- बेंगलुरु से काम करने वाला उरावु लैब्स (Uravu Labs) इनोवेटिव तकनीक के जरिए वायुमंडल के पानी को बोतलबंद करने के लिए लिक्विड डेसीकेंट का इस्तेमाल करता है।
- आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली संघनन टेक्नोलॉजी की तुलना में लिक्विड डेसीकेंट विधि हवा से पानी बनाने की प्रक्रिया को ज्यादा कुशल और आसान बनाती है।
- फिलहाल कंपनी आतिथ्य (हॉस्पिटैलिटी) उद्योग को सेवा दे रही है और इसका लक्ष्य पानी की लागत कम करने के लिए उत्पादन बढ़ाना तथा इसकी पहुच और इस्तेमाल को बढ़ावा देना है।
बेंगलुरु जैसे भारतीय महानगर पिछले कुछ समय से डे जीरो (किसी दिन पूरी तरह पानी नहीं मिलना) के संभावित खतरे से दो-चार हैं। शहर में जल संसाधनों का कुप्रबंधन इतना गंभीर है कि शहर की झीलें और टैंक अब गंदी हो गई हैं और जहरीले कचरे से भर गई हैं। ये ऐतिहासिक संरचनाएं कभी शहर की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी थीं। शहर में जमीन के नीचे भी पानी का स्तर खतरनाक दर से नीचे जा रहा है।
जलवायु आपातकाल ने इस स्थिति को और भयावह बना दिया है। भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) में ऊर्जा और आर्द्रभूमि अनुसंधान समूह के समन्वयक वैज्ञानिक टीवी रामचंद्र बताते हैं कि शहर में पानी की कमी “भूजल स्तर में कमी और (नदी) कावेरी जलग्रहण क्षेत्र में कम पानी” के कारण है। वे आगे कहते हैं, “जंगलों की कटाई के चलते देशी प्रजातियों और वन क्षेत्र के खत्म होने से जलवायु आपातकाल और भी गंभीर हो गया है।”
ऐसे गंभीर हालात से सिर्फ बेंगलुरु ही रु-ब-रू नहीं है। दुनिया भर के अन्य शहर जैसे दक्षिण अफ्रीका का केप टाउन, मेक्सिको सिटी और तुर्की का इस्तांबुल भी गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं।
नीति आयोग की ओर से जारी 2018 समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) रिपोर्ट के अनुसार, 60 करोड़ भारतीय ज्यादा से लेकर बहुत ज्यादा पानी की कमी का सामना करते हैं। साफ पानी नहीं मिलने के कारण हर साल लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। रिपोर्ट में संकट के और भी बदतर होने की भविष्यवाणी की गई है। साल 2030 तक देश में पानी की मांग आपूर्ति से दोगुनी होने का अनुमान है। इसका मतलब है करोड़ों लोगों के लिए पानी की गंभीर कमी और देश के सकल घरेलू उत्पाद में संभावित 6% की कमी।
जल विशेषज्ञों के बीच इस बात पर आम सहमति बनती जा रही है कि दुनिया भर में बढ़ते जल संकट का समाधान नवीन (रिन्यूएबल) जल संसाधनों का इस्तेमाल बढ़ाने से निकल सकता है।
हवा से पानी बनाने वाली तकनीक
बेंगलुरु के इंजीनियर स्वप्निल श्रीवास्तव कहते हैं, “हमारे चारों ओर वायुमंडलीय नदी है।” वह वायुमंडलीय पानी या आर्द्रता के बारे में बताते हैं जिसे कैप्चर करके बोतलबंद किया जा सकता है। श्रीवास्तव के अनुसार, किसी भी समय बेंगलुरु के 100 मीटर के एयर कॉलम में औसतन दो अरब लीटर पानी होता है। यह आंकड़ा वह शहर की पूरी आर्द्रता की औसत गणना के आधार पर देते हैं। श्रीवास्तव हवा से पानी बनाने वाले अग्रणी स्टार्टअप उरावु लैब्स के सह-संस्थापक हैं।
क्या इस जल का इस्तेमाल करके वाकई शहर की प्यास बुझाई जा सकती है?
बेंगलुरु स्थित थिंक टैंक वेललैब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, शहर की मीठे पानी की मांग 2,632 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) है। फिलहाल इस मांग का लगभग 50% भूजल के जरिए पूरा किया जाता है। बाकी 1,460 एमएलडी कावेरी नदी से मिलता है। नदी शहर से करीब सौ किलोमीटर दूर है जो इसे शहर में उपलब्ध सबसे महंगे पानी में से एक बनाती है। नदी के पानी को शहर में लाने पर हर रोज तीन करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। यह पैसा इस पानी को शहर में लाने के लिए खपत होने वाली बिजली पर खर्च होता है।
इसके अलावा, शहर प्रशासन विवादास्पद येत्तिनाहोले जल परियोजना को आगे बढ़ा रहा है। इसका उद्देश्य 274 किलोमीटर दूर पश्चिमी घाट में येत्तिनाहोले धारा से 24.01 टीएमसी पानी उठाना है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को लिखे खुले पत्र में, टीवी रामचंद्र सहित शहर के कई वैज्ञानिकों ने परियोजना के संभावित पर्यावरणीय और आर्थिक नतीजों को लेकर आगाह किया है।
वायुमंडल से पानी निकालना नई अवधारणा नहीं है। दुनिया भर में कई बड़े और छोटे संगठन इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। उरावु लैब्स दूसरी कंपनियों से अलग है, क्योंकि वे ज़्यादा प्रचलित कंडेनसेशन तकनीक के बजाय लिक्विड डेसीकेंट का इस्तेमाल करते हैं। एयर कंडीशनर में इस्तेमाल की जाने वाली कंडेनसेशन तकनीक में हवा को उसके ओस बिंदु तक ठंडा किया जाता है, जिससे पानी का भाप संघनित हो जाता है। फिर इससे बनने वाले पानी को एकत्र किया जाता है और पीने के लिए इसे साफ किया जाता है।
उरावु लैब्स के अनुसार, लिक्विड डेसीकेंट तकनीक का इस्तेमाल करना ज्यादा सस्ता और कुशल है। वर्तमान में यह हर रोज चार हजार लीटर से ज्यादा पानी बनाता है। यह तकनीक अलग-अलग आर्द्रता स्तरों पर लगातार काम करती है, जबकि संघनन तकनीक क्षेत्र की सापेक्ष आर्द्रता (रिलेटिव ह्यूमिडिटी) पर बहुत ज्यादा निर्भर करती है। श्रीवास्तव बताते हैं, “चेन्नई जैसे तटीय क्षेत्रों में संघनन तकनीक अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन बेंगलुरु जैसे शुष्क क्षेत्रों में हमारी तकनीक की तुलना में संघनन तकनीक के जरिए उत्पादन काफी कम है।”
इसके अलावा, सापेक्ष आर्द्रता के आधार पर संघनन तकनीक में बिजली की खपत, उरावु लैब्स की तकनीक की तुलना में औसतन 50% ज्यादा है। ग्रिड बिजली का इस्तेमाल करते हुए उरावु लैब्स की प्रणाली 30%-100% सापेक्ष आर्द्रता स्थितियों में औसतन 300-400 Wh/L (Watt-hours per litre) की खपत करती है। इसके विपरीत, संघनन-आधारित तकनीक 80% सापेक्ष आर्द्रता या उससे ज्यादा पर 300-400 Wh/L, 60-80% सापेक्ष आर्द्रता पर 500-600 Wh/L और 60% से कम सापेक्ष आर्द्रता पर 800 Wh/L से ज्यादा खपत करती है। उन्होंने कहा, “लिक्विड डेसीकेंट तकनीक में सोखने के लिए जरूरी बिजली का इस्तेमाल की जाने वाली कुल ऊर्जा का महज 20% है। सोखने के लिए ऊष्मा ऊर्जा की जरूरत होती है। वर्तमान में, हम लॉजिस्टिक बाधाओं के कारण बिजली का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन अगर हम सौर या कचरे के हीट का इस्तेमाल करते हैं, तो बिजली की खपत को और कम किया जा सकता है।”
साइंस लैब से स्टार्टअप तक
उरावु के बनने की कहानी को समझने के लिए हम थोड़ा पीछे चलते हैं। साल 2012 में एक अंतरराष्ट्रीय छात्र प्रतियोगिता हुई थी। यहां कंपनी के तीन संस्थापकों में से दो, स्वप्निल श्रीवास्तव और वेंकटेश राजा ने संघनन तकनीक का इस्तेमाल करके हवा से पानी बनाने पर ध्यान केंद्रित किया। “पानी और शहर के भविष्य की कल्पना ” शीर्षक वाली प्रतियोगिता ने उन्हें कोच्चि में पानी की उपलब्धता का पता लगाने और पाइप से पानी की आपूर्ति और बुनियादी ढांचे में कमी को उजागर करने के लिए प्रेरित किया। श्रीवास्तव कहते हैं, “कुल मिलाकर भारत में हम लगभग 80% भूजल आपूर्ति पर निर्भर हैं।” जिसे वे अस्थिर मानते हैं। वे इसके लिए स्टार वार्स और हवा से पानी (नमी वाष्पक) उपकरण के चित्रण से प्रेरित थे। श्रीवास्तव और राजा राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कालीकट (कोझिकोड) में वास्तुकला और डिजाइन के छात्र और सहपाठी थे।
प्रोटोटाइप के लिए शुरू में संघनन तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, उन्हें बिजली की बहुत ज्यादा खपत और आर्द्रता पर अत्यधिक निर्भरता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। सिलिका जेल जैसे ठोस डेसीकेंट उम्मीदों से भरे विकल्प की तरह लगे। साल 2018 में वाटर एबंडेंस एक्सप्राइज में शीर्ष पांच वैश्विक फाइनलिस्ट में से एक के रूप में चुने जाने और 50 हजार डॉलर जीतने के बाद, उन्होंने इस तकनीक को पूरी तरह अपनाने का फैसला किया। तीसरे संस्थापक के रूप में शामिल हुए मैकेनिकल इंजीनियर गोविंदा बालाजी अपनी रचनात्मक महारत लेकर कंपनी में आए।
उरावु के लिए ठोस डेसीकेंट से लिक्विड डेसीकेंट की तरफ बदलाव मील का पत्थर था। खास तौर पर कैल्शियम क्लोराइड की ओर आगे बढ़ना। इसे महाराष्ट्र में एक बाहरी कंपनी से हासिल किया गया था। इस आर्थिक रूप से व्यवहार्य लिक्विड डेसीकेंट को अपनाना अहम साबित हुआ, क्योंकि यह “कम लागत वाला है, बेहतर प्रदर्शन करता है और इसे और ज्यादा तेजी से स्केल किया जा सकता है।” उरावु ने तब से उत्पादन को 2019 में पांच लीटर प्रति दिन से बढ़ाकर फिलहाल 4,000 लीटर प्रति दिन कर दिया है।
बेहतर तकनीक, व्यापक इस्तेमाल
श्रीवास्तव कहते हैं, “हम औद्योगिक इस्तेमाल को टारगेट कर रहे हैं और हमने हर रोज 50 हजार से 5 लाख लीटर तक उत्पादन करने के लिए रोडमैप बनाया है।” उनका लक्ष्य ग्रामीण बाजारों तक पहुंचना है जहां पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता खराब है। हालांकि, वे मानते हैं कि यह सिर्फ पानी की लागत को कम करने के लिए उत्पादन को बढ़ाकर ही संभव है।
साल 2019 में सीडब्ल्यूएमआई की अगली रिपोर्ट में देश में उद्योगों के लिए पानी की मांग में अनुमानित बढ़ोतरी के बारे में बताया गया है। इस मांग के साल 2005 से साल 2030 के बीच चार गुना होने का अनुमान है। रिपोर्ट में कहा गया है, “देश में पानी की कमी औद्योगिक संचालन और अन्य आर्थिक गतिविधियों में बाधा डाल सकती है और आर्थिक विकास को धीमा कर सकती है। औद्योगिक गतिविधि राष्ट्रीय स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 30% योगदान देती है और भारत की अर्थव्यवस्था में बड़ा महत्व रखती है।”
हालांकि, आईआईटी मंडी के स्कूल ऑफ सिविल एंड एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर दीपक स्वामी हवा से पानी बनाने वाले जनरेटर की क्षमता बढ़ाने के बारे में चिंता जताते हैं। उनका कहना है कि ये तकनीक वैश्विक या शहरी जल संकट को दूर करने के लिए पर्याप्त पानी का उत्पादन नहीं कर सकती हैं। वे बताते हैं, “इन प्रणालियों का प्रदर्शन आर्द्रता और तापमान जैसे अलग-अलग कारकों पर निर्भर करता है और शहरी क्षेत्रों में प्रदूषित हवा से पानी खींचने का जोखिम भी है।”
कीमत पर भी नजर
वर्तमान में उरावु लैब्स से बनने वाले पानी की लागत तीन-चार रुपये प्रति लीटर है। इसे घटाकर 1 रुपये प्रति लीटर करने का लक्ष्य है। उरावु हॉस्पिटैलिटी उद्योग के लगभग 50 ग्राहकों को सेवा देता है। इनमें मुख्य रूप बेंगलुरु के प्रीमियम होटल और रेस्तरां शामिल हैं। इन जगहों पर 90-150 रुपये प्रति लीटर की दर से पानी बिकता है। पानी का उत्पादन प्रयोगशाला में किया जाता है और इसे कांच की बोतलों में कंपनियों को बेचा जाता है ताकि एंड-टू-एंड सस्टेनेबिलिटी पक्की की जा सके।
बेंगलुरु में तीन रेस्टोरेंट चलाने वाला अश्वथी इन्स पिछले आठ महीनों से उरावु पानी खरीद रही है। इसके महाप्रबंधक राकेश गुरुंग ने अपनी पसंद के तीन मुख्य कारण बताए: उरावु लैब्स के पीछे युवा उद्यमिता, स्थानीय व्यापार पहलू और नई, टिकाऊ अवधारणा। कांच की बोतलों में पैकेजिंग और बोतलों के लिए बाय-बैक सुविधा भी आकर्षक थी।
गुरुंग कहते हैं, “शहर में पानी की गंभीर कमी के कारण उरावु का पानी स्वागत योग्य विकल्प था।” वे 35 रुपये प्रति लीटर की दर से पानी खरीदते हैं और इसे सिर्फ पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जबकि खाना पकाने और अन्य जरूरतों के लिए वे आरओ पानी पर निर्भर रहते हैं। गुरुंग कहते हैं कि हालांकि वे आरओ प्लांट से जुड़े पानी की बर्बादी के कारण अन्य उद्देश्यों के लिए उरावु पानी को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन ज्यादा लागत अहम बाधा बनी हुई है।
रॉयल ऑर्किड होटल भी सस्टेनेबिलिटी खासियतों के कारण उरावु पानी की ओर आकर्षित हुए हैं। इसके कॉर्पोरेट मार्केटिंग प्रमुख आनंद एचएन बताते हैं, “उरावु पानी को चुनना शहर में हमारी व्यापक सस्टेनेबिलिटी पहल में जानबूझकर शामिल होने का हिस्सा था।” शुरुआत में, कुछ ग्राहकों को कांच की बोतलें असुविधाजनक लगीं और उन लोगों को होटल के सस्टेनेबिलिटी लक्ष्यों के बारे में बताया गया। हालांकि, इस अवधारणा ने उम्मीद से कहीं ज़्यादा तेजी से लोकप्रियता हासिल की। यह होटल चेन अब देश भर में अपने होटलों में इसे आगे बढ़ाने पर विचार कर रहा है।
पहुंच बढ़ाना
उरावु लैब्स दुबई में हाइड्रोपोनिक्स और वर्टिकल खेती जैसे अन्य क्षेत्रों में भी हाथ आजमा रही है, जहां वे काम शुरू कर रहे हैं। वे डिस्टिलरी, फार्मास्युटिकल कंपनियों और ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादकों जैसे उद्योगों के साथ अवसर भी खोज रहे हैं, जहां पानी को बिना फोर्टिफिकेशन के सीधे इस्तेमाल किया जा सकता है।
श्रीवास्तव कहते हैं कि इस तकनीक पर आने वाले कम खर्च और उपलब्धता के बावजूद, कुछ ही कंपनियां अपनी तकनीक में लिक्विड डेसीकेंट का इस्तेमाल करती हैं, क्योंकि यह ज्यादा जटिल और समय लेने वाली है। कंडेनसेशन डिवाइस को लगाने में जहां महज 30 दिन लगते हैं। वहीं, लिक्विड डेसीकेंट तकनीक को विकसित होने में तीन साल लग गए।
श्रीवास्तव बताते हैं कि उरावु की तकनीक का मूल्यांकन सापेक्ष आर्द्रता के बजाय निरपेक्ष आर्द्रता के आधार पर किया जाता है। निरपेक्ष आर्द्रता (वायु के प्रति घन मीटर आयतन में जलवाष्प के ग्राम के रूप में बताई गई) हवा में जलवाष्प (नमी) की असल मात्रा का माप है। दूसरी ओर, सापेक्ष आर्द्रता (प्रतिशत के रूप में बताई गई) हवा के तापमान के सापेक्ष जलवाष्प को मापती है ।
श्रीवास्तव बताते हैं, “किसी जगह में बहुत नमी हो सकती है और वह बहुत ठंडी भी हो सकती है। जैसे, अगर आप नॉर्डिक देश में जाते हैं, तो नमी 90% होगी लेकिन तापमान पांच डिग्री सेल्सियस तक कम हो सकता है। इसका मतलब है कि हवा से निकालने के लिए पानी कम है। दिल्ली में, ज्यादा तापमान के साथ औसतन 30% नमी होती है। ऐसी परिस्थितियों में निकालने के लिए पानी की मात्रा ज्यादा होती है।”
उन्होंने यह भी बताया कि उरावु की तकनीक को चलाने के लिए पांच प्रकार के ऊर्जा स्रोतों—सौर, सौर तापीय, बायोमास, औद्योगिक कचरे से बनी बिजली और ग्रिड बिजली—का इस्तेमाल करने की अपनी क्षमता में खास है। कंपनी अभी पनबिजली पर निर्भर है। उन्होंने सौर ऊर्जा से शुरुआत की, लेकिन परिचालन संबंधी समस्याओं के कारण मौजूदा जगह पर इसका इस्तेमाल नहीं कर सके।
पानी कितना साफ है?
ऐसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली तकनीक के लिए शुद्धता बहुत ज्यादा जरूरी है। वायु प्रदूषण के बारे में चिंताओं को देखते हुए, वायुमंडल से निकाले गए पानी की शुद्धता पर स्वाभाविक रूप से सवाल उठेंगे।
श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके सिस्टम में इस्तेमाल होने वाले डेसीकेंट में सिर्फ पानी के कणों के लिए आकर्षण होता है, इसलिए पीएम 10 जैसे बड़े कण अवशोषित नहीं होते। इसके अलावा, PM 2.5, धूल, NOx और अन्य दूषित पदार्थों को हटाने के लिए फिल्टर का इस्तेमाल किया जाता है। वे कहते हैं, “प्रदूषित क्षेत्रों में काम करने की लागत बढ़ जाती है, क्योंकि फ़िल्टर को ज्यादा बार बदलना पड़ता है, लेकिन पानी की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ता है।”
सोखने के चरण में जब तापमान 60 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाता है, सभी बाकी बचे प्रदूषक तत्व खत्म हो जाते हैं। फिर पानी को प्रीमियम ग्लास कंटेनर में बोतलबंद करने से पहले जस्ता और तांबे सहित जरूरी खनिजों के साथ बेहतर बनाया जाता है।
रामचंद्र और दीपक स्वामी जैसे वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि बेंगलुरु जैसे भारतीय शहरों के लिए पानी बचाने का सबसे अच्छा तरीका बारिश के पानी को जमा करना है। हर दूसरा तरीका पूरक है। रामचंद्र बताते हैं कि बेंगलुरु में औसतन 700-750 मिमी बारिश होती है और जलग्रहण क्षेत्र में हर साल 15 टीएमसी पानी आ जाता है। वहीं शहर को 18 टीएमसी पानी की जरूरत होती है। वे कहते हैं, “इसका मतलब है कि पानी की तीन-चौथाई मांग बारिश के पानी को जमा करके पूरी की जा सकती है, जिस पर सबसे कम खर्च आता है।” उन्होंने कहा कि शहर को इसे पाने के लिए निजी स्तर पर छतों के जरिए बारिश के पानी को जमा करने और झीलों को उनके पुराने स्वरूप में लौटाने पर विचार करना चाहिए।
हालांकि, श्रीवास्तव अपने मिशन के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं, “हम जमीन के अंदर पानी के संसाधनों को संरक्षित करके योगदान दे रहे हैं। बोतल वाला पानी बेचने वाले उद्योग में आरओ से पानी को साफ करने के कारण जरूरत से कम से कम दो से तीन गुना ज्यादा पानी निकाला जाता है। हम सतही या भूजल स्रोतों से पानी नहीं खींचते हैं।” वास्तव में, पानी की एक-एक बूंद बचाना एक-एक बूंद पाने के बराबर है।
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: उरावु लैब्स में पानी की शुद्धता की जांच करता हुआ एक कर्मचारी। उरावु लिक्विड डेसीकेंट तकनीक का इस्तेमाल करता है जो हवा से नमी को सोखता है। फिर इसे फिल्टर और विशोषण प्रक्रिया के जरिए भेजा जाता है, ताकि पानी में दूषित पदार्थ न हों। मोंगाबे के लिए अभिषेक एन. चिन्नाप्पा द्वारा ली गई तस्वीर।