- स्वच्छ ऊर्जा की ओर जाने की दिशा में भारत एक अहम खनिज ग्रेफाइट की तलाश कर रहा है। इसी के चलते ओडिशा के जंगलों में टकराव की स्थिति बन रही है।
- कालाहांडी जिले के लामेर गांव के आदिवासी समुदाय के लोगों का कानूनी अधिकार है कि वे अपने जंगलों का प्रबंधन कर सकें और उसकी रक्षा कर सकें। इसी के लिए वे ग्रेफाइट की खोजबीन का विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे उनके वन उत्पाद और नतीजतन उनकी आजीविका प्रभावित हो सकती है।
- विशेषज्ञों का कहना है कि जहां एक तरफ स्वच्छ ऊर्जा के लिए अहम खनिजों का खनन बेहद अहम है, वहीं इन समुदायों के फायदों के लिए किए जाने वाले समझौतों से जुड़ा एक फ्रेमवर्क विकसित किए जाने की जरूरत है।
अपनी स्वच्छ ऊर्जा जरूरतों के लिए भारत ने अहम खनिजों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है और इसी के चलते ओडिशा के जंगलों में रहने वाले लोगों से टकराव की स्थिति बन रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जंगल की जमीन के अधिग्रहण की नीतियों की खामियां सामने आई हैं और ऐसी जरूरतें भी समझ आने लगी हैं कि देश में स्वच्छ ऊर्जा के साथ-साथ इन समुदायों के हितों को भी पूरा करना होगा।
पिछले साल ओडिशा के जंगलों में ग्रेफाइट की खोजबीन शुरू की गई और स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने जिला प्रशासन और खनिज की खोज करने वाली एजेंसी के खिलाफ वन अधिकारों का उल्लंघन करने और आदिवासियों को धमकाने के आरोपों में जांच का आदेश दे दिया। बता दें कि भारत में स्वच्छ ऊर्जा अपनाने की दिशा में ग्रेफाइट एक अहम खनिज है।
जुलाई 2023 में ओडिशा के कालाहांडी जिले के लामेर गांव के लोगों ने ग्रेफाइट की खोजबीन का विरोध किया था। यह काम जिला प्रशासन और ओडिशा मिनरल एक्सप्लोरेशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड (OMECL) की ओर से किया जा रहा है। बता दें कि यह खोजबीन उस जंगल में की जा रही थी जो अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत उनके वन अधिकार क्षेत्र का हिस्सा है और उसे कानूनी तौर पर पहचान भी मिली है। लामेर ग्रामसभा के सचिव बिनोद माझी ने बताया कि जब स्थानीय लोगों ने यहां आई जेसीबी मशीनों को पेड़ गिराने से रोका तो उन्हें बताया गया कि इसकी अनुमति प्रभागीय वन अधिकारी (DFO) ने दी है। बिनोद ने यह भी बताया कि यहां के स्थानीय लोगों को इसकी सूचना नहीं दी गई थी कि यहां पेड़ गिराए जाएंगे। उस समय तो लोगों ने जैसे-तैसे इस अभियान को रोक दिया।
हालांकि, टकराव नवंबर में उस समय शुरू हुआ जब जिला प्रशासन पुलिस फोर्स के साथ जबरन गांव में घुसा और खनिज की खोज का काम पूरा करने की कोशिश की। विरोध करने वाले ग्रामीणों को हिरासत में ले लिया गया। स्थानीय निवासी और सामूहिक वन संसाधनों वाले गांवों के एक संगठन कालाहांडी ग्राम सभा महासंघ के सदस्य करुणा हरिजन को भी उस समय पुलिस ने कस्टडी में ले लिया था। इस पर करुणा ने कहा, “हम तीन लोगों को पुलिस कस्टडी में रखा गया था। उन्होंने कहा कि हम लोग बाकी लोगों को इस खोजबीन के खिलाफ प्रेरित कर रहे थे। उन्होंने हमसे कहा कि हम बाकी लोगों को समझाएं और OMECL को अपना काम करने दें वरना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी। जब हम कस्टडी में ही थे तब 30 नवंबर को OMECL के अधिकारी, जिला प्रशासन और पुलिस फोर्स के साथ गांव में आए और फिर से खोजबीन शुरू करने की कोशिश की।”
इसके बाद लामेर ग्रामसभा ने जिला प्रशासन द्वारा OMECL के खिलाफ FRA का उल्लंघन करने और आदिवासियों को धमकाने के खिलाफ राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में शिकायत की। स्थानीय लोगों की शिकायत के आधार पर इस आयोग ने जिला प्रशासन के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। आयोग ने 26 दिसंबर को कालाहांडी के जिला कलेक्टर को लिखा, “आयोग को मिली शक्तियों के आधार पर हमने इस मामले की जांच करने का फैसला किया है। ऐसे में आपसे अनुरोध है कि इन आरोपों पर आपने क्या एक्शन लिया है उसके तथ्यों की जानकारी 15 दिनों के भीतर दें।” हालांकि, आयोग ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है।
मोंगाबे-इंडिया ने इस मामले से जुड़ी जानकारी के लिए कालाहांडी नॉर्थ के डिविजनल वन अधिकारी और कालाहांडी के जिला कलेक्टर से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है।

वन अधिकार कानून (FRA) के तहत ग्रामीणों के सामुदायिक वन संसाधनों (CFR) को साल 2010 में पहचान दी गई। यह कानून आदिवासी समुदाय के लोगों को उन जंगलों पर मालिकाना अधिकार देता है जिस पर वे पारंपरिक रूप से निर्भर रहे हैं। इसी कानून के तहत उन्हें वन के प्रबंधन का भी अधिकार मिलता है।
लामेर गांव के ज्यादातर लोग आदिवासी हैं। ये लोग अपनी आजीविका के लिए मौसमी वन उत्पाद जैसे कि बांस और तेंदूपत्ता पर निर्भर रहते हैं। ग्रेफाइट की खोज और यहां खदान बनाने की संभावनाओं ने उनकी इस आजीविका पर खतरा पैदा कर दिया है। FRA के अंतर्गत बनाई गई गांव स्तर की लामेर फॉरेस्ट रिसोर्स मैनेजमेंट कमेटी के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार माझी कहते हैं, “हर साल तेंदूपत्ता और बांस की बिक्री से होने वाली कमाई को उन गांव वालों के बीच बांट दिया जाता है जो इसे इकट्ठा करने के काम में मदद करते हैं।”
महत्वपूर्ण खनिजों का खनन और सामुदायिक लाभ
लामेर में हो रहा यह संघर्ष कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था की ओर जाने की कोशिश कर रहे भारत के लिए चिंताएं पैदा करता है क्योंकि इसके लिए इस तरह के खनिजों की जरूरत है।
जून 2023 में खदान मंत्रालय ने 30 खनिजों को ‘महत्वपूर्ण खनिजों’ की श्रेणी में रखा था क्योंकि इन्हें भारत की स्वच्छ ऊर्जा के लिए अहम माना गया था। ये खनिज सोलर पैनल, सेमीकंडक्टर, विंड टर्बाइन और अडवांस बैटरियां बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं। ग्रेफाइट इन्हीं में से एक है। जिन 30 की लिस्ट बनाई गई है उनमें से सिर्फ 16 खनिज ही ऐसे हैं जो भारत में पाए जाते हैं।

स्वनीति ग्लोबल इनिशिएटिव एक क्लाइमेट पॉलिसी थिंक टैंक है जो ऊर्जा परिवर्तन पर काम करता है। इस संस्था के रिसर्च डायरेक्टर संदीप पाई ने मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में बताया, “महत्वपूर्ण खनिज इसलिए अहम हैं क्योंकि उनके बिना ऊर्जा परिवर्तन हो ही नहीं पाएगा। स्वच्छ ऊर्जा की ओर जाने के लिए इन खनिजों का खनन तेजी से किए जाने की जरूरत है। वैश्विक स्तर पर इन खनिजों का जितना खनन अभी होता है उससे लगभग 6 से 72 गुना ज्यादा खनन किए जाने की जरूरत है। हर देश अब और खनन करेगा और यह राष्ट्रीय महत्व का विषय है। सवाल यह है कि आप कितने जिम्मेदाराना तरीके से यह काम करते हैं।”
इन खनिजों की महत्ता को देखते हुए वैश्विक स्तर पर इनमें किए जाने वाले निवेश ने रफ्तार पकड़ ली है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की क्रिटिकल मिनरल्स मार्केट रिव्यू 2023 के मुताबिक, इन खनिजों के बाजार का आकार साल 2018 से 2022 के बीच दोगुना होकर 320 बिलियन डॉलर पहुंच गया है।
इनमें से ज्यादातर खनिजों का खनन कुछ ही देशों जैसे कि डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो, इंडोनेशिया और चीन में ही किया जा रहा है। साल 2015 में नेशनल मिनरल एक्सप्लोरेशन ट्रस्ट बनाकर भारत सरकार ने महत्वपूर्ण खनिजों को खोजने के प्रयास बढ़ा दिए हैं। साल 2015-16 और 2022-23 के बीच जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (GSI) ने महत्वपूर्ण खनिजों की खोज के लिए 616 प्रोजेक्ट शुरू किए हैं और साल 2023-24 में कुल 127 प्रोजेक्ट शुरू किए हैं। खनिज मंत्रालय ने फेज 1 में महत्वपूर्ण खनिजों की 20 खदानों की नीलामी की। अप्रैल के मध्य में इसके नतीजे आने से पहले 29 फरवरी को 18 और खदानों की नीलामी शुरू कर दी गई।
इसके बारे में संदीप पाई कहते हैं, “भारत में राष्ट्रीय स्तर पर जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है वह है सामुदायिक लाभ के समझौतों से जुड़ा एक फ्रेमवर्क। हमें ऐसा फ्रेमवर्क जल्द लाना चाहिए क्योंकि भारत पहले ही नई खदानों की खोज में लगा हुआ है और नीलामियां हो रही हैं। इस पर बाद में विचार नहीं किया जा सकता है। यही वह दिशा है जिस ओर हर देश आगे बढ़ रहा है। कुछ देश पहले से ही इस ओर सोच रहे हैं और अन्य देश नहीं सोच रहे हैं।”
पेरू, कनाडा और साउथ अफ्रीका के सामुदायिक लाभ वाले समझौतों के मॉडल को लेकर, पिछले साल नंवबर में आयोजित इंटरगवर्नमेंटल फोरम ऑन माइनिंग, मिनरल्स, मेटल्स और सस्टेनेबल डेवलपमेंट की 19वीं वार्षिक मीटिंग में चर्चा हुई थी। यह फोरम एक ऐच्छिक पार्टनरशिप वाला ग्रुप है जिसमें 80 देश हैं। ये देश प्रभावी कानूनों, नीतियों और खनन के क्षेत्र से जुड़े नियमों से जुड़े सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में लगे हुए हैं। भारत इस फोरम में जून 2023 में शामिल हुआ था।

सामुदायिक वन अधिकार और भूमि अधिग्रहण
लामेर गांव में हो रहा संघर्ष नीतियों से जुड़ी उन कमियों की ओर इशारा करता है जो जंगल की जमीन का अधिग्रहण करने के आड़े आती हैं। वन अधिकार कानून पारंपरिक रूप से जंगलों का इस्तेमाल कर रहे समुदाय को मालिकाना हक देते हैं और उनका प्रबंधन करने का अधिकार भी देते हैं। भारत में भूमि अधिग्रहण के लिए भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम 2013 का पालन किया जाता है। इसकी धारा 41 और 42 के तहत वन अधिकार कानूनों के तहत जंगल की जमीन को पहचान दी गई है लेकिन इस कानून में इसको लेकर कोई खास गाइडलाइन नहीं दी गई है। उदाहरण के लिए, इस कानून में यह नहीं बताया गया है कि मुआवजे की राशि क्या होगी। मुआवजे की राशि में लैंड वैल्यू, सीजनल वन उत्पादों की वैल्यू, सांस्कृतिक महत्व और ईकोसिस्टम सर्विस वैल्यू को ध्यान में रखा जाएगा या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। यह भी तय नहीं है कि अगर इनको ध्यान में रखा जाएगा तो इनकी कितनी हिस्सेदारी होगी।

वन अधिकार कानून से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले एक स्वतंत्र शोधार्थी तुषार डाश कहते हैं, “कोई केंद्रीय नियम न होने की वजह से राज्य की संस्थाएं इन जमीनों का अधिग्रहण जैसे चाह रही हैं, वैसे कर रही हैं। उनका ध्यान मुख्य रूप से व्यक्तिगत वन अधिकारों वाली जमीनों पर रहा है। कुछ ऐसे भी मामले आए हैं जहां CFR वाली जमीनों का अधिग्रहण भी किया गया है लेकिन यह काम बिना किसी विस्तृत प्रक्रिया के ही किया गया और मुआवजे की राशि तय करने के प्रयास भी नहीं किए गए। उदाहरण के लिए, वन भूमि के परिवर्तन के लिए नेट प्रजेंट वैल्यू तय करने के लिए एक विस्तृत तरीका है लेकिन जब CFR वाली जमीन की बात आती है तो ऐसा कोई तरीका नहीं है।”
महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले के कुछ गांवों में CFR की जमीनों का अधिग्रहण किया गया है ताकि वर्धा से रायपुर तक एक ट्रांसमिशन लाइन तैयार की जा सके। वहीं, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के लिप्पा गांव में हाइड्रोपावर प्लांट के लिए अधिग्रहण किया गया है।
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई के एक फैकल्टी सदस्य गीतोंजय साहू ने मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में कहा, “दोनों ही मामलों में मुआवजे की राशि ऐसे ही तय कर ली गई। गढ़चिरोली के मामले में मुआवजे की राशि CFR जमीन पर पैदा होने वाले मौसमी वन उत्पाद से होने वाली आय का 20 गुना मुआवजा दिया गया। वहीं, लिप्पा के मामले में सेब के बागानों से होने वाली आय के हिसाब से मुआवजा तय किया गया। एक फ्रेमवर्क विकसित करने की तत्काल जरूरत है ताकि CFR वाली जमीन की कीमत तय की जा सके, वह भी तब जब यहां के लोग खुद गैर-वन इस्तेमाल के लिए इसकी अनुमति दे दें।”
बैनर इमेज: लामेर के निवासी मुख्य रूप से बांस और तेंदू पत्ते जैसे वन उत्पादों पर निर्भर रहते हैं और इसी से अपनी आजीविका कमाते हैं। उनका कहना है कि ग्रेफाइट की खोज करना और यहां एक खदान की संभावना के चलते उन वन उत्पादों की उपलब्धता पर खतरा मंडराने लगा है जिन पर वे निर्भर हैं।
तस्वीर: आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे।