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पशु दवाओं से प्रभावित होती लुप्तप्राय गिद्धों की आबादी

2000 के दशक तक, सफेद पूंछ वाले गिद्धों की आबादी में 99.9% की भारी गिरावट देखी गई। तस्वीर- मौसमी घोष।

2000 के दशक तक, सफेद पूंछ वाले गिद्धों की आबादी में 99.9% की भारी गिरावट देखी गई। तस्वीर- मौसमी घोष।

  • एक नए अध्ययन में गिद्धों की ऐसी चार ‘जिप्स’ प्रजातियों के आहार पर प्रकाश डाला गया है जो उन सभी पशु चिकित्सा दवाओं के प्रति संवेदनशील हैं जो कि पहले भी भारत में गिद्धों के लगभग विलुप्त होने का कारण रही हैं।
  • अध्ययन में गिद्धों के मल के नमूनों का विश्लेषण किया गया और पाया गया कि दक्षिण भारत में गिद्ध जंगली शवों को अधिक खाते हैं, जबकि उत्तर भारत में गिद्ध ज्यादातर मरे हुए मवेशियों को खाते हैं।
  • अध्ययन के परिणामों के आधार पर शोधकर्ताओं ने गिद्धों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए हानिकारक पशु चिकित्सा दवाओं को बंद करने के प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया है।

भारत में लुप्तप्राय गिद्धों की आहार संबंधी आदतों की जांच करने वाले एक अध्ययन से पता चलता है कि दक्षिण भारत, जहां गिद्ध मुख्य रूप से जंगली जानवरों के शवों को खाते हैं, को छोड़कर मवेशियों पर काफी निर्भर हैं। यह अध्ययन गिद्धों के संरक्षण प्रयासों में आहार संबंधी प्राथमिकताओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की संख्या में कमी, जो 2,000 के दशक की शुरुआत में लगभग विलुप्त हो गए थे, उनके आहार के तरीके से जटिल रूप से जुड़ी हुई है।

मौसमी घोष, जो वर्तमान में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन में डीन हैं और शोधपत्र की मुख्य लेखिका हैं, कहती हैं, “हमारे अध्ययन से पता चलता है कि मवेशियों के शवों के निपटान के बदलते तौर-तरीकों और जंगली शिकार के महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत के रूप में काम करने की क्षमता के बावजूद, दक्षिण भारत को छोड़कर, लिए गए नमूनों के एक बड़े हिस्से में अभी भी घरेलू पशुओं के डीएनए मौजूद हैं। यह आश्चर्यजनक खोज इस धारणा को चुनौती देती है कि संरक्षित क्षेत्रों में गिद्ध मुख्य रूप से जंगली प्रजातियों के शवों को खाते हैं और इसलिए वे पशु चिकित्सा दवाओं से सुरक्षित हैं।” अध्ययन का नेतृत्व नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज-टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (एनसीबीएस-टीआईएफआर), बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, जूलॉजी विभाग, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, कर्नाटका वल्चर कंजर्वेशन ट्रस्ट और ह्यूम सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ बायोलॉजी के वैज्ञानिकों की एक संयुक्त टीम ने किया था।

1980 के दशक में भारत में 40 मिलियन गिद्ध थे, जिनमें स्थानीय भारतीय गिद्ध भी शामिल थे। तस्वीर: कौशल पटेल।
1980 के दशक में भारत में 40 मिलियन गिद्ध थे, जिनमें स्थानीय भारतीय गिद्ध भी शामिल थे। तस्वीर: कौशल पटेल।

अध्ययन में चार जिप्स प्रजातियों – स्थानीय सफेद पूंछ वाले गिद्ध, भारतीय गिद्ध, प्रवासी यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, और हिमालयन ग्रिफ़ॉन – पर ध्यान केंद्रित किया गया। ये सभी गिद्ध पशु चिकित्सा में उपयोगी गैर-स्टेरायडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवा (NSAIDs) के प्रति संवेदनशील माने जाते हैं। मवेशियों, जिन्हें गिद्ध खाते हैं, को दिए जाने वाले NSAIDs भारत में गिद्धों की आबादी में गिरावट का एक मुख्य कारण थे।

घोष ने कहा, “हमारे शोध का उद्देश्य उनके आहार में संभावित स्थानिक विविधताओं का आकलन करना था, विशेष रूप से संरक्षित क्षेत्रों के भीतर और बाहर।” गिद्धों के आहार में विविधता और इसके पारिस्थितिक निर्धारकों को समझना उनके संरक्षण पहलों का मार्गदर्शन करने, हस्तक्षेपों को प्राथमिकता देने, पुनः उत्थान के लिए सुरक्षित क्षेत्रों की पहचान करने एवं ठीक हो रही गिद्ध आबादी के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है।

शोधकर्ताओं ने कर्नाटका, तमिलनाडु, केरला, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में नागरिक विज्ञान डेटाबेस, ebird पर 2018 से 2022 तक रिपोर्ट किए गए घोंसले और बसेरा स्थलों पर गिद्धों के मल के नमूने एकत्र किए। शोधकर्ताओं ने NCBS-TIFR में मेटा बारकोडिंग का उपयोग करके इन नमूनों से डीएनए का विश्लेषण किया तथा खाद्य और कृषि संगठन डेटाबेस से घरेलू पशुधन घनत्व का डेटा संकलित किया। मेटा बारकोडिंग बिना किसी गड़बड़ी के प्रजातियों के प्राथमिक आहार घटक की पहचान करने के लिए एक कुशल तरीका साबित हुआ। इसके अतिरिक्त, इसके द्वारा प्रजातियों, लिंग और उपभोग की जाने वाली प्रजातियों की एक साथ पहचान करना भी संभव हो गया।

गिद्ध के मल का नमूना जिसे अध्ययन के लिए एकत्र किया गया। तस्वीर: मौसमी घोष।
गिद्ध के मल का नमूना जिसे अध्ययन के लिए एकत्र किया गया। तस्वीर: मौसमी घोष।

घोष ने कहा, “हमें अध्ययन से पता चला है कि जिप्स गिद्ध मुख्य रूप से बड़े खुर वाले जानवरों के शवों को खाते हैं, लेकिन वे कुल 28 प्रजातियों का भोजन करते हैं। इनमें चित्तीदार हिरण, सांभर, सुअर, चिंकारा, गौर, नीलगाय, हाथी, बाघ, आम तेंदुआ, रीसस मैकाक, जंगली कुत्ता, सियार और अन्य शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि देश के अधिकांश क्षेत्रों में गाय और भैंस जैसे घरेलू खुर वाले जानवर उनके आहार का बड़ा हिस्सा होते हैं।”

उनके आहार की विशिष्ट संरचना, विशेष रूप से घरेलू और जंगली खुर वाले जानवरों का अनुपात, परिदृश्य के प्रकार, गिद्ध की प्रजातियों और नमूनों को संरक्षित क्षेत्रों के भीतर से या बाहर से एकत्र किए जाने जैसे कारकों के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है।

खुर वाले पालतू जानवरों का संदूषण

1980 के दशक में भारत में 40 मिलियन से अधिक गिद्ध रहते थे, जिनमें तीन स्थानीय जिप्स प्रजातियां शामिल थीं: सफेद पूंछ वाला गिद्ध, भारतीय गिद्ध और पतली चोंच वाला गिद्ध।

हालांकि, 2000 के दशक की शुरुआत में, उनकी आबादी में नाटकीय रूप से गिरावट आई थी, जिसमें सफेद पूंछ वाले गिद्धों की आबादी में 99.9 प्रतिशत तक की भारी गिरावट देखी गई थी। जिसका कारण पालतू मवेशियों को दी जाने वाली नॉन-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवा (NSAID) डाईक्लोफेनाक थी। इसलिए, वर्ष 2006 में भारत में डाईक्लोफेनाक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

दशकों बाद आज भी, तीनों प्रजातियों की आबादी कम है पर अपेक्षाकृत स्थिर बनी हुई है, एवं फ़िलहाल इसमें सुधार के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। घोष कहती हैं, “डाईक्लोफेनाक का अवैध उपयोग, साथ ही एसिक्लोफेनाक और निमेसुलाइड जैसे अन्य विषैले NSAIDs का कानूनी उपयोग, मुख्य रूप से पालतू खुर वाले जानवरों से बने आहार से उत्पन्न निरंतर खतरे को रेखांकित करता है। इसके अलावा, देश के कुछ क्षेत्रों, जैसे कि पूर्वोत्तर में, अनजाने में जहर देने से इन प्रजातियों के लिए खतरा और बढ़ जाता है।”


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इस बीच, भारत में 2003 से 2015 तक किए गए सड़क सर्वेक्षणों से पता चला है कि राष्ट्रीय उद्यानों के 100 किलोमीटर के भीतर गिद्धों की आबादी दूर के क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक थी। इसमें सुझाव दिया गया कि राष्ट्रीय उद्यान अधिक जंगली खुर वाले शव उपलब्ध करा सकते हैं, जिससे संभावित रूप से हानिकारक पदार्थों के संपर्क में कमी आ सकती है।

हालांकि, संरक्षित क्षेत्रों के अंदर और बाहर गिद्धों की आहार संबंधी आदतों तथा घरेलू पशुओं और जंगली खुर वाले जानवरों के साथ उनके संबंधों को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता थी।

दक्षिण में गिद्ध अधिक जंगली शव खाते हैं

दक्षिण भारत (केरला, कर्नाटका और तमिलनाडु) को छोड़कर, गिद्ध मुख्य रूप से मवेशियों के शव खाते हैं। शोधकर्ताओं ने माना कि गिद्धों की आहार प्राथमिकता का कारण संभवतः देश के अधिकांश हिस्सों में पशुधन की व्यापक उपलब्धता है। हालांकि, दक्षिण भारत में, गिद्ध मुख्य रूप से जंगली खुर वाले जानवरों के अवशेष खाते हैं, क्योंकि वहां मवेशियों के शवों की कम उपलब्धता है। अध्ययन में उल्लेख किया गया है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में मवेशियों और भैंसों के मांस खाने जैसी सांस्कृतिक प्रथाएं भी इन क्षेत्रों में गिद्धों के लिए घरेलू खुर वाले जानवरों के शव की कम उपलब्धता में योगदान दे सकती हैं।

निष्कर्ष बताते हैं कि गिद्धों के आहार में घरेलू मवेशियों के मांस पर उनकी निर्भरता बहुत महत्वपूर्ण है। इन परिणामों के आधार पर, शोधकर्ता गिद्धों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए हानिकारक पशु चिकित्सा दवाओं को खत्म करने के प्रयासों की निरंतर आवश्यकता पर जोर देते हैं।

गिद्धों के आहार को समझना उनके संरक्षण हेतु किये जा रहे प्रयासों को दिशा देने के लिए आवश्यक है। तस्वीर: कौशल पटेल।
गिद्धों के आहार को समझना उनके संरक्षण हेतु किये जा रहे प्रयासों को दिशा देने के लिए आवश्यक है। तस्वीर: कौशल पटेल।

घोष ने आगे कहा, “इसका मतलब यह भी है कि गिद्धों के लिए जहरीली दवाओं का परीक्षण जारी रखना, ऐसे हानिकारक पदार्थों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानूनों को बनाना और लागू करना साथ ही साथ शिक्षा के माध्यम से उनका अनुपालन सुनिश्चित करना; इसके अतिरिक्त, जहरीली पशु चिकित्सा दवाओं की मौजूदगी के लिए शवों का निरंतर परीक्षण आवश्यक है। ये प्रयास गिद्धों की आबादी के संरक्षण और बहाली के लिए आवश्यक हैं।”

 

यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 16 अप्रैल 2024 को प्रकाशित हुई थी।

बैनर तस्वीर:  2000 के दशक तक, सफेद पूंछ वाले गिद्धों की आबादी में 99.9% की भारी गिरावट देखी गई। तस्वीर- मौसमी घोष।

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