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[समीक्षा] गोडावण, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते एक पक्षी की कहानी

सम गांव स्थित गोडावण कृत्रिम प्रजनन केन्द्र के बाहर गोडावण की प्रतिकृति। तस्वीर- कबीर संजय

सम गांव स्थित गोडावण कृत्रिम प्रजनन केन्द्र के बाहर गोडावण की प्रतिकृति। तस्वीर- कबीर संजय

  • गोडावण नाम का एक पक्षी वर्तमान में राजस्थान के जैसलमेर के आसपास सीमित होकर रह गया है। इनकी संख्या भी बमुश्किल 100 से 150 के बीच रह गई है।
  • इस पक्षी का जीवन रोचक तथ्यों और विडंबनाओं से भरपूर रहा है। इसमें अफ्रीका में इसकी उत्पति, इसके यायावरी के किस्से, भारत का राष्ट्रीय पक्षी बनाए जाने की बात, मादा को आकर्षित करने के तरीके, इतिहास में इसके शिकार के तरीकों की बात हो या आज की चुनौतियां।
  • इन सभी मुद्दों पर प्रकाश डालते हुए हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘गोडावण: मोरे अँगना की सोन चिरैया’ में लेखक ने हुए यह समझाने की कोशिश की है कि इस पक्षी के अस्तित्व पर संकट क्यों है।

राजस्थान के जैसलमेर के आसपास पाए जाने वाले पक्षी गोडावण या ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का शिकार करने के लिए कभी लोग इसके अंडे या चूजे को ढूंढते थे। अगर ऐसा कोई घोंसला दिख जाता था तो लोग उसके चारों तरफ घासफूस जमाकर उसमें आग लगा देते थे। मादा गोडावण अपने चूजे या अंडे को बचाने आती थी। पंखों से आग बुझाने की कोशिश करती थी। पंख जल जाते थे और उस मां का शिकार हो जाता था। बाद में शिकार के नए-नए तरीके आते गए। बंदूक ने तो शिकार को बहुत आसान बना दिया। 

वैसे इंसानों के द्वारा पशु-पक्षियों के शिकार की कहानी कोई नई नहीं है। पर गोडावण के बारे में इस तथ्य को पढ़ते हुए एक कड़ी बनती दिखती है जो न केवल इस पक्षी के वर्तमान की त्रासदी से जुड़ती है बल्कि यह भी बताती चलती है कि हमारे आसपास के जीव-जंतुओं ने इंसानी दुनिया के विकास की क्या कीमत चुकाई है। आज के समय में इस पक्षी की संख्या करीब 100 से 150 के आस-पास रह गयी है। 

शिकार की इस कहानी का जिक्र इसलिए कि हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘गोडावण: मोरे अँगना की सोन चिरैया’ में इस पक्षी से जुड़ी ऐसी तमाम छोटी-छोटी जानकारियां मौजूद हैं जो हमें उस दुनिया में ले जाती हैं जहां से हम इस पक्षी को बेहतर देख सकते हैं। इस पुस्तक में यह दिखाने की कोशिश की गयी है कि इस पक्षी की दुर्दशा के लगभग सभी कारण मानवजनित हैं। यह पुस्तक बताती है कि इस पक्षी की संख्या 1969 में 1260 के करीब थी। यह सर्वविदित है कि इस पक्षी की संख्या अब 100 के करीब है और चिंता यह है कि कहीं यह जीव हमेशा के लिए हमें अलविदा न कह दे। 

पुस्तक ‘गोडावण: मोरे अँगना की सोन चिरैया’ का कवर। तस्वीर- कबीर संजय
पुस्तक ‘गोडावण: मोरे अँगना की सोन चिरैया’ का कवर। तस्वीर- कबीर संजय

कबीर संजय की लिखी और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक एक ज्वलंत मुद्दे से संबंधित विस्तृत और शोधपरक जानकारी देने की कोशिश करती है। हिन्दी में ऐसे प्रयास सीमित ही हैं। 

लेखक ने अपनी बात समझाने के लिए कई तुलनात्मक तथ्यों का सहारा लिया है। उदाहरण के लिए पक्षी के अस्तित्व जुड़े खतरे को ही लें। ऐसा कोई पहली बार नहीं है। पहले भी कई सारे जीव पृथ्वी को हमेशा के लिए अलविदा कह चुके हैं। दूसरे, वर्तमान में हिन्दी समाज की सामूहिक चिंता के दायरे में किसी पक्षी से जुड़ी बात शामिल होती है इसको लेकर संशय है। ऐसे में लेखक के लिए भी यह चुनौती है कि अपनी बात को कैसे कहें। इस पुस्तक में लेखक ने इसे समझाने के लिए चीते का उदाहरण लिया है। चीता भी इस देश से गायब हो गया था और अभी दूसरे देशों से लाकर इसे पुनः बसाने की कोशिश की जा रही है। पाठकों को यह याद दिलाना काफी आसान है। 

लेखक फिर गोडावण के मुद्दे पर वापस लौटकर यह याद दिलाता है कि गोडावण के मामले में सरकारों को यह सहूलियत नहीं मिलने वाली। यह पक्षी अगर एक बार हमारे बीच से गया तो इसे पुनः बसाना मुश्किल होगा। क्योंकि यह जीव किसी और देश में पाया नहीं जाता है। 

प्रजनन काल के दौरान अपनी गूलर सैक (थैली) के साथ गोडावण। इसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के नाम से जाना जाता है। राजस्थान में यह प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज
प्रजनन काल के दौरान अपनी गूलर सैक (थैली) के साथ गोडावण। इसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के नाम से जाना जाता है। राजस्थान में यह प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज

नाम में ही सबकुछ है 

शेक्सपियर के लिखे नाटक रोमियो जूलियट की प्रसिद्ध लाइन है- नाम में क्या रखा है? गोडावण को पढ़ते हुए आपको बार-बार यह एहसास होता है कि नाम इतना तुच्छ मुद्दा भी नहीं है। यह पुस्तक बताती है कि गोडावण को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की बात चल निकली थी पर नाम आड़े आ गया। विस्तृत जानकारी के लिए पुस्तक पढ़ने की सलाह दूंगा। पर इस पूरे प्रसंग को पढ़ते हुए यह सवाल जेहन में घूमता रहता है कि गोडावण अगर आज राष्ट्रीय पक्षी होता तो क्या इसी दुर्दशा का शिकार होता? प्रकृति से दूर होते मानव जीवन में गोडावण इतना अजनबी लगता? लेखक भी इस पुस्तक की शुरुआत बचपन में सुने गाने से करता है जिसमें सोने की चिड़िया का जिक्र है। वजह साफ है कि बचपन में हमें सोने की चिड़िया के बारे में अधिक बताया गया और वास्तविक चिड़िया के बारे में कम। तब अगर इन पक्षियों की वास्तविकता से रूबरू कराया गया होता तो गोडावण से जुड़ी लड़ाई आज चंद लोग नहीं लड़ रहे होते। इस किताब में लेखक इस खाई को कम करता दिखता है। 

गोडावण संरक्षण पर बने रामदेवरा केन्द्र के पास पुस्तक के लेखर कबीर संजय। तस्वीर- कबीर संजय
गोडावण संरक्षण पर बने रामदेवरा केन्द्र के पास पुस्तक के लेखर कबीर संजय। तस्वीर- कबीर संजय

यह पुस्तक इस पक्षी के विभिन्न पक्षों से हमारा परिचय कराती है। जैसे, इस पक्षी की प्रजनन दर कम क्यों है? मछली, चूहे जैसे अन्य जीवों से तुलना कर इस मुद्दे पर एक समझ बनाने की कोशिश की गयी है कि आखिर गोडावण एक बार में एक ही अंडा क्यों देते हैं। ये पक्षी अपना घोंसला जमीन पर ही क्यों बनाते हैं? नर गोडावण मादा को रिझाने के लिए क्या करता है? क्या यह भी मोर की तरह पंख फैलाकर नृत्य करता है? ऐसे अनगिनत सवाल हैं जिसके रोचक जवाब इस किताब में मौजूद हैं।   

यह पुस्तक बस्टर्ड प्रजाति के इतिहास जो कि 77 लाख साल पुराना बताया गया है से लेकर इसकी वर्तमान स्थिति के सभी पक्षों को समझने की कोशिश करती दिखती है। अफ्रीका में उत्पति, भारत के विभिन्न राज्यों में इसकी मौजूदगी, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से जुड़े इसके यायावरी के वर्णन से लेकर वर्तमान में पर्यावास के घटने की समस्या को समझाने की कोशिश दिखती है। क्या विडंबना है कि आज इस जीव से संबंधित एक बड़ा विवाद देश के सर्वोच्च न्यायालय में है। झगड़ा बिजली से जुड़े हाईटेंशन तार को लेकर है। गोडावण के जीवन के लिहाज से देखें तो यह विडंबना ही है कि जब पूरी दुनिया नवीन ऊर्जा के लिए जोर लगा रही है तो इसी नवीन ऊर्जा से जुड़े हाईटेंशन बिजली के तार इस पक्षी के लिए नई मुसीबत बनकर उभरे हैं। यह पुस्तक इन तमाम चीजों पर बात करती है।   


और पढ़ेंः [वीडियो] ‘ग्रीन पावर’ से राजस्थान के ओरण और गोडावण के अस्तित्व को खतरा


इसके साथ ही लेखक ने वर्तमान की अन्य चुनौतियों का भी वर्णन किया है, जैसे कीटनाशकों की वजह से भोजन का अनुपलब्ध होते जाना, ध्वनि प्रदूषण का इसके जीवन पर असर, इत्यादि। विशेषज्ञों के हवाले से यह पुस्तक कहती है कि पिछले 100 सालों में गोडावण के प्राकृतिक आवास में बहुत तेजी से परिवर्तन हुए हैं। 

वजन की दरकार 

पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज की एक पंक्ति से लेखक ने एक अध्याय की शुरुआत की है- अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें। यह पढ़ते हुए मुझे एक मित्र की कही बात याद आ गयी कि जीवन की हकीकत और जीवन में विडंबना इतनी ज्यादा है कि कई बार लगता है कि गल्प यानी फिक्शन की जरूरत नहीं है। तथ्यपरक बातें, खासकर गोडावण के संदर्भ में, इतनी ज्यादा और कठोर हैं कि कुछ भी नया करने की कोशिश अतिरिक्त जान पड़ती है। वैसे यह भी याद रखा जाना चाहिए कि हिन्दी में ऐसी किताब लिखने की मुश्किलें अलग हैं और लेखक की कोशिश अलहदा है।   

रामदेवरा के गोडावण समरक्षण कृत्रिम प्रजनन केन्द्र में पल रहे गोडावण। चित्र बाड़े के बाहर से लिया गया है। तस्वीर- कबीर संजय
राजस्थान स्थित रामदेवरा के गोडावण समरक्षण कृत्रिम प्रजनन केन्द्र में पल रहे गोडावण। चित्र बाड़े के बाहर से लिया गया है। तस्वीर- कबीर संजय

यद्यपि इस पक्षी का वर्तमान केंद्र हिन्दी भाषी क्षेत्र जैसलमेर के आसपास ही है पर इससे जुड़ी अधिकतर बहस अंग्रेजी में ही होती है। अभी अप्रैल के महीने में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसी पक्षी से जुड़े विवाद को सुनते हुए जीवन के अधिकार को विस्तार देते हुए क्लाइमेट चेंज के प्रभाव को भी इसमें शामिल कर लिया।

इन बहस मुबाहिसों को हिन्दी के पाठकों तक ले जाने का लेखक का यह प्रयास सराहनीय है। करीब 108 पन्नों की इस पुस्तक में नौ अध्याय हैं, जिसमें पांच अध्याय के बाद यह पुस्तक अन्य मुद्दों को भी समेटने की कोशिश करती दिखती है जैसे बस्टर्ड प्रजाति के अन्य पक्षियों की मुश्किलें, पक्षियों का संकटग्रस्त संसार, गिद्धों की मुश्किलें, इत्यादि।  

पुस्तक पठनीय है और नए मगर जरूरी संसार से परिचय कराती है।

 

बैनर तस्वीरः राजस्थान के सम गांव स्थित गोडावण कृत्रिम प्रजनन केन्द्र के बाहर गोडावण की प्रतिकृति। तस्वीर- कबीर संजय

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