- केरला के वायनाड जिले में मानव-वन्यजीव मुठभेड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिसमें हाथियों और बाघों से जुड़ी घातक घटनाएं भी शामिल हैं।
- इसके लिए किसान और स्थानीय लोग वन विभाग को दोषी मानते हैं, जबकि अधिकारी वन्यजीव आवास के संरक्षण और संघर्ष प्रबंधन की रणनीतियों पर जोर देते हैं।
- चूँकि वायनाड की सीमाएं संरक्षित क्षेत्रों से लगती हैं, ऐसे में इसकी भौगोलिक स्थिति भी इसे इस संघर्ष के प्रति संवेदनशील बनाती है।
केरला का उत्तरी जिला वायनाड इस साल फिर मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं के कारण चर्चा में है। जिले में जंगली हाथियों के साथ संघर्ष में इस साल जनवरी और फरवरी के महीनों में ही तीन लोगों की मौत हो गई। जिसके बाद, हर बार की तरह, किसान संगठनों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और राज्य और केंद्रीय मंत्रियों के दौरे हुए।
इन तीन मौतों में 16 फरवरी को कुरुवा द्वीप वन संरक्षण समिति के 50 वर्षीय सदस्य वेल्लाचलिल पॉल को एक जंगली हाथी ने कुचल कर मार डाला। घटना के समय वह जिले के कुरुवा में काम करने के लिए जा रहे थे। इससे पहले, 47 वर्षीय किसान अजीश की 10 फरवरी की बेलूर मखना (बिना दांत वाला हाथी) नामक एक रेडियो-कॉलर वाले नर हाथी के हमले में मौत हो गई।
एक अन्य घटना में, एक 65 वर्षीय आदिवासी कार्यकर्ता एन. लक्ष्मणन को थोलपेट्टी में 30 जनवरी को एक जंगली हाथी ने मार डाला। बाघ के हमले भी जिले में संघर्ष और मौतों का कारण रहे हैं, जिसमें सबसे ताजा मामला 36 वर्षीय प्रजीश कुट्टप्पन मारोट्टीपराम्बिल का है, जो पिछले साल दिसंबर में जिले के वकेरी में एक वन क्षेत्र में बाघ के हमले में मारा गया था।
साल 2014 के बाद से वायनाड में जंगली जानवरों के हमलों में 149 लोग मारे गए हैं और 1,000 से अधिक घायल हुए हैं। पिछले दशक में जिले में हाथियों के हमलों में 41 और बाघ के हमलों में सात लोगों की जान गई है।
आर्थिक समीक्षा 2022-23 के अनुसार, 2022-23 में राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष की 8,873 घटनाएं दर्ज की गईं, जिसमे 98 लोगों की जानें गईं। इनमें से 48 लोग सांप के काटने से, 27 लोग हाथी के हमले में, सात लोग जंगली सूअर के हमले में, एक-एक व्यक्ति जंगली भैंसे और बाघ के हमले में और 14 लोग अन्य जानवरों के हमले में मारे गए। हमलों में कुल 871 लोग घायल हुए जबकि 65 मवेशियों की मौत की खबर है। मानव मृत्यु के लिए 3.37 करोड़ रुपये से ज़्यादा का मुआवजा दिया गया, जबकि घायलों को 2.46 करोड़ रुपये से ज़्यादा का भुगतान किया गया और मवेशियों की मृत्यु के लिए 1.47 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। इन सभी कारणों और फसल क्षति के कुल मुआवजे के रूप में 10.49 करोड़ रुपये वितरित किए गए।
बहुस्तरीय मुद्दा
वायनाड के स्थानीय लोग और किसान हाल की मौतों और समय पर चेतावनी न देने के लिए राज्य के वन विभाग को जिम्मेदार ठहराते हैं। वह यह भी आरोप लगाते हैं कि जंगल के अंदर पर्याप्त पानी और भोजन की कमी के कारण जानवर सीमा पार करके बाहर आते हैं।
मानंथावाडी में रहने वाले एक वकील और वन विभाग की रैपिड रिस्पांस टीम (आरआरटी) के सदस्य अखिल वेणुगोपाल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि विभाग की सुस्ती अजीश की मौत का कारण बनी। “कुरुवा द्वीप से कुडलकाडव चेक डैम तक चार किलोमीटर में हाथियों का रास्ता है। आमतौर पर, स्थानीय लोग ही शोर मचाकर और पटाखे फोड़कर जानवरों को भगाते हैं, जिसकी अनुमति वन विभाग द्वारा दी जाती है। अजीश को मारने से एक दिन पहले नर हाथी बेलूर मखना पय्यामपल्ली नामक गांव के रिहायशी इलाके में चला गया था। वन विभाग ने हाथी को रेडियो-कॉलर लगाए जाने के बावजूद (जीपीएस-सक्षम कॉलर हाथी की गतिविधियों को ट्रैक करने के साथ-साथ उसकी लोकेशन की वास्तविक स्थिति प्राप्त करने में मदद करता है) भी स्थानीय लोगों को चेतावनी नहीं दी। विभाग को यह भी पता था कि यह हाथी खतरनाक है और कर्नाटका में एक व्यक्ति को मार चूका है, ऐसे में विभाग को लोगों को जानवर से दूर रहने की घोषणा करनी चाहिए थी,” उन्होंने कहा।
हालांकि, वायनाड वन्यजीव प्रतिपालक (वार्डन) दिनेश कुमार ने कहा कि अजीश की मौत के दिन हाथी के साथ सेटेलाइट का संपर्क टूट गया था। “अजीश की मौत प्रादेशिक प्रभाग में हुई, अभयारण्य में नहीं। रेडियो कॉलर लगातार सिग्नल नहीं देगा, अच्छा सैटेलाइट कवरेज होने पर ही सिग्नल आएगा। उस दौरान (अजीश की मौत) डेढ़ घंटे तक कोई सिग्नल नहीं था, लेकिन उस मामले में भी वन विभाग का अमला मौके पर था, जिसने रहवासियों को सतर्क कर दिया। लेकिन कुछ स्थानीय लोगों ने जानवर को भगाने की कोशिश की,” उन्होंने कहा।
दिनेश कुमार ने इस तर्क का भी खंडन किया कि जंगल के अंदर भोजन और पानी की कमी है। “सभी हाथी संघर्ष पैदा नहीं कर रहे हैं, अगर कमी थी, तो सभी हाथियों को जंगल से बाहर आना चाहिए था, केवल कुछ जानवर अपने व्यवहार पैटर्न के कारण ऐसा करते हैं। कुछ हाथियों में जंगल की सीमा को देखते हुए खेत की उपज को सूँघने की प्रवृत्ति होती है। जंगल के अंदर पानी के कुंड भरे हुए हैं। झड़पें बरसात में भी हो रही हैं, बारिश के मौसम में ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं क्योंकि कटाई के मौसम के कारण जानवरों को काटी गई उपज की गंध आ जाती है। इसके अलावा, बाघों के मामले में, घायल बाघ ही बाहर आ रहे हैं क्योंकि वे जंगल के अंदर शिकार नहीं कर सकते हैं,” उन्होंने कहा।
आर्थिक समीक्षा 2022-23 के अनुसार, वन्यजीव जनसंख्या वृद्धि, आवास हानि और विखंडन, जलवायु परिवर्तन और फसल पैटर्न में बदलाव के साथ-साथ परिणामी पर्यावरणीय प्रभाव को क्षेत्र में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष के प्रमुख कारणों के रूप में बताया गया है।
जंगली जानवरों की संख्या में वृद्धि जिम्मेदार?
हालाँकि, किसान संगठनों का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में जानवरों की आबादी में वृद्धि हुई है और उन्होंने जानवरों को मारने तक के आक्रामक कदम उठाने का भी सुझाव दिया है। वायनाड में किसान राहत मंच के अध्यक्ष और पुलपल्ली के एक किसान पीएम जॉर्ज ने कहा कि 30 साल पहले जंगली जानवरों के हमले इतने नहीं होते थे। “उन दिनों इंसान जानवरों का शिकार करते थे। अब वन्यजीवों की संख्या बढ़ गई है,” उन्होंने कहा। उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार को जंगल और जमीन की सीमा पर चारदीवारी बनानी चाहिए। छप्पन वर्षीय जॉर्ज कंदीय फसलें और केले उगाते हैं। उन्होंने कहा, “किसान अपने खेतों को बंदरों, सूअरों और कभी-कभी बाघों और हाथियों जैसे जानवरों से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।”
जॉर्ज के पड़ोसी, देवसी भी एक किसान थे, उन्होंने जनजातीय समुदायों को अपनी ज़मीन से जानवरों को दूर भगाने से रोकने के लिए वन विभाग को दोषी ठहराया। “पहले हम पटाखे फोड़कर हाथियों को भगाते थे और आदिवासी लोग धनुष-बाण से उन्हें भगाते थे। जब मैं छोटा था तो हमें जंगल के अंदर कई किलोमीटर तक यात्रा करने पर हमें सिर्फ जंगली सूअर दिखाई देता था, लेकिन अब सड़क पर हाथियों को देखा जा सकता है,” देवसी ने कहा, जो कंद भी उगाते हैं।
देवसी ने वन विभाग द्वारा जंगल में बांस काटे जाने और सागौन लगाए जाने पर भी चिंता व्यक्त की, जिससे जानवरों का निवास स्थान नष्ट हो गया। देवसी ने कहा, “सागौन के जंगल में (जानवरों को भोजन पाने के लिए) अन्य पौधे नहीं उग सकते और जानवर वहां नहीं रह सकते।”
उत्तर वायनाड वन प्रभाग के बेगुर रेंज के अंतर्गत मानंथावाडी वन क्षेत्र में 1958 में सागौन लगाए गए थे। सागौन अपने अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी के अधिकांश पोषक तत्वों और नमी का उपभोग करता है और अन्य पौधों की प्रजातियों को इसके आसपास और नीचे बढ़ने नहीं देता है।
वायनाड प्रकृति संरक्षण समिति (डब्ल्यूपीएसएस) द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि ग्वालियर रेयंस फैक्ट्री नामक कंपनी के लिए वायनाड में बांस के जंगलों को काट दिया गया और उनकी जगह यूकेलिप्टस लगा दिया गया। इसकी स्थापना 1957-58 के दौरान वायनाड के पड़ोसी जिले कोझिकोड के मावूर में लुगदी और फाइबर का उत्पादन करने के लिए की गई थी। “इस वजह से जानवर खेतों में चरने लगे। राज्य सरकारों के असंवेदनशील कदमों के अलावा, संवेदनशील क्षेत्रों में चल रहे रिसॉर्ट और पर्यटन विभाग की पर्यावरण-पर्यटन (इको टूरिज्म) पहल, दोनों ने नियमों की अवहेलना करके वन्यजीवों के आवास को नष्ट कर दिया है, जिससे जानवर खेतों में आ रहे हैं,” बयान में कहा गया।
जानवरों के प्राकृतिक आवास के विनाश के अलावा, वायनाड का भूगोल भी इसे मानव-वन्यजीव संघर्ष के प्रति संवेदनशील बनाता है। वायनाड तमिलनाडु में मुदुमलाई टाइगर रिजर्व और सत्यमंगलम के जंगल, कर्नाटका में नागरहोल टाइगर रिजर्व, बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान और बीआर टाइगर रिजर्व के साथ वन क्षेत्र साझा करता है। जानवर, विशेष रूप से हाथी जैसे लम्बी दूरी तय करने वाले जानवर, भोजन के लिए राज्य की सीमाओं को पार करते हैं। दिनेश कुमार ने कहा, “यह एक गतिशील स्थान है।” डब्ल्यूपीएसएस ने अपने बयान में कहा कि तीन राज्यों (केरला, कर्नाटका और तमिलनाडु) में फैले जंगल के मुद्दों के समन्वय के लिए वर्तमान में कोई प्रणाली नहीं है और केंद्रीय वन और पर्यावरण विभाग के तहत एक वैधानिक निकाय गठित करने की मांग की गई है।
यद्यपि केरला का भूमि क्षेत्र देश का केवल 1.2% है, वन क्षेत्र राष्ट्रीय वन क्षेत्र का 2.3% है। राज्य में वन का दर्ज क्षेत्रफल 11531 वर्ग किलोमीटर या राज्य के भौगोलिक क्षेत्र (38,863 वर्ग किलोमीटर) का लगभग 29.6% है। हालांकि, आरक्षित वनों के बाहर सहित वास्तविक वन क्षेत्र कहीं अधिक है। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) के 2021 के आकलन के अनुसार, वृक्षारोपण सहित वनों का कुल क्षेत्रफल 21,253 वर्ग किलोमीटर है जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 54.7% है। वायनाड जिले में 74.2% वन क्षेत्र है, जो केरला में सबसे अधिक है, इसके बाद पथानामथिट्टा और इडुक्की हैं। राज्य के जिलों में, इडुक्की में 3155 वर्ग किलोमीटर वन भूमि है, इसके बाद पालक्काड़ में 2104 वर्ग किलोमीटर और मलप्पुरम में 1984 वर्ग किलोमीटर है।
वनों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र के प्रतिशत को ध्यान में रखते हुए, केरला को अपेक्षाकृत आरामदायक स्थिति में रखा गया है; हालांकि, राज्य में जनसंख्या का उच्च घनत्व वन संसाधन पर तुलनात्मक रूप से अधिक दबाव डालता है।
“हम दीर्घकालिक और अल्पकालिक उपाय कर रहे हैं। हमने क्षेत्रीय प्रभाग में पर्यावरण-बहाली को लागू करना शुरू कर दिया है,” दिनेश कुमार ने कहा।
आर्थिक समीक्षा के अनुसार, मानव-वन्यजीव संघर्ष को प्रबंधित करने के लिए 14वीं पंचवर्षीय योजना के हिस्से के रूप में दीर्घकालिक और अल्पकालिक उपायों के साथ एक व्यापक रणनीति पर काम चल रहा है। इसमें हाथी-रोधी खाइयों का निर्माण, हाथी-रोधी पत्थर की दीवारें, सौर ऊर्जा बाड़ लगाना, अन्य निवारक उपाय, वन्यजीव निवास स्थान में सुधार, वन्यजीवों के लिए आंतरिक वन क्षेत्रों में चारा और पानी उपलब्ध कराना, रैपिड रिस्पांस टीम को बढ़ावा देना आदि शामिल हैं।
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बैनर छवि: केरल में सड़क पर चलता एक हाथी। केरला के वायनाड जिले में लगातार वन्यजीवों से मुठभेड़ हो रही है, जिनमें हाथियों और बाघों से जुड़ी घातक घटनाएं भी शामिल हैं। फोटो नंदुकृष्ण_टी_अजीथ/विकिमीडिया कॉमन्स द्वारा।