- धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य से कहीं अधिक क़ीमत पर धान ख़रीदी के कारण किसानों का पूरा ध्यान धान उगाने पर है और दलहन-तिलहन का रकबा और उत्पादन घटता जा रहा है।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे भोजन की थाली में पोषण के सवाल तो हैं ही, धान में पानी की खपत के कारण आने वाले दिनों में जल संकट और गहरा सकता है।
- राज्य में धान उगाने को प्रोत्साहित किया जा रहा है लेकिन दूसरी फसलों के उत्पादन को लेकर कोई सुनियोजित नीति नहीं है।
देश भर में सर्वाधिक क़ीमत पर धान की ख़रीदी से छत्तीसगढ़ के किसानों की बांछे भले खिली हुई हों लेकिन राज्य में दूसरी फसलों के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है। विविध फसलों की जगह, मूल रूप से धान की खेती ने दूसरी फसलों को हाशिये पर डाल दिया है। साल दर साल, अधिक से अधिक धान उगाने के कारण छत्तीसगढ़ में धान की पैदावार तो बढ़ गई है लेकिन दलहन, तिलहन जैसी दूसरी फसलों का रकबा और उत्पादन पिछले कई सालों से स्थिर या कम होता जा रहा है।
लगातार धान उगाने की इस परंपरा के कारण ज़मीन की उर्वरा शक्ति के क्षरण को लेकर भी चिंता शुरु हो गई है। कृषि वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी आशंकित हैं कि अधिक से अधिक धान उगाने की होड़, आने वाले दिनों में जलवायु संकट को और गहराने वाला न साबित हो जाए।
छत्तीसगढ़ में इस साल, राज्य सरकार ने किसानों को समर्थन मूल्य पर प्रति क्विंटल धान के बदले 3,100 रुपये का भुगतान किया। यह तब है, जब केंद्र सरकार ने 2023-24 के लिए मोटा धान के लिए 2,183 रुपये प्रति क्विंटल और ए ग्रेड धान के लिए 2,203 रुपये प्रति क्विंटल की दर घोषित की है। लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने समर्थन मूल्य के साथ-साथ, धान के लिए प्रति क्विंटल 917 रुपये की दर से अंतर राशि किसानों को अतिरिक्त प्रदान किया। इस तरह किसानों को समर्थन मूल्य के रूप में 31,914 करोड़ और अंतर की राशि के रूप में 13,320 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया।
स्वामीनाथन आयोग के सी 2 यानी व्यापक लागत+50 प्रतिशत के फार्मूले के हिसाब से देखें तो धान की क़ीमत 2,886.50 रुपये के आसपास होनी चाहिए। इस हिसाब से छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश से कहीं अधिक भुगतान किया।
इस साल राज्य के 24.72 लाख किसानों से 144.92 लाख मीट्रिक टन धान की ख़रीदी की गई। पिछले साल की तुलना में यह 37.39 लाख मीट्रिक टन अधिक है। साल 2022-23 में 107.53 लाख मीट्रिक टन धान की खरीदी हुई थी। वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से, कभी भी किसानों से इतनी बड़ी मात्रा में धान की खरीदी नहीं की गई थी।
धान की राजनीति
असल में नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के कुछ सालों के बाद से ही समर्थन मूल्य पर धान ख़रीदी की शुरुआत हुई। इस दौरान साल 2002-03 में जब देश में धान का समर्थन मूल्य 530 रुपये था, तब केंद्र सरकार ने ही छत्तीसगढ़ में किसानों को प्रति क्विंटल 20 रुपये अतिरिक्त बोनस के रूप में देने की शुरुआत की। 2006-07 में 40 रुपये और 2007-08 में 100 रुपये का बोनस भी केंद्र ने ही दिया।
रमन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल में किसानों को प्रति क्विंटल धान पर अतिरिक्त बोनस देने की शुरुआत की। 2008-09 में जब धान का समर्थन मूल्य 850 रुपये था, तब राज्य सरकार ने किसानों को 220 रुपये बतौर बोनस दिए। हालांकि बजट घाटा देखते हुए, अगले तीन सालों तक किसानों को प्रति क्विंटल केवल 50 रुपये का ही बोनस दिया गया। लेकिन चुनावी साल 2013-14 में जब धान का समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 1,310 रुपये था, सरकार ने 300 रुपये का बोनस किसानों को दिया।
चुनाव खत्म हुआ और सरकार ने अगले दो साल फिर कोई रक़म नहीं दी।
साल 2016-17 और 2017-18 में रमन सिंह की सरकार ने 1470 और 1550 रुपये प्रति क्विंटल के समर्थन मूल्य के अतिरिक्त 300 रुपये बोनस देने की घोषणा जरूर की लेकिन रकम किसानों को नहीं दी गई। इसके उलट कांग्रेस पार्टी ने 600 रुपये बोनस की घोषणा कर दी। कहते हैं, बोनस के इसी खेल के कारण राज्य में भाजपा चुनाव हार गई।
साल 2018-19 में 1750 रुपये के समर्थन मूल्य पर कांग्रेस सरकार ने औसतन 740 रुपये और 2019-20 में 1815 रुपये समर्थन मूल्य के अलावा औसतन 675 रुपये प्रति क्विंटल का बोनस देना शुरू किया, जो 2023 तक जारी रहा। लेकिन ऐन चुनाव के समय भाजपा ने 900 रुपये से अधिक के बोनस की घोषणा की और राजनीति पर नज़र रखने वाले मानते हैं कि भाजपा की इसी घोषणा के कारण वह फिर से चुनाव जीत कर, कांग्रेस सरकार को सत्ता से बेदखल करने में सफल रही।
राज्य के कृषि मंत्री रामविचार नेताम ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “हमने किसानों से जो वादा किया था, उसे पूरा किया है। हमारी प्राथमिकता ये है कि किसानों को उनकी उपज की पूरी क़ीमत मिले। किसान समृद्ध होगा, उसके पास पैसा आएगा तो राज्य की अर्थव्यवस्था भी रफ़्तार पकड़ेगी। इस साल किसानों को जो रकम मिली, वह अंततः बाज़ार में ही आई है। इस व्यवस्था ने समृद्ध और एक सशक्त छत्तीसगढ़ की नींव रख दी है, जहां किसान ख़ुश है। लोग खेती की ओर लौट रहे हैं। राज्य में पलायन कम हुआ है और युवा वर्ग भी खेती को एक बेहतर वैकल्पिक रोजगार की तरह अपना रहा है।”
बढ़ता गया धान का उत्पादन
छत्तीसगढ़ में धान मुख्यतः खरीफ की फसल है। यह अनायास नहीं है कि धान की खेती के कम जोखिम, श्रम, लागत के अलावा अब बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण साल दर साल धान का रकबा और उत्पादन बढ़ता चला गया।
साल 2009-10 में राज्य में धान का उत्पादन 4955.27 मीट्रिक टन था, 2022-23 में यह आंकड़ा बढ़ कर दोगुने से भी अधिक, 10,026.22 मीट्रिक टन पहुंच गया। लेकिन इसी दौरान राज्य में दलहन और तिलहन का उत्पादन घटकर लगभग आधा हो गया। इन 13 सालों में मूंग का उत्पादन 11.99 मीट्रिक टन से घटकर 4.66 मीट्रिक टन रह गया। उड़द का उत्पादन 74.41 मीट्रिक टन से घटकर 46.77 मीट्रिक टन, सोयाबीन का उत्पादन 148.17 मीट्रिक टन से घटकर 38.08 मेट्रिक टन, रामतिल का उत्पादन 24.07 मीट्रिक टन से घटकर महज 5.81 मीट्रिक टन रह गया।
राज्य के जाने-माने कृषि वैज्ञानिक संकेत ठाकुर का कहना है कि धान की क़ीमत बढ़ने के कारण किसानों में अधिक से अधिक धान उपजाने की होड़ लग गई। हालत ये है कि कई इलाकों में किसान अपने खाने के लिए भी धान नहीं रख रहे हैं, बल्कि पूरी की पूरी फसल बेच कर, अपने लिए खुले बाज़ार से चावल ख़रीद रहे हैं।
गहरा सकता है संकट
संकेत ठाकुर कहते हैं, “यह ठीक है कि किसानों को इसका लाभ मिला है लेकिन राज्य पर सालाना 13 हज़ार करोड़ से अधिक का आर्थिक भार भी तो बढ़ रहा है और अंततः यह आम करदाता से ही तो वसूला जाएगा। इसके अलावा अधिक से अधिक धान उपजाने की नीति के दूसरे गंभीर दुष्परिणाम भी देर-सबेर सामने आएंगे। अर्थव्यवस्था, जलवायु और पारिस्थितिकी संतुलन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव अभी से नज़र आने लगा है।”
वे इस बात को लेकर भी चिंता जताते हैं कि धान की खेती में बढ़े हुए लाभ के कारण छत्तीसगढ़ के किसान केवल धान उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं, जिसका जलवायु के दृष्टिकोण से भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
कुछ दूसरे वैज्ञानिकों का कहना है कि फसल चक्र एक अधिक टिकाऊ कृषि अवधारणा है लेकिन इसकी जगह एक ही तरह की फसल उगाना, मिट्टी की गुणवत्ता के लिए हानिकारक है। इसके अलावा, धान की खेती पर अत्यधिक जोर देने से फसल विविधता को खतरा होता है, जिससे दीर्घावधि में मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इन वैज्ञानिकों की चिंता इस बात को लेकर भी है कि गर्मियों में धान की खेती के लिए पर्याप्त जल संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिससे राज्य में पानी की कमी की समस्या बढ़ रही है।
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युवा कृषि वैज्ञानिक संजीव जायसवाल कहते हैं, “राज्य में धान के कारण खाद्य असमानता भी पैदा हो रही है। भोजन की थाली में केवल चावल रहेगा तो पोषण कैसे मिलेगा? हालत ये है कि अभी राज्य के सभी 471 दाल मिलर्स और दाल के बड़े व्यापारियों के यहां अफ्रीकी देशों से दाल का आयात किया जा रहा है। यहां तक कि जानवरों के खाने के लिए उगाने वाले तिवरा की दाल भी अब उस तरह से नहीं उगाई जा रही है, जैसे पहले उगाई जाती थी। आप मानें या न मानें, भोजन और पोषण के मामले में छत्तीसगढ़ एक नये संकट की ओर बढ़ रहा है।”
ज़ाहिर है, छत्तीसगढ़ में दूसरी फसलों की क़ीमत पर धान उत्पादन ने कई सवाल खड़े किए हैं और कम से कम अभी इन सवालों का जवाब कोई नहीं देना चाहता।
बैनर तस्वीरः धान की बुआई। छत्तीसगढ़ में धान मुख्यतः खरीफ की फसल है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे