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[इंटरव्यू] हिमालयी क्षेत्रों में दिख रही पलासेस कैट के संरक्षण में क्या हैं चुनौतियां

भारत में पलास कैट की स्थिति के बारे में अभी तक कोई बहुत गहन शोध नहीं हुआ है। लेकिन यह भारत के पार-हिमालयी या ट्रांस-हिमालयी राज्यों जैसे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और सिक्किम में पाई जाती है और अभी तक जो रिकार्ड्स मिले हैं वहीँ से मिले हैं। प्रतीकात्मक तस्वीर- निकोलस फिशर/विकिमीडिया कॉमन्स

भारत में पलास कैट की स्थिति के बारे में अभी तक कोई बहुत गहन शोध नहीं हुआ है। लेकिन यह भारत के पार-हिमालयी या ट्रांस-हिमालयी राज्यों जैसे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और सिक्किम में पाई जाती है और अभी तक जो रिकार्ड्स मिले हैं वहीँ से मिले हैं। प्रतीकात्मक तस्वीर- निकोलस फिशर/विकिमीडिया कॉमन्स

  • पलासेस कैट जिसे मनुल के नाम भी से जाना जाता है, एक शर्मीली और दुर्लभ जंगली बिल्ली है। यह भारत के ट्रांस-हिमालयी राज्यों जैसे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और सिक्किम में पाई जाती है।
  • शोध और जन जागरूकता की कमी के कारण, इसकी संख्या और वितरण के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।
  • वैज्ञानिक बेहतर समझ और इस दुर्लभ बिल्ली के संरक्षण के लिए अधिक से अधिक सहयोग और शोध की मांग कर रहे हैं।
  • इन सभी विषयों पर विस्तार से जानकारी लेने के लिए मोंगाबे-हिंदी ने भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, के शोधकर्ता नीरज महर से बात की।

पलासेस कैट या मनुल भारत में पाई जाने वाली जंगली बिल्लियों की प्रजातियों में से एक है। भारत के हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह प्रजाति बहुत ही शर्मीली और जनसँख्या में बहुत ही कम है। ऊँचे पहाड़ी इलाकों में पाए जाने के कारण लोगों में इस प्रजाति को लेकर जानकारी और जागरूकता का भी आभाव है। 

ऐसे में इस बिल्ली के संरक्षण को लेकर भी कई चुनौतियां हैं। इन सभी विषयों पर विस्तार से जानकारी लेने के लिए मोंगाबे-हिंदी ने भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, के शोधकर्ता नीरज महर से बात की। 

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भारत में पलासेस कैट की स्थिति क्या है?

भारत में पलासेस कैट की स्थिति के बारे में अभी तक कोई बहुत गहन शोध नहीं हुआ है। लेकिन यह भारत के पार-हिमालयी या ट्रांस-हिमालयी राज्यों जैसे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और सिक्किम में पाई जाती है और अभी तक जो रिकार्ड्स मिले हैं वहीँ से मिले हैं। चूँकि यह बहुत ही कम दिखने वाली प्रजाति है तो इस पर अभी तक ज़्यादा काम भी नहीं हुआ है। इस वजह से भारत में इस प्रजाति की स्थिति के बारे में अभी भी ज़्यादा जानकारी नहीं है।

बाकी अगर दूसरे देशों के बारे में बात करें तो मंगोलिया में इस पर काफी काम हुआ है। इसकी होम रेंज पर काम हुआ है, कॉलरिंग भी की गयी है, कैमरा ट्रैप से पापुलेशन एस्टीमेट का भी काम किया गया है। लेकिन भारत में हम अभी भी पीछे हैं।

नीरज महर, भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, के शोधकर्ता हैं। तस्वीर साभार- नीरज महर
नीरज महर, भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, के शोधकर्ता हैं। तस्वीर साभार- नीरज महर

आपने भारत में चार राज्य बताए उनमे से उत्तराखंड में इसके रिकॉर्ड नहीं मिलते हैं, क्या आपके जानने में ऐसे कोई रिकॉर्ड उत्तराखंड में पलासेस कैट के हैं? 

मैं कहूंगा कि अभी तक हिमाचल प्रदेश से कोई पुख्ता रिकॉर्ड नहीं मिला था अभी तक, लेकिन हाल ही में कुछ दिन पहले किन्नौर की हंगरंग वैली से रिकॉर्ड मिले हैं। उत्तराखंड की अगर बात करें तो गंगोत्री नेशनल पार्क की नेलांग वैली से कैमरा ट्रैप में WII की ही एक रिसर्चर ने पलासेस कैट रिकॉर्ड किया था।

इन चार राज्यों में पलासेस कैट जनसंख्या और इनका फैलाव (डिस्ट्रीब्यूशन) कैसा है?

जैसा कि मैंने शुरू में ही बोला कि अभी तक उतनी स्टडी हुई नहीं है, लेकिन यह प्रजाति अमूमन सबसे ज़्यादा देखने को लद्दाख में ही मिलती है। लद्दाख में भी कई जगहों पर रिकार्ड्स मिलने शुरू हो गए हैं जैसे मुझे चांगथांग के कुछ इलाकों में दिखाई दी थी। इसके अलावा हेमिस और ऊले टोपु से इसके रिकार्ड्स हैं, ऐसे ही अलग अलग जगहों से रिपोर्ट होना बढ़ चूका है लद्दाख में।  

बाकि हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम से बात करें तो यहां से सिर्फ एक-एक ही फोटोग्राफिक रिकार्ड्स हैं। 

भारत में पलासेस कैट पर शोध में क्या-क्या चुनौतियां हैं?

सबसे पहले जो था कि आज तक इस प्रजाति के लिए कोई फोकस ही नहीं बन पाय। जैसे कि हम हमेशा बड़ी मांसाहारी प्रजातियों से आकर्षित होते हैं जैसे, बाघ, हिम तेंदुआ या तेंदुआ, तो वहाँ तक लोग शायद जा नहीं पाए। दूसरी बात कि यह इतनी कम दिखने वाली प्रजाति है तो रिसर्चर्स को भी एक अनिश्चितता होती है कि इस पर डेटा मिलेगा या नहीं मिलेगा तो ये भी एक वजह हो सकती है। लेकिन, बड़े तौर पर आज तक कोई फंडिंग इस पर नहीं आयी है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी मंगोलिया में इसकी संख्या ज़्यादा होने के कारण ज़्यादा फोकस वहीँ था, भारत पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन अब भारत में भी साइंटिस्ट्स और रिसर्चर्स इस पर काम करने लगे हैं, लेकिन एक सिस्टेमेटिक काम करने की ज़रुरत अभी भी है। 

अभी फ़िलहाल में स्नो लेपर्ड स्टेटस के लिए जो कैमरा ट्रैपिंग हुई थी उसमे भी कई जगहों पर पलासेस कैट पाई गयी है लद्दाख में। अगर आप डिपार्मेंट ऑफ़ वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन का डेटा देखेंगे तो आपको इसकी जानकारी मिलेगी। 

हिमालय की ऊंची चोटियों पर रहने वाली पलासेस कैट को स्थानीय भाषा में रिबिलिक, ‘तक शं या ‘सुकथंग’ भी कहा जाता है। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।
हिमालय की ऊंची चोटियों पर रहने वाली पलासेस कैट को स्थानीय भाषा में रिबिलिक, ‘तक शं या ‘सुकथंग’ भी कहा जाता है। तस्वीर- वन, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विभाग, लद्दाख।

आप मनुल वर्किंग ग्रुप के साथ काम करते हैं, यह क्या है और कैसे काम करता है?

मनुल वर्किंग ग्रुप, इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (IUCN) के कैट स्पेशलिस्ट ग्रुप से संबद्धित एक वर्किंग ग्रुप है। इसमें मुख्यतः वो लोग हैं जो या तो मनुल पर रिसर्च कर रहे हैं, या उस पर काम करने में रूचि रखते हैं। इसके सदस्य कई देशों से हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में काम करते हैं और शोध की गतिविधियों, जागरूकता, नीतियों और नई परियोजनाओं के बारे में बताते हैं और अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसको बढ़ावा देते हैं। भारत में यह ग्रुप सरकार के साथ मिलकर भी काम करने की कोशिश कर रहा है। 

हाल ही में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में जो पलासेस कैट दिखी है, यह कितना महत्वपूर्ण है?

मैं ये भी जोड़ना चाहूंगा कि अभी तक जो कनफर्म्ड रिकॉर्ड था वो इस ही लैंडस्केप, जो हिमाचल वाला है भले ही वो लाहौल स्पीति हो या किन्नौर वाला कोल्ड एरिड क्षेत्र हो, से नहीं मिला था। लेकिन इस साइटिंग के बाद हिमाचल से भी मनुल के होने के पुख्ता सबूत हैं। वैसे, वहां के लोगों को इस प्रजाति के बारे में पहले से पता है, उन्हें पता है कि ऐसा दिखने वाला जानवर यहां पर मिलता है। इस रिकॉर्ड के बाद एक जो पूरा कंटीन्यूअस हैबिटैट है वो कन्फर्म हो जाता है लद्दाख से लेकर सिक्किम तक। 

नेपाल की लिमी घाटी में एक पलास बिल्ली परिवार की फोटो कैमरा ट्रैप आई। तस्वीर- हिमालयन वूल्व्स प्रोजेक्ट
नेपाल की लिमी घाटी में एक पलासेस बिल्ली परिवार की फोटो कैमरा ट्रैप आई। तस्वीर- हिमालयन वूल्व्स प्रोजेक्ट

चुनौतियों की जो हम बात कर रहे थे, ऐसे में इसके खाने और हैबिटैट को लेकर भी कोई चुनौतियाँ हैं?

मुझे लगता है कि एक तो प्राकृतिक तौर पर ही यह प्रजाति कम है और दूसरे मांसाहारी जानवर भी इस परिदृश्य में पाए जाते हैं। अब अगर आप लद्दाख की बात करें तो वहां पर हिम तेंदुआ है, भेड़िया है, लिंक्स है, लोमड़ियाँ हैं, तो ऐसे में प्रतिस्पर्धा ज्यादा है उस वजह से भी मनुल की एक्टिविटी ज़्यादा दिखती नहीं है। इसके अलावा शायद यह प्राकृतिक रूप से कम हों। 

इनके शिकार के बारे में बात करें तो पीका, वोल यही सब ये ज़्यादा खाते हैं। और हैबिटैट जो है वो खासकर ठंडा रेगिस्तानी इलाका जो ट्रांस हिमालय में आता है और जिसमे अधिकांश भाग लद्दाख और लाहौल स्पीति में है। 


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आगे के लिए क्या करने की ज़रुरत है?

अब बात ये है कि आगे का क्या, जैसा कि आपको पता होगा कि CMS से अपेंडिक्स II में आ चुकी है ये प्रजाति तो इसका अंतर्राष्ट्रीय महत्व तो बढ़ा ही है। भारत में बात करें तो यहाँ पर भी कोलैबोरेशन की ज़रुरत है भले ही वो सरकारी या गैर सरकारी कैसी भी संस्थाएं हों, तो एक ज़रुरत होगी कि सभी लोग मिलकर काम करें क्योंकि जो परिदृश्य या लैंडस्केप बहुत बड़ा है और चुनौतियाँ बहुत ज़्यादा हैं।  आपको कहीं न कहीं से शुरुआत करनी होगी और इसकी इकोलॉजी और स्थिति, जनसंख्या को जानने के लिए और काम करना होगा आने वाले दिनों में।

 

बैनर तस्वीरःभारत में पलासेस कैट की स्थिति के बारे में अभी तक कोई बहुत गहन शोध नहीं हुआ है। लेकिन यह भारत के पार-हिमालयी या ट्रांस-हिमालयी राज्यों जैसे लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और सिक्किम में पाई जाती है और अभी तक जो रिकार्ड्स मिले हैं वहीँ से मिले हैं। प्रतीकात्मक तस्वीर– निकोलस फिशर/विकिमीडिया कॉमन्स

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