- उत्तर प्रदेश का खुर्जा अपने मिट्टी के बर्तनों के लिए मशहूर रहा है। पिछले कुछ सालों में इस उद्योग में काफी आधुनिकीकरण हुआ है। जहां पहले कोयले से जलने वाली भट्ठियां थीं, अब उनकी जगह बेहतर विकल्पों जैसे कि प्राकृतिक गैस वाली भट्ठियों ने ले ली है। इससे ऊर्जा की क्षमता बढ़ी है और पर्यावरण पर इसका प्रभाव भी कम हो गया है।
- गैस से चलने वाली भट्ठियों में आग हर तरफ बराबर जलती है जिससे बेहतर गुणवत्ता वाले मिट्टी के बर्तन बनते हैं। इससे ये स्थानीय और वैश्विक स्तर पर भी प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।
- हालांकि, बदलाव से जुड़ी उसकी कई चुनौतियां भी होती हैं। जैसे कि मिट्टी के बर्तन बनाने वाले पुराने लोग आधुनिक और गैस वाली भट्टियां नहीं लगा सकते हैं क्योंकि ये महंगी होती हैं और इनके लिए ज्यादा जगह भी चाहिए।
50 साल के सैय्यद अहमद का मिट्टी के बर्तनों को आकार देने का तरीका पारंपरिक तरीके से अलग है जबकि ज्यादातर कारीगर पारंपरिक तरीके से ही बर्तन बनाते हैं। बर्तनों को आकार देने के लिए अपने दाहिने हाथ से चाक चलाने के बजाय वह एक अलग तरीका अपनाते हैं और अपने दाहिने पैर को जमीन में बेहद सावधानी से बनाए गए एक छेद में रखते हैं। वह अपने पैर को नीचे की ओर दबाते हैं जिससे निचले पहिए पर जोर पड़ता है और वह घूमता है, इसका नतीजा यह होता है कि ऊपरी पहिया घूमने लगता है और उसके ऊपर रखी मिट्टी को आकार मिलना शुरू हो जाता है। मिट्टी के बर्तन बनाने की इस अनोखी तरकीब को किक व्हील तकनीक कहा जाता है। इसमें एक विशेष फायदा यह होता है कि काम करने वाले के दोनों हाथ पूरी प्रक्रिया के दौरान खाली रहते हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले लोगों में अच्छे कारीगरों में शुमार सैय्यद अहमद बड़े गर्व से कहते हैं, ‘आपको पूरे खुर्जा में दूसरा किक व्हील कहीं नहीं मिलेगा।’ उनके आसपास मौजूद लोग भी सहमति में सिर हिलाते हैं।
भले ही सैयद अहमद का तरीका पारंपरिक तरीकों की तुलना में नया लगता है लेकिन जब खुर्जा में मिट्टी के बर्तन के उत्पादन में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले अन्य तरीकों की चर्चा होती है तो इसकी सीमाएं भी सामने आ जाती है। बता दें कि उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले का खुर्जा शहर दिल्ली से लगभग 85 किलोमीटर दूर स्थित है। इस शहर का मिट्टी के बर्तन बनाने का इतिहास कम से कम 600 सालों का है। इसका नाम उर्दू के शब्द ‘खरीजा’ से लिया गया है जिसका मतलब होता है रद्द किया गया। इसका नाम ही दिखाता है कि इसका इतिहास दलदलों और खेती करने से जुड़ी कठिनाइयों से भरा रहा है जिसके चलते शहर की कमाई घटती गई।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) के छठे सबसे बड़े शहर खुर्जा के शिल्पकार गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और झारखंड से मिट्टी मंगाते हैं। यह मिट्टी एक लंबी प्रक्रिया से गुजरती है। शुरुआत में इसे बॉल मिल और ब्लंगर में मिलाया जाता है। तेज रोटेशन प्रति मिनट (RPM) वाली इन मशीनों में मिट्टी को डालने से मिट्टी एकदम बारीक हो जाती है। इसके बाद इसे छाना जाता है और फिर कट मिल में डाला जाता है ताकि मन मुताबिक गाढ़ापन मिल सके।
मोहम्मद आरिफ बताते हैं कि इस तरह तैयार की गई मिट्टी को फिर रोलर हेड मशीन में डालकर आकार दिया जाता है। मोहम्मद आरिफ को अपने काम की वजह से राज्य की ओर से पुरस्कार भी मिला है। फिलहाल, वह मिन्हास पॉटरी के प्रमुख शिल्पकार हैं। यह कंपनी खुर्जा की उन 23 कंपनियों में से एक है जो निर्यात के लिए मिट्टी के बर्तन बनाती हैं। ये कंपनियां यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और संयुक्त अरब अमीरात जैसे कई देशों में चीनी मिट्टी के बर्तनों का निर्यात करते हैं। निर्यात किए जाने वाली ज्यादातर चीजों में चीनी मिट्टी की कलाकृतियां, इंसुलेटर और वैज्ञानिक इस्तेमाल वाले बर्तन होते हैं। खुर्जा में मिट्टी के बर्तन बनाने वाली कंपनियां अब चीनी मिट्टी की इंडस्ट्री के रूप में उभरी हैं। यहां छोटे स्तर की लगभग 494 कंपनियां हैं और ये मिलकर भारत का सबसे बड़ा क्लस्टर बनाती हैं जो चीनी मिट्टी का बर्तन बनाता है।
बर्तनों को आकार दिए जाने के बाद इन्हें भट्ठी में डालकर तपाया जाता है। सैय्यद अहमद भी अपने बर्तनों को पकाने के लिए इन्हीं छोटी कंपनियों की मदद लेते हैं। खुर्जा में खावेश ज्ञान के उनके घर में जहां किक व्हील लगा है, उसी के ठीक पीछे बने बरामदे में तमाम रैक लगे हैं जिन पर उनके बनाए बर्तन रखे जाते हैं। इसके बाद इन बर्तनों को एक गाड़ी पर लादकर ऐसी ही किसी फैक्ट्री में पहुंचाया जाता है। बनाए गए बर्तनों की संख्या के हिसाब से सैय्यद एक या दो ट्रॉली किराए पर लेते हैं। वह आगे बताते हैं, ‘ये फैक्ट्रियां मेरे घर से दो से तीन किलोमीटर दूर हैं। यह काम काफी चुनौती वाला है क्योंकि इतनी दूर तक बर्तनों को ले जाने में उनके टूटने का डर रहता है। कई बार तो ट्रॉली के लिए कई दिनों तक इंतजार करना पड़ता है। इन फैक्ट्रियों में छोटे कारीगरों के लिए खर्च काफी ज्यादा है। हमसे ये 3000 रुपये लेते हैं जबकि उनका खर्च सिर्फ 1200 रुपये ही आता है। ज्यादातर यानी लगभग 80 प्रतिशत कारीगर इन्हीं फैक्ट्रियों की भट्ठियों पर निर्भर हैं।’
पुरानी बातें
अहमद के बरामदे में खुर्जा का लंबा सा किक व्हील रखा है। कुछ ही फीट दूरी पर कोयले से चलने वाली डाउन-ड्रिफ्ट (DD) भट्टी और उसकी लंबी सी चिमनी का पुराना बचा हुआ हिस्सा है। साल 1946 में बनी यह भट्टी उस पुराने समय और इतिहास को याद दिलाती है। बताया जाता है कि यह भट्टी आखिरी बार 1998 में जली थी।
खुर्जा के आसमान में आज भी ऐसी बहुत सारी चिमनियां दिखती हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि एक समय पर यहां लगभग 200 डाउन ड्रिफ्ट भट्टियां हुआ करती थीं और उनमें बर्तन पकाए जाते थे। CSIR-सेंट्रल ग्लास एंड सिरामिक रिसर्च इंस्टिट्यूट (CGCRI) की ओर से प्रकाशित एक किताब के मुताबिक, एक भट्ठी में बर्तन पकाने का समय लगभग 120 घंटे होता था। इन सभी भट्टियों को 1990 के दशक में बंद कर दिया गया। इन बर्तनों को भट्ठियों में पकाकर तैयार करने में लगभग 5 से 7 दिन लगते थे जिसमें ईंधन की खपत काफी ज्यादा होती थी।
जहां स्थानीय लोग उन दिनों की अच्छी बातों को याद करते हैं, वहीं वे यह भी मानते हैं कि कोयले से चलने वाली डीडी-भट्ठियों की कुछ सीमाएं थीं। इनमें मजदूरों की ज्यादा जरूरत पड़ती थी और स्थानीय पर्यावरण पर भी इसका बहुत असर पड़ता था। उद्योगों के विकास के साथ कोयले वाली भट्ठियों की जगह तेल से चलने वाली शटल भट्टियों और टनल भट्ठियों ने ले ली। साल 1993-94 में खुर्जा के इस उद्योग में आईं शटल भट्ठियों में ईंधन का बेहतर इस्तेमाल होने लगा और बर्तन पकने में लगने वाला समय घटकर दो से तीन दिन हो गया। CGCRI की किताब के मुताबिक, इसके लिए लगभग 7 से 12 लाख रुपये की लागत आती थी।
कोयले से चलने वाली भट्ठियों से आगे बढ़ने का फैसला पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों की वजह से लिया गया। इन चुनौतियों का जिक्र डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (DFID), यूनाइटेड किंगडम की रिपोर्ट में किया गया था। साल 2001 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया कि कोयले के इस्तेमाल की वजह से फ्लाई ऐश बढ़ रहा है और वायु प्रदूषण को कम किए जाने की जरूरत है। ऐसे में इस इंडस्ट्री में कोयले के बजाय डीजल का इस्तेमाल शुरू हो गया। कुछ ऐसी भी फैक्ट्रियां थीं जिनमें डीजल के बजाय टायर ऑयल का इस्तेमाल शुरू किया गया जो कि एक सस्ता विकल्प था। हालांकि, स्थानीय कारीगर ही बताते हैं कि टायर ऑयल से भी स्थानीय पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा था।
मिन्हास पॉटरी के डायरेक्टर गुलजीत सिंह DD भट्ठियों की कमी पर जोर देते हुए कहते हैं कि उनमें 80 पर्सेंट ऊर्जा तो बेकार ही चली जाती थी। उनका दावा है कि शटल और टनल भट्ठियों का इस्तेमाल शुरू होने और उनमें डीजल का इस्तेमाल किए जाने से ऊर्जा की यह बर्बादी कम हुई और 80 पर्सेंट से घटकर सिर्फ 20 पर्सेंट पर आ गई।
इसके बाद स्थानीय फैक्ट्रियों ने गैस का इस्तेमाल शुरू किया। खुर्जा में नेचुरल गैस प्राइवेट कंपनी, अडाणी गैस की पाइपलाइन से आती है। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह बदलाव साल 2016 में आए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के आदेश के बाद हुआ। हालांकि, मिन्हास के मुताबिक, गैस से चलने वाली भट्ठियां ज्यादा सुविधाजनक और पर्यावरण के लिहाज से बेहतर हैं।
कुछ रिपोर्ट में कहा जाता है कि खुर्जा के इस उद्योग से जुड़े कुछ लोगों ने अडाणी गैस की पाइपलाइन आने से पहले लगभग एक दशक तक प्रयास किए कि उन्हें पास से गुजरने वाली दूसरी पाइपलाइन से मिल सके। यह पाइपलाइन खुर्जा से लगभग 14 किलोमीटर दूर शिकारपुर से गुजरती है। हालांकि, उनकी यह मांग नहीं मानी गई। इसकी वजह संसाधनों की कमी और आगरा को प्राथमिकता देना बताया गया। आगरा को प्राथमिकता देने की वजह यह थी कि वहां की फैक्ट्रियों में कोयले वाली और अन्य फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुएं की वजह से ताजमहल के संगमरमर खराब हो रहे थे।
बदलाव की शुरुआत
मिन्हास कहते हैं कि गैस से चलने वाली उनकी शटल भट्टी में ऊर्जा का नुकसान शून्य है। मिन्हास पॉटरी में काम करने वाले सिरैमिक डिजाइनर आरिफ खान इस कंपनी में बनाए जाने वाले बर्तनों को पकाने की पूरी प्रक्रिया समझाते हैं। वह बताते हैं कि अलग-अलग फैक्ट्री में भट्ठियों और ट्रॉलियों का आकार अलग-अलग हो सकता है।
तैयार हो जाने के बाद बर्तनों को साफ किया जाता है ताकि कहीं धूल-मिट्टी या गंदगी न दिखे। इसके बाद उन्हें बेहद सावधानी से ट्रॉली पर लोड किया जाता है। इसमें यह भी ध्यान रखा जाता है कि भट्टी में जाने वाली इन ट्रॉलियों पर ज्यादा से ज्यादा बर्तन रखे जा सकें। फैक्ट्री में इन ट्रॉलियों को 90 मीटर लंबी एक टनल में घुसाया जाता है। इनमें एक बार में लगभग 24 ट्रॉली आ सकती हैं। हर ट्रॉली 2.5 फीट लंबी, 1.5 फीट चौड़ी और 2.25 ऊंची होती है। इन पर एक बार में मिट्टी के लगभग 15000 बर्तन रखे जाते हैं और इन्हें भट्ठी के अंदर 24 घंटे तक पकाया जाता है।
और पढ़ेंः अलीगढ़ का मशहूर ताला बनाने के बेहतर और टिकाऊ तरीकों की खोज
भट्ठी के अंदर ये बर्तन तीन चरण से होकर गुजरते हैं- प्रीहीटिंग, फायरिंग और कूलिंग। प्रीहीटिंग जोन में तापमान 500 से 750 डिग्री सेल्सियस रहता है और इसमें 10 घंटे लगते हैं। फायरिंग जोन में तापमान 1100 से 1250 डिग्री रहता है और इसमें 4 घंटे लगते हैं। इससे, मिट्टी टिकाऊ चीनी मिट्टी में बदल जाती है। फायरिंग के बाद बर्तनों को कूलिंग जोन में भेजा जाता है जहां तापमान 900 से 200 डिग्री तक होता है। इसमें 10 घंटे लगते हैं। ठंडा करने के बावजूद बर्तन बहुत गर्म होते हैं और उन्हें सावधानी से संभालने की जरूरत होती है। आरिफ खान कहते हैं कि अब हर स्तर पर नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। वह दिखाते हैं कि अब ट्रॉलियों में सिलिकॉन कार्बाइड का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे वे हल्की होती है और उनकी क्षमता बढ़ जाती है।
आखिरकार, घंटों के भीषण ताप और कारीगरों की कड़ी मेहनत के बाद चमचमाते बर्तन दुनियाभर के देशों में भेजने के लिए तैयार हो जाते हैं।
गुणवत्ता की अहमियत पर जोर देते हुए मिन्हास कहते हैं कि भारत के चीनी मिट्टी के कारीगर भट्टियों से जुड़ी समस्याओं की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में चुनौती का सामना कर रहे थे। हालांकि, गैस आधारित भट्ठियों के आ जाने से यह समस्या भी खत्म हो गई है क्योंकि गैस से ये बर्तन बराबरी से पकते हैं और बर्तन का आकार और गुणवत्ता बरकरार रहती है। उनका दावा है कि अब खुर्जा के कारीगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगिता कर सकते हैं।
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (TERI) के इंडस्ट्रियल एनर्जी एफिसिएंसी डिवीजन के असोसिएट डायरेक्टर प्रसांतो पाल खुर्जा के कारीगरों के गैस के इस्तेमाल से जुड़े पर्यावरणीय फायदों के बारे में बताते हैं और स्थानीय पर्यावरण पर इसके प्रभाव पर जोर देते हैं। चीनी मिट्टी उद्योग में ऊर्जा की काफी जरूरत होती है और इस सेक्टर में होने वाले ईंधन के इस्तेमाल का असर स्थानीय कारोबार पर पड़ता है। हालांकि, वह लोगों को चेतावनी देते हैं कि इस बदलाव को आखिरी समाधान न माना जाए क्योंकि प्राकृतिक गैस के संसाधन लगातार कम हो रहे हैं। प्रसांतो पाल के मुताबिक, इसका आखिरी समाधान यह है कि बिजली से चलने वाली भट्ठियों का इस्तेमाल शुरू किया जाए।
खुर्जा पॉटरी मैन्युफैक्चरर्स असोसिएशन (KPMA) के अध्यक्ष रवि राणा इस इंडस्ट्री की मौजूदा समस्याओं पर प्रकाश डालते हैं। कोयले पर बैन लगने के बाद कई फैक्ट्रियों ने औद्योगिक तेल का इस्तेमाल शुरू कर दिया जो सस्ता था और 50 रुपये लीटर सके हिसाब से मिल जाता था। हालांकि, एनजीटी ने समय के साथ डीजल और इस औद्योगिक तेल पर भी बैन लगा दिया। अब इस इंडस्ट्री के पास सिर्फ पीएनजी और एलपीजी का ही विकल्प बचा है जो क्रमश: 60 रुपये और 90 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से मिलती है। इसके अलावा, खुर्जा के लोगों को इन गैसों पर सरकारी की ओर से कोई मदद या सब्सिडी नहीं मिलती जैसी कि आगरा में दी जाती है। रवि राणा का कहना है कि इसके चलते खुर्जा में चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने वाले लोग थोड़े से पीछे हो जाते हैं। बीकानेर की तुलना में इनके पिछड़ने की वजह ये है कि वहां अभी भी औद्योगिक तेल के इस्तेमाल की अनुमति है।
TERI के प्रसांतो पाल कहते हैं कि इस बदलाव में सरकार की मदद बेहद जरूरी है। वह कुछ ऐसे उदाहरण भी देते हैं जहां गैस की उपलब्धता या खर्चों की वजह से फैक्ट्रियों ने फिर से कोयले का इस्तेमाल शुरू कर दिया।
खुर्जा के चीनी मिट्टी उद्योग के विरोधाभास
इस उद्योग के खिलाफ कई बेहद मुश्किल चुनौतिया हैं। हालांकि, प्राइवेट फैक्ट्रियों के भरोसे अपना काम करने वाले सैय्यद अहमद जैसे कारीगरों के सामने अलग ही तरह की समस्याएं हैं। अहमद अपने बर्तनों को पकाने के लिए इन फैक्ट्रियों की मदद लेते हैं। अहमद के मुताबिक, अगर कोई बर्तन ले आते या जाते समय टूट जाता है या पकाते समय खराब हो जाता है तो ऑर्डर पूरा करने के लिए उन्हें फिर से बनाने का खर्च और जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। वह कहते हैं कि ये भट्ठियां महंगी हैं और इनके लिए ज्यादा जगह भी चाहिए तो हर कोई अपनी जरूरत के हिसाब से इन्हें नहीं लगवा सकता है।
सैय्यद अहमद की सलाह है कि जगह के हिसाब से सामुदायिक भट्टियां बनवाई जाएं जिससे कि स्थानीय कारीगरों का भी हित हो और उन्हें बर्तनों को लेकर बहुत दूर तक न जाना पड़े। यह प्रस्ताव नया नहीं है। DFID की रिपोर्ट के मुताबिक, 1960 के दशक में कुछ ऐसे ही इंतजाम हुआ करते थे। उस समय 88 कंपनियां ऐसी थीं जिनके पास खुद की भट्ठियां हुआ करती थीं। वहीं, 72 कंपनियां ऐसी थीं जो राज्य सरकार द्वारा चलाई जाने वाली सामुदायिक भट्ठियों के जरिए अपना काम करती थीं।
जब दूसरी भट्ठियों पर आश्रित पारंपरिक कारीगरों के बारे में पूछा गया तो KPMA के अध्यक्ष रवि राणा ने भी उनकी चुनौतियों को माना और कहा कि वे मुश्किल से अपनी मजदूरी ही निकाल पाते हैं। वह भी डीडी भट्ठियों के दिनों को याद करते हैं जब सामुदायिक भट्ठियां हुआ करती थीं लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है। हालांकि, उन्हें इस तरह के इंतजाम पर संदेह भी है और वह कहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों या फैक्ट्रियों के सामने अलग चुनौतियां होती हैं।
सेरम्यका पॉटरीज के प्रोपराइटर जावेद बशीर कुछ खास चीजों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। जहां आधुनिक भट्ठियां महंगी हैं तो वे ऊर्जा की बचत करती हैं और पर्यावरण संबंधी फायदे देती हैं। वहीं, आधुनिक गैस आधारित भट्ठियों में कारीबार ज्यादा से ज्यादा बर्तन तैयार कर सकते हैं और इसमें कम सयम लगता है जिसका मतलब है कि गुणवत्ता और मात्रा दोनों ही ज्यादा होती है। वह कहते हैं कि आधुनिक सिस्टम छोटे कारीगरों को ज्यादा सुविधा देता है। उनका कहना है कि सामुदायिक भट्ठी होने पर भी इन कारीगरों को दूर ही जाना पड़ेगा।
हालांकि, सैय्यद अहमद का कहना है कि खुर्जा के चीनी मिट्टी के बर्तनों के इतिहास की चर्चा तो खूब होती है लेकिन कारीगरों/शिल्पकारों को भुला दिया जाता है। वह कहते हैं, ‘शिल्पकारों के कल्याण के लिए बनने वाली सरकारी योजनाएं और सुविधाएं मुश्किल से ही हम लोगों तक पहुंच पाती हैं।’
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीरः लंबे समय से बर्तन बनाने वाले कारीगर सैय्यद अहमद उन बर्तनों को तैयार करते हुए जिन्हें अगले दो दिन में भट्ठी के लिए भेजना है। तस्वीर-विशेष इंतजाम।