- ओडिशा के कोरापुट जिले में कई आदिवासी रीति-रिवाज और त्योहार प्राकृतिक संसाधनों के संग्रह और उपयोग पर आधारित हैं। इस प्रक्रिया में, संसाधनों का उपयोग करते हुए भी उन्हें संरक्षित करने का एक पारंपरिक तरीका विकसित हुआ है।
- स्वदेशी समुदायों ने मानवीय गतिविधियों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण भी वन क्षेत्र में लगातार कमी देखी है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि वन कॉमन्स को बेहतर तरीके से संरक्षित करने के लिए, आदिवासियों के ज्ञान को नए प्रशासनिक ढांचों में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, आदिवासी महिलाओं को निर्णय लेने में अधिक भूमिका देने की भी जरूरत है।
ओडिशा के कोरापुट जिले में चैता परब का मौसम है। इन दिनों ज्यादातर आदिवासी महुआ के पेड़ के फूलों से बनी स्थानीय शराब महुली का लुत्फ उठाने के लिए बेताब होते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ आम की ताजा फसल गांव के मुखिया और स्थानीय समिति के अन्य स्थानीय नेताओं की स्वीकृति और सहमति का इंतजार कर रही होती है। यहां रहने वाले लोगों के बीच इन्हें तभी साझा किया जाता है जब पुरुष शिकार पर जाते हैं और देवता के सामने एक अनुष्ठानिक पशु बलि देते हैं और साथ ही साल के बाकी महीनों के लिए समृद्धि और अच्छी फसल की प्रार्थना करते हैं।
दक्षिणी ओडिशा में अप्रैल की गर्मियों की शुरुआत में मनाए जाने वाले इस महत्वपूर्ण त्योहार के साथ जनजातियों का खासा लगाव है। उनके कई रीति-रिवाजों की तरह यह त्यौहार भी जंगलों के साथ प्राकृतिक संसाधनों के साझा उपयोग और उनके संग्रह के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। जिले में गांव के फॉरेस्ट कॉमन की मैपिंग में शामिल एक रिसर्च ग्रुप ‘असर सोशल इम्पैक्ट एडवाइजर्स’ में जेंडर और क्लाइमेट चेंज की निदेशक नेहा सैगल कहती हैं, “कोरापुट में फॉरेस्ट कॉमन्स सदियों से बस्तियों की सीमाएं तय करते आए हैं। ये लोगों के रोजमर्रा के जीवन और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों से गहराई से जुड़े हुए हैं।” वह आगे कहती हैं, “लेकिन अब ये परंपराएं धीरे-धीरे बदल रही हैं।”
फॉरेस्ट कॉमन्स उन गैर संरक्षित वनों को कहते हैं जिनका प्रबंधन स्थानीय समुदाय मिलकर करते हैं। क्षेत्र के कई आदिवासी समूह अपनी आजीविका, सांस्कृतिक परंपराओं और खाद्य सुरक्षा के लिए इन फॉरेस्ट कॉमन्स पर निर्भर होते है और वे लगातार इसके संसाधनों में गिरावट देख रहे हैं। आबादी का बढ़ना, वनों की कटाई और विकास परियोजनाओं जैसे कारक तो इसके लिए जिम्मेदार थे ही, अब इन वनों को जलवायु परिवर्तन की वजह से अप्रत्याशित मौसम पैटर्न के रूप में उभरती चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण दक्षिणी ओडिशा का कोरापुट जिला है, जो अप्रैल 2024 में समय से पहले आने वाली हीट वेव्स की चपेट में था। उस दौरान यहां का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो समुद्र तल से 860 मीटर ऊपर स्थित एक जिले के लिए असामान्य रूप से काफी ज्यादा है।
फॉरेस्ट कॉमन पर हमेशा से भूमि के स्वामित्व और अस्पष्ट स्वामित्व अधिकारों की वजह से क्षरण और अतिक्रमण का खतरा बना रहा है। तो वहीं दूसरी ओर अनियमित बारिश और गर्मी इन प्राकृतिक संसाधनों को और भी ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है। इसका सीधा असर आदिवासी समुदायों की आय पर पड़ा है, क्योंकि इनकी आजीविका इन कॉमन्स पर ही निर्भर करती है।
रीति-रिवाजों के जरिए संरक्षण
कोरापुट के आदिवासी एक साल में कम से कम 12 त्यौहार मनाते हैं। हर त्योहार एक ऐसे देवता को समर्पित होता है जो वन, नदी-धाराएं, चारागाह, नदी के तट और बाग जैसे साझा संसाधनों की रक्षा करते हैं।
गर्मी के मौसम में चैत परब, तो बारिश के मौसम के बाद ‘नुआखाई परब’ की धूम रहती है। इस दौरान यह समुदाय सबसे पहले इमली, कद्दू के पत्ते, कंद और मक्का की नई फसल देवता को चढ़ाते हैं और फिर खुद खाते हैं। सर्दियों में पूस परब मनाया जाता है, जहां पशुओं को सम्मान दिया जाता है। मवेशियों को जंगली कंद और बाजरा से बनी खिचड़ी खिलाई जाती है और फिर उन्हें चरने के लिए साझा जमीन पर ले जाया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में गौचर कहा जाता है।
कोरापुट के लामतापुट ब्लॉक के बड़ाकिचब गांव के पूर्व नायक (मुखिया) दामु कृषाणि के मुताबिक, अच्छी फसल की कामना के लिए देवता को हर मौसम में अलग-अलग फसलें भेंट की जाती हैं। वह कहते हैं, “किस त्यौहार में क्या भेंट देनी है, यह पहले से तय होता है।” उन्होंने आगे कहा, “इनमें से ज्यादातर चीजें फॉरेस्ट कॉमन्स से ली जाती हैं। और हर कोई इस बात का सम्मान करता है कि उसे अपना हिस्से से अधिक नहीं लेना है। ये संसाधन कभी खत्म न हों, इसके लिए इन रीति-रिवाजों का पालन करना जरूरी है।”
हर गांव में एक नायक (मुखिया), एक पुजारी और एक देसरी (स्थानीय वैद्य) नेतृत्व की भूमिका निभाते हैं। ये लोग न सिर्फ धार्मिक रीति-रिवाजों और सामुदायिक मामलों की देखरेख करते हैं, बल्कि आपसी झगड़ों को सुलझाने और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को अपनाने में भी आगे रहते हैं। पंचायत या ग्राम सभा से अलग, यह क्वासी- काउंसिल कानूनी तरीकों का सहारा लिए बिना ही साझा संसाधनों के दुरुपयोग से जुड़े विवादों को सुलझा लेती है। दो साल पहले, पुतपंडी गांव के एक मामले से इसे आसानी से समझा जा सकता है। यहां के एक निवासी ने सामुदायिक तालाब में मछली पालन शुरू कर दिया। इसी गांव में रहने वाले रबी गदबा बताते हैं, “जब मछली पकड़ने का समय आया, तो काउंसिल ने हस्तक्षेप किया और फैसला सुनाया कि मछली की बिक्री से होने वाले मुनाफे का दो-तिहाई हिस्सा बाकी लोगों के साथ साझा किया जाएगा। उसके बाद से इस गांव में साझा संसाधनों के दुरुपयोग या विवाद की कोई घटना नहीं हुई है। सब लोग नियमों का पालन करते हैं।”
त्योहार कब शुरू होंगें और कब खत्म होंगें, यह तय करने का अधिकार पुजारी और देसारी के पास होता है। मान्यता तो ये भी है कि रीति-रिवाजों का पालन न करने पर देवता नाराज हो सकते हैं और काउंसिल के सदस्यों को श्राप दे सकते हैं।
गड़बा, परजा और भूमिया जैसी आदिवासी समुदाय पवित्र वनों की पूजा करते हैं। ये वन विशिष्ट संस्कृति में विशेष धार्मिक महत्व रखने वाले अछूते वनों के छोटे-छोटे हिस्से होते हैं। ओडिशा में 2,000 से भी ज़्यादा पवित्र वन हैं, जिनमें से 322 सिर्फ कोरापुट में हैं। भुवनेश्वर के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान ने कोरापुट के पांच आदिवासी ब्लॉक में फैले तीन पवित्र वनों का सर्वे किया, जहां 300 लोग रहते हैं। सर्वे में इन वनों में कुल मिलाकर 66 औषधीय पौधों और अन्य 54 खाद्य पौधों की प्रजातियां पाई गईं। कटक के कंदरपुर डिग्री कॉलेज में लेक्चरर और इस अध्ययन के सह-लेखक सिद्धांत एस. बिसोई बताते हैं, “अन्य साझा संसाधनों के विपरीत, पवित्र वनों को आमतौर पर अछूता छोड़ दिया जाता है ताकि जंगल में रहने वाले देवता नाराज न हों।”
आजीविका का घटता स्रोत
हालांकि सभी त्योहारों और रस्मों की देखरेख क्वासि-काउंसिल करती है, लेकिन जंगल की रोजमर्रा की देखभाल की जिम्मा महिलाओं का होता है, जो वनोपज को इकट्ठा करने का मुख्य काम करती हैं। हाथीपाखना गांव, जिसका नाम वहां स्थित एक विशाल हाथी के आकार की चट्टान के नाम पर रखा गया है, में रहने वाली प्रतिमा गदबा का मानना है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इन संसाधनों के स्थायी उपयोग की बेहतर समझ है। वह कहती हैं, “अगर पुरुष जंगल जाते हैं, तो वे ज्यादा कमाई के लिए पूरे पौधे को उखाड़ देते हैं या पूरी डाल ही काट देते हैं। लेकिन महिलाएं सिर्फ उतना ही लेती हैं जितनी जरूरत होती है। बाकी का हिस्सा वह छोड़ देती हैं ताकि पौधा फिर से उग सके।”
हाथीपाखना में महिलाएं नौ तरह के कंद और आठ प्रकार के मशरूम के अलावा अन्य प्रकार की मौसमी उपज को संरक्षित करती हैं। इनका उपयोग खाने के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता है। बाकी जो भी बचता है उसे बाजार में नॉन-टिंबर वन उपज (NTFP) के रूप में बेच दिया जाता है। ये इस क्षेत्र के ज्यादातर परिवारों के लिए आय का बड़ा जरिया है।
बिसोई के एक सर्वे से पता चलता है कि ओडिशा के कोरापुट, नवरंगपुर और खुर्दा जिलों के आदिवासी समुदाय 112 अलग-अलग प्रकार के जंगली खाद्य पौधों का संरक्षण और उपयोग करते हैं। अभी इस सर्वे का पीर-रिव्यू किया जाना बाकी है।
परंपरागत रूप से इन गांवों में झूम खेती की जाती रही है। इसके लिए सबसे पहले पहाड़ी ढलानों पर मौजूद जंगल के हिस्सों को काटकर जलाया जाता है। उस पर पांच से सात साल तक खेती की जाती है। उसके बाद, जमीन को एक दशक से भी अधिक समय के लिए खाली छोड़ दिया जाता है ताकि मिट्टी की उर्वरता वापस आ सके और जंगल फिर से हरा-भरा हो सके।
हालांकि, वन विभाग वनों की कटाई को रोकने के लिए खेती के इस तरीके को धीरे-धीरे खत्म करता जा रहा है। जिले में खंडित वन क्षेत्र 1990 में 688 थे, जो 2013 में बढ़कर 702 हो गए। पिछले दशकों में बांधों के विस्तार के बाद अत्यधिक चराई, जंगल की आग, झूम खेती और अवैध कटाई जैसे मानवजनित दबावों ने जंगलों के विनाश में योगदान दिया है। भूमि उपयोग में परिवर्तन और विशेष रूप से कृषि के विकास जिले में 1990 और 2004 के बीच वन क्षेत्रों में 13% की कमी और गैर-वन क्षेत्रों के 63.7% की वृद्धि का कारण बना है।
दरअसल यह क्षेत्र मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर है, इसलिए यहां लोग पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेती करना पसंद करते हैं। साथ ही, उपज बढ़ाने के लिए मिश्रित और अंतर-फसल पद्धतियों का भी उपयोग करते हैं। अंबागोंडली गांव के नायक बांदा मुदली बताते हैं, “सीढ़ीदार खेतों से पानी ढलान से धीरे-धीरे नीचे आता है, जिससे मिट्टी का कटाव कम होता है और पानी को मिट्टी में रिसने में मदद मिलती है।”
बदलते मौसम से संसाधनों पर असर
बदलते मौसम पैटर्न के कारण पारंपरिक खेती और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर खासा असर पड़ रहा है। किसान रामा सिसा कहते हैं, “पहले हमारे गांव के आस-पास पांच से छह धाराएं थीं, जिससे आसानी से खेतों की सिंचाई हो जाया करती थी। लेकिन अब वे भी सूख गई हैं।”
आसार और कोरापुट स्थित गैर-सरकारी संगठन, सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट (SPREAD) ने 10 गांवों के साथ मिलकर मैपिंग की और वर्तमान में उपलब्ध फॉरेस्ट कॉमन्स संसाधनों की तुलना 1963 के राजस्व रिकॉर्ड से की गई। रिपोर्ट के अनुसार, बड़ाकिचब गांव में कुल वन भूमि 1963 में 895.25 एकड़ थी, जो 2023 में घटकर 540.19 एकड़ रह गई। यह कमी आंशिक रूप से कृषि के लिए भूमि के इस्तेमाल और कुछ मामलों में, वन अधिकार अधिनियम के तहत व्यक्तिगत वन अधिकारों (IFR) के दावों के कारण हुई है। इन्हें कॉमन फॉरेस्ट भूमि से जमीन काटकर दी गई है।
लेकिन इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात पैदावार में कमी है। हाथीपाखना गांव के निवासियों ने बताया कि 26 प्रकार के कंद, बीज, पौधे, मशरूम और फलों की पैदावार में गिरावट आई है। तरंगा (डायोस्कोरिया टोमेंटोसा जे.कोएनिग एक्स स्प्रेंग) जैसी फसल की पैदावार पांच क्विंटल से घटकर तीन क्विंटल रह गई है और इमली की पैदावार लगभग 50 क्विंटल से घटकर 30 क्विंटल पर पहुंच गई। महुआ, साल के बीज और 14 अन्य वन उत्पादों की पैदावार पर भी बुरा असर पड़ा है। निवासियों ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि वे अब जंगल में आंवला, बांस, अमरूद, नीम, जामुन और करंजी जैसी अधिक सख्त किस्में लगा रहे हैं।
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अनियमित वर्षा और पानी के संकट से निपटने के लिए अंबागोंडली जैसे कुछ समुदायों ने कुछ समाधान ढूंढे हैं। कुछ साल पहले, जल संचयन के उपायों पर चर्चा करने के लिए अंबागोंडली के निवासियों ने एक बैठक की थी। इसके बाद, उन्होंने दो साल पहले एक सीढ़ीदार बांध प्रणाली बनाई ताकि पहाड़ी से नीचे बहने वाले पानी को इकट्ठा किया जा सके और उसे संग्रहित किया जा सके। मुदली बताते हैं, “हमने बांधों को बांस जैसे पौधों से मेढ़ बनाकर मजबूत किया है। बांस मिट्टी को स्थिर करने और कटाव को रोकने में मदद करते हैं, साथ ही खाइयों में पानी को रोककर रखते हैं।” हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद इस साल अप्रैल में सभी खाइयां सूख गईं। वह कहते हैं, “हालांकि इससे निश्चित रूप से कुछ हद तक पानी की कमी और मिट्टी के कटाव को कम करने में मदद मिली है, लेकिन अभी भी ऐसे कई दिन आते हैं जब यह खाईयां पूरी तरह से सूखी रहती हैं।”
वन क्षरण के आर्थिक प्रभाव
2019 में प्रकाशित कोरापुट में 38 वर्षों में तापमान और वर्षा पैटर्न के विश्लेषण से पता चला है कि पिछले कुछ सालों में कम बारिश और औसत से 10% से अधिक तापमान वृद्धि के कारण चावल और मक्का की पैदावार पर असर पड़ा है। ओडिशा में NTFP के संग्रह और बिक्री पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का गहन अध्ययन नहीं किया गया है। लेकिन, अगर 2022 में पड़ोसी झारखंड के 62 गांवों में किए गए एक अध्ययन पर नजर डालें तो पता चलेगा कि यहां जलवायु परिवर्तन की वजह से NTFP की गुणवत्ता खराब हुई है और 2012 से 2020 के बीच बाजार की कीमतों में सीधी गिरावट आई है। राल की कीमत 350 रुपये से गिरकर 150 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई, जबकि महुआ की कीमत 22 रुपये से घटकर 20 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई और इमली की कीमत 22 रुपये से घटकर 18 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई।
फॉरेस्ट कॉमन्स की जमीन के क्षरण से लोगों के आहार और आदतों में भी बदलाव आया है। प्रतिमा बताती हैं, “बचपन में हम चावल की अलग-अलग किस्मों की खेती करते थे। लेकिन अब हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) से मिलने वाले चावल पर निर्भर हैं।” कोरापुट में गर्मियों के महीनों के दौरान खेती और वन उपज कम होती है। इसके चलते लोगों की बड़ी संख्या में काम की तलाश में पलायन करना पड़ रहा है।
SPREAD के संस्थापक विद्युत मोहंती के अनुसार, साझा संसाधनों को समृद्ध बनाना ही सही तरीका है। मोहंती मानते हैं कि स्थानीय समितियों की मौजूदगी के बावजूद, पंचायती राज जैसी औपचारिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं की शुरुआत के साथ ही साझा वन भूमि की सुरक्षा में नेतृत्व की भूमिका कुछ कम हुई है। वह कहते हैं, “सवाल यह है कि इस ज्ञान और नेतृत्व प्रणाली को इन नई प्रशासनिक व्यवस्थाओं में कैसे एकीकृत किया जाए? एक तरीका यह है कि कॉमन की सुरक्षा के लिए एक भागीदारी योजना विकसित की जाए और इसे ग्राम पंचायत विकास स्तर की योजना में शामिल किया जाए।”
सैगल कॉमन्स के प्रबंधन में महिलाओं को अधिक निर्णय लेने का अधिकार देने के महत्व पर जोर देती हैं। वह कहती हैं, “महिलाएं NTFP की प्राथमिक संग्रहकर्ता होती हैं और स्वयं सहायता समूहों में सक्रिय रूप से भाग लेती हैं। वे NTFP संग्रह के जरिए सीधे तौर पर साझा संसाधनों के प्रबंधन में शामिल हैं।” वह आगे कहती हैं, “जहां महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों (SHG) जैसे मंचों तक पहुंच है, वहां वे अपने निर्णय लेने की शक्ति का उपयोग NTFP संग्रह से आजीविका कमाने और उनके सतत उपयोग की वकालत करने के लिए कर सकती हैं, ताकि कॉमन्स का संरक्षण सुनिश्चित हो सके।”
हालांकि इस सबके बीच, कोरापुट के आदिवासियों के दैनिक जीवन में जैव विविधता पर आधारित परंपराओं का पालन करना आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। रबी गदाबा ने कहा, “भले ही अब संसाधन मिलना मुश्किल हो, लेकिन हम तब तक उनकी तलाश नहीं छोड़ेंगे जब तक हम देवता को प्रसन्न नहीं कर देते। उत्सव तो मनाना ही है।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 22 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: हाथीपाखना गांव का निवासी हुंडी या मंदिर में प्रार्थना कर रहा है। तस्वीर- सिमरिन सिरुर/मोंगाबे