के नीचे अपनी संख्या को बढ़ा लेती है। तेजी से फैलने वाली विदेशी पौधों की प्रजातियों को आमतौर पर ज्यादा रोशनी की जरूरत होती है। आपने देखा होगा कि लैंटाना कैमारा जैसी तेजी से फैल रही प्रजातियों को कम करने के लिए एक क्लोज कैनेपी की जरूरत होती है। जंगल चराई और बार-बार लगने वाली आग से नष्ट हो चुके जंगल कैनापी को वापस नहीं उगा पाते हैं। लैंटाना कैमारा चराई का सामना तो कर सकता है, लेकिन बार-बार लगने वाली आग से इसका बचना मुश्किल है। एक बार आग की फ्रिक्वंसी कम हो जाने पर लैंटाना कैमारा का बीज फिर से विकसित हो सकता है और फल-फूल सकता है। इसके पेड़ की छाया के नीचे फिर से उगने वाले पौधों को जानवर नहीं चरते हैं, लेकिन सिर्फ कुछ ही पौधे लैंटाना कैमारा की छाया में पनप सकते हैं। पेड़ों की कैनोपी को वापस लाने के लिए, लोगों को लैंटाना झाड़ियों के बीच से अपना रास्ता खोदना होगा, तेजी से बढ़ने वाली वृक्ष प्रजातियों के बड़े पौधे लगाने होंगे और लैंटाना को कम करने के लिए कैनेपी से मिलने वाली छाया की प्रतीक्षा करनी होगी।”
लेकिन यह हमेशा सभी स्थानीय प्रजातियों के लिए काम नहीं कर सकता है। शोला घास के मैदानों पर आक्रामक प्रजातियों के प्रभावों पर काम करने वाले नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज, बेंगलुरु के शोधकर्ता मनस्वी रघुरामा कहते हैं, “हालिया अवलोकन और अध्ययन बताता है कि आक्रामक और विदेशी पेड़ों की छाया में वनो को फिर से बहाल करना वास्तव में संभव है। कई वन वृक्ष प्रजातियां देर से बढ़ती हैं और उन्हें छाया की जरूरत होती है, खासतौर पर प्रारंभिक विकास चरणों में। यही कारण है कि शोधकर्ता सुझाव दे रहे हैं कि विदेशी लकड़ी के पौधों और लकड़ी की आक्रामक प्रजातियों के वन, स्थानीय प्रजातियों के प्रारंभिक पुनर्जनन के लिए नर्सरी की तरह काम कर सकते हैं। एक बार जब स्थानीय वन प्रजातियां उग जाएं, तो उनका सुझाव है कि विदेशी और आक्रामक प्रजातियों को हटाया जा सकता है।”
उन्होंने आगे कहा, “मैं यहां इस बात को रेखांकित करना चाहूंगा कि पश्चिमी घाट में प्राकृतिक घास के मैदानों के साथ-साथ शोला वन भी मौजूद हैं। इस प्रकार हमारे काम से पता चलता है कि आक्रामक वृक्षों के नीचे की घास, देशी घास के मैदानों से बेहद अलग है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि उनकी छाया स्थानीय घास प्रजाति के लिए नर्सरी के रूप में काम करेगी (जो ज्यादातर सी 4 घास हैं और छाया-असहिष्णु है)”
इसके अलावा, जिस प्रकार के परिदृश्य को लक्षित किया जा रहा है, उसके आधार पर वनों को बहाल करने के प्रयास भी अलग-अलग होंगे। वर्गीस कहते हैं, “निश्चित रूप से, दृष्टिकोण इस पर आधारित होना चाहिए कि कोई घास के मैदान को बहाल कर रहा है या क्लोज कैनोपी वाले जंगल को। हमें उन लोगों से सीखना होगा जो विभिन्न प्रकार के वातावरणों में आक्रामक पौधों से निपटने में अनुभवी हैं, ताकि हम उन जगहों को बहाल कर सकें जहां ये पौधे नुकसान पहुंचा रहे हैं। जब हम आक्रामक पौधों को जड़ से उखाड़ने के बजाय सिर्फ उन्हें काटकर हटाते हैं तो वे फिर से उग आते हैं और भी घने हो जाते हैं। इससे उनका फैलाव और भी बढ़ जाता है और हमारे पौधों के लिए जगह कम हो जाती है।
भविष्य की दिशा
अध्ययन में पाया गया कि अध्ययन क्षेत्र में शोला वन के फिर से उग आने की क्षमता पर्याप्त होने की संभावना है, बशर्ते उचित प्रबंधन हो।
वर्गीस कहते हैं, ”जब विदेशी पेड़ों को सामूहिक रूप से ”हटाया” जाता है, तो उन्हें सिर्फ काट कर फैंक दिया जाता है। कुछ प्रजातियों में, यह कई तनों के साथ दोबारा उगने का कारण बनता है। सेन्ना स्पेक्टाबिलिस और अकेशिया एसपीपी के मामले में ऐसा ही देखा गया है। जब एक निश्चित अवधि के भीतर अगर हम देशी शोला पेड़ लगाएं और उन्हें बढ़ने का मौका दे तो वे इतने बड़े हो जाएंगे कि विदेशी पेड़ों को धूप नहीं मिलेगी और वे धीरे-धीरे कमजोर हो जाएंगे।
स्थानीय समुदाय की भागीदारी इन प्रक्रियाओं को बना या बिगाड़ सकती है। श्मेरबेक कहते हैं, “समुदाय महत्वपूर्ण होते हैं। स्थानीय लोग पारिस्थितिकी तंत्र को आकार देते हैं और उन क्षेत्रों से जुड़े होते हैं। इसलिए, किसी भी वन प्रबंधन के लिए वन पारिस्थितिकी तंत्र और स्थानीय समुदायों के बीच बातचीत को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। अकेशिया मेरनसी के मामले में हमने एक अन्य अध्ययन में पाया कि ये पेड़ स्थानीय लोगों की ईंधन की मांग को काफी हद तक पूरा करते हैं। इसलिए वे शोला वन की रक्षा करते हैं। इसलिए यहां, योजना बनाने में स्थानीय लोगों को शामिल करने की जरूरत है।”
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वर्गीस कहते है कि निरंतरता और स्थानीय प्रयास जरूरी हैं। वह कहते हैं, “स्थानीय समुदायों को शामिल करना बेहद कारगार साबित होगा क्योंकि बहाली एक बार का प्रयास नहीं है। इसके लिए लगातार निगरानी, पुनर्रोपण और सुरक्षा की जरूरत होती है। इन सभी गतिविधियों में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। मनरेगा योजना के जरिए हम समुदायों को काम के लिए भुगतान करने के बारे में भी सोच सकते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि फिर से पौधों को लगाना या उगाना प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते को बहाल करने के बारे में भी है, पारिस्थितिक बहाली जंगलों और घास के मैदानों के साथ फिर से जुड़ने का एक शानदार तरीका है।”
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बैनर तस्वीर: ब्लैक वेटल (अकेशिया मेरनसी)। तस्वीर– फॉरेस्ट और किम स्टार/विकिकिमीडिया कॉमन्स