- भौगोलिक संकेत या जीआई भौगोलिक क्षेत्र की खासियत वाले उत्पादों के लिए बौद्धिक संपदा संरक्षण का बेहतर तरीका है।
- ऐसा माना जाता है कि जीआई टैग मिलने से स्थानीय समुदायों को आर्थिक लाभ होगा तथा पारंपरिक ज्ञान का गलत इस्तेमाल रोका जा सकेगा।
- भारत में जीआई-टैग वाले कई उत्पाद मौसम में हो रहे बदलाव और बिगड़ रहे पर्यावरण के कारण खतरे में हैं। इससे पता चलता है कि लंबे समय में उनकी व्यवहार्यता बनाए रखने के लिए पर्यावरण हितैषी तरीकों और आवास संरक्षण की जरूरत है।
- जानकारों का सुझाव है कि जीआई को पर्यावरण और जनजातीय अधिकारों की सुरक्षा के लिए खास कानून के साथ जोड़ने से पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित किया जा सकता है।
दार्जिलिंग की चाय, कांचीपुरम का रेशम और ओडिशा पट्टचित्र में कौन-सी चीज एक जैसी है? इन सभी के पास खास भौगोलिक संकेत या जीआई टैग हैं। भौगोलिक संकेत बौद्धिक संपदा (आईपी) को संरक्षित करने का एक तरीका है। यह उन उत्पादों को दिया जाता है जिन्हे खास जगहों पर बनाया जाता है और जिनमें उस जगह के गुण शामिल होते हैं।
इसे मूल रूप से उन आदिवासी समुदायों की सुरक्षा के लिए डिजाइन किया गया था जो उत्पाद को उगाते या बनाते हैं और इससे जुड़े ज्ञान के संरक्षक हैं। जीआई दोहरा उद्देश्य पूरा करता है: इन उत्पादों की मदद करने से समुदायों को आर्थिक फायदा होता है। साथ ही, उनके पारंपरिक ज्ञान के दुरुपयोग को कम किया जाता है।
जैसे, जीआई टैग वाली कूर्ग अरेबिक कॉफी यह दिखाती है कि इस कॉफी का स्रोत कर्नाटक का कोडागु जिला (जिसे पहले कूर्ग के नाम से जाना जाता था) है। इसमें कॉफी की उत्पत्ति के प्रमाण को सत्यापित किया जाता है और इसकी विशेषताओं जैसे कि खेती का मूल तरीका, मिट्टी की गुणवत्ता, छाया और कॉफी के अन्य प्रकारों की तुलना में खासियतों को देखा जाता है। इसके बाद जीआई टैग दिया जाता है। कोडागु जिले के अलावा कोई अन्य क्षेत्र या किसानों का समूह प्रामाणिक कूर्ग अरेबिक कॉफी नहीं बेच सकता है। यह खासियत ना सिर्फ स्थानीय संस्कृति को संरक्षित करती है, बल्कि कॉफी उगाने वाले किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन भी देती है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल 2023 से मार्च 2024 के बीच 167 उत्पादों को जीआई टैग दिए गए। इनके बाद भारत में जीआई-टैग वाले उत्पादों की कुल संख्या 643 हो गई है। हाल के दिनों में, पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों के हस्तशिल्प पर भी ध्यान दिया गया है। जैसे कि मेघालय का गारो कपड़ा, त्रिपुरा का पचरा-रिग्नई, असम का बिहू ढोल और अरुणाचल प्रदेश का ताई खामती कपड़ा। इसके अलावा, जीआई टैगिंग के इतिहास में पहली बार अंडमान और निकोबार प्रशासन ने द्वीपों से पैदा होने वाले सात स्थानीय उत्पादों के लिए आवेदन दिए हैं, जिनमें अंडमान करेन मूसली चावल, निकोबारी चटाई और अंडमान का लंबा नारियल शामिल है।
हालांकि, जीआई टैग सांस्कृतिक विरासत को बचाते हुए पारंपरिक ज्ञान को कानूनी संरक्षण देते हैं, फिर भी इन उत्पादों की लंबे समय तक खेती, उत्पादन और इन्हें बनाने के लिए टिकाऊ तरीकों और जैव विविधता के संरक्षण की ज़रूरत के बारे में चिंताएं बढ़ रही हैं।
संरक्षण पर ध्यान देने वाला नजरिया जरूरी
भारत के जीआई हस्तशिल्पों में असम का मुगा रेशम भी शामिल है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खासी मांग है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में खास तौर पर पाए जाने वाले मुगा रेशमकीट (एन्थेरिया असामेंसिस) से बनने वाला मुगा रेशम अपनी मजबूती और चमक के लिए जाना जाता है। भौगोलिक अलगाव इस क्षेत्र में मौजूद खास भू-जलवायु परिस्थितियों को दिखाता है जो रेशमकीट के विकास में मददगार हैं।
किसान और रेशम पर शोध करने वाले जितुल सैकिया कहते हैं कि भविष्य में कारोबार के उद्देश्यों के लिए मुगा रेशम के कीड़ों को उगाना शायद संभव नहीं हो। सैकिया ने शोध के बाद पाया कि असम के अलग-अलग हिस्सों में मुगा रेशम के कीड़ों की उत्पादकता, मात्रा और गुणवत्ता घट रही है। सैकिया ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “जलवायु परिवर्तन के कारण रेशम के इन कीड़ों के मेजबान पौधों में फंगल रोग बढ़ रहे हैं। बढ़ते तापमान और बारिश के असमान पैटर्न का इन पौधों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। भूजल स्तर भी धीरे-धीरे कम हो रहा है। एक और चुनौती पड़ोसी चाय बागानों में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल है। जब यह दूषित पानी इन बागानों से बहता है, तो यह मेजबान पौधों और रेशम के कीड़ों को प्रभावित करता है।”
बड़ी संख्या में परिवार मुगा रेशमकीट पालन और उद्योग में शामिल हैं, इसलिए मेजबान पौधों और आवास का संरक्षण इसके अस्तित्व के लिए जरूरी है। उनका कहना है कि मेजबान पौधों और परिदृश्य में किस तरह बदलाव आ रहा है, इस पर पर्याप्त अध्ययन नहीं किए गए हैं। सैकिया कहते हैं, “जीआई उत्पाद का संरक्षण और व्यावसायीकरण एक साथ होना चाहिए, जो कि यहां नहीं है।”
कन्याकुमारी का मट्टी केला और कश्मीर का केसर जीआई-टैग वाले कई अन्य उत्पादों में से हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के बारे में पता चला है। इससे कई किसानों और व्यापारियों की आजीविका को खतरा हो सकता है। चूंकि जीआई-टैग उत्पादों को खास पहचान जलवायु, स्थलाकृति, भूविज्ञान और मिट्टी की विशेषताओं के मिले-जुले रूप से मिलती है जो उनके उत्पादन के क्षेत्रों के लिए खास होती हैं, इसलिए कई जीआई-टैग उत्पादों को बदलती जलवायु के अनुकूल बनाने की भी जरूरत है।
पारंपरिक ज्ञान को बचाए रखना
वॉक्सेन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लॉ में सहायक प्रोफेसर अजय जोस की दलील है कि भौगोलिक संकेत पारंपरिक ज्ञान को बचाए रखने के लिए बेहतरीन साधन है। जोस को पारंपरिक ज्ञान और पारंपरिक औषधीय ज्ञान में महारत हैं। वह बताते हैं कि जीआई के साथ-साथ जैव विविधता कानून (2002), पादप किस्मों और किसानों के अधिकार संरक्षण कानून (2001), पेटेंट कानून (1970) और वन अधिकार कानून (2006) जैसे कानून भी सीधे या दूसरी तरह से अलग-अलग समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को सहेजने का काम करते हैं।
आईआईटी खड़गपुर के राजीव गांधी स्कूल ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी लॉ की प्रोफेसर पद्मावती मंचिकांति का मानना है कि पर्यावरण संरक्षण के तहत वन अधिकार अधिनियम और जैव विविधता अधिनियम जैसे दूसरे खास कानूनों के लिए बौद्धिक संपदा कानूनों से मदद मिलने पर विचार करने की जरूरत है। जैसे, पादप किस्मों और किसान अधिकार संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य संरक्षण को बढ़ावा देना है। कृषि जीआई उत्पाद को अतिरिक्त सुरक्षा कवच प्रदान करता है। मंचिकांति कहती हैं, ”इसलिए, अगर हमारे पास जीआई टैग और पादप किस्म संरक्षण है, तो अनुपूरकता का अहसास हो सकता है।” वह बताती हैं कि जीआई को पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (पीबीआर) के साथ जोड़ना एक और विकल्प है। यह रजिस्टर संबंधित पारंपरिक ज्ञान के साथ एक क्षेत्र में जैव विविधता का दस्तावेजीकरण करता है। वह आगे कहती हैं, ”भारत किसी उत्पाद को बेहतर सुरक्षा प्रदान करने के लिए अलग-अलग कानूनी ढांचों में पारंपरिक ज्ञान को जोड़ने पर विचार कर सकता है।
हालांकि, जीआई टैग के साथ पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और संवर्धन की अपनी चुनौतियां हैं। एक बात यह है कि सभी पारंपरिक ज्ञान सार्वजनिक डोमेन या पारंपरिक ज्ञान डिजिटल लाइब्रेरी में उपलब्ध नहीं है। यह पारंपरिक दवाओं का एक डेटाबेस है। इसमें खोज और रिकॉर्ड करने के लिए बहुत कुछ बचा है। जोस का सुझाव है कि स्थानीय जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी) अपने क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर ज्यादा स्थानीय प्रथाओं और उत्पादों का दस्तावेजीकरण कर सकती हैं। बीएमसी शोधकर्ताओं और आदिवासी समुदायों के बीच की खाई को पाटने में भी मदद कर सकती हैं। हालांकि, पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने में पहुंच और लाभ साझाकरण (एबीएस) अहम भूमिका निभाता है। जोस बताते हैं, “अगर कुछ समुदाय अपने पारंपरिक पवित्र ज्ञान को बनाए रखना चाहते हैं और इसे किताब की शक्ल में नहीं लाना चाहते हैं, तो उस फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए।”
समृद्ध संस्कृति का फायदा उठाना
दक्षिणी पश्चिमी घाट में कानी आदिवासी समुदाय की ओर से इस्तेमाल किए जाने वाले थकान-रोधी गुण वाले औषधीय पौधे आरोग्यपचा (ट्राइकोपस ज़ेलैनिकस) के व्यावसायीकरण के बाद समुदाय ने पौधे के संग्रह और उपयोग की प्रथागत प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि, बाद में यह पाया गया कि पौधे में वे औषधीय गुण तभी दिखाई देते हैं जब इसे जंगल की छतरी की छाया में प्राकृतिक वन आवास में उगाया जाता है। इसके बाद, आरोग्यपचा का इस्तेमाल करने वाले आयुर्वेदिक उत्पाद के पहले निर्माता ने कच्चे माल की खरीद में समस्याओं का सामना करने के बाद 2008 में परियोजना से हाथ खींच लिया।
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मंचिकांती के अनुसार, आरोग्यपचा से जुड़े मामले के बावजूद बाजार में उपलब्ध दवाओं की अहम संख्या सक्रिय अवयवों पर आधारित है जो पौधों और अन्य संसाधनों से अलग किए जाते हैं। वह कहती हैं, “उन पौधों का पारंपरिक इस्तेमाल और जानकारी उन दवाओं के विकास के लिए शुरुआती बिंदु बन गई। भारत में हमारे पास मौजूद पारंपरिक ज्ञान से लाभ उठाने की अपार संभावनाएं हैं, क्योंकि हमारे पास अलग-अलग जलवायु क्षेत्र और समृद्ध संस्कृति है।”
भारत में पारंपरिक चिकित्सा के रिकॉर्ड में सुधार के बारे में बोस पारंपरिक दवाओं के अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाने पर जोर देती हैं। वह कहती हैं, “हमें पारंपरिक दवाओं के ज्ञान की जांच और उसका सत्यापन करना चाहिए। कुछ पौधों में ऐसे सक्रिय तत्व हो सकते हैं जो दवाइयां बनाने में उपयोगी हो सकते हैं। इन तत्वों के लिए क्लिनिकल परीक्षण किए जाने चाहिए।”
अन्य चुनौतियां
उचित तरीके से दस्तावेज नहीं बनाने, खत्म होती जा रही जैव विविधता और जैव संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के असर के अलावा, जीआई उत्पादों और संबंधित पारंपरिक ज्ञान को जालसाजी, दावों में विवाद और पहुंच की कमी के जोखिम का सामना करना पड़ता है। कुछ राज्यों में आदिवासी समुदाय भी वन उपज में गिरावट के बारे मे बताते हैं।
नकली उत्पादों को कम करने के लिए जोस प्रामाणिक जीआई उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में जागरूकता बढ़ाने पर जोर देती हैं। वह जीआई-टैग किए गए सामानों के लिए सड़कों और भंडारण इकाइयों जैसे बुनियादी ढांचे में सुधार और इन कोशिशों को पर्यटन के साथ जोड़ने पर जोर देती हैं। वह कहती हैं, “पर्यटकों को प्रामाणिक जीआई उत्पादों और नकली उत्पादों के बीच अंतर समझाना चाहिए।”
ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब दो पड़ोसी क्षेत्रों ने एक ही उत्पाद की उत्पत्ति पर दावा किया है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल और ओडिशा दोनों ने रसगुल्ला के लिए जीआई टैग का दावा किया था, जिसमें दोनों राज्यों ने एक ही मिठाई के अलग-अलग प्रकारों के लिए जीआई टैग प्राप्त किया था। जोस का कहना है कि ऐसे विवादों को हल करने के लिए पक्की व्यवस्था होनी चाहिए।
इसके अलावा, अलग-अलग उत्पादों और समुदायों पर टैग के पर्यावरणीय, सामाजिक और वित्तीय असर की समझ की भी कमी है। मंचिकांति जीआई टैगिंग या जीआई के बाद के अध्ययनों की प्रभावशीलता को समझने के लिए और ज्यादा अध्ययन करने का सुझाव देती हैं, ताकि बेहतर सुरक्षा तंत्र तैयार करने के लिए स्थिति के हिसाब से असलियत का आकलन किया जा सके।
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 6 जून 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: रेशमकीट से मूगा रेशम निकालने की प्रक्रिया। तस्वीर विकिमीडिया कॉमन्स के जरिए मयूरिमदास द्वारा (CC BY-SA 4.0)।