- यह इंडेक्स इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) के नए फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके हिमालय में जलवायु के खतरों को मापता है।
- शोधार्थी इसके तीन पहलुओं का विश्लेषण करके जिला स्तर पर खतरे का स्तर मापते हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे इंडेक्स को थोड़ा और डायनैमिक होना चाहिए ताकि वे कम, मध्यम और ज्यादा समय के अंतराल में पैदा होने वाले खतरों को भी समझ सकें।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास (IIT-M) के शोधार्थियों द्वारा बनाए गए एक नए क्लाइमेट रिक्स इंडेक्स यानि जलवायु के संकट को मापने वाले सूचकांक के जरिए पता चला है कि पूर्वी हिमालय के पहाड़ों की तुलना में पश्चिमी हिमालय के पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन के खतरे ज्यादा हैं।
शोधार्थियों ने कहा है कि इस सूचकांक में पहली बार इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) के नए फ्रेमवर्क का इस्तेमाल किया गया है जिससे कि हिमालय में जलवायु परिवर्तन के खतरों को मापा जा सके। इसमें भौतिक और सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों को शामिल किया गया है।
बर्फ और पानी की मात्रा के हिसाब से हिमालय को ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाता है और ये जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील भी हैं। हिमालय के कुछ हिस्से जैसे कि हिंदुकुश हिमालय की चोटियां वैश्विक औसत की तुलना में तेज रफ्तार से पिघल रही हैं। बीते दशक के दौरान हिमालय में बर्फ और ग्लेशियर दोनों तेजी से पिघल रहे हैं।
वैसे तो हिमालय पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावों के बारे में सबको पता है लेकिन कुछ स्टडी में यह मैप किया गया है कि किस तरह से इन खतरों को जिला स्तर पर समझा जा सकता है। साल 2020 की फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट और अन्य की एक स्टडी में हिमालय क्षेत्र के जलवायु परिवर्तन के खतरों का आकलन करने की कोशिश की गई थी, इसमें यह पता चला कि पूर्वी क्षेत्रों में खतरा ज्यादा है। आईआईटी-मद्रास की स्टडी में एक नई तकनीक और सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध डेटा का इस्तेमाल किया गया। इससे भी यही पता चला कि जहां पूर्वी और पश्चिमी दोनों क्षेत्र संवेदनशील हैं वहीं पश्चिमी क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन की वजह से ज्यादा खतरा है।
शिमला, धलाई और इंफाल पश्चिम पर है खतरा
आईआईटी मद्रास के शोधार्थियों ने जिला स्तर पर खतरे को मापने के लिए तीन चीजों को देखा। पहला- खतरा (कुछ होने या घटना घटने की आशंका), दूसरा- संवेदनशीलता (कुछ नुकसान होने की आशंका), तीसरा- एक्सपोजर (किसी खतरे की वजह से किस हद तक नुकसान हो सकता है)।
इस स्टडी में कई तरह के खतरों जैसे कि भूकंप, शीतलहर के दिनों, बाढ़ की घटनाओं, सूखा, बारिश और बिजली गिरने के दिनों को भी शामिल किया गया। साथ ही साथ, जनगणना और भारतीय मौसम विभाग जैसे सार्वजनिक डेटा का भी इस्तेमाल किया गया। संवेदनशीलता का आकलन करने के लिए इस स्टडी में उस जनसंख्या को देखा गया जो इन खतरों से प्रभावित हो सकती थी। साथ ही, उन घरों की संख्या भी देखी गई जो बदलती परिस्थितियों के प्रति खुद को ढालने में सक्षम थे। एक्सपोजर मापने के लिए जनसंख्या वृद्धि की दर, जनसंख्या घनत्व, निर्माण क्षेत्र का प्रतिशत, खेती वाली जमीन का प्रतिशत और चारे वाली जमीन के प्रतिशत को भी देखा गया।
इस रिसर्च पेपर के सह-लेखक आयुष शाह ने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “इन सभी तत्वों की वजह से अहम जानकारी मिलती है जिससे संभावित खतरों को समझने और उन्हें कम करने में मदद मिलती है। इसमें से किसी भी तत्व को नजरअंदाज करने से खतरे का अधूरा या गलत आकलन हो सकता है। इसका अंजाम यह होगा कि तैयारी अधूरी रह जाएगी और इसके लिए किए जाने वाले काम भी पूरे नहीं हो पाएंगे।”
इस इंडेक्स का आकलन करने के लिए टेक्नीक फॉर ऑर्डर ऑफ प्रेफरेंस बाई सिमिलैरिटी टू आइडियल सॉल्यूशन यानी TOPSIS का इस्तेमाल किया गया। इसमें मौजूदा डेटा का इस्तेमाल किया जाता है ताकि कई अलग-अलग पैमानों पर आधारित विकल्पों की तुलना की जाती है और इन खतरों को सकारात्मक और नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले कारकों का आकलन करके बेहतर विकल्प को प्रस्तुत किया जाता है। इस तरीके का इस्तेमाल करके खतरे के सभी प्रकार जैसे कि खतरा, संवेदनशीलता और एक्सपोजर के लिए अलग-अलग इंडेक्स बनाए गए हैं। इसके अलावा, ओवरऑल रिस्क इंडेक्स का भी आकलन किया जाता है जिनमें तीनों वैरिएबल का हिसाब लगाया जाता है।
इस स्टडी में सामने आया कि हिमाचल प्रदेश का शिमला जिला खतरे के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील है। स्टडी के मुताबिक, साल 1969 से 2019 के बीच हिमालय के सभी जिलों में शिमला ऐसा जिला रहा जहां बाढ़ की घटनाएं सबसे ज्यादा हुईं। इसके अलावा, 1981 से 2010 के बीच सालाना बर्फबारी के मामले में भी शिमला चौथे स्थान पर रहा। शिमला सूखे के मामले में पूर्वी सिक्किम के ठीक पीछे था। इसके अलावा, साल 1981 से 2010 के बीच ओलावृष्टि के मामले में तीसरे स्थान पर हिमाचल प्रदेश का सोलन था। हिमालय के बाकी जिलों की तुलना में नागालैंड और मिजोरम के जिले खतरे के प्रति सबसे कम संवेदनशील थे।
पूर्वी भारत के हिमालय क्षेत्र ज्यादा संवेदनशील पाए गए। कुल 62 में से 43 जिले ऐसे थे जो अति और अत्यधिक संवेदनशील जिले थे। त्रिपुरा का धलाई जिला सबसे ज्यादा संवेदनशील जिला आंका गया क्योंकि अडॉप्टिव कैपेसिटी इंडिकेटर्स पर इसका स्कोर सबसे खराब था। स्टडी में शामिल किए गए इन इंडिकेटर्स में उन घरों को गिना गया जिनमें प्रकाश का इंतजाम बिजली के जरिए होता था, एक लाख की जनसंख्या पर उपलब्ध अस्पताल में बिस्तरों की संख्या गिनी गई, उन घरों को गिना गया जिनमें घर के अंदर ही पीने के साफ पानी का इंतजाम था। इसके अलावा, कई अन्य कारकों में प्रति व्यक्ति खर्च को भी देखा गया।
एक्सपोजर की बात करें तो मणिपुर का इंफाल पश्चिम जिला सबसे एक्सपोज्ड जिला आंका गया। स्टडी के मुताबिक, इसकी वजह यह थी कि हिमालय के इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व सबसे ज्यादा था और बिल्ट-अप एरिया का प्रतिशत भी सबसे ज्यादा था। अरुणचाल प्रदेश का कुरुंग कुमे अपनी जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार की वजह से दूसरे नंबर था और उत्तराखंड के दो जिले हरिद्वार और उधम सिंह नगर तीसरे नंबर पर रहे क्योंकि वहां खेती के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र सबसे ज्यादा था।
आईआईटी-मद्रास के असिस्टेंट प्रोफेसर और इस स्टडी के लेखक कृष्ण मलाकर ने कहा, “खतरों के हर पहलू को देखना बेहद अहम है क्योंकि इसी से इन खतरों को कम करने के लिए सही और सटीक नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।”
जब खतरा, संवेदनशीलता और एक्सपोजर के इंडेक्स को मिलाकर ओवरऑल रिस्क प्रोफाइल तैयार की गई तो पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला खतरों के प्रति सबसे संवेदनशील जिला बनकर उभरा। हालांकि, इस स्टडी में खतरों के प्रकार पर प्रकाश नहीं डाला गया। दार्जिलिंग के बाद पश्चिमी और उत्तरी त्रिपुरा जिलों का नंबर आया।
क्षेत्रीय पैमाने पर देखें तो इस इंडेक्स के मुताबिक, पश्चिमी हिमालय का क्षेत्र खतरों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील है। यह स्टडी कहती है, “ऐसा इसलिए है कि 47 में से 32 यानी लगभग दो तिहाई क्षेत्र सबसे ज्यादा और ज्यादा खतरों वाले जिलों की श्रेणी में आते हैं।” वहीं, पूर्वी हिमालय के क्षेत्र में आने वाले 62 में से 39 जिले ऐसे हैं जो कम या बेहद कम खतरे वाले जिलों में आते हैं।
खतरों का आकलन
ऐसे संवेदनशीलता वाले इंडेक्स में अब सबकी रुचि बढ़ती जा रही है क्योंकि अब शहर और जिले अपने लिए क्लाइमेट एक्शन प्लान बना रहे हैं। हालांकि, इनके नतीजे अलग-अलग डेटा और इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, साल 2020 में हिमालय में की गई स्टडी में माउंटेन स्पेसिफिक रिस्क मैनेजमेंट फ्रेमवर्क का इस्तेमाल किया गया। इसमें यह सामने आया कि ज्यादा क्लाइमैटिक एक्सपोजर और ज्यादा खतरे आने की वजह से पूर्वी पहाड़ों को खतरा ज्यादा था। इसके अलावा, पानी की वजह से आने वाली प्राकृतिक आपदाओं का असर पूर्वी हिमालय में ज्यादा था।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर ने भी ऐसा ही कुछ प्रयास किया है। इसमें जिलों में संवेदनशीलता को मापा गया। हालांकि, इसे जल आधारित आपदाओं और जिलों की जलवायु संवेदनशीलता पर उनके खतरों पर केंद्रित रखा गया। साल 2021 में किए अपने आकलन में इस काउंसिल ने कहा कि जल आधारित आपदाओं के प्रति सबसे संवेदनशील राज्य असम था।
डेवलपमेंट कंसल्टिंग ग्रुप IPE-Global में क्लाइमेट चेंज एंड सस्टेनेबिलिटी के सेक्टर हेड अबिनाश मोहंती ने CEEW के इंडेक्स पर काम किया है। वह कहते हैं कि ऐसे इंडेक्स की मदद से यह जानने में मदद मिलती है कि अलग-अलग जिलों में रिस्क प्रोफाइल किस तरह अलग हो सकती है। हालांकि, उनका यह भी कहना है कि इन्हें थोड़ा और डायनैमिक होना चाहिए ताकि इनके जरिए नीतिगत समाधान निकाले जा सकें। अबिनाश आगे कहते हैं, “इसमें एक कमी यह है कि रिस्क लैंडस्केप कैसे बदल रहा है और आने वाले 10 से 20 साल में खतरे किस तरह से बदलेंगे, इसका पता नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि हर दो साल पर इस तरह के मूल्यांकन किए जाएं ताकि इन खतरों को ट्रैक किया जा सके और इन पर नजर रखी जा सके। हालांकि, इसके लिए क्षमता विकसित करने और खतरों के आकलन के लिए समग्र तरीकों का इस्तेमाल करने की जरूरत है जो कि सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।”
अबिनाश मोहंती इस समय मुंबई नगर निगम के साथ काम कर रहे हैं और एक क्लाइमेट रिस्क ऑब्जर्वेटरी बनाने में लगे हुए हैं जो एक निश्चित समय अंतराल पर और खासकर कम समय अंतराल पर इन आपदाओं से होने वाले खतरों को आंक सके। इसके जरिए, क्षमताओं में आने वाले अंतर को कम करने की कोशिश की जाएगी। वह कहते हैं, “मुंबई बीएमसी के कमांड एंड कंट्रोल सेंटर में आपदाओं की इस जानकारी का ऐसा इस्तेमाल करने जा रहे हैं जिससे इन खतरों को ट्रैक किया जा सके और कम समय के साथ-साथ थोड़े ज्यादा समय और लंबे समय के हिसाब से कार्रवाई कर सकें।”
बैनर इमेज: हिमालय में स्थित दार्जिलिंग जिले में मौजूद एक रोपवे। यह जिला जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति सबसे संवेदनशील जिला है। तस्वीर: ज्योति पीएन/Wikimedia Commons।