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ईंट उद्योग में प्रदूषण कम करने की कोशिश में बिहार, क्या हैं मुश्किलें

बिहार के गया स्थित ईंट भट्टे में कोयला बोझते ब्रजेश कुमार और राजेंद्र पासवान। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे के लिए 

बिहार के गया स्थित ईंट भट्टे में कोयला बोझते ब्रजेश कुमार और राजेंद्र पासवान। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे के लिए 

  • बिहार में कोयले की खपत थर्मल पावर प्लांट के बाद ईंट उद्योग में सबसे अधिक होती है। ईंट उद्योग का वायु प्रदूषण में भी काफी योगदान है।
  • राज्य सरकार बीते कुछ वर्षों में ईंट उद्योग से हो रहे प्रदूषण को कम करने की कोशिश में लगी है। इसके तहत राज्य के सभी ईंट भट्टें को प्रदूषण कम करने की तकनीक ज़िगज़ैग से लैस किया गया है।
  • हालांकि, पूंजी की कमी और निगरानी के अभाव सहित इस काम में कई चुनौतियां भी आ रही हैं।

ब्रजेश कुमार अपने तेज हाथों से लगातार ईंट भट्टे में कोयला झोंक रहे हैं। उनके सधे हाथ इस तरह लय में चल रहे हैं जिससे इसकी आवाज संगीत जैसी सुनाई पड़ती है। भट्टी के तपते ढक्कन को लोहे की छड़ के सहारे हटाकर बिजली सी तेजी से वह कोयला डाल रहे हैं। बारिश शुरू ही होने वाली है, ब्रजेश की कोशिश है कि यह काम तेजी से खत्म किया जाए। बरसात के समय भट्टे का काम बंद रहेगा। ब्रजेश के साथ राजेंद्र पासवान इस काम में उनकी मदद कर रहे हैं। यह नजारा बिहार के गया जिले के डोभी कस्बे का है जहां बरसात शुरू होने से पहले तेजी से ईंटो को पकाने की कोशिश हो रही है। 

भट्टे के दोनों मजदूर करीब एक दशक से यहां काम कर रहे हैं। इस बीच इन्होंने यहां हुए बदलाव को देखा है। ईंटों के ऊपर न जाने की सलाह देते हुए ब्रजेश कहते हैं, “यह पहले जैसा भट्टा नहीं है, अब ईंटे अलग तरीके से लगाई जाती हैं। अगर ईंटों के ऊपर गए तो हादसे का खतरा है।”

ब्रजेश की बात सुनते पास खड़े भट्टे के मुंशी, श्याम सतीश कुमार इस बात को समझाते हुए कहते हैं, “इस तरह के भट्टे को ज़िगज़ैग कहते हैं। इसमें ईंटों को आड़ा-तिरछा लगाया जाता है ताकि इसे पकाने के दौरान कम धुंआ निकले। प्रदूषण कम करने के लिए यह तकनीक अपनाई गई है। ईंटों के बीच अच्छी-खासी दूरी रहती है जिससे कोयले को पूरा जलने में मदद मिलती है।”

गया के ‘शिवम ब्रिक्स’ में छः साल पहले ज़िगज़ैग तकनीक लगाई गई थी। इस काम को करने में तकरीबन 12 लाख रुपए का खर्च आया। लेकिन इस ईंट भट्टे को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी? 

बिहार के ईंट भट्टों में ज़िगज़ैग तकनीक लगाई गई है जिससे प्रदूषण में कमी आई है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे के लिए
बिहार के ईंट भट्टों में ज़िगज़ैग तकनीक लगाई गई है जिससे प्रदूषण में कमी आई है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

यह बदलाव उस कोशिश का नतीजा है जिसमें बिहार अपने ईंट उद्योग से प्रदूषण को कम करना चाहता है। सरकार ने समय-समय पर भट्टा मालिकों को डिजाइन में सुधार के लिए बाध्य किया ताकि प्रदूषण कम किया जा सके। 

पूरे बिहार में भट्टों से प्रदूषण कम करने के लिए यह तकनीक अपनाई गई है।

बिहार में हो रहे इस प्रयास के बारे में बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मेंबर सेक्रेटरी एस चंद्रशेखर ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में समझाया। वह कहते हैं, “ईंट उद्योग को लेकर हमने पहली बार 2015 में आंकड़े इकट्ठे किए थे। तब मालूम चला कि बिहार में 6,500 ईंट उद्योग हैं जिससे काफी मात्रा में प्रदूषण होता है। बिहार में ईंट उद्योग थर्मल पावर प्लांट के बाद सबसे अधिक कोयला खपत करता है। ईंट उद्योग न सिर्फ हवा प्रदूषित करते हैं बल्कि मिट्टी की उर्वरक ऊपरी परत और भूमिगत जल का इस्तेमाल भी करते हैं।”

चंद्रशेखर समझाते हैं कि बिहार पार्टिकुलेट मैटर के प्रदूषण की परेशानी झेल रहा है। शुरुआत में इसे नियंत्रण में करने के लिए 2016 में ईंट भट्टों में यह नई तकनीक लगाई गई। “वर्ष 2018 में पटना हाईकोर्ट ने सभी ईंट उद्योग में ज़िगज़ैग तकनीक लगाने का आदेश दिया। उसके बाद 2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का आदेश आया जिसमें देश के सभी भट्टों को इस तकनीक के तहत लाना था।”

चंद्रशेखर कहते हैं कि वर्ष 2022 तक 60 प्रतिशत ईंट भट्टे क्लीन तकनीक अपना चुके थे। अब तक 82-85 प्रतिशत ईंट भट्ठे अब नई तकनीक का उपयोग कर रहे हैं जिससे प्रदूषण में कमी आई है। “इस तकनीक की मदद से कोयले की खपत 30 से 40 प्रतिशत तक कम हो गई है और कार्बन और अन्य उत्सर्जन में 75 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है,” उन्होंने कहा।  

ज़िगज़ैग भट्टे का विज्ञान 

ज़िगज़ैग भट्टा ईंटों को पकाने की एक तकनीक है, जिसमें गर्म हवा को कच्ची ईंटों से गुज़ारने के लिए ज़िगज़ैग यानी आड़े-तिरछे रास्तों का उपयोग किया जाता है। इससे ऊष्मा हस्तांतरण और दक्षता में सुधार होता है। ईंटों को लगभग 2 मीटर लंबे कक्ष बनाने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, जो हवा को ज़िगज़ैग पैटर्न में यात्रा करने के लिए बाध्य करता है। यह एक सीधी रेखा से लगभग तीन गुना लंबा होता है। इससे वायु प्रवाह के रास्ते की लंबाई बढ़ जाती है, जिससे दहन और ऊष्मा हस्तांतरण दर में सुधार होता है। परिणामस्वरूप भट्टे के क्रॉस सेक्शन में अधिक समान तापमान होता है। इस तरीके के प्रयोग से कम कोयले से अधिक प्रभावी रूप से ईंट पकाई जाती है। कोयला पर्याप्त ऑक्सीजन के संपर्क में आने से पूरी तरह जलता है जिससे प्रदूषण में भी कमी आती है।

भट्टे में ज़िगज़ैग तरीके से लगाई गईं ईंटें। इससे वायु प्रवाह के रास्ते की लंबाई बढ़ जाती है, जिससे दहन और ऊष्मा हस्तांतरण दर में सुधार होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
भट्टे में ज़िगज़ैग तरीके से लगाई गईं ईंटें। इससे वायु प्रवाह के रास्ते की लंबाई बढ़ जाती है, जिससे दहन और ऊष्मा हस्तांतरण दर में सुधार होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

ईंट उद्योग से रोजगार और प्रदूषण दोनों

ईंट उद्योग की देश के असंगठित क्षेत्र में रोजगार देने में महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ष 2012 में हुए एक अध्ययन में सामने आया कि बिहार में हर साल करीब 2 करोड़ ईंट बनाई जाती है। देशभर में ईंट उद्योग से हर साल 80 लाख लोगों को रोजगार मिलता है। 

इस अध्ययन में अनुमान के मुताबिक देश में डेढ़ लाख से अधिक ईंट भट्ठे हैं जिसमें हर साल लगभग 350 मिलियन टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी और 24 मिलियन टन कोयले का उपयोग होता है। इस प्रक्रिया में 42 मिलियन टन CO2 उत्सर्जित होता है। 

शोध बताते हैं कि वायु प्रदूषण की वजह से भी आर्थिक नुकसान होता है श्रम उत्पादकता और स्वास्थ्य को कम करता है। इस नुकसान का अनुमान 2.9 ट्रिलियन डॉलर लागत के बराबर है, जो दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद के 3.3 प्रतिशत के बराबर है।

अध्ययन बताते हैं कि ईंट बनाने के लिए 90% मिट्टी कृषि भूमि से आती है, जबकि नदी के तल से 10% मिट्टी प्राप्त की जाती है। कृषि मिट्टी के इस अनियंत्रित उपयोग से प्रतिवर्ष लगभग 5,500 एकड़ उपजाऊ कृषि भूमि का नुकसान हो रहा है। इतनी जमीन 7,000 टन चावल का उत्पादन कर सकती है। इस प्रकार कृषि मिट्टी के माध्यम से ईंट बनाने के उपयोग से 1,10,000 लोगों को खाद्यान्न की हानि के कारण कष्ट उठाना पड़ रहा है। ईंट निर्माण क्षेत्र भारत के ‘ईंट बेल्ट’ के रूप में भी जाने जाने वाले भारत-गंगा के मैदानों में वायु प्रदूषण में 8% -14% का योगदान देता है।

आसान नहीं रहा बदलाव

बिहार ईंट उद्योग में प्रदूषण कम करने की कोशिश में आगे रहा है। हालांकि, इस काम में कई चुनौतियां आ रही हैं। बिहार में उद्योग की कमी की वजह से ईंट उद्योग पलायन रोकने और रोजगार देने में प्रमुख भूमिका निभाता है।

शिवम ब्रिक्स के मालिक अरविंद कुमार अपने भट्ठे में हुए बदलाव की कहानी साझा करते हुए कहते हैं, “12 साल पहले हम लोहे की चिमनी में ईंट बनाते थे। तब सालाना 8 लाख ईंट पकता था। अब ईंट की संख्या बढ़ी है लेकिन लागत भी काफी बढ़ रही।”

ईंट बनाता एक मजदूर। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
ईंट बनाता एक मजदूर। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

इस तकनीक को अपनाने में आए खर्च के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। “मुरादाबाद से मिस्त्री आया जिसे ज़िगज़ैग भट्ठा बनाना आता था। सिर्फ उनकी फीस 6 लाख रुपए थी। इसे बनाने में करीब एक लाख ईंट लग गई,” कुमार कहते हैं। 

वह आगे कहते हैं, “सरकार की तरफ से लोहे वाली चिमनी हटाकर फिक्स चिमनी लगाने को कहा गया था। उसे बनाने में काफी खर्च आया लेकिन एक बार फिर ज़िगज़ैग चिमनी लगाने का आदेश आ गया। उसे तोड़कर दोबारा बनाने में काफी खर्च आ गया।”

हालांकि, कोयले की कम खपत और प्रदूषण में कमी की बात वह स्वीकारते हैं। 

“हमने ज़िगज़ैग लगाने के बाद बेहतर कोयला इस्तेमाल करना शुरू किया। इस बदलाव की वजह से अब एक नंबर ईंट (अच्छी क्वालिटी की ईंट) की संख्या बढ़ी है और कोयला भी कम खर्च हो रहा है,” कुमार ने कहा। 

बिहार ब्रिक्स असोशिशन के अध्यक्ष मुरारी कुमार मुन्ना बिहार के बेगूसराय जिले में ईंट भट्टा चलाते हैं। वह मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए भट्टा संचालकों की परेशानी बताते हैं। “यह अच्छा है कि प्रदूषण कम करने की कोशिश हो रही है और भट्टा संचालक इसमें सहयोग कर रहे हैं, लेकिन भट्टा संचालक कई समस्याओं से जूझ रहे हैं।”

भट्टा मालिकों को आ रही समस्याओं को गिनाते हुए उन्होंने कहा, “कई भट्टा मालिक कोयले की बढ़ती कीमत, मिट्टी और पानी की कमी की वजह से समस्या झेल रहे हैं। ईंट की मांग कम होने पर घाटा सहकर उसे बेचना पड़ता है।”

ईंट लोड करते मजदूर। ईंट भट्टों को जिग-जैग करने से वायु प्रदूषण में कुछ कमी आई है लेकिन इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैस अभी भी परेशानी का सबब है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
ईंट लोड करते मजदूर। ईंट भट्टों को जिग-जैग करने से वायु प्रदूषण में कुछ कमी आई है लेकिन इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैस अभी भी परेशानी का सबब है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

उन्होंने सुझाव दिया कि भट्टा संचालकों को नदी या तालाब का गाद निकालते वक्त मिट्टी दे दी जाए तो उनकी समस्या कुछ कम हो सकती है। 

चंद्रशेखर कहते हैं, “हमने ईंट भट्टों को अचानक बदलने को नहीं कहा, नहीं तो इसका प्रभाव कंस्ट्रक्शन और लेबर मार्केट, दोनों पर पड़ता। हमने काफी समय दिया और ईंट भट्टों के मालिकों के साथ बैठक कर ज़िगज़ैग तकनीक अपनाने के लिए ट्रेनिंग भी कराई।”

एआई से निगरानी 

संसाधनों की कमी की वजह से बिहार में ईंट भट्टों की निगरानी की चुनौती है। इसका समाधान तकनीक की मदद से निकाला गया है। बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम और डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर जिओ एआई नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक का इस्तेमाल कर भट्टों की निगरानी कर रही है। यूएनडीपी और नॉटिंघम विश्वविद्यालय में राइट्स लैब द्वारा विकसित जियोएआई प्लेटफॉर्म मशीन लर्निंग एल्गोरिदम और भू-स्थानिक विश्लेषण का उपयोग करके ईंट भट्टों के बारे में जानकारी प्रदान करता है। 

इस तकनीक की मदद से बिहार में पाँच जिलों में 1680 भट्टों का निरीक्षण किया गया। जियो एआई द्वारा पता लगाए गए 96% ईंट भट्टे पता लगाए गए स्थान पर ही पाए गए। उनमें से 75% चालू पाए गए और 65% को एआई एल्गोरिदम ने ज़िगज़ैग भट्टे के तौर पर पहचान की। एल्गोरिदम में अधिक फ़ील्ड डाटा फीड करके यह सटीकता बेहतर होती है। फ़ील्ड निरीक्षण के आधार पर पाया गया कि एक औसत ईंट भट्टा सालाना 35,086 लाख ईंटों का उत्पादन करता है। 

इस तकनीक की मदद से देश में गंगा के मैदान में 47,000 से अधिक ईंट भट्टों के स्थानों का 96% सटीकता के साथ अनुमान लगाया गया है। 

फ्लाई ऐश भविष्य की ईंट, लेकिन बिहार में रफ्तार धीमी

ईंट भट्टों को जिग-जैग करने से वायु प्रदूषण में कुछ कमी आई है लेकिन इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैस अभी भी परेशानी का सबब है। बिहार में मिट्टी से बनी ईंट की जगह विकल्पों की तलाश हो रही है। कोयला जलाने की प्रक्रिया में फ्लाई ऐश निकलता है जो एक प्रदूषक है। इसका इस्तेमाल सीमेंट और ईंट बनाने में किया जाता है।  

शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाउंडेशन, बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स ने वर्ष 2016 में फ्लाई ऐश ब्रिक्स को लेकर एक रिपोर्ट जारी की। इसमें सामने आया कि 2016 में बिहार में 129 फ्लाई ऐश ब्रिक्स फैक्ट्री में सालाना 30 करोड़ ईंटों का उत्पादन होता था। इस आधार पर आकलन किया गया कि 2016 में 67,000 टन कोयला, 210,472 टन कार्बन और 914,400 टन मिट्टी की बचत हुई। 

बिहार में उद्योग की कमी की वजह से ईंट उद्योग पलायन रोकने और रोजगार देने में प्रमुख भूमिका निभाता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
बिहार में उद्योग की कमी की वजह से ईंट उद्योग पलायन रोकने और रोजगार देने में प्रमुख भूमिका निभाता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

“हम आने वाले समय में कोयले की खपत कम करना चाहते हैं। इसलिए बिहार में फ्लाई ऐश के ईंटों को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है। बिहार में कोयले से चलने वाले छः थर्मल पावर प्लांट हैं जिससे फ्लाई ऐश ब्रिक्स बनाने में रॉ मटेरियल की दिक्कत नहीं होगी,” चंद्रशेखर बताते हैं। 

“आज से एक दशक पहले बिहार में मात्र दो फ्लाई ऐश से ईंट बनाने की फैक्ट्री थी, लेकिन अब इसकी संख्या 600 के आसपास है,” उन्होंने बताया। 

फ्लाई ऐश पर्यावरण के अनुकूल है, लेकिन बिहार में इसे अपनाने की रफ्तार काफी धीमी है। 

बिहार फ्लाई ऐश ब्रिक्स मैन्युफक्चरर्स एसोसिएशन के वाइस प्रेसिडेंट सुधीर कुमार बताते हैं कि फ्लाई ऐश से बनी ईंटों की बड़ी दिक्कत इसकी मांग में कमी है। “सरकारी भवन बनाने में इसका इस्तेमाल जरूरी है इसलिए यह ईंट ठेकेदारों की ईंट बनकर रह गई है। आम लोगों में इसके प्रति जागरूकता नहीं है।”

सुधीर कुमार आम लोगों की बेरुखी की बड़ी वजह फ्लाई ऐश से बनी ईंटों की क्वालिटी को मानते हैं। “वैसे फ्लाई ऐश से बनी ईंट केमिकली बॉन्ड होती है तो मिट्टी की ईंट से बेहतर होती है, लेकिन कोई मानक न होने की वजह से ठेकेदारों के लिए कई स्थानों पर खराब क्वालिटी की ईंट भी बनाई जा रही है,” वह कहते हैं। 

उन्होंने इस समस्या का समाधान सुझाते हुए कहा कि ईंट फैक्ट्रियों के लिए मानक तय करने के बाद आम लोग भी बेहतर विकल्प की ओर जाएंगे। 


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फ्लाई ऐश ईंटों के लिए थर्मल पावर प्लांट से कोयले की राख आती है। साल 2009 में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने थर्मल प्लांट को फ्लाई ऐश निःशुल्क उपलब्ध कराने का आदेश दिया था। वर्ष 2017 में बिहार सरकार ने सभी सरकारी भवनों के निर्माण में 100 फीसदी फ्लाई ऐश की ईंटों का इस्तेमाल करने का आदेश दिया। बिहार में एक दशक पहले सिर्फ दो फ्लाई ऐश ब्रिक्स की फैक्ट्री थी, लेकिन अब इसकी संख्या 600 से अधिक हो गई है। हालांकि, अब इस क्षेत्र में कई परेशानियां आ रही हैं। 

सुधीर कुमार बताते हैं कि हाल के वर्षों में यह मुफ्त में मिलना बंद हो गया है। “फ्लाई ऐश ब्रिक्स में कोयले की राख प्रमुख कच्चा माल है। लगभग 70 फीसदी फ्लाई ऐश में सीमेंट और रेत मिलाकर इसे बनाया जाता है। पहले थर्मल पावर प्लांट इसे मुफ्त में देते थे, लेकिन अब उनकी ऐसी बाध्यता नहीं रह गई है। इतना ही नहीं, अगर पैसा देकर भी खरीदना चाहें तो मिलने में मुश्किलें हैं क्योंकि सीमेंट उद्योग के लिए फ्लाई ऐश कच्चा माल है। वह इसे ऑक्शन में खरीद लेते हैं। सरकार को चाहिए कि फ्लाई ऐश ब्रिक्स फैक्ट्री के लिए राख का कोई कोटा हो।”

 

बैनर तस्वीरः बिहार के गया स्थित ईंट भट्टे में कोयला झोंकते ब्रजेश कुमार और राजेंद्र पासवान। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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