- नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व में स्थानीय समुदाय के लोग अपने जंगलों, नदियों और खेतों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की निगरानी के लिए पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों के साथ जोड़ रहे हैं।
- पर्यावरणविदों, वन्यजीव जीव वैज्ञानिकों और आदिवासी गांव के बुजुर्गों द्वारा प्रशिक्षित, ये युवा आदिवासी प्रभावी वन संरक्षण प्रथाओं की वकालत करने के लिए पारिस्थितिक परिवर्तनों का सावधानीपूर्वक दस्तावेजीकरण कर रहे हैं।
- बीस आदिवासी महिलाएं इस कार्यक्रम का हिस्सा हैं और व्यावहारिक अवलोकन के साथ-साथ डेटा संग्रह और विश्लेषण के माध्यम से दस्तावेज़ीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। उन्हें मिस्र में COP27 में प्रतिष्ठित ‘जेंडर जस्ट क्लाइमेट सॉल्यूशंस’ अवार्ड से सम्मानित किया गया है।
तमिलनाडु के सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व के गलिथिम्बम गांव के महालिंगम बालन हफ्ते में एक बार कई अलग-अलग वन क्षेत्रों का दौरा करते हैं और विभिन्न पारिस्थितिक पहलुओं का बारीकी से निरीक्षण कर उनका दस्तावेजीकरण करते हैं – अब चाहे नदियों का जलस्तर हो, मधुमक्खियों की गतिविधियां हों, वनस्पतियों में मौसमी परिवर्तन, आक्रामक प्रजातियों की उपस्थिति या फिर जानवरों की गतिविधियों के संकेत। उनके काम से प्रेरित होकर, उनकी पत्नी अमुधा एम. ने भी गांव की कई अन्य महिलाओं के साथ मिलकर जंगलों और पारिस्थितिकी के बारे में अपने पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वन क्षेत्रों तक केवल पुरुष ही पहुंच सकते हैं, इसलिए उन्होंने गांव के पास कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों और नदियों की निगरानी का जिम्मा उठा लिया।
अमुधा कहती हैं, “हम जामुन और अंजीर जैसे पेड़ों की निगरानी करते हैं, उनके फल देने, फूलने और सूखने के चक्रों को रिकॉर्ड करते हैं। साथ ही अपने गांवों और खेतों के आस-पास के जानवरों और पक्षियों का दस्तावेजीकरण भी करते हैं। इसके अलावा जल धाराओं, पेड़ों और पौधों में मौसमी बदलावों के असर पर भी नजर रखते हैं।”
आर्थिक रूप से कमजोर उरली जनजाति से ताल्लुक रखने वाले बालन और उनकी पत्नी अमुधा पारिस्थितिकी निगरानी परियोजना ‘बेयरफुट इकोलॉजी प्रोग्राम’ का हिस्सा हैं, जिसकी कल्पना और क्रियान्वयन नीलगिरी स्थित गैर-लाभकारी संस्था कीस्टोन फाउंडेशन ने की है। यह संगठन नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में स्वदेशी समुदायों को सशक्त बनाने और सामाजिक-पारिस्थितिकी लचीलेपन को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है। इस कार्यक्रम को आदिवासी युवाओं को पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान को डेटा संग्रह और विश्लेषण के वैज्ञानिक तरीकों के साथ एकीकृत करने में सक्षम बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है
पारंपरिक रूप से शहद इकट्ठा करने, भोजन संग्रहण और हर्बल औषधि तैयार करने में कुशल यह उराली जनजाति आज भी अपनी आजीविका के लिए शहद, जंगली फल, दूध, घी और अन्य वन उत्पादों को बेचकर अपनी गुजर-बसर करती है। लेकिन हाल के कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि तमिलनाडु में इस समुदाय के कई सदस्य अब खेतिहर मजदूर के रूप में भी काम करने लगे हैं। शोषण, संपत्ति के नुकसान और भूमि के स्वामित्व में बदलाव के कारण ये लोग छोटी-मोटी दैनिक मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।
2008 में शुरू किया गया बेयरफुट इकोलॉजी प्रोग्राम नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व में रहने वाले स्थानीय लोगों के पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान को समकालीन वन संरक्षण प्रयासों में एकीकृत करने का प्रयास करता है, जो लंबे समय से वन प्रबंधन में सबसे आगे रहे हैं। कार्यक्रम उन्हें प्रबंधन रणनीतियों पर नीति निर्माताओं और अधिकारियों को सलाह देने, निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में योगदान करने और संरक्षण रणनीतियों को आकार देने में केंद्रीय भूमिका निभाने का अधिकार देता है।
ज्ञान हस्तांतरण में अंतराल को भरना
वैज्ञानिक जंगलों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए अक्सर आदिवासियों के ज्ञान और इनकी जानकारी का सहारा लेते आए है, खास तौर पर जातियों का पता लगाने के लिए।
कीस्टोन फाउंडेशन में इकोलॉजिस्ट और निदेशक अनीता वर्गीज ने इसे खुद भी महसूस किया है। वह कहती हैं, “आदिवासी लोग जंगल की हर चीज के बारे में बारीकी से जानते हैं। अगर वो मेरा मार्गदर्शन नहीं करते, तो शायद मुझे वो पेड़ भी न मिलते जिनकी मुझे तलाश थी।” अनीता ने यह भी माना कि किसी भी प्रजाति को कितना महत्व दिया जाता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह प्रजाति उस समुदाय के लिए कितनी उपयोगी है। कई प्रजातियां तो आज भी अज्ञात हैं क्योंकि उनका समुदाय के जीवन में कोई खास उपयोग नहीं है।
अपनी इस रिसर्च के दौरान वर्गीज ने महसूस किया कि समय के साथ-साथ जनजातीय युवाओं का जंगल से लगाव कम होता जा रहा है, कुछ को तो जंगलों की बुनियादी जानकारी तक नहीं थी। वो बेहतर अवसरों के लिए शहरों की तरफ बढ़ते हुए, अनजाने में ही अपने पारंपरिक परिवेश से दूर होते जा रहे हैं। इसके चलते एक ऐसी पीढ़ी उभरी जो अपने प्राकृतिक परिवेश में अनुकूलित होने या पनपने के लिए संघर्ष तो कर रही है, लेकिन फिर भी शहरी जीवन को पूरी तरह से अपनाने के लिए अनिच्छुक है।
मधुमक्खियों, जैव विविधता और आजीविका पर एक रिसर्च प्रोजेक्ट के दौरान कीस्टोन फाउंडेशन ने क्षेत्रीय रिसर्च टीम में शामिल होने के लिए आदिवासी युवाओं को अपने साथ जोड़ा। वर्गीज ने पाया कि न तो शोधकर्ता और न ही आदिवासी युवा कई पौधों और जानवरों के पारंपरिक नाम जानते थे। वास्तव में, एक कुरुम्बा (एक दक्षिण भारतीय जनजाति) युवा ने तो जंगल के पौधों की पहचान करने के लिए एक वानस्पतिक क्षेत्र गाइड रखने का भी अनुरोध किया था।
इन चिंताजनक बातों को देखते हुए ही बेयरफुट इकोलॉजी प्रोग्राम को शुरू करने की प्रेरणा मिली। चुने हुए युवाओं को बाहरी विशेषज्ञों, जैसे कि पारिस्थितिकीविदों और वन्य जीव जीव विज्ञानियों के साथ व्यापक प्रशिक्षण दिया गया। इन विशेषज्ञों ने न सिर्फ प्राकृतिक इतिहास के अवलोकन, GIS मैपिंग आदि में युवाओं को ट्रेनिंग दी बल्कि उन्हें गांव के बुजुर्गों के साथ मिलकर जंगलों की जानकारी लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया।
वन परिदृश्य को समझना
कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर (BRT) टाइगर रिजर्व में पुलिनजूर गांव के सोलिगा जनजातीय युवा शिवन्ना बी. 2013 के आसपास 28 साल की उम्र में बेयरफुट इकोलॉजिस्ट बन गए। इससे पहले, जंगल के साथ उनका नाता सिर्फ नॉन-टिम्बर फॉरेस्ट प्रोडक्ट (NTFP) को इकट्ठा करने तक ही था। शिवन्ना बताते हैं, “भले ही हम जंगल में रहते थे, लेकिन हमने इसके कई हिस्सों की खोज नहीं की थी, क्योंकि इसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। ” वह आगे कहते हैं, “एक बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के तौर पर, मैंने जंगल और उसकी प्रजातियों के बारे में और अधिक जानना शुरू किया। विशेष रूप से गांव के बुजुर्गों ने हमें सिखाया कि जंगल से गुजरते समय जंगली जानवरों से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है।”
सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व के मावनाथम गांव के 29 साल के शिवमूर्ति आर. उरली जनजाति से हैं। उनके परिवार का पीढ़ियों से जंगल के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। जानवरों की आवाज, गंध और पैरों के निशान से उनकी उपस्थिति का अंदाजा लगाना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। वह कहते हैं, “उनके चारे के पैटर्न या मल को देखकर हम उनके आवासों का पता लगा लेते हैं और उस रास्ते से हट जाते हैं ताकि उन्हें परेशानी न हो।”
शिवन्ना कहते हैं, “हालांकि हमारे पास प्राकृतिक चक्रों के बारे में काफी पारंपरिक ज्ञान है, जैसे पेड़ पर कब फूल आएंगे, या नदियों में कब उफान आएगा। लेकिन हमें नहीं पता था कि इस जानकारी को कैसे दर्ज किया जाए।” वह आगे कहते हैं, “बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में, हमने वैज्ञानिक नाम सीखे। हमें लगातार और विस्तृत वन निगरानी के जरिए अपने अवलोकनों को व्यवस्थित रूप से रिकॉर्ड करने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग दी गई है।”
सत्यमंगलम के एट्टाराई गांव के आर. रंगासामी (50) को जंगल के पास रहने का काफी अनुभव रहा है। इसके बावजूद उन्हें इस ट्रेनिंग से काफी कुछ सीखने और जानने को मिला। इससे उन्हें जंगलों की खोज करने और वन्यजीवों से मुठभेड़ के दौरान बेहतर तरीके से प्रतिक्रिया देने में मदद मिली है।
वर्गीज कहती हैं कि आदिवासी लोग कभी पेड़ के नीचे उगे छोटे पौधों को गिनने की जरूरत नहीं समझते थे। लेकिन, किसी भी प्रजाति के विकास को समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी होता है कि हर पीढ़ी में उस प्रजाति के कितने सदस्य हैं और समय के साथ उनकी संख्या में क्या बदलाव आ रहे हैं। वह आगे कहती हैं कि “मैं वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए इस प्रक्रिया में योगदान देती हूं और आदिवासी लोग अपने पारंपरिक ज्ञान से। दोनों ही तरह का ज्ञान प्रकृति के संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।”
महिलाओं ने भी अपने कदम बढ़ाए
जब 2008 में यह प्रोग्राम शुरू हुआ, तब सिर्फ पुरुष ही बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में काम करते थे। महिलाएं भले ही पारंपरिक रूप से पानी लाने, ईंधन और औषधीय पौधों को इकट्ठा करने का काम करती रही हों, लेकिन उनके पास पारिस्थितिक ज्ञान की कमी नहीं है। दरअसल सांस्कृतिक रूप से सौंपी गई भूमिकाओं के कारण आमतौर पर निर्णय लेने में उन्हें नजरअंदाज किया जाता रहा है। कार्यक्रम ने संरक्षण के लिए इस लिंग आधारित दृष्टिकोण को चुनौती दी।
आज, नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व में उरली और सोलिगा जैसी जनजातियों की 20 आदिवासी महिलाओं ने बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में कई सफलता की कहानियां लिखी हैं। उनके काम ने उन्हें 2022 में मिस्र में COP27 में प्रतिष्ठित जेंडर जस्ट क्लाइमेट सॉल्यूशंस अवार्ड दिलाया। यह अवार्ड जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
अमुधा ने 2019 से तीन साल तक नीलगिरी में वुमन बेयरफुट इकोलॉजिस्ट टीम की अध्यक्ष के रूप में काम किया है। इस दौरान उन्हें कीस्टोन फाउंडेशन से मामूली राशि मिली, जिससे उन्होंने अपने घरेलू खर्चों को मैनेज किया।
बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में मसीनागुडी पंचायत के बोक्कापुरम गांव की शक्ति पी. अब सरकारी स्कूलों में एक नेचर एजुकेटर के रूप में काम करती हैं। वह जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण पर कक्षाएं लेती हैं। वह कहती है, “बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में, हमने प्रकृति की गहरी समझ हासिल की है। वैसे तो हम हमेशा से जानते थे कि हमारे इलाके में आम के पेड़ पर कब फूल लगेंगे, लेकिन इसे व्यवस्थित रूप से रिकॉर्ड करने से हमें इसके एक पैटर्न का पता चला: अगर एक वर्ष फूल बहुत अधिक आते हैं, तो अगले वर्ष कम होने की प्रवृत्ति होती है – एक ऐसी गहरी समझ जो पहले हमारे पास नहीं थी।” वह बताती हैं कि उनके छात्र प्रकृति से जुड़ी जानकारी को जल्दी से अपना लेते हैं और अपने साथियों के साथ अपने निष्कर्षों को साझा करते हैं।
कीस्टोन फाउंडेशन में जलवायु समाधान कार्यक्रम की कॉर्डिनेटर भाव्या जॉर्ज ने बताया कि बच्चे और महिलाएं छोटे कीड़े-मकोड़ों और पक्षियों को बहुत गौर से देखते हैं। संरक्षण के कामों में अक्सर इन छोटे जीवों को नजरअंदाज कर दिया जाता है और ज्यादातर ध्यान बड़े जंतुओं या कीड़े-मकोड़े पर ही रहता है। भाव्या कहती हैं, “बच्चे अपने गांवों से छोटे जीव-जंतुओं के बारे में जानकारी इकट्ठा करके स्कूल लाते हैं और अपने अनुभव साझा करते हैं। शक्ति जैसी शिक्षिकाएं बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के तौर पर अपना ज्ञान अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में कामयाब रहीं हैं।”
संरक्षण के लिए निगरानी
बेयरफुट इकोलॉजिस्टों ने जंगल के सावधानीपूर्वक वैज्ञानिक निगरानी के जरिए जलवायु से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा की है। उदाहरण के लिए शिवमूर्ति ने पीसुंडई (वाइबर्नम पंक्टेटम) पेड़ों की आबादी में गिरावट देखी है। उन्होंने देखा कि हाल के वर्षों में असामान्य रूप से गर्मी के महीनों के दौरान पत्तियों की कमी के कारण कई शाकाहारी जीव, खासतौर पर सांभर हिरण पेड़ की छाल को खा रहे थे। वह कहते हैं, “अगर पेड़ की छाल चली गई, तो पूरा पेड़ खत्म हो जाएगा।”
वहीं मावनथम गांव के ही एक अन्य निवासी थंगावेलु के. का मानना है कि कभी बड़ी संख्या में पाए जाने वाले आंवले के पेड़ों सहित, स्थानीय पेड़ों में गिरावट की बड़ी वजह जंगल में एक आक्रामक प्रजाति, लैंटाना कैमरा है।
आंवले जैसी कुछ नॉन-टिम्बर वन उत्पादों को इकट्ठा करने पर प्रतिबंध लगाए जाने से पहले, समुदाय आंवले की कटाई करते थे और पेड़ के सही ढंग से बढ़ने और फलने-फूलने देने के लिए रोगग्रस्त छाल को सावधानीपूर्वक हटा देते थे। थंगावेलु का दावा है, “जब वन विभाग ने प्रतिबंध लगाया, तो इससे कई आंवले के पेड़ धीरे-धीरे खत्म हो गए।”
बेयरफुट इकोलॉजिस्ट लुप्तप्राय पौधों की पौध भी इकट्ठा करते हैं ताकि सत्यमंगलम के अरेपालयम में कीस्टोन के फील्ड इकोलॉजी सेंटर में नर्सरी में उनका संरक्षण किया जा सके। थंगावेलु के अनुसार, एक बार जब ये पौधे परिपक्व हो जाते हैं, तो प्रजातियों को बनाए रखने के लिए उन्हें जंगल में फिर से रोप दिया जाता है।
उनके दस्तावेजीकरण का एक अन्य प्रमुख फोकस जंगल में लुप्तप्राय प्रजातियां हैं, जैसे कि लोरिस और पैंगोलिन। इन प्रजातियों की संरक्षण स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए वे जंगल में कई जगहों पर वॉयस रिकॉर्डर और कैमरे लगाने में मदद करते हैं। रंगासामी का अनुमान है कि ये जंतु, जो कभी जंगल में बड़ी संख्या में मिला करते थे, अब कम प्रजनन दर के कारण आबादी में गिरावट का सामना कर रहे हैं।
बेयरफुट इकोलॉजिस्टों को गैर-लाभकारी संस्था द्वारा जंगल जाने के लिए 500 रुपये दिए जाते हैं। हालांकि, उनमें से कई का कहना है कि वे पैसे के लिए नहीं बल्कि जंगल से अपने गहरे नाते के कारण यह काम करते हैं।
नेतृत्व और क्षमता का निर्माण
वर्गीज इस कार्यक्रम के जरिए आदिवासी समुदायों के बीच नेतृत्व और क्षमता निर्माण के महत्व पर जोर देती हैं। अधिकांश बेयरफुट इकोलॉजिस्ट आजीविका की अन्य गतिविधियों में लगे हुए हैं और अक्सर जरूरत के हिसाब से उन्हें बुलाया जाता है, जैसे रिसर्च या प्रोजेक्ट में सहायता के लिए। वह बताती हैं, “जब हम रिसर्च करते हैं, तो हम इन बेयरफुट इकोलॉजिस्टों को भाग लेने और मुख्य शोधकर्ता के तौर पर काम करने के लिए बुलाते हैं। वे केवल ट्रैकर्स और फील्ड असिस्टेंट ही नहीं बल्कि हमारी रिसर्च में भागीदार भी हैं। जब हम कोई रिसर्च पेपर लिखते हैं, तो हम उन्हें सह-लेखक के रूप में शामिल करते हैं।”
हर गांव में बेयरफुट इकोलॉजिस्ट अपने द्वारा देखी गयी चीज़ों का विस्तृत रिकॉर्ड रखते हैं। क्योंकि उनके लिए कंप्यूटर पर यह जानकारी सहेजना मुश्किल होता है, इसलिए कीस्टोन फाउंडेशन का फील्ड इकोलॉजी सेंटर (जो हसनूर के पास अरेपालयम में स्थित है) इस जानकारी को संग्रहित करने और उसका प्रबंधन करने में उनकी मदद करता है। कीस्टोन फाउंडेशन में जैव विविधता संरक्षण कार्यक्रम के एडिशनल प्रोग्राम कॉर्डिनेटर महादेश बी. कहते हैं, “इन रिकॉर्ड्स से हमें कई तरह के पैटर्न समझने में मदद मिली है, जैसे किस समय जानवर सबसे ज्यादा सक्रिय रहते हैं, फूल और फल आने में मौसम के हिसाब से क्या बदलाव आते हैं और नदियों के बहाव में क्या अंतर आता है।”
वर्गीज बताती हैं कि जो जानकारी बेयरफुट इकोलॉजिस्ट इकट्ठा कर रहे हैं वह ‘पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर’ से बहुत अलग है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लोगों के पारंपरिक, पवित्र या सांस्कृतिक ज्ञान का दस्तावेज नहीं है, बल्कि नियमित रूप से प्रकृति का अवलोकन करके पर्यावरण की स्थिति और उसमें हो रहे बदलावों का रिकॉर्ड तैयार करना है।
हालांकि कीस्टोन फाउंडेशन ने अभी तक अपने शोध या दूसरे कार्यक्रमों में बेयरफुट इकोलॉजिस्ट द्वारा इकट्ठी की गयी जानकारी का पूरा उपयोग नहीं किया है, पर ये इकोलॉजिस्ट ‘आदिमलाई पझानगुडियिनार प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड’ के साथ मिलकर काम करते हैं। यह कंपनी नीलगिरि के आदिवासी किसानों का एक समूह है। दोनों एक दूसरे के साथ अपने ज्ञान को साझा करते हैं जिससे दोनों को ही फायदा होता है।
परंपरा और विज्ञान ने मिलाया हाथ
एट्टाराई गांव के शहद इकट्ठा करने वाले आर. परमेश ने देखा है कि उस इलाके में मधुमक्खी के छत्तों की संख्या में भारी गिरावट आई है। उनकी संख्या पहले से लगभग आधी रह गई है। यह कमी पक्षियों की आबादी में भी देखने को मिली। उनका कहना है, “पहले यहां पक्षियों का झुंड दिखना आम बात थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसकी वजह बढ़ता तापमान हो सकता है।”
जंगली मधुमक्खियों की शहद की खोज पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंतित एक वन अधिकारी के विरोध का सामना करने के बावजूद, परमेश और उनके बेयरफुट इकोलॉजिस्ट साथी मधुमक्खी आबादी की निगरानी के अपने प्रयासों में लगे रहे। उन्होंने मधुमक्खी के छत्तों को ट्रैक करने और एक वर्ष में शहद की फसल को रिकॉर्ड करने के लिए अपने आंकड़े इकट्ठा करने की स्किल का इस्तेमाल किया। उनके आंकड़ों से पता चला कि सबसे ज्यादा शहद इकट्ठा करने वाले समय में भी सिर्फ 40% छत्तों से ही शहद निकाला जा रहा है। इसकी वजह खतरनाक इलाका और मशीनों की कमी है।
परमेश बताते हैं, “हमने अधिकारियों को अपने स्थायी तरीकों का भरोसा दिलाया, जिसमें लार्वा के साथ बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए कम से कम 50% छत्ते को बरकरार रखना शामिल है, ताकि वे हर साल उसी स्थान पर वापस आ सकें।” शुरू में अधिकारियों ने उन्हें शहद इकट्ठा करने से रोका था, लेकिन बाद में बातचीत करके वे उन्हें यह काम जारी रखने के लिए मनाने में कामयाब रहे।
वर्गीज कहती हैं कि यह जानकारी इस आम धारणा को चुनौती देने के लिए काफी थी कि सारा जंगली शहद समुदायों द्वारा ही इकट्ठा कर लिया जाता है या उनकी गतिविधियों से जंगल खाली हो रहा है। वे कहती हैं, “अब, बेयरफुट इकोलॉजी में प्रशिक्षण के साथ, समुदाय डेटा एकत्र करने और वैज्ञानिक रूप से समर्थित तर्क प्रस्तुत करने के लिए तैयार हैं।”
शिवमूर्ति के मुताबिक, अक्सर ऐसा होता है कि वन विभाग बेयरफुट इकोलॉजिस्ट द्वारा दी गयी जानकारी को स्वीकार नहीं करता। विभाग अपनी खुद की निगरानी करना ज्यादा पसंद करता है। सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व के एक रेंज ऑफिसर ने अपना नाम न बताने की शर्त पर बेयरफुट इकोलॉजिस्ट की गतिविधियों से असहमति जताते हुए सुझाव दिया कि आदिवासियों को संरक्षण प्रयासों में सुधार के लिए जंगलों को खाली कर देना चाहिए।
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जब उनसे विभाग द्वारा उपयोग किये जा सकने वाले डेटा के बारे में पूछा गया, तो रेंज ऑफिसर ने स्वीकार किया कि कुछ डेटा उपयोगी हो सकता है, लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि निगरानी केवल विभाग द्वारा विशेष क्षेत्रों तक ही सीमित रहनी चाहिए। उन्होंने एक घटना का हवाला दिया जहां मवेशी पालन पर डेटा ने विभाग के भीतर विवाद पैदा कर दिया, क्योंकि सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व में मवेशी पालन पर प्रतिबंध है। हालांकि, बेयरफुट इकोलॉजिस्टों ने ऐसा कोई अध्ययन करने से इनकार किया है।
नियम और सामुदायिक गतिशीलता
जब बालन ने 2012 के आसपास एक बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में काम करना शुरू किया, तो जंगलों की निगरानी करना इतना मुश्किल नहीं था। कीस्टोन फाउंडेशन को वन अधिकारियों से मिली अनुमतियां ही आमतौर पर काफी हुआ करती थीं। लेकिन अब वन विभाग के कड़े नियमों की वजह से वनों तक पहुंचना मुश्किल हो गया है। बेयरफुट इकोलॉजिस्टों को हर बार निगरानी के लिए मुख्य वन क्षेत्र में प्रवेश करने पर विभाग को सूचित करना पड़ता है। बालन बताते हैं, “इसके अलावा, अब हमें रेंज ऑफिसर से भी मंजूरी लेनी पड़ती है और हमारे साथ एक शिकार-रोधी निगरानीकर्ता को होना भी जरूरी है।”
महादेश ने कहा, ये नियम सिर्फ तभी लागू होते हैं जब आदिवासी ‘बेयरफुट इकोलॉजिस्ट’ के रूप में संगठन का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। जब वे अपनी जरूरतों के लिए जंगल जाते हैं, तो उन पर ये नियम लागू नहीं होते। वह आगे कहते हैं, “क्योंकि हमारा संगठन रिसर्च से जुड़े कामों के लिए आदिवासी समुदाय के साथ मिलकर काम करता है, इसलिए ये नियम सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करने और वन संरक्षण में मदद करने के लिए जरूरी हैं।”
कुछ वन अधिकारियों को चिंता है कि शिकारी अपने फायदे के लिए आदिवासियों को अपने साथ मिला सकते हैं। इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए जांच और संतुलन की आवश्यकता है कि सब कुछ सही तरीके से हो रहा है या नहीं। सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व में रेंजर के रूप में सात साल का अनुभव रखने वाले एक रिटायर्ड डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर बदरसामी सी बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के बेहतरीन काम को स्वीकार करते हुए, शिकारियों की किसी भी तरह की संलिप्तता को रोकने के लिए फाउंडेशन की जिम्मेदारी पर जोर देते हैं।
बालन बताते हैं कि बेयरफुट इकोलॉजिस्ट का चयन बहुत सावधानी और पूरी जांच-पड़ताल के बाद किया जाता है। हर गांव से ज्यादा से ज्यादा दो ही बेयरफुट इकोलॉजिस्ट चुने जाते हैं। ये चयन ग्राम सभा कमेटी द्वारा किया जाता है और इसमें उन लोगों को तरजीह दी जाती है जिन्हें जंगल की अच्छी जानकारी है। इस तरह से चयन की प्रक्रिया में गांव वालों को खुद फैसला लेने का अधिकार मिल जाता है। बालन कहते हैं, “गलितीम्बम गांव की ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव पारित करके मुझे बेयरफुट इकोलॉजिस्ट के रूप में चुना क्योंकि मुझे जंगल की अच्छी समझ है।”
बालन को वन विभाग के साथ काम करने का अच्छा खासा अनुभव है। वह याद करते हुए बताते हैं कि विभाग ने एक बार संरक्षण में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए कुछ महीनों के लिए उन्हें दो बेयरफुट इकोलॉजिस्टों को मानदेय दिया था।
कई वन अधिकारी वन संरक्षण में आदिवासी समुदायों के अमूल्य योगदान को पहचानते हैं, खास तौर पर अवैध शिकार विरोधी निगरानीकर्ताओं के रूप में। एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “केवल वे ही जानते हैं कि वन क्षेत्रों में कैसे नेविगेट किया जाए, उन क्षेत्रों में प्रवेश कैसे किया जाए और वहां से कैसे निकला जाए। जंगलों में कुछ सीमाओं से परे ट्रैकिंग मुश्किल हो जाती है।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 14 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: बेयरफुट इकोलॉजिस्टों को वैज्ञानिक डेटा संग्रह और विश्लेषण में प्रशिक्षित किया जाता है जिसे वे प्रभावी संरक्षण प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान के साथ एकीकृत कर सकते हैं। तस्वीर- मोंगाबे के लिए अभिषेक एन. चिन्नाप्पा