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सूखे इलाकों में फसल उगाने के लिए परंपरागत राम-मोल कृषि तकनीक पर भरोसा

राम-मोल किसान खरपतवार हटाने के लिए हल्की जुताई जैसी प्राकृतिक खेती तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसे स्थानीय भाषा में विखेड़ा कहा जाता है। तस्वीर- सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर के सौजन्य से।

राम-मोल किसान खरपतवार हटाने के लिए हल्की जुताई जैसी प्राकृतिक खेती तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसे स्थानीय भाषा में विखेड़ा कहा जाता है। तस्वीर- सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर के सौजन्य से।

  • गुजरात के सूखाग्रस्त और बारिश पर निर्भर कच्छ जिले में राम-मोल कृषि पद्धति सूखे इलाकों में भी अच्छी फसल सुनिश्चित करती है।
  • फसल उगाने की इस अनोखी तकनीक में चार से पांच अलग-अलग तरह की फसलों के बीज एक साथ बोये जाते हैं। पानी का सही इस्तेमाल करने, मिट्टी की सेहत सुधारने, बीजों की अलग-अलग किस्मों को बचाए रखने और किसानों को खाने और कमाई की सुरक्षा देने में खासी यह तकनीक काफी मददगार साबित होती है।
  • राम-मोल के जरिए मिट्टी की सेहत और उसकी पैदावार के पोषण पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से हमें शुष्क भूमि की खेती में पारंपरिक, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल तरीकों को अपनाने की प्रेरणा मिल सकती है।

मई का महीना करीब है और कच्छ के धरमपुर गांव में सूरज अभी से आग बरसा रहा था। इसकी परवाह किए बिना मवाभाई डांगर अपने अरंडी की फसल का जायजा ले रहे हैं। इसने उन्हें इस बार तीन अच्छी फसलें दी हैं और साथ ही तेज धूप से मिट्टी को भी बचाए रखा है। यह इस साल की उनकी आखिरी खरीफ फसल है। वह कई चरणों में नवंबर से मई तक बाजरा, दालें और तिलहन जैसी फसलों की कटाई कर चुके हैं।

गुजरात के इस सूखाग्रस्त और बारिश पर निर्भर जिले में किसान खरीफ के मौसम में भी भरपूर फसल ले रहे हैं, यह थोड़ा हैरान कर देने वाला है। लेकिन इस इलाके के किसानों के बीच ‘राम-मोल’ यानी ‘भगवान भरोसे फसल’ नामक एक प्राचीन, सूखा-प्रतिरोधी कृषि-पारिस्थितिकी पद्धति खासी लोकप्रिय है और इसने उन्हें कम ही निराश किया है। 

सालों से धूप में मेहनत करते आ रहे 72 वर्षीय किसान धन्जीभाई डांगर के माथे पर उभरी लकीरें दूर से ही नजर आ रही थीं। उन्होंने बताया, “हम अपनी फसल के लिए अच्छी और समय पर बारिश के साथ-साथ अनुकूल मौसमी परिस्थितियों की उम्मीद करते हुए, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ देते हैं।” वह आगे कहते है, “राम-मोल के लिए कई फसलों का मिश्रण मौजूदा जलवायु और हर खेत की अलग-अलग उत्पादकता को देखकर तैयार किया जाता है। अगर बारिश कम हो, तो सिर्फ एक या दो फसल ही खराब हो सकती है, लेकिन बाकी फसलें अच्छी पैदावार देती हैं। हमारे पूर्वजों ने इस पद्धति पर बहुत सोच-विचार किया था। कई पीढ़ियों से, राम-मोल हमें अनाज और चारा मुहैया करा रहा है।” 

परंपरागत ज्ञान की जीत

“सब कुछ भगवान भरोसे या प्रकृति पर छोड़ देने” की इस धारणा के पीछे, सदियों से चली आ रही उस गहरी समझ का हाथ है जो किसानों ने प्रयोगों और असफलताओं से हासिल की है। राम-मोल, मिट्टी विज्ञान, जड़ प्रणालियों, देशी बीजों और कृषि गतिविधियों के सही समय के बारे में सदियों से इकट्ठा किए गए ज्ञान का अद्भुत मेल है। यह अनियमित वर्षा और सूखे जैसी परिस्थितियों के प्रभाव को कम करने में खासी मदद करता है। इसमें पानी का उचित इस्तेमाल किया जाता है, मिट्टी की सेहत सुधारती है और देसी बीजों की किस्मों को संरक्षित करने और उन्हें बढ़ाने में भी मदद मिलती है। कच्छ में भूमि की उत्पादकता कम होने के कारण भले ही उपज कम हो, लेकिन खेती का यह पारंपरिक तरीका फसल को सूखे से बचाने, भोजन और आय की जरिया बना हुआ है।

आमतौर पर, राम-मोल में सात वर्षा आधारित फसलों में से चार या पांच फसलें उगाई जाती हैं। इनमें मिलेट्स (बाजरा, ज्वार); दालें (ग्वार, लोभिया, मूंग) और तिलहन (तिल, अरंडी) शामिल हैं। ये फसलें गहरी और उथली जड़ों वाले पौधों का मिश्रण हैं जो अलग-अलग वर्षा की स्थिति में उगती हैं और सूखे से बची रहती हैं। ज्वार को चारे के लिए खास तौर पर लोभिया की फलियों के साथ मिलाकर उगाया जाता है।  

बीजों का मिश्रण फसल की अवधि, कटाई के तरीके, जड़ प्रणालियों और घरेलू खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता है। फलियों में नाइट्रोजन को बनाए रखने के गुण होते हैं और ये मिट्टी की सेहत में सुधार करती हैं। ये फलियां कच्छ के शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का एक बड़ा जरिया हैं। वहीं ग्वार एक सूखा-प्रतिरोधी फलीदार फसल है जिसकी जड़ें गहरी होती हैं। पुराने समय में इसे कच्छ में भोजन और मवेशियों के चारे के लिए उगाया जाता था। लेकिन अब इसे बेचा भी जाता है – इसके एंडोस्पर्म से निकाले गए गोंद का इस्तेमाल खाद्य प्रसंस्करण, फार्मा, सौंदर्य प्रसाधन और यहां तक कि ऑयल ड्रिलिंग और एक्सप्लोसिव इंडस्ट्री में किया जाता है।

कच्छ में कुछ बीज दिखाते हुए एक महिला। परंपरागत रूप से महिलाएं राम-मोल बुवाई के लिए बीज मिश्रण तैयार करती हैं। तस्वीर- सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर 
कच्छ में कुछ बीज दिखाते हुए एक महिला। परंपरागत रूप से महिलाएं राम-मोल बुवाई के लिए बीज मिश्रण तैयार करती हैं। तस्वीर- सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर

बाजरा जलवायु के अनुकूल है और कृषि पारिस्थितिकी के लिहाज से इस क्षेत्र के लिए अनुकूल है। पुराने समय से ही बाजरा यहां के भोजन में मुख्य अनाज था और ज्वार का उपयोग मवेशियों के चारे के रूप में किया जाता है। तिल से तेल निकालते हैं और अरंडी जिले की एक प्रमुख व्यावसायिक फसल है।  

पारंपरिक रूप से यहां की महिला किसान ही फसलों का मिश्रण तैयार करती आई हैं। भुज तालुक के जवाहर नगर गांव की काकूबेन अपने गांव में देसी बीजों का एक बीज बैंक बना रही है। वह एक महिला समूह का हिस्सा है और इस काम में उन्हें भुज के ‘सात्विक – प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर’ नामक संगठन से मदद मिली है। यह संगठन राम-मोल की पारंपरिक कृषि तरीके को संरक्षित करने में किसानों की सहायता करता है। काकूबेन कहती हैं, “हम चाहते हैं कि हमारा गांव बीज के मामले में आत्मनिर्भर हो जाए।”

इस समूह के साथ लगभग 40 महिलाएं जुड़ी हैं जो देसी बीजों की खरीद, संरक्षण और बिक्री करती हैं। साथ ही जवाहर नगर में बाजरा की खेती को भी पुनर्जीवित कर रही हैं। कृषि मंत्रालय के अनुसार, मुख्य रूप से गेहूं की लोकप्रियता के कारण, कच्छ में बाजरा की खेती का रकबा 2001-02 में 96,900 हेक्टेयर से घटकर 2019-20 में 17,182 हेक्टेयर रह गया है। यह समूह अभी शुरुआती चरण में ही है, लेकिन यह मूल्य वर्धित उत्पाद भी बनाता है जैसे कि धुली हुई मूंग दाल – पिछले साल 300 किलोग्राम मूंग दाल तैयार करके गांव वालों को बेची गई थी।

कुछ दूरी पर, मवाभाई और उनकी पत्नी धुनीबेन अपनी 22 एकड़ जमीन पर फसल उगाने पर सोच-विचार कर रहे हैं। धुनीबेन कहती हैं, “हम मौसम और बारिश के पैटर्न को देखकर आगे बढ़ते हैं। अगर बारिश जल्दी या देर से आती है, तो बीजों के मिश्रण को बदल दिया जाता है।” उन्होंने आगे कहा, “राम-मोल खेती में बाजरा, मूंग, लोबिया, तिल और अरंडी एक साथ उगाई जाने वाली बेहतरीन फसले हैं। ग्वार की खेती में सबसे ज्यादा मेहनत लगती है और इसे आमतौर पर लोबिया, तिल और अरंडी के साथ बोया जाता है।”

किसानों के लिए आमदनी का जरिया है अरंडी

भारत दुनिया में अरंडी के बीजों का सबसे बड़ा उत्पादक है और गुजरात इसमें सबसे आगे है। भारत सरकार की फसल उत्पादन सांख्यिकी सूचना प्रणाली के अनुसार, 2019-2020 में कच्छ में 133,589 हेक्टेयर में अरंडी की खेती की गई थी, जो गुजरात में अरंडी की खेती का सबसे बड़ा क्षेत्र है।

कुंभरिया गांव में किसान ज्वार के बीजों का चयन करते हुए। तस्वीर: सात्विक - प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर।
कुंभरिया गांव में किसान ज्वार के बीजों का चयन करते हुए। तस्वीर: सात्विक – प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर।

राम-मोल की मिली-जुली खेती में, जब बाकी फसलें कट जाती है, तो अरंडी का पौधा तेज़ी से बढ़कर ऊंचा और घना हो जाता है। यह साल के अधिकांश समय तक फसल को ढके रहता है, जब तक कि  खरीफ की फसल के लिए मिट्टी तैयार करने के लिए इसे उखाड़ा नहीं जाता। फसल चक्र के दौरान अरंडी की फलियों तीन से चार बार उपज देती हैं। अब चाहे इसे फसल को एक एकड़ जमीन अकेले लगाया जाए या फिर अन्य फसलों के साथ, इसकी उपज लगभग एक समान ही रहती है, क्योंकि अरंडी एक लंबा पौधा है और इसे लगभग 36 इंच की दूरी पर बोया जाता है। यह दिखाता है कि कैसे राम-मोल प्रणाली एक ही लागत में ज्यादा फसलें और ज्यादा मुनाफा देकर जमीन का सही इस्तेमाल करने में मदद करती है।

अरंडी फसल को धूप से बचाती हैं, तो वहीं लोबिया मल्चिंग का काम करती है। ये दोनों फसलें मिट्टी की नमी को बनाए रखने और कटाव को कम करने में मदद करती हैं, जिससे मिट्टी में पोषक तत्वों में सुधार होता है। आमतौर पर कच्छ में कम्पोस्टिंग, मल्चिंग जैसी तकनीकों का उपयोग नहीं किया जाता है।

फसलों की कटाई चरणों में की जाती है। तिल की कटाई लगभग 90 दिनों में और बाजरा और दालों की कटाई 120 दिनों में होती है। अरंडी की फसल 240 दिनों में तैयार हो जाती है। धुनीबेन राम-मोल के बारे में कहती हैं, “ग्वार की फसल मौसम के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होती है। लेकिन, अगर ग्वार की फसल खराब हो भी जाए, तो भी आमतौर पर लोबिया अच्छी पैदावार देती है।”

जलवायु परिवर्तन के बावजूद खाद्य सुरक्षा

पारंपरिक रूप से किसान सूखे और फसल खराब होने की स्थिति से बचने के लिए लगभग सात साल तक चलने के लिए बीज जमा करके रखते हैं। खुले परागण वाले बीज सबसे स्वस्थ पौधों से एकत्र किए जाते हैं। अगर अरंडी को छोड़ दें, तो राम-मोल की खेती में सभी फसलों के लिए देशी बीज ही इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। 

कम लागत वाली वर्षा आधारित खेती के इस तरीके के बारे में बताते हुए मावभाई कहते हैं, “खरपतवार से छुटकारा पाने के लिए हम विखेडा (जुताई) पर भरोसा करते हैं। वहीं गीली खाद के लिए गोबर और तालाबों से गाद का इस्तेमाल किया जाता हैं। हमारे देशी बीज कीटों से सुरक्षित हैं।” जून या जुलाई की शुरुआत में पहली बारिश के बाद किसान जुताई और निराई करते हैं।

कच्छ में जहां गर्मियों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है और सर्दियों में शून्य से नीचे चला जाता है, जहां बारिश कम होती है और कई दिनों तक सूखा पड़ता है, वहां राम-मोल पर टिके रहने का कारण बताते हुए कहते मवाभाई कहते हैं, “सूखी खेती (वर्षा आधारित कृषि) और प्रकृति के रहमोकरम पर निर्भर होने के बावजूद, हमारी पारंपरिक खेती का यह तरीका फायदेमंद हैं।”

जवाहर नगर की महिलाएं एक बीज बैंक बना रही हैं ताकि गांव के पास बीजों की कमी न रहे। 40 महिलाओं का एक समूह देसी बीजों को इकट्ठा करने, उनका संरक्षण करने और उन्हें बेचने का काम कर रहा है। तस्वीर: प्रियम्वदा कौशिक
जवाहर नगर की महिलाएं एक बीज बैंक बना रही हैं ताकि गांव के पास बीजों की कमी न रहे। 40 महिलाओं का एक समूह देसी बीजों को इकट्ठा करने, उनका संरक्षण करने और उन्हें बेचने का काम कर रहा है। तस्वीर: प्रियम्वदा कौशिक

‘सात्विक – प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर’ के परियोजना निदेशक प्रवीण मुछाडिया कहते हैं, “हमारे अध्ययन के अनुसार, पिछले 26 सालों में, सूखे के सालों में भी राम-मोल तरीक से खेती करने वाले किसानों ने अपनी खाद्य सुरक्षा और बीजों पर अपना अधिकार बनाए रखा है।”

सात्विक के बीज संरक्षण कार्यक्रम ने बाजरा की 17 किस्मों, ज्वार की 11 किस्मों, मूंग की 17 किस्मों, ग्वार की सात किस्मों, लोबिया और तिल की क्रमशः पांच-पांच किस्मों और अरंडी की चार किस्मों की पहचान की है जो राम-मोल मिश्रण का आधार हैं।

राम-मोल तरीके से खेती करने वाले किसानों के लिए मिश्रित खेती से “लाभ” का मतलब परिवार की खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने और मवेशियों के चारे की लागत की भरपाई करने से भी है। धूनीबेन कहती हैं कि उनके पास आठ मवेशी हैं जिनके चारे पर रोजाना तकरीबन 1000 रुपये खर्च करने पड़ते हैं।

हालांकि राम-मोल खेती की लागत कम है, लेकिन चरणों में कई कटाई होने के कारण इसमें एकल फसल की तुलना में अधिक श्रम लगता है। मुछाडिया बताते हैं, “कच्छ में, सभी फसलों की कटाई अभी भी हाथ से की जाती है। एकल फसल की तुलना में राम-मोल में लगभग 30% अधिक श्रम दिवसों की आवश्यकता होती है।”

कच्छ के उमेदपर गांव में एक परिवार अपनी राम-मोल की मिश्रित फसल का निरीक्षण करते हुए। मजदूरी की ऊंची लागत से बचने के लिए अक्सर परिवार के सदस्य ही अपने खेतों में काम करते हैं। (तस्वीर: सात्विक- प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर)
कच्छ के उमेदपर गांव में एक परिवार अपनी राम-मोल की मिश्रित फसल का निरीक्षण करते हुए। मजदूरी की ऊंची लागत से बचने के लिए अक्सर परिवार के सदस्य ही अपने खेतों में काम करते हैं। (तस्वीर: सात्विक- प्रोमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर)

मवाभाई खेत में काम करने वालों पर प्रति एकड़ लगभग 8000 रुपये खर्च करते हैं। वह कहते हैं, “हमारे परिवार के ज्यादातर लोग खेतों में काम करते हैं। प्राकृतिक खेती वो परिवार ही कर पाते हैं, जो अपने खेतों में खुद काम करते हैं, ताकि मजदूरी की ऊंची लागत से बचा जा सके।” मौसम के अनुसार प्रति एकड़ लाभ 15,000 रुपये से लेकर 8500 रुपये तक हो सकता है।

एक एकड़ जमीन पर, फसल की पैदावार के एक अनुमान से पता चलता है कि राम-मोल खेती के विभिन्न संयोजनों में, लगभग चार किलोग्राम ग्वार से 200 से 400 किलोग्राम फसल प्राप्त होती है; 20 ग्राम तिल से 25 से 40 किलोग्राम; 100 ग्राम लोबिया से 150 से 200 किलोग्राम; और दो किलोग्राम अरंडी से 250-300 किलोग्राम उपज मिलती है।

धीरे-धीरे व्यावसायिक फसलों की ओर 

नमक के मैदानों, नमक के दलदल और समुद्र से घिरा कच्छ भौगोलिक रूप से अद्वितीय है। इस क्षेत्र की मिट्टी में पीएच वैल्यू काफी ज्यादा है और कार्बनिक कार्बन, नमी, और मैक्रो व सूक्ष्म पोषक तत्व कम हैं। इसकी वजह से यहां की जमीन कम उपजाऊ है। जिले में खेती के अंतर्गत आने वाली लगभग 70% भूमि वर्षा आधारित क्षेत्र के अंतर्गत आती है और इस क्षेत्र में सबसे कम वर्षा होती है (वार्षिक औसत 376 मिमी)। जलवायु परिवर्तन ने वर्षा के पैटर्न को भी बदल दिया है, जिससे औसत वार्षिक वर्षा में तो वृद्धि हुई है, पर बारिश के बीच लंबे समय तक सूखे की स्थिति बनी रहती है। यह एक ऐसा बदलाव है, जो जिले में मुख्य रूप से वर्षा आधारित कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक, पिछले तीन दशकों में कच्छ में औसत मौसमी वर्षा 378 मिमी से बढ़कर 674 मिमी तक पहुंच गई है।

यहां की मिट्टी कम उपजाऊ है, इसलिए कच्छ में खेती बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भरता और घरेलू खपत के लिए की जाती रही है। लेकिन बात अगर जमीन की करें तो यहां के किसानों के पास देश के बाकि हिस्सों के मुकाबले काफी ज्यादा जमीन है – देश में औसतन जोत का आकार 1.15 हेक्टेयर है, जबकि कच्छ में यह 3.51 हेक्टेयर है। कच्छ में लगभग 65% जोत मध्यम और बड़े किसानों की हैं।


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2000 के दशक की शुरुआत से ही जिले के किसानों ने बाजार-उन्मुख नकदी फसलों की ओर रुख करना शुरू कर दिया था। इस दौरान कच्छ में उच्च-मूल्य वाली बागवानी फसलों की ओर जाने का एक और महत्वपूर्ण बदलाव नजर आया है। इसकी बड़ी वजह भूजल तक पहुंच और सूक्ष्म सिंचाई तरीकों का इस्तेमाल है। कच्छ के जिला बागवानी अधिकारी, एम.एस. परसानिया कहते हैं, “अनार, जो एक दशक पहले कच्छ में लाया गया था, अब 20,000 हेक्टेयर में उगाया जाता है। आम और खजूर के साथ, बागवानी फसलें अब लगभग 58,000 हेक्टेयर में फैली हुई हैं।” 2022 में, गुजरात सरकार ने 337 किलोमीटर लंबी नर्मदा पानी की पाइपलाइन को मंजूरी दी, जो कच्छ के छह तालुकों के 77 गांवों में 81,000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई करेगी।

स्थायी कृषि समाधान

तो फिर ऐसी स्थिति में, जब पानी और संसाधनों का अत्यधिक उपयोग करने वाली नकदी फसलों की ओर तेजी से रुख किया जा रहा है, पारंपरिक वर्षा आधारित खेती पद्धतियों की क्या प्रासंगिकता है?

स्थायी कृषि समाधान प्रदान करने में राम-मोल जैसी सामुदायिक ज्ञान प्रणालियों के महत्व को समझाते हुए, केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), भुज के प्रधान वैज्ञानिक और प्रमुख, डॉ मनीष कण्वत कहते हैं, “सामुदायिक ज्ञान प्रणालियां समय के साथ परिपूर्ण होती जाती हैं। राम-मोल का वैज्ञानिक अध्ययन हमें उपज में सुधार करने के तरीके खोजने में मदद कर सकता है और अगर संभव हो तो इन कृषि संबंधी तरीकों का विस्तार कर सकता है। यह केवल एक पद्धति नहीं है, बल्कि समुदाय द्वारा विकसित एक ‘कृषि तकनीक’ है। सबसे पहले हमें मिट्टी के कार्बन, सूक्ष्मजीवों की आबादी पर इसके प्रभाव का अध्ययन करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि यह उपज के पोषण घनत्व को कैसे प्रभावित करता है।” 

जवाहर नगर गांव में महिलाओं के समूह की सदस्या रानीबेन मूंग की छंटाई करते हुए। तस्वीर- आदिल थेबा, सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर के सौजन्य से।
जवाहर नगर गांव में महिलाओं के समूह की सदस्या रानीबेन मूंग की छंटाई करते हुए। तस्वीर- आदिल थेबा, सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर के सौजन्य से।

सात्विक प्राकृतिक खेती के तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में गुजरात राज्य के साथ साझेदारी करता है। उन्होंने राम-मोल के तहत आने वाले रकबे में गिरावट देखी है। अब किसान व्यावसायिक फसलों की ओर रुख करने लगे हैं। जनवरी 2001 में कच्छ में आए 7.6 तीव्रता के भूकंप और तीन लाख से अधिक इमारतों के धंस जाने के कारण बीजों को “कोठों” – मिट्टी, गाय के गोबर और भूसे से बने ढांचों – में जमा करके रखने की पारंपरिक पद्धति भी प्रभावित हुई है। पिछले कुछ सालों में, किसानों ने बीजों को प्लास्टिक के ड्रमों में संरक्षित करना शुरू कर दिया है। बीजों को राख के साथ मिलाकर संरक्षित करना एक आम बात है। मूंग को रेत या राख के साथ मिलाकर ड्रम में बंद कर दिया जाता है। तिल और अरंडी को नीम के पत्तों के साथ संग्रहीत किया जाता है। सील करने से पहले ऊपर से रेत की परतें बिछाई जाती हैं।

ऐसे में जब किसान व्यवसायिक खेती की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, भुज तालुक के लोधई गांव के रमेश डांगर जैसे युवा किसान उम्मीद की किरण जगा रहे हैं। रमेश पहले ट्रक ड्राइवर थे। वह अपनी नौकरी छोड़कर अपने पारिवारिक खेतों की ओर वापस आ गए। उन्होंने कहा कि वे राम-मोल की मिली-जुली खेती में मूंगफली, काली दाल जैसी नई फसलें जोड़कर देखना चाहते हैं। रमेश को यकीन है कि उनके समुदाय द्वारा सहेजा गया खेती का ज्ञान उनके और उनकी जमीन के लिए फायदेमंद साबित होगा। 


यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 15 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।


बैनर तस्वीर: राम-मोल किसान खरपतवार हटाने के लिए हल्की जुताई जैसी प्राकृतिक खेती तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसे स्थानीय भाषा में विखेड़ा कहा जाता है। तस्वीर- सात्विक-प्रमोटिंग इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर के सौजन्य से।

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